कन्‍हर पद माल - शास्त्रीय रागों पर आधारित पद - 9 ramgopal bhavuk द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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कन्‍हर पद माल - शास्त्रीय रागों पर आधारित पद - 9

कन्‍हर पद माल- शास्त्रीय रागों पर आधारित पद 9

सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज कृत

(शास्त्रीय रागों पर आधारित पद.)

हस्‍त‍लिखित पाण्‍डुलिपि सन् 1852 ई.

सर्वाधिकार सुरक्षित--

1 परमहंस मस्‍तराम गौरीशंकर सत्‍संग समिति

(डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)

2 श्री श्री 1008 श्री गुरू कन्‍हर दास जी सार्वजनिक

लोकन्‍यास विकास समिति तपोभूमि कालिन्‍द्री, पिछोर।

सम्‍पादक- रामगोपाल ‘भावुक’

सह सम्‍पादक- वेदराम प्रजापति ‘मनमस्‍त’ राधेश्‍याम पटसारिया राजू

परामर्श- राजनारायण बोहरे

संपर्कः -कमलेश्वर कॉलोनी, (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर (म0प्र0)

पिन- 475110 मो0 9425715707 tiwariramgopal5@gmail.com

प्रकाशन तिथि- 1 चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी सम्‍वत् 2045

श्री खेमराज जी रसाल द्वारा‘’कन्‍हर सागर’’ (डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)

2 चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी सम्‍वत् 2054

सम्‍पादकीय--

परमहंस मस्‍तराम गौरी शंकर बाबा के सानिध्‍य में बैठने का यह प्रतिफल हमें आनन्‍द विभोर कर रहा है।

पंचमहल की माटी को सुवासित करने जन-जन की बोली पंचमहली को हिन्‍दी साहित्‍य में स्‍थान दिलाने, संस्‍कृत के महाकवि भवभूति की कर्मभूमि पर सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज सम्‍वत् 1831 में ग्‍वालियर जिले की भाण्‍डेर तहसील के सेंथरी ग्राम के मुदगल परिवार में जन्‍मे।

सन्‍त श्री कन्‍हरदास जी के जीवन चरित्र के संबंध में जन-जन से मुखरित तथ्‍यों के आधार पर श्री खेमराज जी रसाल द्वारा ‘’कन्‍हर सागर’’ में पर्याप्‍त स्‍थान दिया गया है। श्री वजेश कुदरिया से प्राप्‍त संत श्री कन्‍हर दास जी के जीवन चरित्र के बारे में उनके शिष्‍य संत श्री मनहर दास जी द्वारा लिखित प्रति सबसे अधिक प्रामाणिक दस्‍तावेज है उसे ही पदमाल से पहले प्रस्‍तुत कर रहे हैं।

कन्‍हर पदमाल के पदों की संख्‍या 1052 दी गई है लेकिन उनके कुल पदों की संख्‍या का प्रमाण--

सवा सहस रच दई पदमाला।

कृपा करी दशरथ के लाला।।

के आधार पर 1250 है। हमें कुल 1052 पद ही प्राप्‍त हो पाये हैं। स्‍व. श्री दयाराम कानूनगो से प्राप्‍त प्रति से 145 पद श्री रसाल जी द्वारा एवं मुक्‍त मनीषा साहित्यिक एवं सांस्‍कृतिक समिति द्वारा श्री नरेन्‍द्र उत्‍सुक के सम्‍पादन में पंच महल की माटी के बारह पदों सहित शास्‍त्रीय संगीत की धरोहर

तीस रागनी राग छ:, रवि पदमाला ग्रन्थ।

गुरू कन्‍हर पर निज कृपा, करी जानकी कन्‍थ।।

विज्ञजनों को समर्पित करने एवं मर्यादा पुरूषोत्‍तम श्री राम के जीवन की झांकी की लीला पुरूषोत्‍तम श्री कृष्‍ण का जीवन झांकी से साम्‍य उपस्यित करने में बाबा कन्‍हर दास जी पूरी तरह सफल रहे हैं।

डॉ0 नीलिमा शर्मा जी जीवाजी विश्व विद्यालय ग्वालियर से शास्‍त्रीय संगीत की धरोहर कन्‍हर पदमाल पर शोध कर चुकी हैं।

सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज का निर्वाण एक सौ आठ वर्ष की वय में चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी रविवार सम्‍वत् 1939 को पिछोर में हुआ।

नगर निगम संग्रहालय ग्‍वालियर में श्री कन्‍हर दास पदमाल की पाण्‍डुलिपि सुरक्षित वसीयत स्‍वरूप रखी हुई है। श्री प्रवीण भारद्वाज, पंकज एडवोकेट ग्‍वालियर द्वारा पाण्‍डुलिपि की फोटो प्रति उपलबध कराने में तथा परम सन्‍तों के छाया चित्र उपलबध कराने में श्री महन्‍त चन्‍दन दास छोटी समाधि प्रेमपुरा पिछोर ने जो सहयोग दिया है इसके लिए हम उनका हृदय से आभार मानते हैं।।

