फूलझर वन जहाँ के फूल कभी भी कुम्हालाते नहीं थे,फूलझर वन सदैव किसी ना किसी पुष्पों की सुन्दरता से सुसज्जित रहता था,वहां की धरती पर सदैव पुष्प झड़ कर गिरते रहते हैं, इसलिए उसका नाम फूलझर वन था,वहां की सांझ और सवेरे की सुन्दरता मन मोह लेती थीं, पंक्षियों का कलरव और श्वेत स्वच्छ जल के झरनें वहाँ की सुन्दरता बढ़ाने मे पूर्ण योगदान देते,विशाल वृक्ष सदैव फलों से भरे रहते,वहां की लताएँ दूसरे वृक्षों पर लिपट कर अपना प्रेम प्रकट करतीं,वन मे कुलाँचे भरते मृग स्वच्छंदता से विचरण करते।।
परन्तु एक दिन राजकुमार भालचन्द्र वहाँ आखेट करते हुए पहुंच गया और एक मृग का आखेट कर दिया, उस मृग को जैसे ही वो अपनी गोद में उठाकर जाने लगा,उसी समय पीछे से एक स्वर गूंजा____
ए मृग का आखेट क्यों किया?
तभी भालचन्द्र पीछे मुड़ा और उसने देखा कि एक सुन्दर नवयौवना, जिसकी बड़ी बड़ी कजरारी आंखे,गुलाब के समान ओंठ ,सुराहीदार गरदन और पतली कमर थी और हाथों मे पीतल का कलश था,उसकी सुन्दरता को देखकर भालचन्द्र बस उसे एकटक देखता ही रह गया और मुख से कुछ भी ना बोल सका।।
उस नवयौवना ने पुनः कहा__
ए बहरे हो क्या? सुनाई नहीं दे रहा ।।
किन्तु, देवी! मैने इसका आखेट किया हैं और इस पर मेरा अधिकार हैं,भालचन्द्र बोला।।
अधिकार!किन्तु कैसा अधिकार? इस मूक जीव की हत्या करते हुए तुम्हें तनिक भी लज्जा का अनुभव नहीं हुआ,नवयौवना ने क्रोधित होकर पूछा।।
क्षमा करें, देवी! किन्तु मैं एक राजकुमार हूँ एवं ये मेरा प्राकृतिक स्वभाव हैं, भालचन्द्र बोला।
ये कैसा प्राकृतिक स्वभाव हैं किसी मूक जीव की हत्या करना ,तुम्हें शोभा नहीं देता,अपने बल का ये कैसा प्रदर्शन, जाकर वीरों से युद्ध करो,यदि स्वयं को इतना बड़ा ही योद्धा समझते हो तो,नवयौवना बोली।।
परन्तु, देवी इस वन में इतने मृग हैं, मेरे एक मृग का आखेट करने से इस वन के मृग समाप्त तो नहीं हो जाएंगे, भालचन्द्र बोला।।
ए सुनो,मुझसे निरर्थक वार्तालाप करने से तुम्हें कुछ प्राप्त नहीं होगा, ये मत समझों कि मैं तुम्हें क्षमा कर दूंगी राजकुमार! नवयौवना बोली।।
और नवयौवना कलश धरती पर रखकर भालचन्द्र के हाथों से मृग छीनकर वहीं धरती मे एक गढ्ढा खोदने लगी एवं राजकुमार से बोली___
ऐ खड़े क्या हो,मेरी सहायता करो।
परन्तु क्यों?देवी॥
इस मृत मृग को धरती मे दबाने के लिए,गढ्ढा खोदने हेतु मेरी सहायता करो,नवयौवना बोली।।
और भालचन्द्र, नवयौवना के आदेश का पालन करने लगा,दोनो ने मिलकर मृग को धरती मे दबा दिया,तब वह नवयौवना भालचन्द्र से बोली___
