छत्रसाल और वैद्यनाथ जी दोनों ने ही महाराज अपार का पुतला बनाना प्रारम्भ कर दिया,दोनों प्रातः से सायं तक तलघर में यही कार्य करते और पुतले को तलघर में ही घास के तले छुपाकर बाहर आ जाते,ये कार्य दोनों को छुप छुपकर करना पड़ रहा था कि कहीं किसी को कोई सूचना ना मिल जाएं, छत्रसाल भी बहुत ही निपुण था इस कार्य में और स्वभाव का भी सरल और सादा व्यक्ति था।।
उसने अपने कार्य और अपने स्वभाव के कारण शीघ्र ही सबका हृदय जीत लिया,चार पाँच दिंनो में ही पुतला तैयार हो गया,बस कुछ अंतिम कार्य शेष बचा था,तभी नागदेवता ,छत्रसाल से बोले____
भाई! मुझे भी तो तुम्हारा बनाया हुआ पुतला दिखाओं,मैं भी तो देखूँ वो वैसा ही बन रहा है जैसा कि वैद्यनाथ जी ने महाराज अपार के पुतले को देखा था।।
जी, नागदेवता! केवल आज रात्रि तक प्रतीक्षा कीजिए, सायंकाल तक पुतला आपके समक्ष होगा,तब आप स्वयं देखकर बता दीजिएगा कि पुतला वैसा ही है जैसा वैद्यनाथ जी चाहते थे,छत्रसाल बोला।।
ठीक है, तो कर लेते हैं सायंकाल तक प्रतीक्षा,नागदेवता बोलें।।
जी,नागदेवता! आज सायं ही पुतले का कार्य समाप्त करना होगा क्योंकि कल ही मौनी अमावस्या है, कल रात्रि ही हमारे पास उचित अवसर है इस कार्य को सम्पन्न करने का ,छत्रसाल बोला।।
ठीक कह रहे हो मित्र! मैं तनिक सहस्त्रबाहु की अवस्था भी देखकर आता हूँ, अब कदाचित वो पूर्णतः स्वस्थ हो गया है, कल रात्रि को सहस्त्र और भालचन्द्र दोनों ही इस कार्य को पूर्ण करने जाएंगे, नागदेवता बोले।।
जी नागदेवता! ईश्वर की इच्छा हुई तो इस कार्य में हम सब अवश्य सफल होगें, छत्रसाल बोला।।
अवश्य हम सफल ही होंगे वो इसलिए कि हम सब सत्य के मार्ग पर चल रहें हैं, इसलिए सफलता तो मिलनी ही हैं, नागदेवता बोले।।
अच्छा अब मैं सहस्त्र से मिलकर आता हूँ और उसको कल रात्रि की योजना के विषय में भी सब कह दूँगा, नागदेवता बोले।।
जी,नागदेवता, छत्रसाल बोला।।
और उधर सोनमयी और सहस्त्र के मध्य वार्तालाप चल रहा था___
किस सोच में डूबी हो देवी! सहस्त्र ने सोनमयी से पूछा।।
यही कि अब तुम स्वस्थ हो गए हैं, अब तुम्हें मेरी आवश्यकता नहीं, सोनमयी बोली।।
ये किसने कह दिया कि मुझे अब तुम्हारी आवश्यकता नहीं, अब तो मुझे तुम्हारी और भी आवश्यकता पड़ेगीं देवी! मेरा हृदय तो ये चाहता है कि तुम सदैव मेरे समक्ष यूँ ही बैठी रहों और मैं तुम्हें सदैव यूँ ही निहारा करूँ, तुम्हें ज्ञात नहीं प्रिऐ! तुम मेरी आवश्यकता नहीं,तुम मेरा जीवन बन गई हो,तुम्हारे संग के बिना मैं एक क्षण भी जीने के लिए नहीं सोच सकता,तुम मेरा प्रेम स्वीकार करों या ना स्वीकार करों, किन्तु मैं सदैव तुमसे ही प्रेम करता रहूँगा और ये कहते कहते सहस्त्रबाहु की आँखें भर आईं।।
तुम सत्य कह रहे हो सहस्त्र! मैं कहीं तुम्हारा प्रेम स्वीकार कर लूँ तो तुम मुझे छोड़ दो ना दोगें, सोनमयी ने पूछा।।
