कन्‍हर पद माल - शास्त्रीय रागों पर आधारित पद - 14 ramgopal bhavuk द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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कन्‍हर पद माल - शास्त्रीय रागों पर आधारित पद - 14

कन्‍हर पद माल- शास्त्रीय रागों पर आधारित पद 14

सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज कृत

(शास्त्रीय रागों पर आधारित पद.)

हस्‍त‍लिखित पाण्‍डुलिपि सन् 1852 ई.

सर्वाधिकार सुरक्षित--

1 परमहंस मस्‍तराम गौरीशंकर सत्‍संग समिति

(डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)

2 श्री श्री 1008 श्री गुरू कन्‍हर दास जी सार्वजनिक

लोकन्‍यास विकास समिति तपोभूमि कालिन्‍द्री, पिछोर।

सम्‍पादक- रामगोपाल ‘भावुक’

सह सम्‍पादक- वेदराम प्रजापति ‘मनमस्‍त’ राधेश्‍याम पटसारिया राजू

परामर्श- राजनारायण बोहरे

संपर्कः -कमलेश्वर कॉलोनी, (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर (म0प्र0)

पिन- 475110 मो0 9425715707 tiwariramgopal5@gmail.com

प्रकाशन तिथि- 1 चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी सम्‍वत् 2045

श्री खेमराज जी रसाल द्वारा‘’कन्‍हर सागर’’ (डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)

2 चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी सम्‍वत् 2054

सम्‍पादकीय--

परमहंस मस्‍तराम गौरी शंकर बाबा के सानिध्‍य में बैठने का यह प्रतिफल हमें आनन्‍द विभोर कर रहा है।

पंचमहल की माटी को सुवासित करने जन-जन की बोली पंचमहली को हिन्‍दी साहित्‍य में स्‍थान दिलाने, संस्‍कृत के महाकवि भवभूति की कर्मभूमि पर सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज सम्‍वत् 1831 में ग्‍वालियर जिले की भाण्‍डेर तहसील के सेंथरी ग्राम के मुदगल परिवार में जन्‍मे।

सन्‍त श्री कन्‍हरदास जी के जीवन चरित्र के संबंध में जन-जन से मुखरित तथ्‍यों के आधार पर श्री खेमराज जी रसाल द्वारा ‘’कन्‍हर सागर’’ में पर्याप्‍त स्‍थान दिया गया है। श्री वजेश कुदरिया से प्राप्‍त संत श्री कन्‍हर दास जी के जीवन चरित्र के बारे में उनके शिष्‍य संत श्री मनहर दास जी द्वारा लिखित प्रति सबसे अधिक प्रामाणिक दस्‍तावेज है उसे ही पदमाल से पहले प्रस्‍तुत कर रहे हैं।

कन्‍हर पदमाल के पदों की संख्‍या 1052 दी गई है लेकिन उनके कुल पदों की संख्‍या का प्रमाण--

सवा सहस रच दई पदमाला।

कृपा करी दशरथ के लाला।।

के आधार पर 1250 है। हमें कुल 1052 पद ही प्राप्‍त हो पाये हैं। स्‍व. श्री दयाराम कानूनगो से प्राप्‍त प्रति से 145 पद श्री रसाल जी द्वारा एवं मुक्‍त मनीषा साहित्यिक एवं सांस्‍कृतिक समिति द्वारा श्री नरेन्‍द्र उत्‍सुक के सम्‍पादन में पंच महल की माटी के बारह पदों सहित शास्‍त्रीय संगीत की धरोहर

तीस रागनी राग छ:, रवि पदमाला ग्रन्थ।

गुरू कन्‍हर पर निज कृपा, करी जानकी कन्‍थ।।

विज्ञजनों को समर्पित करने एवं मर्यादा पुरूषोत्‍तम श्री राम के जीवन की झांकी की लीला पुरूषोत्‍तम श्री कृष्‍ण का जीवन झांकी से साम्‍य उपस्यित करने में बाबा कन्‍हर दास जी पूरी तरह सफल रहे हैं।