तुम कितने भी वीर योद्धा हों, ऐसे मूक निसहाय प्राणियों के प्राण हर कर तुम्हें कैसी प्रसन्नता मिलती हैं भला! मैं तो बाल्यकाल से इस फूलझर वन मे रहती आई किन्तु किसी भी वन्य को तनिक भी क्षति होती हैं तो मेरा हृदय करूणा से द्रवित हो जाता हैं, मुझे इस वन और इन वन्यजीवों से एक अद्भुत सा स्नेह हैं, इस वन में विचरण करते हुए मुझे और किसी की आवश्यकता ही नहीं होती, नवयौवना बोली।।
अब तो मुझे भी ऐसा ही प्रतीत हो रहा हैं कि इन वन्यजीवों और आपसे एक अद्भुत सा स्नेह हो गया, ऐसा अनुभव हो रहा हैं कि रात्रि को निद्रा रानी मुझसे रूठने वाली हैं,राजकुमार भालचन्द्र बोले।।
ये कैसीं बातें कर रहे हैं राजकुमार !भला आपकी निद्रा रूठने का क्या कारण हो सकता हैं, नवयौवना ने पूछा।।
देवी! ये तो आप अपने रूप एवं सुन्दरता से पूछिए, आपको स्वतः आपके प्रश्न का उत्तर मिल जाएगा।।
ये क्या कह रहे हैं आप,नवयौवना लजाते हुए बोली।।
मै सत्य कह रहा हूँ देवी!आपकी सुन्दरता ने तो मेरा मन मोह लिया हैं और आपकी मधु के समान बातों ने मेरे हृदय को बेध दिया हैं, आज का दिन मेरे लिए बहुत शुभ हैं जो मुझे आपके दर्शन हुए,भालचन्द्र बोला।।
इतना सुनकर नवयौवना बोली___
मैं जा रही हूँ।।
अपना नाम तो बताती जाओ,प्रिऐ!! भालचन्द्र बोला।।
सूर्यप्रभा! और इतना कहकर वो नवयौवना भाग गई।।
और भालचन्द्र मुस्कुराते हुए, जाती हुई सूर्यप्रभा को देखता रहा जब तक वो आंखों से अदृश्य ना हो गई।।
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सूर्यप्रभा मुस्कुराते एवं लजाते हुए अपनी कुटिया मे घुसी ही थीं कि उसकी मां सुभागी बोली____
क्यों पुत्री, कलश कहाँ हैं? तू तो जल भरने गई थी ना।।
हां,मां! भूल गई,सूर्यप्रभा बोली।।
तू तो ऐसे भयभीत होकर भागते हुए आई जैसे कि कोई राक्षस देख लिया हो,सुभागी बोली।।
ना मां राक्षस नहीं राजकुमार को देखा,सूर्यप्रभा बोली।।
तो पुत्री, कैसीं बातें कर रही हैं, राजकुमार को देखकर कोई ऐसे भागता है भला! सुभागी बोली।।
नहीं मां,परन्तु वे आखेट कर रहे थे एवं उन्होंने एक मृग का वध भी कर दिया,अतएव मैं भयभीत होकर वहाँ से भाग आई,चन्द्रप्रभा बोली।।
तू भी ना पुत्री, तुझे तो राजकुमार से कहना चाहिए कि फूलझर वन में वन्यजीवों का आखेट निषेध हैं,सुभागी क्रोधित होकर बोली।।
परन्तु, मां ! मैनें कहा एवं भागकर आ गई ताकि वे मुझसे कुछ ना कह पाएं,सूर्यप्रभा बोली।।
अच्छा!सांझ होने को आईं हैं, चल भोजन की तैयारी कर लें, तेरे बाबा मछलियां पकड़ कर लातें ही होगें, सुभागी बोली।।
अच्छा मां! अभी भोजन की तैयारी करती हूँ, तुम निश्चिंत रहो,चन्द्रप्रभा बोली।।