ऐसा कदापि ना होगा प्रिऐ!....ऐसा कदापि ना होगा,ये विचार तो मेरे स्वप्न में भी कभी नहीं आ सकता,सहस्त्र बाहु बोला।।
मैं बहुत ही दुविधा में हूँ, इस विषय पर कोई भी उचित निर्णय नहीं ले पा रही हूँ, सोनमयी बोली।।
क्या हुआ सोनमयी! किस दुविधा में हो और कौन सा निर्णय लेना चाहती हो,नागदेवता दोनों के निकट आकर बोलें।।
यही नागदेवता कि सहस्त्र पूर्णतः स्वस्थ तो हो गया है किन्तु अभी ये घोड़े पर सवारी करने के योग्य नहीं है, सोनमयी बोली।।
किन्तु कल रात्रि तो मैं इसे भालचन्द्र के संग शीशमहल भेंजना चाहता था,अब ये कार्य और कौन कर सकता है, ये सोचना पड़ेगा, नागदेवता बोले।।
मैं स्वस्थ हूँ नागदेवता! ये तो ऐसे ही भयभीत हो रही है,सहस्त्र बोला।।
नहीं! तुम स्वस्थ नहीं हो,मैं सत्य कह रहीं हूँ, सोनमयी बोली।।
तो क्या भालचन्द्र को अकेले ही भेजना पड़ेगा शीशमहल, नागदेवता बोले।।
नहीं,नागदेवता! राजकुमार अकेले कदापि शीशमहल नहीं जाएंगें, मैं उनके संग चली जाती हूँ, सोनमयी बोली ।।
तुम ये कार्य कर लोगी पुत्री! नागदेवता ने पूछा।।
जी,नागदेवता! अवश्य कर लूँगी, सोनमयी बोली।।
तो ये निश्चित रहा कि कल रात्रि तुम जाओगी भालचन्द्र के संग,नागदेवता बोले।।
परन्तु, नागदेवता! मैं अब स्वस्थ हूँ, मैं वहाँ जाने योग्य हो गया हूँ,क्यों सोनमयी अपने प्राण संकट में डालेगी? सहस्त्रबाहु बोला।।
उसे ही जाने दो,यदि उसकी यही इच्छा है तो,उसे भी अपना साहस दिखाने का अवसर तो,नागदेवता बोले।।
ठीक है आप कह रहे है तो,किन्तु मुझे भय लग रहा है, सहस्त्रबाहु बोला।।
भय कैसा वो एक वीरांगना है, उसे भी अस्त्र और शस्त्र का ज्ञान है, तुम चिंतित ना हो वो अवश्य ही कार्य में सफल होगी, और अब मैं जाकर सबको सूचित करता हूँ कि कल शीशमहल सोनमयी और भालचन्द्र ही जाएंगे और इतना कहकर नागदेवता चले गए।।
तुम क्यों जाना चाहती हो,क्यों संकट मोल ले रही हो,सहस्त्र ने सोनमयी से पूछा।।
मैं तुम्हारे प्राण भी तो संकट में नहीं डाल सकती,सोनमयी बोली।।
परन्तु क्यों, सहस्त्र ने पूछा।।
है कोई कारण,सोनमयी बोली।।
कारण तो बताओ,कहीं मुझसे प्रेम तो नहीं....., सहस्त्र बोलते बोलते रह गया।।
कभी और बताऊँगी कारण,अभी मैं यहाँ से जाती हूँ, सोनमयी बोली।।
कुछ तो बताकर जाती,सहस्त्र बोला।।
कभी और ....ऐसा कहकर सोनमयी चलीं गई और सहस्त्र मन ही मन हँस दिया।।
सूर्यास्त हो चुका था,सायंकाल का भोजन कुछ शीघ्र ही हुआ और लगभग जब अँधेरा कुछ गहराने लगा तभी,नागदेवता, नागरानी, विभूतिनाथ जी,वैद्यनाथ जी,सहस्त्र,सोनमयी छत्रसाल और भालचन्द्र सभी तलघर महाराज अपार का पुतला देखने पहुँचे, भीतर प्रकाश कुछ मन्द था इसलिए नागदेवता ने उचित प्रकाश के लिए अपनी नागमणि निकाली,जिससे तलघर में प्रकाश का प्रसार हो गया।।