पंचमहली बोली का मैं अपने आपको सबसे पहला कवि, कथाकार मानता था लेकिन कन्‍हर साहित्‍य ने मेरा यह मोह भंग कर दिया है।

इस सत् कार्य में मित्रों का भरपूर सहयोग मिला है उनका हम हृदय से आभार मानते हैं। प्रयास के बावजूद प्रकाशन में जो त्रुटियां रह गई हैं उसके लिए हम सुधी पाठकों से क्षमा चाहेंगे।

रामगोपाल भावुक

दिनांक 16-4-97 श्री राम नवमी सम्‍पादक

राग – देस, ताल – त्रिताल

क्‍यों सोवै गफलत में, मन तूं जागि – जागि अब जागि रे।।

लोभ लहरि में मोय गयो है, ताकौं अब तूं त्‍यागि रे।।

करमनि सा बहु छोर भई है, जाकी भय सौं भागि रे।।

कन्‍हर प्रभु कौ नाम दिवाकर, ताकौं उर में पागि रे।।279।।

मन मेरे मानौ सिख मोरी।।

मेरौ को काकौ अब तूं लखि, ताकौ सियावर ओरी।।

बीधौं फंदनि सुरझत नाहीं, बंधौं मोह बरजोरी।।

कन्‍हर भूलौ फिरत रैनि – दिन, कृपा बिना प्रभु तोरी।।280।।

राग – रागश्री

एक दिन चलना है मन रे।।

राम नाम कौ सुमिरन करि लै, यही करौ प्रन रे।।

झूठौ है सब व्‍याल जगत कौ, ज्‍यों सपनौ छिन रे।।

कन्‍हर ओट लेउ सियवर की, हनै न जम गन रे।।281।।

रे मन मूढ़, पाप ते बच रे।।

झूठौ व्‍याल देखि मति भूलै, राम नाम उर रच रे।।

जग व्‍यवहार रैनि कौ सपनौं, ताहि जानि जिनि सच रे।।

कन्‍हर हरि गुन जपौ मनोहर, झूठौ नाच न नच रे।।282।।

मन तेरौ को करहि सहाई।।

जन्‍म वृथा विषयनि में खोयौ, सुमिरे नहिं रघुराई।।

काल फांसि जम दूत डारिहैं, तोकौं कौन छुटाई।।

संपति तैं अपनी करि मानी, सो सब संग न जाई।।

सुत वनिता कोउ काम न आवत, वृथा मूढ़ रमाई।।

कन्‍हर अंत काल सुधि आवति, समझि राम गुन गाई।।283।।

सीख मन नहीं मानी मोरी।।

भूलौ रहौ मोह ममता में, क्‍या मति भइ तोरी।।

ना हरि भजौ भ्रमौ तैं निस – दिन, भयौ फिरौ चकोरी।।

कन्‍हर ताते जपौ सियावर, जमगन नहिं पकरौरी।।284।।

मेरौ मन सौं बस न चलाई।।

भरमत रहत रैनि – दिन भूलौ, मृगतृष्‍ना जौं धाई।।

कठिन क्रोध मद लोभ मोह में, सबरी सुधि बिसराई।।

मैं बहु जतन करत ही हारौ, समुझत नहिं समुझाई।।

मति बिसरै जपि राम सिया कौं, अंतकाल सुख पाई।।

कन्‍हर मानि लेउ सिख सुंदर, तकौ सरन सुखदाई।।285।।

राग – देस

मैं कहा कुमति कहौं या मन की, सुनहु अरज रघुवीर।।

तृष्‍ना हेत फिरत है निस – दिन, ज्‍यों थिरता नहिं लहत समीर।।

भई मति मंद मलीन ग्रसी अघ श्रम ते भयौ हो भव भय भीर।।

कन्‍हर चरन सरन तकि आयौ, हरौ कृपा करि जन की पीर।।286।।

रे मन राम ओर कब लगिहै।।

जन्‍म व्‍यतीत गयौ विषयनि संग, सोवत तै कब जगिहै।।

जब लगि एन चैन नहिं पावत, बार – बार जग तगिहै।।

कन्‍हर पार होय तब भव ते, साचौं रंग जब रंगिहै।।287।।

राम नाम जाके मन न बसौ रे।।

सौ नर नीच नीच ते नीचौ, नाहक जन्‍म नसौ रे ।।

भूलौ फिरत गिरत हठि फिरि – फिरि भरमनि बीच धसौरे।।

कन्‍हर भजन बिना नहिं छूटै, जग में जीव कसौ रे।।288।।

राग – पीलू

अब हूं समझि कहा करि मन रे।।

भलौ भूल बहुत जन्‍मनि ते, पाय पाय तन तन रे।।

उरझि रहे जग सुरझत नाहीं, विषय वेलि कन – कन रे।।

