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लू में कवि

लू में कवि

यशवन्त कोठारी

तेज गरमी है। लू चल रही है। धूप की तरफ देखने मात्र से बुखार जैसा लगता है। बारिश दूर दूर तक नहीं है। बिजली बन्द है। पानी आया नहीं है, ऐसे में कवि स्नान-ध्यान भी नहीं कर पाया है। लू में कविता भी नहीं हो सकती, ऐसे में कवि क्या कर सकता है? कवि कविता में असफल हो कर प्रेम कर सकता है, मगर खाप पंचायतों के डर से कवि प्रेम भी नहीं कर पाता। कवि डरपोक है मगर कवि प्रिया डरपोक नहीं है, वह गरमी की दोपहर में पंखा लेकर अवतरित होती है, कवि की गरमी कम हो जाती है। वापस चारपाई पर गिर कर छत को देखने लग जाता है। तेज गरमी में उसका मन होता है कि बिजली विभाग को गालियां दे, मगर बिजली वालों पर कोई असर नहीं होता। नलों में भी पानी नहीं है। वह नहा भी नही सकता। बिन नहाये कविता भी नहीं हो सकती। कवि कविता की धौंस सरकार को देता है, मगर सरकार कवि कि धौंस पट्टी में नहीं आती। सरकार सीधे सम्पादक से बात करती है और कवि को एक तरफ सरका देती है।कवि तेज लू के थपेड़ों में पड़ा पड़ा चिन्तन करता है वह नल की तरह सूं सूं करने लग जाता है। उसे बिजली की याद फिर आती है, कवि मन मसोसता है। लू फिर चल रही है। बाहर अमलतास के पीले फूल खिल रहे है। इस भयंकर गर्मी में केवल अमलतास ही मुस्करा सकता है.

कवि खिड़की से उदास निगाहों से अमलतास को देखता है। बिना नहाये ही अमलतास के पुप्प-गुच्छ कवि को बहुत अच्छे लग रहे है, कवि उदास है बिजली नहीं है, पानी नहीं है मगर अमलतास खिल रहा है, कवि भावुक हो गया है। कविप्रिया कच्ची कैरी, आम, खरबूज, लीची, फालसे, ठण्डाई की चर्चा छेड़ती है, गरमी कुछ कम होती है, मगर बिजली बन्द है , कवि को गांव के पनघट की याद आती है। कवि परेशान होन लगा। काश कविप्रिया के स्थान पर बिजली, विधुत, इलेकट्रिक तरंगे आ जाती।कवि पहाड़ों पर जाना चाहता था मगर कविता की जुगाली से कुछ नहीं मिलता। कवि विधुत चिन्तन जारी रखता है। कवि अखबार से हवा करने लगा। अखबार में समाचारों की हवा पहले से ही निकली हुई है। पुराने बलात्कार, घोटालों , गपलों, भ्रष्टाचारों के ताजा समाचारों से कविता नहीं बनती। नेता एक दूसरे को निष्ठावान बता रहे है, और गरमी में ए.सी. में बैठ कर अपनी अपनी तोंद पर हाथ फेर रहे है। कवि गरमी में फिर उदास हो जाता है। कवि का मटका खाली है। कवि ने सपने देखना शुरु कर दिया है। सपने में कवि ने देखा बिजली आ गई है, नल में पानी भी है कवि रगड़रगड़ कर नहाया। ताजा हो गया मगर सपना टूटते क्या देर लगती है। बाहर लू और भी तेज हो गई है, बेचारा कवि कविता छोड़ कर व्यंग्य की शरण में आ जाता है वो सरकार के खिलाफ एक धारदार, तेज तर्रार सम्पादकीय लिख मारता है जो पाठकों के पत्र कालम में अवतरित होता है, मगर लू का कहर जारी है। अब कवि क्या करे ।

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यश वन्त कोठारी

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