जैसे ही सबने पुतले को देखा तो सबकी आँखें मारे प्रसनन्ता के चमक उठीं,काठ का पुतला महाराज के पुतले के ही समान दिख रहा था,ये बात विभूतिनाथ जी ने प्रमाणित की क्योंकि उन्होंने और वैद्यनाथ जी ने ही उन्हें ऐसी अवस्था में देखा था।।
सबने पुतला देखा और वहाँ से चले आएं, इसके उपरांत विश्राम करने लगे किन्तु भालचन्द्र अत्यधिक चितिंत था कि वो कल सब कैसे कर पाएगा, सब उस कितना विश्वास करते हैं उसे इस कार्य को सफल करना ही होगा,महाराज अपार के पूर्व रूप में आने पर बहुत सी समस्याओं का समाधान हो सकता है और यही सोचते सोचते भालचन्द्र को निंद्रा ने घेर लिया।।
उधर सोनमयी और सहस्त्र के मध्य भी वार्तालाप हो रहा था___
सोनमयी! तुमने मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया,सहस्त्र ने पूछा।।
क्या उत्तर दूँ? तुम्हारे प्रश्न का,सोनमयी ने पूछा।।
मेरा प्रेम स्वीकार है या नहीं, सहस्त्र ने पुनः पूछा।।
ये तुम्हें समय आने पर ज्ञात हो जाएगा, सोनमयी बोली।।
बता दो ना! सहस्त्र ने कहा।।
नहीं, अभी मैं जा रही हूँ,कल बहुत बड़ा कार्य करना है तो तनिक विश्राम कर लूँ और सोनमयी इतना कहकर चली गई।।
प्रातः हुई और सब अधीर होकर रात्रि होने की प्रतीक्षा करने लगें,जैसे दिन ढ़ल रहा रहा था सभी कुछ चितिंत से हो जाते थे कि भालचन्द्र इस कार्य में सफल होगा कि नहीं।।
तभी नागदेवता ने ये विचार किया कि वे भी उनके संग शीशमहल तक जाएंगे, उन्हें मार्ग दिखाते हुए चलेगें कि वे शीशमहल शीघ्र ही पहुँच सकें,यदि वे मार्ग से भटके और उन्हें शीशमहल का मार्ग खोजने में कठिनाई हुई तो और अधिक बिलम्ब हो जाएगा।।
सबने अपनी अपनी सहमति जताकर कहा कि यही उत्तम रहेगा।।
सबकी प्रतीक्षा समाप्त हुई और रात्रि होने पर कुछ रस्सियाँ,काठ का पुतला और अपने अस्त्रों के संग भालचन्द्र और सोनमयी सबका आशीर्वाद लेकर अपने अपने घोड़े पर सवार होकर शीशमहल की ओर चल पड़े और आगे आगें नागदेवता सर्प रूप मे ,उन्हें मार्ग दिखाते जा रहे थे।।
कुछ समय पश्चात तीनों ही शीशमहल के समक्ष थे तब नागदेवता बोले हम अभी बाहर ही दोनों बहनों की इस महल से निकलने की प्रतीक्षा करते हैं, तब हम भीतर जाकर अपना कार्य प्रारम्भ करेंगें।।
और वे सब झाड़ियों में छिप गए और घोड़े को शीशमहल से बहुत दूर बाँधकर आएं तकि किसी को कोई संदेह ना हो और कुछ समय के उपरांत दोनों बहनें बाहर निकलीं,तभी अम्बालिका ने अपने पीछे लगें सैनिकों से कहा कि सभी सैनिक हमारे संग हमलोंगों की सुरक्षा हेतु चलेंगे,कुछ को छोड़कर,केवल दो चार लोग ही महल की सुरक्षा में रहेगें, हम दोनों शीघ्र ही लौटेगें।।
दोनों अपनी अपनी पालकी में बैंठी और निकल पड़ी समाधि की ओर।।
ये ही अच्छा अवसर था,उन दोनों के जातें ही,तीनों ने अपना अपना कार्य प्रारम्भ कर दिया,द्वारपालों को नागदेवता अपने विष द्वारा अचेत कर वे महल के भीतर पहुँचे,
