DAIHIK CHAHAT - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

दैहिक चाहत - 3

उपन्‍यास भाग—3

दैहिक चाहत – 3

आर. एन. सुनगरया,

शीला ने अपने आपको इस कदर व्‍यस्‍त कर लिया, किसी का साहस ही नहीं होता कि कोई उसे फुरसत के क्षणों में अपने घर परिवार की स्‍वाभाविक समस्‍याऍं, परस्‍पर आदान-प्रदान कर सके। मगर इस चकबन्‍ध वातावरण में भी देव ने सेन्‍ध मारने की चेष्‍टा की, कहा, ‘’अधिकॉंश एम्‍पलाई ऑफिसियली काम को सामान्‍यता औपचारिकता जैसा ट्रीट करते हैं। मगर शीला तुमने तो अपने-आपको ऑफिसियली काम की भट्टी में पूर्णत: झौंक दिया है।‘’

शीला शॉंत भाव व चुभती हुई नज़रों से देवजी को ताकती है। देवजी का अन्‍त:करण, अज्ञात भय से सहम जाता है; शायद शीला उसकी मनोभावना समझकर कुछ प्रतिक्रिया देना चाह रही है, मगर वह खामोश ही नि‍र्विकार देवजी को घूरती रही, जैसे कुछ अस्‍पष्‍ट लकीरें पढ़ रही हो।

कुछ क्षण माहौल में काफी-कुछ भारीपन लिये, सन्‍नाटा रहा, देवजी ने ही, वातावरण को हल्‍का किया, ‘’कुछ चेन्‍ज, मन बहलाव, हंसी-हल्‍की-फुल्‍की बात-चीत, देश-विदेश, सामाजिक अथवा अन्‍य विषय जो मन चाहे........पर विचार-विमर्श, ये सब जरूरी है, मानसिक रेफरेशन के लिये।

‘’हॉं ठीक कहा आपने!’’ शीला ने अपने मन-मस्तिष्‍क को कुछ रिलेक्‍स किया।

देवजी को अपूर्व प्रसन्‍नता-प्रफुल्‍लता हुई, खुशी का संचार हुआ, शरीर व हृदय में। देवजी को लगने-लगा कि वह अपने-आप तथा अपने अतीत के विषय में बता कर अपना मानसिक बोझ हल्‍का कर सकेगा। ना जाने क्‍यों, देवजी अपनी बीती जिन्‍दगी के प्रत्‍येक पहलू से शीला को अवगत कराना चाहता है। इसके लिये देव जी बहुत ही उतावले हो रहे हैं। सम्‍भवत: यह फीलिंग शीला के अतीत को सुनकर समझ कर, जानकर, तीव्र जिज्ञासा उत्‍पन्‍न हो रही है, कब अवसर मिले और वे अपनी दास्‍तान सुनाने बैठ जायें।

शीला ने देवजी को अपनी कहानी मोटा-मोटी सुना दी एवं अपने जीवन का मकसद भी समझा दिया। दृढ़ता से लक्ष्‍य हासिल करना ही मुख्‍य कार्य है।

देवजी को जैसे अधिकृत तौर पर अधिकार प्राप्‍त हो गया, अपनी जीवन गाथा, अथवा अतीत बताने एवं अपने मनोरथ का संकेत बातों-बातों में, शीला की सामान्‍य जानकारी में समाहित करने के अवसर का लाभ उठाने का समय आ गया है। मौन स्‍वीकृति महसूस करके देवजी ने सुनाना शुरू कर दिया,…………

‘’जीवन अनेक उतार-चढ़ाव से गुजरती नदी समान है; जिनमें कुछ तो ऐसे प्रकरण आते हैं, जो अत्‍यन्‍त कष्‍टदायक एवं निरन्‍तर दिमाग को टोंचते रहते हैं। पूर्णत: नंगा यथार्थ।‘’