डॉ0 नीलिमा शर्मा जी जीवाजी विश्व विद्यालय ग्वालियर से शास्‍त्रीय संगीत की धरोहर कन्‍हर पदमाल पर शोध कर चुकी हैं।

सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज का निर्वाण एक सौ आठ वर्ष की वय में चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी रविवार सम्‍वत् 1939 को पिछोर में हुआ।

नगर निगम संग्रहालय ग्‍वालियर में श्री कन्‍हर दास पदमाल की पाण्‍डुलिपि सुरक्षित वसीयत स्‍वरूप रखी हुई है। श्री प्रवीण भारद्वाज, पंकज एडवोकेट ग्‍वालियर द्वारा पाण्‍डुलिपि की फोटो प्रति उपलबध कराने में तथा परम सन्‍तों के छाया चित्र उपलबध कराने में श्री महन्‍त चन्‍दन दास छोटी समाधि प्रेमपुरा पिछोर ने जो सहयोग दिया है इसके लिए हम उनका हृदय से आभार मानते हैं।।

पंचमहली बोली का मैं अपने आपको सबसे पहला कवि, कथाकार मानता था लेकिन कन्‍हर साहित्‍य ने मेरा यह मोह भंग कर दिया है।

इस सत् कार्य में मित्रों का भरपूर सहयोग मिला है उनका हम हृदय से आभार मानते हैं। प्रयास के बावजूद प्रकाशन में जो त्रुटियां रह गई हैं उसके लिए हम सुधी पाठकों से क्षमा चाहेंगे।