नागदेवता दोनों से बोले कि चिंता ना करों,ये मैने अपने विष का केवल एक ही भाग प्रयोग किया है, इससे ये मृत नहीं केवल अचेत होगें और अम्बालिका के आने तक ये सभी सचेत हो जाएंगें और इन सबको ये भी ज्ञात नही होगा कि कुछ हुआ था और हम भी अपना कार्य सरलता से कर पाएंगे।।
वहाँ कुछ ही सैनिक पुतले की रक्षा के लिए इधर उधर भ्रमण कर रहे थे,उन्होंने उन्हें भी अचेत कर दिया ,किसी को कुछ भी ज्ञात नहीं हुआ और उन्होंने काठ के पुतले को वहाँ रखा और महाराज अपार का पुतला सावधानी पूर्वक उठाया और शीशमहल से बाहर आ गए।।
नागदेवता ने महाराज के पुतले को रस्सियों द्वारा सावधानी से भालचन्द्र के पीछे बाँध दिया और बोले कि मेरा मन नहीं मान रहा है, जब यहाँ तक आएं ही है तो मैं रानी जलकुम्भी को सूचित करके आता हूँ कि हमने महाराज को स्वतंत्र करा लिया है,वो इस समाचार को पाकर अति प्रसन्न होंगीं।
भालचन्द्र बोला,ठीक है नागदेवता, मैं और सोनमयी यहाँ से जाते हैं और वे दोनों अपने अपने घोड़े पर सवार होकर चल पड़े और नागदेवता रानी जलकुम्भी को समाचार देने चले गए।।
दोनों अपने घोड़े पर सवार होकर चले ही जा रहें थें कि महल के कंगूरे पर पहरा दे रहें एक सैनिक ने उन्हें जाते हुए देख लिया और उसने अपने भाले से दूर से ही प्रहार किया,परन्तु अँधेरे में दोनों के घोड़े आँखों से ओझल हो गएं चूँकि सोनमयी पीछे थी इसलिए वो भाला सीधा जाकर उसे ही लगा किन्तु, मुँह से केवल थोड़ी सी आह निकली और वो चुप हो गई, उसने उस समय कुछ भी ना कहना उचित समझा उसे लगा कि महाराज का पुतला गंतव्य तक सुरक्षित पहुँचना अति आवश्यक है यदि वो यहाँ क्षण भर भी ठहरें तो उनकी योजना विफल हो जाएगी।।
चन्द्रभाल और सोनमयी का घोड़े भागते रहें,चन्द्रभाल का घोड़ा कुछ आगें निकल चुका था,परन्तु अब सोनमयी से पीड़ा असहनीय हो गई थीं,वो अब और आगें ना बढ़ सकीं और मूर्छित होकर घोड़े से धरती पर गिर पड़ी,घोड़ा भी सोनमयी के निकट ही ठहर गया,वो आगें ना बढ़ सका,भालचन्द्र को भी गंतव्य पहुँचने की शीघ्रता थी इसलिए उसने भी मुड़कर पीछे नही देखा,उसे लगा कि सोनमयी पीछे आ ही रही होगी और वो जब अपने गंतव्य पहुँचा तो पुतले को देखकर सब अत्यधिक प्रसन्न हुए और कुछ समय पश्चात ही उन्हें सोनमयी का भी ध्यान आया।।
अब भालचन्द्र चिंतित हो उठा,उसने सोचा कि भला सोनमयी जा कहाँ सकती है, तभी कुछ समय पश्चात नागदेवता घोड़े पर मूर्छित सोनमयी को ला रहे थे,उन्होंने कहा कि वो जब शीशमहल से लौट रहे थे तो उन्होंने मार्ग में देखा कि सोनमयी की पीठ पर भाला लगा है और वो धरती पर मूर्छित अवस्था में गिरी पड़ी थी,इसका अत्यधिक रक्त बह चुका है,यदि शीघ्र ही उपचार ना किया गया तो सोनमयी के प्राणों पर संकट आ सकता है।।
ये सुनकर सहस्त्रबाहु की आँखों से अश्रुओं की धारा बह चली।।
क्रमशः___
सरोज वर्मा...