शीला की जिज्ञासा उत्तरोत्तर बढ़ने लगी, कितना कुछ भोग-भुगत कर, गुजरा है देवजी का जीवन चक्र। शीला को सहानुभूति होने लगी देवजी से, क्‍यों ना उनकी व्‍यथा-कथा, ध्‍यान पूर्वक, गम्‍भीरता से सुन ही ली जाए! देवजी के मन का भार काफी कुछ कम हो जायेगा। शीला ने अपनी दिलचस्‍व व्‍यक्‍त की मुद्रा में कहा, ‘’हॉं बताइऐ, आखिर एैसा क्‍या हुआ आपकी लाइफ में, जिसका दुष्‍प्रभाव आज तक दिमाग पर जमा हुआ है।‘’ शीला ने उसे निसंकोच सब कुछ उगलने हेतु बाध्‍य कर दिया, ‘’मुझसे तनिक भी अपनापन रखते हो तो, स्‍पष्‍ट कह डालो बेधड़क.........दिल-दिमाग से कसैलापन निकल जायेगा। आपको बहुत राहत महसूस होगी।‘’

देवजी को ऐसा लगा, जैसे अपने दिमाग का गुबार निकालने की ताक में ही था, अवसर हाथ लगा है, तो तत्काल प्रारम्‍भ हो गया, ‘’मेरी पत्नि की पहली डिलिवरी में कुछ कॉम्‍पलीकेशन आ गये तथा केस बिगड़ गया। डॉक्‍टर्स अथक प्रयासों के बावजूद भी जच्‍चा-बच्‍चा को बचा ना पाये।

यह दु:खद वाक्‍या मुझे अन्‍त:करण तक झिंझोड़ गया। मैं अर्ध विक्षुप्‍त सा हो गया। मेरे बड़े भाई ने मुझे सम्‍हाला। पिता समान समझाईश देकर, ढाँढ़स देकर, शोकाकुल जकड़न से मुक्‍त कराया।

कुछ दिन पश्‍च्‍चात, सामान्‍य होकर मैंने ड्यूटी पुन: ज्‍वाईन कर ली। मगर वे दृश्‍य-परिदृश्‍य मेरे दिल-दिमाग में स्‍थाई रूप से अंकित हो गये। कह नहीं सकता कि अब भी पूर्ण उभर चुका हूँ।

कुछ महिने ही बीते होंगे कि भाई भी, किसी पुरानी जानलेवा बीमारी का शिकार हो गया। उनके बीवी-बच्‍चों का दायित्‍व भी मेरे कन्‍धों पर आन पड़ा। उनका अनुनय-विनय, निवेदन, प्रार्थना, दया और सहानुभूति की पुकार आज भी मेरे दिल-दिमाग एवं कानों में गूँज उठती है, ‘’देवरजी अब आप ही, इन बच्‍चों के पालनहार हो, पिता समान हो।‘’

भतीजों का मेरे पैर पकड़कर गिड़गिड़ाना, ‘’चाचा हम जीवन भर आपको पिता मानेंगे, आपकी हर बात आज्ञाकारी पुत्र के समान निभायेंगे। आपको कभी अकेलेपन का एहसास नहीं होने देंगे।‘’

मैं उनकी दीर्घकालिक साजिश भरी, फितरत समझ नहीं पाया। उनकी दीन-हीन निराश्रित स्थिति का अभिनव को और आवभगत को सच समझ बैठा, द्रवित हो गया, हृदय से ऑंसू बनकर पवित्र गंगा-जमना बहने लगी, मैंने भी अत्‍यन्‍त भावुक होकर, भावावेश में प्रण ले लिया, ‘’तुम कभी अपने-आपको बेसहारा, निरीह, अकेला मत समझना, मैं हूँ, मेरी छत्र-छाया हमेशा तुम्‍हारी सुरक्षा करेगी। किसी तरह की कोई अड़चन अथवा अभाव कभी भी नहीं आने दूँगा। चाहे मुझे कुछ भी क्‍यों ना करना पड़े। समझे! जाओ अपना-अपना कैरियर बनाने में जुट जाओ........’’

शीला को क्षण भर तो एैसा प्रतीत हुआ, जैसे कुछ दृश्‍य मेरे अतीत से मेल खाते से लगते हैं, रिश्‍तों से उपजीं भावनाओं से ओत-प्रोत..........

‘’उन्‍हें अनाथ जिन्‍दगी से बचा लिया आपने। बहुत ही नेक-नियत से.......।‘’

‘’नेक-नियत, पर.......।‘’ देवजी विफर पडे़, ‘’मेरी नियति क्‍या हुई, वह तो सुनो........।‘’ वे आगे बताने लगे......

