अमित भट्टाचार्य जी की पत्नी बीमार थीं। परिवार में और कोई नहीं था इसीलिए उन्होंने आज दफ्तर से अवकाश लिया हुआ था। खुद कभी किचन में झाँकने का मौका कभी मिला ही नहीं था। उनकी पत्नी रश्मि एक कुशल गृहिणी थी और अमित का बहुत ध्यान रखती थी। उनकी मनपसंद हर चीज बनाना और उन्हें प्यार से खिलाना ही उसका एकसूत्रीय कार्यक्रम हुआ करता था लेकिन अपनी बीमारी से लाचार अब वह खुद ही उन पर आश्रित हो गई थी। नाश्ते का समय हो गया था और रश्मि की बेबसी को महसूस कर अमित जी ने उसे धैर्य रखने के लिए कहा और अपने घर से निकल कर नुक्कड़ पर पहुँच गए।
वहाँ नुक्कड़ पर एक नए रेहड़ी वाले को देखकर ठिठक गए। नुक्कड़ पर रेहड़ी पर एक नई नाश्ते की दूकान खुल गई थी। सुबह का समय होने की वजह से ग्राहकों की भीड़ भी अच्छी खासी थी।
अमित जी भी घर के लिए कुछ नाश्ता खरीदने का मन बनाकर भीड़ कुछ कम होने का इंतजार करने लगे। तभी दो नीग्रो आए और इशारे से कुछ माँगने लगे। रेहड़ीवाला जिसका नाम सुनील था मुस्कुराते हुए उस नीग्रो से बोला, " welcome sir ! what I can do for you ?"
उसे अंग्रेजी में बात करते हुए देखकर विदेशियों के चेहरे खिल गए। सुनील और उन विदेशियों के बीच इंग्लिश में काफी बात हुई और सुनील उनकी हर बात का इंग्लिश में बड़ी तत्परता से उत्तर देता। उसकी वाक्पटुता देखकर और उससे बात करके विदेशी भी बहुत खुश दिख रहे थे। बहुत सारी खरीददारी करके उसे कुछ अधिक पैसे देकर दोनों नीग्रो चले गए।
अब भीड़ काफी कम हो गई थी। अमित जी ने घर के लिए दो मसाला डोसा बनाने के लिए कहकर सुनील से पुछा, ” तुम तो पढ़े लिखे लगते हो। कितना पढ़े हो ?”
सुनील ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, ” आपने सही समझा सर ! मैं कॉमर्स से स्नातक हूँ !...और मैनेजमेंट का डिप्लोमा भी है !”
आश्चर्य चकित अमित जी बोले, ” और ये नाश्ते की रेहड़ी लगाये बैठे हो ? कोई नौकरी की कोशिश क्यों नहीं की ?”
सुनील तवे पर से डोसा पलटते हुए बोला, ” थोड़ी कोशिश तो की थी सर लेकिन एक दिन अखबार में पढ़ा ‘ चपरासी की पोस्ट के लिए सैकड़ों स्नातकों व वकीलों की अर्जी ‘
बस उसी दिन से नौकरियों की खाक छानना छोड़कर एक डोसे वाले के यहाँ नौकरी कर ली। कुछ दिन काम करते हुए मैंने इस धंधे की सभी बारीकियों पर ध्यान देना शुरू किया और साथ ही कुछ पैसे भी जोड़ने लगा। जब मुझे यह लगा कि अब मैं अकेले ही सब कर सकता हूँ तो मैंने एक रेहड़ी खरीदकर यह शुरू कर दिया और सर देखिए.. अब यह मेरा खुद का धंदा है।... सर ! कम से कम चपरासी की नौकरी से तो अच्छा ही है न ?”
सुनील ने डोसा पकड़ाते हुए अमित की तरफ देखा।
अमित को सुनील के चेहरे पर एक तेज भरे आत्मविश्वास का अहसास हो रहा था।
हाथ में डोसा थामे घर की तरफ बढ़ते हुए अमित जी के मन में सुनील के लिए सम्मान का भाव जागृत हो गया था और वो सोच रहे थे ‘ काश ! हमारे देश में सभी पढ़े लिखे युवक ऐसा सोचते तो शायद काफी हद तक बेरोजगारी की समस्या हल हो जाती।'