रामगोपाल भावुक

दिनांक 16-4-97 श्री राम नवमी सम्‍पादक

राग – काफी, ताल – त्रिताल

श्री रघुवर सम सम नहिं कोई।।

दीन दयाल दीन आरत हरि, करत अभय भय खोई।।

बहुत जनम की बिगरी सुधरत, चरन सरन जब होई।।

कन्‍हर हरत सकल दुख जन के, करत रहत प्रभु सोई।।426।।

राम बिना दुख कौन हरै रे।।

ऐसो और नहीं कोउ जग महं, सो माहिं पार करे।।

प्रगट प्रभाव नाम कह बरनत, सुन जमराज डरे।।

कन्‍हर दीन दयाल नाम हरि कह, भव पार तरै रे।।427।।

अंखियन लागि रहौ री म्‍हारी, आली राम लला प्रिय प्‍यारौ।।

बिन देखे मोहि कल न परत है, बिसरत नाहिं बिसारौ।।

बार – बार सखि मो तन हेरत, दशरथ राज दुलारौ।।

कन्‍हर लख – लख मधुर रूप प्रिय, पलक न होत न्‍यारौ।।428।।

राग – झंझौटी

मन बस गयौ राम सलौना।।

हौं तो भई बावरी डोलौं, डारि दियो पढि़ टोना।।

संघ रंग मोहिं लागि गयो री ऐसे कहि भई मौना।।

कन्‍हर के प्रभु रूप लुभानी, दरस परस सुख हौना।।429।।

राग – अड़ानौ

धनुष कर कमलन राम लसै।।

कही न परत बनिक कछु मो पर, उपमा बहुत बसै।।

नवल नवीन पीन वर भूषन, कटि पट पीत कसै।।

कन्‍हर सखी प्रेम रस बस गई, निरख चकोर ससै।।430।।

राग – अड़ानौ

मुदु बोलन आली मन भाव री।।

रूप अनूप भूप सुत लखि कर, जब ते हो गई बावरी।।

तब तें कल न परति नहिं मोकों, छकी राम छवि रावरी।।

कन्‍हर नयन बयन अब नाहीं, बरनत मति सकुचावरी।।431।।

सुनी नाथ मैंने तुम्‍हरी प्रभुताई।।

गज और ग्राह भिरे जल भीतर, कर कर कुटुम सहाई।।

वर्ष सहस्र एक जुध कीन्‍हों, थकित भये सुधि आई।।

करूना करि हरि नाम उचारो, गिरा गिरन नहिं पाई।।

विनय करी की सुनि करूनानिधि, दृदै बहुत अकुलाई।।

लाघव लियौ बचाय ग्राह तैं, तब लगि पल न ढराई।।

जय – जय शब्‍द भयौ त्रिभुवन में, नारदादि गुन गाई।।

कन्‍हर कलि मल ग्रसौ कृपानिधि, करौ सुरत सुखदाई।।432।।

राग – झंझौटी, ताल – त्रिताल

कब मिलिहौ फिर राम पियारे।।

मिथिलापुर की सखी प्रेूम बस, विधि बुधि कहा किया रे।।

तुम बिन प्रान रहत जे नाहीं, तन ते होत नियारे।।

कन्‍हर बार – बार अवलोकत, सब मिल मौन लिया रे।।433।।

आली री मन मेरौ श्‍याम कस कीन्‍हा।।

छिन एक रहौ न जात दरस बिन, नित प्रति प्रीति नवीना।।

रही न लाज कान गुरू जन की, घर वन परत न चीन्‍हा।।

कन्‍हर के प्रभु कल न परत अब, मीन नीर बिन दीन्‍हा।।434।।

राग – झंझौटी

आली मन मानत नाहीं।।

बिन देखे वह सांमली मूरति, मन न लगत घर माहीं।।

वन प्रमोद की कुंज गलिन में, मो तन मृदु मुसक्‍याहीं।।

कन्‍हर के प्रभु कल न परति है, दवि नैनन उर माहीं।।435।।

श्री रामा भव बोहित हित करिया रे।।

कोटि जतन कर – कर कोइ कोइ, बिन हरि कृपा नहिं तरिया रे।।

आन बान सब छांडि़ छोड़ अब, नहिं बिसरो छिन घरिया रे।।

कन्‍हर शरन तको रघुवर की, तासों जम गन लख डरिया रे।।436।।

श्‍याम ने बस कीनो देखी री आली री।।

चितवन चारू मारू मद हरनी, सुरस तिनहि माली री।।

छवि वर छटा अटा तें निरखी, म्‍हारे हियरा साली री।।

कन्‍हर चलत झुकत झुक बीथिन, केहर वर चाली री।।437।।

राग – काफी, ताल – त्रिताल

श्री रघुवर पद जप जलजासी।।

श्‍याम सुभग वर अंग मनोहर, उपमा बहुत तलासी।।

