चन्द्र-प्रभा--भाग(२२) Saroj Verma द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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चन्द्र-प्रभा--भाग(२२)

सोनमयी की दशा अत्यन्त गम्भीर थी,सभी स्थिति देखकर सभी चिंतित हो उठे,सहस्त्रबाहु तो जैसे अपनी सुध ही भूल गया था,उसे कुछ भी नहीं सूझ रहा था,उसकी मनोदशा को भालचन्द्र भलीभाँति समझता था और उसने उसे सान्त्वना देने का प्रयास किया, लेकिन ऐसी स्थिति में कोई भी हो जिसके ऊपर बीतती है वही समझ सकता है।।
विभूतिनाथ जी ने शीघ्र ही सोनमयी का उपचार प्रारम्भ कर दिया,सभी इस कार्य में लगें हुए थे,जिससे जो बन पड़ता था वो सभी अपना अपना सहयोग दे रहें थें,जितनी भी औषधियों की आवश्यकता पड़ रही थी तो उन्हें भालचन्द्र ला रहा था,किन्तु इतने समय पश्चात भी सोनमयी की दशा में कोई भी सुधार ना हुआ,तब विभूतिनाथ जी अत्यधिक चिंतित होकर बोले,जो मैं कर सकता था मैंने किया,किन्तु अब सोनमयी की स्थिति मेरे वश मे नहीं।।
ऐसा ना कहें, बाबा! आप ही ऐसा कहेंगे तो हमारे पास और कोउ मार्ग नहीं कि हम सोनमयी के प्राण बचा लें और यदि सोनमयी को कुछ हुआ तो जीवन भर मैं स्वयं को क्षमा नहीं कर पाऊँगा।।
ऐसा कदापि ना होगा भालचन्द्र! मैं सोनमयी को कुछ नहीं होने दूँगी, नागरानी बोलीं।।
आपके पास कोई उपाय है तो कहें नागमाता! भालचन्द्र बोला।।
हाँ,ऐसा प्रतीत होता है कि मुझे उनका आवाहन करना होगा,नागरानी बोली।।
जी,कौन है वें जो हमारी सहायता कर सकते हैं, कृपया शीघ्र ही उस कार्य का प्रारम्भ करें और उन्हें यहाँ बुलावें, सहस्त्र बोला।।
हाँ,वो मेरी गुरूमाता हैं, उन्होंने मुझसे कहा था कि जब मुझे किसी की सहायता हेतु उनका आवाहन करना पड़े तो वो सदैव मेरी सहायता हेतु तत्पर रहेंगी, नागरानी बोलीं।।
तो कृपया शीघ्रता करें, सोनमयी की स्थिति अत्यंत दयनीय है, उसे कुछ हुआ तो....इतना कहते कहते सहस्त्र रो पड़ा।।
हाँ,पुत्र! अधीर मत हो,मैं अभी स्नान करकें समाधि में लीन होती हूँ और इतना कहकर नागरानी ने झरने पर जाकर स्नान किया और हवनकुंड के समक्ष समाधि मे लीन हो गई, उन्होंने कुछ मंत्रों का उच्चारण किया और हवनकुंड में हवन सामाग्री समर्पित की,कुछ समय पश्चात ही नागरानी की गुरूमाता प्रकट हुई और उन्होंने नागरानी से पूछा____
पुत्री शेषिका! मेरा आवाहन करने का कारण,गुरूमाता ने नागरानी से पूछा।।
जी,माता! मुझे होकर मुझे आपका आवाहन करना पड़ा,ये पुत्री जो धरती पर लेटी है, इसका नाम सोनमयी है, ये हमारी सहायता करते हुए इस स्थिति में पहुँची है, अत्यधिक रक्त बहाव के कारण अचेत अवस्था में है, हमने सारे प्रयास कर लिए,सारे उपचार करके देख लिए,किन्तु सचेत नहीं हुई,अब आप ही हमारी सहायता कर सकतीं हैं,नागरानी ने दुखी होकर कहा।।