.......भावनाओं के बन्‍धन में बंधा पूर्ण मर्यादित, निर्मल हृदय से, दीन-ईमान के साथ कठोर कर्त्तव्‍यों को निवाहने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहा था।

आवश्‍यकता अनुसार निश्चित समय पर उनकी प्रत्‍येक मॉंगों की पूर्ती करता। शिक्षा पूरी होने के उपरान्‍त भतीजों को सम्‍मान जनक विजनेस स्‍थापित किया, मुख्‍य बाजार में, स्‍वयं की शॉप खरीद कर, हमेशा-हमेशा के लिये चिन्‍ता दूर कर दी। कौन करता इतना।

पुस्‍तैनी मकान, जो पुराने ढर्रे पर निर्मित था, उसे अत्‍याधुनिक सुविधाओं से युक्‍त करके, नवीन निर्माण करवाया। अच्‍छा-खासा महल अथवा बंगले जैसा दिखाई देता है। स्‍तरीय परिवार का रूतवा स्‍थापित किया, ताकि सामाजिक मान-सम्‍मान एवं पूछ-परख बनी रहे।

आर्थिक रूप से कारोबार सुदृढ़ हो गया, अच्‍छी चल निकली ग्राहकी शहर की गिनी-चुनी संस्‍थानों में गिनती होने लगी; कम है क्‍या !’’

‘’अच्‍छा ही है, उन्‍नति हुई.....।‘’

‘’हॉं यही तो मैं समझा......मेरी उन्‍नति हुई।‘’

देवजी के चेहरे पर रहस्‍यमयी परछाईयॉं उभर आईं। उन्‍होंने रहस्‍योद्घाटन किया, ‘’मैंने सोचा अब नौकरी करने की जरूरत नहीं, सब कुछ सेट हो चुका है। अपने पुरखों के घर में इत्मिनान से भाभी-भतीजों के साथ रहेंगे आराम एवं अमन-चैन से....।‘’

‘’रहे क्‍यों नहीं।‘’ शीला ने भोलेपन से पूछा और देवजी को ताकने लगी।

‘’बातों-बातों में मैंने भतीजों-भाभी के मन की टोह ली, उनकी मंशा जानी जाये! उनका जवाब आया, ‘’हॉं हॉं, क्‍यों नहीं आप तो गद्दी पर बैठिऐ, हम हैं ना, दौड़-धूप करने हेतु, और बढ़ायेंगे कारोबार........।‘’

भाभी ने भी समर्थन किया दोस्‍त यारों एवं हितैसियों ने भी सलाह एवं प्रोत्‍साहन दिया, ‘’ठीक! बहुत कमा लिया।अब खुशी-खुशी.......शुकून से जीवन बिताओ।‘’

सारी बातों एवं परिस्थितियों पर विचार, मनन, मंथन करके; मैंने सोचा-अपने जन्‍म स्‍थान पर बसने का आनन्‍द एवं सुख ही अभूतपूर्व होता है। इससे अच्‍छी और क्‍या प्‍लानिंग होगी।

सभी की मंशा-मनोभावना के अनुरूप एकल निर्णय कर लिया। क्‍यों ना स्‍वैच्छिक सेवा निवृत्ति लेकर घर वापस चला जाये। हर्षोल्‍लास पूर्वक इस दिशा में तैयारी प्रारम्‍भ कर दी।

व्‍ही.आर. के लिये अप्‍लाई बाद में करेंगे। पहले अपनी गृहस्‍थी का घरेलू साजो-सामान समेट कर अपने होम टाऊन शिफ्ट करना शुरू कर देता हूँ। एक-एक करके इतना सामान इकट्ठा हो गया, पता ही नहीं चला। योजना अनुसार ट्रान्‍सपोर्ट्स को मुकर्र कर लिया। उसने अपना काम भी शुरू कर दिया, पेकिंग वगैरह।

सामान रवाना होने के पश्‍च्‍चात् मैं भी ट्रेन द्वारा अपने घर के लिये रवाना हो लिया।