क्रीट मुकुट मकराकृत कुंडल, मुक्‍त माल झलकासी।।

कन्‍हर के उर बसौ निरन्‍तर, कृपा करौ गुनगासी।।438।।

संग मोहि ले चलियो रामा।।

नातर प्रान पयान करत अब, त्‍यागत तन नामा ।।

तुम बिन छिन खनि कल न परैगी, बिना दरस श्‍यामा।।

कन्‍हर के प्रभु कृपा करो अस, चलो अवध धामा।।439।।

राग – अल्‍हया पक्‍को तार

विजय चहिय जग विजय गोविन्‍द भजि।।

कपट खपट कह कर हौ निरादर, सकल विकार विषय तजि।।

नाम अनूप रूप वर सुन्‍दर, अवलोकहु कहो तन मन रजि।।

कन्‍हर जुगल प्रिया प्रीतम लखि, मदन गर्व छवि जात सकुच लजि।।440।।

राग – पीलू

सीताराम दीन के दानी।।

सेवत सुर निज लोक लोक तजि, तन मन आनंद बानी।।

बंदीजन गंधर्व गुन गावत, रघुकुल सुजस बखानी।।

कन्‍हर चरन शरन तक आयौ, रामचन्‍द्र रजधानी।।441।।

राम पद निरख लेउ सजनी।।

जिनको वेद भेद नहिं पावत, त्रिभुवन नाथ धनी।।

प्र‍बल प्रतापी सुत दशरथ के, महिमा उदित घनी।।

कन्‍हर के प्रभु बरन सकौं किमि, रघुकुल तिलक मनी।।442।।

राग – पीलू

झूलत हरि फहरत पीताम्‍बर।।

क्रीट मुकुट मकराकृत मंडल धनुष बान सोहत सुंदर कर।।

भाल तिलक उर माल मनोहर, अवलोकन मन हरत अधिक वर।।

कन्‍हर छवि अवलोक राम की, बरनत शारद शेष धराधर।।443।।

राग – झंझौटी, ताल – तितारौ

जब – जब ध्‍यान करो री आली, राम फिर आइहैं जी।।

नृपति बुलाय सिया कह तब तब, दरशन पाइहैं जी।।

सुन्‍दर रूप विलोक नयन भर, आनन्‍द उर न समाइहैं जी।।

कन्‍हर मंगल होइ जनकपुर, चार वेद जस गाइहैं जी।।444।।

राग – अलहय्या

झूलत सीताराम हिंडोरे।।

रत्‍न खम्‍भ विचित्र बिरचे, जटित मनिनि मन चोरे।।

रेसम डोर अलौकिक पटली, षट मुक्‍तन की कोरे।।

सुन्‍दर सखी मधुर सुर गावत, सरजू लेत हिलोरे।।

बोलत दादुर रटत पपीहा, मुरलिका करि रहि सोरें।।

कन्‍हर जुगल रूप अवलोकत, उपमा बरनत थोरे।।445।।

राग – भैरों

सुन्‍दर सिय राम रूप निरख दृग निहारी।।।

क्रीट मुकुट चंद्रिका पर कोटि चन्‍द्र वारी।।

श्रवन कुंडल करन फूल लसत लाल प्‍यारी।।

मुक्‍त माल षट प्रकार हृदै हार चारी।।

मुख सरोज चन्‍द्र वदन उपमा अधिकारी।।

श्‍याम अंग पीत बसन गौर सुरंग सारी।।

नूपुर दुति विचित्र पायल पग धारी।।

कन्‍हर जुगल राम सिया सुमिरहु नर नारी।।446।।

राग – अलहय्या, ताल – त्रिताल

सुरति आली दीनी हरि बिसराय।।

जब से गये फिर पतिया न भेजी, निसि दिन मन भरमाय।।

वे बातें कहि अब जे बातें, कहत न कोइ समुझाय।।

कन्‍हर हूल हिये की हमरी, कब हरिहैं हरि आय।।447।।

सुरति मेरी हरि क‍ब करिहैं।।

यह अवसर आली कब आहै, आनन्‍द उर भरिहैं।।

छिन- छिन कल्‍प बितीतत हमका, कब उर दुख हरिहैं।।

कन्‍हर के प्रभु धीर न आवत, कब वे पांय परिहैं।।448।।

सामरे म्‍हारे दृग सरसानि।।

बिसरी सुरति खबर नहिं तन की, परत न मग पहिचानि।।

मारग जात मिले री आली, मंद – मंद मुसिकानि।।

कन्‍हर वह छवि निरख लाल की, तब नैननि भरमानि।।449।।

मोंइ सो दीन हरि काहे न हेरो।।

मैं तो जतन कितन कर हारो, धारो मन मघ डेरो।।

तुम बिन नाथ कौन निरवारे, ब्‍याल जाल उरझेरो।।

काम क्रोध मद लोभ मोह के, इनके बास बसेरो।।

भ्रमत चहूं दिस श्रमित भयो अब, बहुतन त्रास त्रसेरो।।

कन्‍हर नाम सुनो हरि तुम्‍हरो, भव सागर मंह बेरो।।450।।