अच्छा पुत्री शेषिका! तो ये कारण था मेरे आवाहन करने का,गुरूमाता बोलीं।।
जी,माता! क्षमा करें, यदि आपको कष्ट हुआ हो तो,नागरानी बोली।।
इसमें कष्ट कैसा पुत्री शेषिका! तुम सत्य के मार्ग पर चल रही हों तो बाधाएँ आना तो यथेष्ट है, मेरा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे संग है, ये कमल का पुष्प है,ये साधारण कमल का पुष्प नहीं है, ये कमल नील सरोवर का हैं,इसलिए इसका नाम नीलकमल है,इसका रस निचोड़कर इसके घाव पर लगा दो,कुछ ही समय में सचेत हो जाएंगी और घाव सदैव के लिए मिट जाएगा,ऐसा प्रतीत होगा कि जैसे इसे कभी कुछ हुआ ही नहीं, गुरूमाता बोलीं।।
बहुत बहुत कृपा आपकी,बहुत बहुत आभार आपका गुरूमाता! सहस्त्रबाहु,गुरूमाता से बोल पड़ा।।
सभी सदैव प्रसन्न रहें, सभी इस कार्य में सफल हों और ऐसा कहकर कुछ ही क्षण में गुरूमाता अन्तर्ध्यान हो गईं।।
नागरानी ने अति शीघ्र उस नीलकमल का रस निचोड़ा और सोनमयी के घाव पर लगा दिया,कुछ ही समय पश्चात सोनमयी ने अपनी आँखें खोलीं और उसने शीघ्रता से पूछा___
हम महाराज का पुतला लाने में सफल हुए ना! राजकुमार भालचन्द्र! कहिए ना! आप कुछ बोलते क्यों नहीं?
ये सुनकर भालचन्द्र की आँखें भर आईं और बोला___
ऐसी अवस्था में भी तुम्हें अपने कर्तव्य का ध्यान है, तुम्हें ज्ञात है अभी कुछ समय पहले हम सब पर क्या बीत रही थी,विशेषतः बाबा और सहस्त्र पर ।।
क्यों राजकुमार! ऐसा भी क्या हुआ था मुझे?सोनमयी ने पूछा।।
तनिक याद करो कि जब हम दोनों शीशमहल से महाराज का पुतला लेकर लौट रहे थे तो मार्ग में क्या हुआ था?भालचन्द्र बोला।।
तब सोनमयी ने मस्तिष्क पर बल डालते हुए कुछ सोचा और उसे सब याद आ गया,
तभी सहस्त्र बोला,वो तो नागमाता ने अपनी गुरुमाता का आवाहन करके तुम्हें सचेत करने का उपाय दिया,नहीं तो आज ना जाने क्या हो जाता।।
परन्तु,अब तो सुरक्षित हूँ, सचेत हूँ तो अब क्यों अश्रुओं की धारा बहा रहे हो,सोनमयी बोली।।
मैं भला क्यों रोने लगा? वो भी तुम्हारे लिए,सहस्त्र बोला।।
अच्छा किया जो नहीं रोए,भला मेरा और तुम्हारा नाता ही क्या है, सिवाय मानवता के,सोनमयी बोली।।
तुम स्वस्थ हुई और लग गई मुझसे लड़ने ये नहीं है कि बाबा के निकट जाकर उनका आशीर्वाद लो, कितने चिंतित थे वे तुम्हारे लिए और नागमाता, सर्वप्रथम तो तुम्हें उन्हें धन्यवाद देना चाहिए और नागदेवता का भी,यदि वे ना होते तो तुम्हें बचाकर कौन लाता?सहस्त्रबाहु बोला।।
मैं तो सबको धन्यवाद दे दूँगी और सबका आशीर्वाद भी ले लूँगीं,परन्तु तुमने क्या किया मेरे लिए,सोनमयी ने पूछा।।
मैने तो केवल ईश्वर से प्रार्थना की कि तुम्हें शीघ्र स्वस्थ कर दे,ताकि मैं तुमसे लड़ सकूँ, सहस्त्र बोला।।
हाँ,मुझे ज्ञात था कि तुम यही करोगे,सोनमयी बोली।।