इत्तेफाक से सामान पहॅुंचने के साथ ही मैं भी पहुँच गया।

...............भतीजों को कहा, ‘’उतरवा लो सारा सामान, जमा लो सुविधानुसार, अपने घर में। आप लोगों की खुशहाली के लिये मैं भी तुम्‍हारे साथ यहीं रहूँगा। नौकरी छोड़कर।‘’

मुझे लगा, भतीजों को सॉंप सूँघ गया। सुन्‍न पड़ गये। कुछ बोलते नहीं बन रहा था। बोलना तो पड़ा, ‘’चाचा जी, घर में इतना सामान कहॉं रखेंगेᣛ ? पूरा घर भर जायेगा, तो रहेंगे कैसे।‘’

‘’हॉं देवरजी।‘’ भाभी ने उनके सुर में सुर मिलाया, ‘’आपने बहुत जल्‍दी कर दी, सामान लाने में।‘’ भाभी भी कूद पड़ी भतीजों के समर्थन में।

‘’लेकिन..........।‘’ भाभी की ओर देखा। चेहरे के बुझे-बुझे भाव पढ़कर देवजी खामोश हो गये।

‘’लेकिन क्‍या........।‘’ भाभी ने काफी रूखे और क्रोधित ध्‍वनि में कहा, ‘’और कंसट्रक्‍शन करना होगा, तभी सब रह पायेंगे।‘’

‘’मैंने तो तुम लोगों से सलाह मशवरा किया था।‘’ मैं अपने-आपको बैचारा, शक्तिहीन, निसहाय समझ रहा था।

‘’क्‍या हम जानते थे, आप तत्‍काल ही एक्‍शन ले लेंगे.....वह तो हमने, औपचारिता वश हॉंमी भर दी थी, आपको खुश करने हेतु।‘’

‘’इसका यह मतलब तो नहीं कि ये सब आपका हो गया, चले आये सामान लेकर..........।‘’

‘’मेरे बाप-दादों की सम्‍पत्ति है।‘’ मेरी ऑंखों में ऑंसू रूक नहीं पा रहे थे। मैं बहुत ही भावुक हो रहा था।

‘’होगी कभी! अब तो हम सम्‍हाल रहे हैं।‘’

‘’सम्‍हालने भर से तुम्‍हारी जायदाद हो गई क्‍या।‘’ मेरे स्‍वर में क्रोध मिश्रित था, ‘’मालिक हो गये हैं....?’’

‘’हम देख-भाल कर रहे हैं।‘’ भतीजे ने भी ताव दिखाया, ‘’तो हमारी ही हुई ना ?’’

‘’मैंने, जो इतना पैसा लगाया इसमें, तुम्‍हारा धन्‍धा भी जमाने में पूँजी लगाई, वह सब बेकार, डूब गई।‘’

‘’आप ले लेना अपना पैसा।‘’

रिश्‍तों को नजर अन्‍दाज करते हुये, भतीजे अमर्यादित भाषा और बरताव पर उतर आये। मैंने भाभी की ओर आशा भरी नजरों से देखा, वह ऑंखें फेरकर, मुण्‍डी घुमाई एवं चल दी।

मुझे एहसास हुआ, मेरे साथ भावात्‍मक धोखा हुआ है, इसके आगे बढ़ना अनुचित है। अपनी इज्‍जत अपने हाथ, नेकी कर कुँये में डाल। चुप रह गया अपमान के घूँट पीकर..........।

न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍

क्रमश:---4

संक्षिप्‍त परिचय

1-नाम:- रामनारयण सुनगरया

2- जन्‍म:– 01/ 08/ 1956.

3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्‍नातक

4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से

साहित्‍यालंकार की उपाधि।

2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्‍बाला छावनी से

5-प्रकाशन:-- 1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्‍यादि समय- समय

पर प्रकाशित एवं चर्चित।

2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल

सम्‍पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्‍तर पर सराहना मिली

6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्‍न विषयक कृति ।

7- सम्‍प्रति--- स्‍वनिवृत्त्‍िा के पश्‍चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं स्‍वतंत्र

लेखन।

8- सम्‍पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.)

मो./ व्‍हाट्सएप्‍प नं.- 91318-94197

न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍

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