भूटान कैसे बना खुशहाल? Anand M Mishra द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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भूटान कैसे बना खुशहाल?

भूटान! एक छोटा-सा देश! खुशहाली से भरपूर! कैसे बना आनंदित राष्ट्र? हमारे एक सहकर्मी ने अनौपचारिक बातचीत में बताया। भूटान में ‘आनंद मंत्रालय’ है। यह मंत्रालय वहां की जनता के सुखमय जीवन के लिए काम करता है। जनता प्रसन्न कैसे रह सकती है? इस पर ध्यान अधिकारी समूह देते हैं। बात भी सही है। हर मानव अपने जीवन में ‘आनंद’ चाहता है। यह जीवन ‘सुखमय’ बीते। यदि जनता प्रसन्न है तो आध्यात्मिकता तथा देशभक्ति अपने आप आएगी। यदि प्रसन्न नहीं है तो आध्यात्मिकता तथा देशभक्ति की भावना आज के भौतिकवाद में दब जायेगी। प्रसन्न रहने से सकारात्मक विचार की भावना बलवती होगी। वातावरण सौहार्दपूर्ण होगा। अतः जनता प्रसन्न रहे - यह भावना एक अच्छे शासन-तंत्र की रीढ़ होनी चाहिए। वहां अर्थव्यवस्था को मापने का पैमाना ‘सुखमय की अवस्था’ है न कि सकल घरेलू उत्पाद। इसके उलट हम अपने इस महान देश में ‘मुफ्त’ तंत्र को फलते-फूलते देखते हैं। हमारे देश के नीति-निर्माता हर क्षण-हर पल जनता को क्या मुफ्त में दिया जाए – इसकी नीति बनाते रहते हैं। चुनाव के समय इस बात का जोर दिखाई देता है। किस राजनीतिक दल ने कितना मुफ्त में देने का वादा किया। यह बात महत्वपूर्ण हो जाती है। मुफ्त में कोई भी वस्तु या सेवा निरंतर देते रहने से जनता आलसी हो जाती है।

एक और मजेदार बात यह भी निकली कि वहां की जनता बैंक से कर्ज नहीं लेती। इसका अर्थ इससे लगाते हैं कि कर्ज लेने की आवश्यकता वहां की जनता को नहीं है। यदि कोई ऋण लिया है तो वह प्रसन्न नहीं रह सकता। साथ ही शिक्षा-व्यवस्था में वहां की जनता सरकारी विद्यालय में अपने बच्चों को डालना अधिक पसंद करते हैं। सरकारी विद्यालयों में सभी के पढने से एक समान समाज का निर्माण होगा। अपने देश में अभी दो प्रकार के समाज का निर्माण हो रहा है। एक समाज जो निजी विद्यालयों में पढाई करते हैं तथा दूसरा जो सार्वजनिक विद्यालयों से पढ़कर निकलते हैं। दोनों प्रकार के विद्यालयों की गुणवत्ता भी अलग होगी। समाज में एक लक्षमण-रेखा की अवस्था आ जाती है। साथ ही भूटान के राजा आम जनता का सम्मान करने के लिए किसान परिवार में ही शादी करते हैं।

जहाँ का शासक इतना कुछ अपने देश के लिए सोचे तो निश्चित रूप से वह देश खुशहाल बनेगा ही। अपने देश में तो कभी-कभी ऐसा लगता है कि हमें बातचीत करने के लिए भी नहीं आता है। बैंक, रेलवे स्टेशन, किसी भी दफ्तर आदि में जिस तरह से अधिकारी, लिपिक आदि बातचीत करते हैं, उससे मन खट्टा हो जाता है। ‘सेवा’ किस प्रकार की जानी चाहिए-इस बात का पूर्व तथा पूर्ण प्रशिक्षण भी लगता है कि नहीं दिया जाता होगा। अधिकारियों तथा कर्मचारियों की आदेशात्मक एवं कड़क आवाज सुनकर मन बैठ जाता है। छोटे से छोटे कार्य के लिए भी सरकारी दफ्तरों में जाने से मन घबरा उठता है। लगता नहीं है कि ये सब लोकसेवक हैं। लोकसेवकों को बड़े-छोटे का भी ध्यान नहीं रहता है। केवल सरकारी लोकसेवकों को ही दोष देना पर्याप्त नहीं है। हम भारतीय भी कानून का मजाक उड़ाने में पीछे नहीं रहते हैं। कोरोना महामारी के दौर में हमने देखा है कि कोरोना के मानक प्रक्रिया के पालन नहीं करने के कारण दूसरी लहर देश में आ गयी। यदि हम सभी मानक प्रक्रिया का उचित रूप से पालन करते तो कोरोना से जानमाल का नुकसान नहीं होता। हमारे कृत्य निश्चित तौर पर हमें एक समाज के तौर पर विकसित होने से रोकते हैं। कहीं न कहीं हमारे अंदर ये बात घर कर गई है कि हमें स्वार्थी होने का पूरा हक़ है। क्योंकि हम पैसे खर्च करते हैं। यह पूरी तरह से गलत धारणा है कि हम जो चाहें कर सकते हैं। कब हम अपने आसपास के लोगों से सहानुभूति रखना सीखेंगे। कम से कम सार्वजनिक जगहों पर ही सही। हमारा देश भी आगे बढे तथा भूटान आदि छोटे देश से कुछ सीखे।