सोनमयी ने इसके उपरांत बड़ो का आशीर्वाद लिया और कुछ समय के लिए एकांत में एक टीले पर जा बैठी और वहीं सहस्त्रबाहु भी जा पहुँचा___
तो तुम्हें ऐसा प्रतीत होता है कि तुम्हें कष्ट में देखकर मुझे तनिक भी कष्ट नहीं हुआ होगा,सहस्त्र ने सोनमयी से पूछा।।
इसका मैं क्या उत्तर दूँ?इसका उत्तर तो तुम स्वयं अपने हृदय से पूछो,सोनमयी ने सहस्त्र से कहा।।
मेरा हृदय तो केवल सोनमयी को ही चाहता है, सहस्त्र बोला।।
इसका कोई प्रमाण है, तुम्हारे पास,सोनमयी ने पूछा।।
तुम्हें अचेत अवस्था में देखकर जो मुझ पर बीत रही थी, वही प्रमाण है मेरे प्रेम का,तुम्हें यदि अब भी विश्वास नहीं है कि मैं तुमसे प्रेम करता हूँ तो रहने दो,मैं अब कभी भी तुमसे आकर ये नहीं कहूँगा कि मैं तुमसे प्रेम करता हूँ, सहस्त्र बोला।।
और इतना कहकर सहस्त्र उस स्थान से आने को हुआ कि सोनमयी उसका हाथ पकड़कर बोली___
मुझे तुम्हारे प्रेम पर विश्वास है और मैं भी तुमसे प्रेम करती हूँ और इतना कहकर सोनमयी,सहस्त्र के गले लग गई, इतने में नागमाता भी वहाँ आ पहुँची और दोनों को देखकर बोली___
मैं भी यही चाहती थी कि तुम दोनों एकदूसरे का प्रेम स्वीकार कर लो,तुम्हें ज्ञात है सोनमयी, तुम्हारी दशा देखकर आज अत्यधिक कोई रोया है तो वो सहस्त्र है, तुम दोनों सदैंव ऐसे ही प्रसन्न रहों और मैं तो तुम दोनों को बुलाने आई थीं कि तलघर में सभी राजा अपार का पुतला देखने जा रहे हैं, तुम दोनों भी चलो और सब
राजा अपार का पुतला देखने तलघर की ओर गए, पुतला देखने के उपरांत उसे सुरक्षित स्थान पर छुपा दिया गया और सब विश्राम करने चले गए।।
इधर रानी जलकुम्भी को जब नागदेवता द्वारा ये ज्ञात हुआ कि भालचन्द्र और सोनमयी दोनों महाराज अपार के पुतले को ले गए है और कृत्रिम पुतले को उनके स्थान पर रख दिया गया है जिससें अम्बालिका को संदेह ना हो सकें, तब रानी की आँखों से प्रसन्नता के अश्रु छलक पड़े और उन्होंने सूर्यप्रभा से कहा___
पुत्री! तुम्हारा चुनाव एकदम सही था,तुमने एक योग्य साहसी राजकुमार को अपना जीवनसाथी बनने के लिए चुना है, मैं तुमसे अति प्रसन्न हूँ,आज राजकुमार भालचन्द्र ने तुम्हारे पिता महाराज को इस श्रापित शीशमहल से मुक्त करवा लिया है और दोनों माँ और पुत्री अत्यधिक समय तक वार्तालाप करती रही।।
उधर अम्बिका और अम्बालिका जब अपने दादा की समाधि से शीशमहल लौटीं तो उन्हें किसी पर कोई संदेह ना हुआ क्योंकि वे जैसा शीशमहल को छोड़कर गई थीं वो वैसा ही प्रतीत हो रहा था,उन्होंने वाटिका जाकर रानी जलकुम्भी को भी देखा तब तक वो दोनों माँ बेटी सो चुकीं थीं और तब वे महाराज अपार के पुतले को भी देखने गई और वो भी वैसा ही था जैसा वे छोड़कर गई थीं, परन्तु उन्होंने पुतले को छूकर नहीं देखा,यदि वे दोनों उस पुतले को छूकर देख लेतीं तो उन्हें ज्ञात हो जाता कि वो पुतला कृत्रिम है और वे दोनों भी निश्चिन्त होकर सो गई ।।