नाथ हमारी काहे सुरति बिसारी।।

कहा तकसीर परी प्रभु मो पर, करूण वचन पुकारी।।

छिन दुख देख सके नहिं काहू, अब कह धारनि धारी।।

कन्‍हर निरखत रहत कृपानिधि, निसि दिन राह तुम्‍हारी।।451।।

सखी री राम सुघर हेरै।।

बिसरी सुरत खबर नहिं तन की, चंचल दृग फेरै।।

तब ते भई बावरी डोलों, सुरत न मन मेरै।।

कन्‍हर के प्रभु कृपा करीजे, बसीभूत मैं तेरै।।452।।

राग – परज कालंगड़ा

हरि बिन जीव नहीं निस्‍तारा।।

काम क्रोध मद लोभ मोह मंह, उरझ रहा संसारा।।

करनी समझ समझ डर लागत, बीच भंवर भवधारा।।

कन्‍हर राम नाम हित बोहित, जात लगावत पारा।।453।।

राम भजन बिनदिन जायं बीते।।

झूठो वह संसार सार नहिं, सदा नहीं कोउ जीते।।

माल खजाना संग ना जाहै, अंत जाय उठ रीते।।

कन्‍हर नाम सुधा निसि बासर, धन्‍य जीव ते पीते।।454।।

श्‍याम बिना निसि नींद न आवै।।

परत न चैन नयन बिन देखे, नित नव बिरह बढ़ावै।।

मन बस गई माधुरी मूरति, छिन पल जुग सम जावै।।

कन्‍हर के प्रभु मिलौ कवन विधि, सोइ कोउ जतन बतावै।।455।।

श्‍याम किशोर चोर चित लै गयौ।।

मैं सरयू जल भरन जात ही, मृदु बोलन कछु कह गयौ।।

तब ते कल न परत री आली, तन मन उन बस है गयौ।।

कन्‍हर गेह नेह नहिं लागै, ऐसी लगन लगै गयौ।।456।।

राग – झंझौटी

सियावर रूप निकाई बरन नहिं जाई।।

सुख आसीन कमल सिंहासन, अधिक मनोहरताई।।

मंदिर रचित विचित्र चित्रवर, सुन्‍दर सुखद सुहाई।।

फूलबाग के चिमन चारि तहं, लता लूमि झुकि छाई।।

मारूति लाल वीर बलि बंका, शंका जात पराई।।

कन्‍हर राम सिया लक्षमन जप, मन न रहे मलिनाई।।457।।

राग – भैरवी

अरे मन जीवन जग सपना।।

राम नाम कह सुमिरन कर ले, कोई नहीं अपना।।

भ्रम बस भ्रमत जीव दुख पावत, नाहक तन तपना।।

कन्‍हर राम सिया पद पंकज, निसि बासर जपना।।458।।

कह मन राम कहों तो सों।।

बहुत जनम की बिगरी डगरी, सुधरति संग दो सों।।

झूठो जग संग – संग ना सांचो, सुन्‍दर नाम भरोसों।।

कन्‍हर पार होत अवलोकत, कसर परे कह मोसों।।459।।

राग – भैरवी, ताल – त्रिताल

सिया के पिया ने मोपै जादू सा किया रे।।

जब ते भई बावरी डोलौं, लागी लगन हिया रे।।

कहै कोई लाख जतन नहिं मानो, तन मन अर्प दिया रे।।

कन्‍हर अब न रहों मिथिलापुर, जैहों संग सिया रे।।460।।

राम कहौ मन सीता दिवस जाइ बीता।।

अस्‍त भये फिर वस्‍तु न मिलिहै, कह‍त भागवत गीता।।

चलती बार पुनि नहिं मिलिहै, मार दूत जम दीता।।

कन्‍हर सिया राम पद सुमिरत, छूटत भर्म सभीता।।461।।

राग – देश ताल – लूम

सियावर पार करे बहुतेरे।।

अपनाये शरनागत कीने, नाम जपत निरबेरे।।

सबके हेत सेत भव कीनो, बहे जात ते फेरे।।

नाम लेत अघ रेत होत है, लगत नहीं अब देरे।।

मन के भरम गरम होइ भाजत, सुनत नहीं फिर टेरे।।

कन्‍हर बार लगी नहिं तिनको, तिन – तिन रघुवर हेरे।।462।।

राम नाम जप सुरझे ते।।

बहु जन्‍मन के फंद बंद मह, पार परे भव उरझे ते।।

भाजे भ्रम श्रम छिन नहिं लागा, आदि दिनन के हरके ते।।

भव सभीत जनु सीत तरून लखि, कठिन गठन गठ मुरके ते।।

श्रमित निवृत भई ताप आप ते, सिमिट झिमिट रह जुरजे ते।।

कन्‍हर नाम कहत सब भाजे, बसत बास जनपुर ते ते।।463।।