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फूलझर वन मे सूर्यप्रभा अपने माता पिता के साथ रहती हैं, वो मछुआरों का निवास स्थान हैं, सूर्यप्रभा के पिता वैद्यनाथ भी एक मछुआरे हैं, सभी मछुआरें फूलझर वन की रक्षा करते हैं, यहाँ किसी बाहरी व्यक्ति का आना वर्जित हैं, अतएव आज राजकुमार को किसी मछुआरें ने फूलझर वन में देख लिया था,उसके लिए ही सभी मछुआरों के मध्य वार्तालाप हो रही हैं एवं सूर्यप्रभा को भी बुलाया गया।।
सूर्यप्रभा ने सभी बातें वहाँ उपस्थित मछुआरों से कहीं, किन्तु ये भी कहा कि ये सब उसने भूलवश किया एवं उसने आगे कुछ भी ऐसा किया तो इसकी सूचना वो सबको देंगी।
सूर्यप्रभा की बातें सुनकर सभी को संतुष्टि का अनुभव हुआ,अतएव सब अपने अपने निवास स्थान लौट गए।।
रात्रि हो चुकी थी और सभी अपने बिछौने पर लेट चुके थें,परन्तु सूर्यप्रभा को तो रह रहकर राजकुमार का स्मरण हो आता,राजकुमार थे भी तो कितने सुन्दर, चौड़ा माथा,सुन्दर होंठ और सुडौल शरीर,जो भी देखे बस एक दृष्टि मे उनकें व्यक्तित्व को देखकर धनी हो जाएं, परन्तु मैनें उनका नाम ही नहीं पूछा और ये भी नहीं पूछा कि वे किस राज्य के राजकुमार हैं।।
परन्तु, मैं राजकुमार के विषय में क्यों सोच रहीं हूँ, कदाचित् वे एक राजकुमार हैं एवं मैं एक मछुआरें की पुत्री,मेरा विवाह तो किसी मछुआरें के संग ही होगा,मेरे लिए राजकुमार का स्वप्न देखना उचित नहीं हैं, कहाँ वें और कहाँ मैं, हमारा मेल कैसे हो सकता है और ये सोचते सोचते सूर्यप्रभा को निद्रारानी ने घेर लिया।।
और उधर चन्द्रभाल भी सूर्यप्रभा के विषय मे ही विचार कर रहा था,उसकी आंखो मे तो सूर्यप्रभा का रूप बस गया था और उसकी कामनीय काया ने उसके हृदय में कौतूहल मचा रखा था,उसकी सुन्दरता देखकर उसका हृदय अब वश में नहीं रह गया था,यही सोचते सोचते भालचन्द्र निद्रा मे लीन हो गया।।
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दोपहर का समय था,तेज धूप में फूलझर वन की शोभा और भी सुशोभित हो जाती हैं, पुष्पों का रंग और छटा मन मोह लेती है, झरनों से बहता स्वच्छ जल और उनकी कल कल करती ध्वनि मन मे एक अद्भुत शांति का अनुभव करा जाती हैं, पंक्षियों का कलरव,पहाड़ो सी मौनता, एक अद्भुत ही संगम होता हैं।।
सूर्यप्रभा अपना कलश ढ़ूढ़ते हुए फूलझर वन पहुँची,उसने उस स्थान को खोज डाला जहां कल उसने अपना कलश छोड़ा था किन्तु बहुत खोजने पर ना तो कलश मिला और ना ही राजकुमार,वो उदास होकर एक पुष्प से लदे हुए वृक्ष के तले बैठकर विश्राम करने लगीं, परन्तु ये क्या? तभी उस पर पुष्पों की वर्षा होने लगी,उसने सोचा ये पुष्प स्वयं तो वृक्ष से नही झर सकते,कोई ना कोई अवश्य ही इन्हें वृक्षों से झरा रहा हैं, वो उठी उसने अपनी दृष्टि वृक्ष के ऊपर डाली,देखा तो यह कार्य राजकुमार कर रहे थें,वो राजकुमार को देखकर अति प्रसन्न हुई परन्तु अगले ही क्षण उदास हो उठी॥
क्रमशः__
सरोज वर्मा....