प्रातः हुई और पुनः आपस मे विचारविमर्श हुआ और रात्रि को लेकर योजना बनी कि चाहें जो भी हो आज रात्रि भालचन्द्र को स्वर्णमहल जाकर वो गिद्ध की अस्थियाँ खोजनी ही होगीं और यदि वो उन्हें लाने में सफल हो जाता है तो आज ही रात्रि को महाराज अपार को उनके पुर्व रूप में वापस लाकर हम शीघ्र ही अम्बालिका और शीशमहल पर आक्रमण करके राजकुमारी सूर्यप्रभा और रानी जलकुम्भी को स्वतन्त्र करा सकते हैं इसके उपरांत हम सब स्वर्णमहल जाकर उस मूर्ति को चुनकर तोड़ देगें जिससे अम्बालिका की स्वतः ही मृत्यु हो जाएंगी।।
किन्तु ये सब कहना सरल था और करना कठिन,स्वर्णमहल का मार्ग सहस्त्र को ज्ञात था और इस बार सहस्त्र और भालचन्द्र को स्वर्णमहल जाकर इस कार्य को सम्पन्न करना था,रात्रि हुई और दोनों सबका आशीर्वाद लेकर निकले पड़े अपने कार्य को सफल करने।।
उन्हें ये ज्ञात था कि स्वर्णमहल में इस समय अम्बिका और अम्बालिका नहीं होंगी, पहरा भी कड़ा नहीं होगा क्योंकि जिस स्थान पर वो दोनों होतीं हैं, पहरा भी उसी स्थान पर कड़ा होता है, दोनों छुपते छुपाते जैसे तैसे स्वर्णमहल के भीतर पहुंँचे और स्वर्णमहल के प्राँगण तक जा पहुँचे, वहाँ उन्हें वहीं विशाल वृक्ष दिखा और पूरब दिशा की ओर उन्होंने वृक्ष के तले खोदना प्रारम्भ किया और कुछ समय तक खोदने के पश्चात उन्हें वो अस्थियों का कलश प्राप्त हो गया,तभी उन्हें कुछ आहट सुनाई दी,दोनों अलग अलग स्थान पर छुप गए, किन्तु दोनों एक दूसरे को देख सकते थे,कलश सहस्त्र के हाथ में था और वहाँ सैनिकों की टोली आ पहुँची।।
उनमे से एक ने कहा कि मुझे यहीं से स्वर सुनाई दे रहा था,हो ना हो अवश्य यहाँ कोई छुपा है और उन्होंने खोजना प्रारम्भ कर दिया।।
तभी भालचन्द्र ने सहस्त्रबाहु से सांकेतिक भाषा में कहा कि कलश तुम्हारे पास है और तुम यही छुपे रहना,मै इनका बंधक बन जाता हूँ और मेरे जाते ही तुम ये कलश लेकर भाग जाना।।
परन्तु सहस्त्र नहीं माना,तब भालचन्द्र ने विनती की कि इस तरह तो दोनों बंधक हो जाएंगे और यदि दोनों बंधक हो गए तो ये अस्थियाँ महाराज तक नहीं पहुँची तो वे अपने पूर्व रूप में कभी नहीं आ पाएंगे,तब सहस्त्र को लगा कि भालचन्द्र सही कह रहा है और भालचन्द्र के बंधक बनने के उपरांत सहस्त्र स्वर्णमहल से भागने मे सफल हो गया और उसने ये समाचार सबको सुनाया और सब ये समाचार सुनकर हतप्रभ हो गए।।
सबने सोचा ये तो राजकुमार भालचन्द्र पर बहुत बड़ा संकट आन पड़ा है इसकि कुछ ना कुछ निवारण तो अवश्य ही करना होगा और उन सबने ये निश्चय किया कि वे सर्प्रथम महाराज को उनके पूर्व रूप में लाएंगे तभी इस समस्या का कोई समाधान निकलेगा।।

क्रमशः___
सरोज वर्मा...