कन्‍हर भजन बिना रघुवर के, धृग जीवन धृग धन रे।।289।।

राग – झंझौटी

सुमिरि मन रे राम गरीब नवाज।।

भारथ अरज भार ही कीनी, सुनि लीनी महराज।।

गरूड़ बिहाइ पियादै धाये, करि दीनौ गज काज।।

द्रुपद सुता कौं अंबर बाढ़ौ, देखत सकल समाज।।

अभय करत फिरि भय नहिं राखत, भवनद नाम जहाज।।

कन्‍हर दीन पीन करि दीनै, सबकी राखी लाज।।290।।

आली री मन मानत नाहीं।।

बिन देखे वह सामली मूरति, मन न लगत घर माहीं।।

वन प्रमोद की कुंज गलिनि में, मोतन मृदु मुसिक्‍याई।।

कन्‍हर के प्रभु कल न परति है, छवि नैननि उरझाई।।291।।

मन तोई बिसरि गईं वे बातैं।।

तजि हरि चरन विषय लिपिटानौं, भूलि गयौ जग नातैं।।

जननी जनक सुरति बिसराई, मोह करौ अबला तैं।।

परस्‍वारथ सपनै नहिं जानत, अपनै हित की घातैं।।

काम क्रोध मद लोभ भुलानौं, बिसरि गयौ मघ तातैं।।

भव के भौंर बहा तूं डोलत, क्‍या गति होयगी जातैं।।

जम के दूत मारू तोहि देहैं, तब तन होय निपातैं।।

कन्‍हर राम नाम के सुमिरै, फिरि नहिं फेर फिरातैं।।292।।

बहुत कही मन तूं न फिरौ रे।।

हरि की ओर कोर नहिं लागौ, भरमनि ओर गिरौ रे।।

थिरता लही कहं तूं नाहीं, जहं तहं रारि भरौ रे।।

कन्‍हर जो जन जपैगौ हरि पद, सोई नर मूढ़ निरौ रे।।293।।

तूं कब करि है मेरी कही।।

तौ मैं तोइ जानिहौं सांचौ, जपि हरि नाम सही।।

आदि अंत बंधन तै छोरत, ऐसौ नाम कही।।

कन्‍हर यही सिखावन मेरौ, प्रभु पद समुझि गही।।294।।

अब तुहि क्‍या करना मन रे।।

ना हरि भजे न गृह सुख पायौ, छिन पल हो खन रे।।

काम क्रोध मद लोभ लहर मय, तेरी मति हनि रे।।

कन्‍हर सीख मानि जपि रामैं, झूठन जग तन रे।।295।।

राग – धानी

मन मृग फिरता गली – गली।।

बहु जतन करति ही हारौ, मानत नहिं छली।।

तृष्‍णा हेतु फिरत है धायौ, बस नहिं होत बली।।

कन्‍हर हरि पद सुमिरत नाहीं, मति भ्रम फिरति चली।।296।।

राग – झंझौटी

मन तूं जपौ रघुवर कौ।।

बार – बार मैं तुहि समझाऊं, तकऊ चरन रज कर कौ।।

हरि बिन और तोर नहिं कोई, नहीं होना घर-घर कौ।।

कन्‍हर राम नाम धन धरि उर, पार करन भव सर कौ।।297।।

हरि सुमिरन मनि डोरी, लगै कब तोरी।।

बहुरन दिवस बसि क‍ह कीनौ, कही न मानी मोरी।।

अबहूं समझि- समझि विष शिख तजि, लगि जा प्रभु पद ओरी।।

कन्‍हर छवि अवलोकि दृगनि भरि, रघुवर जनक किसोरी।।298।।

राग – कालगढ़ा

रे मन जड़मति होइ दिमाना।।

चारि दिना कौ जग कौ कारण, देस वही फिर जाना।।

निसि बासर जीवन के मद में, क्‍यूं तू फिरत भुलाना।।

कन्‍हर कोई काम न आवे, सदा राम गुन गाना।।299।।

सीताराम कहौ मन रे।।

नर तन बार – बार नहिं मिलिहैं, कहौं ताइ मैं टेरे।।

ऐसी ओर न और जक्‍त में, देखे व्‍याल घनेरे।।

समझि – समझि तूं समझि सबेरौ, काज होइ सब तेरे।।

जाते अंत दाउ नहिं रैहैं, लगत नहीं भट भेरे।।

कन्‍हर नाम कहत बहु तेरे, बहे जात ते फेरे।।300।।

कासौं कहौं रीति इह मन की।।

स्‍वारथ हेत फिरत है धायौ, चाह बड़ी धन की।।

हारि परौ मैं कहौ न मानत, खबरि नहीं तन की।।

कन्‍हर राम नाम के सुमिरत, भय न रहति जम की।।301।।

सुमिरि मन सीता राम हरी।।

अब जिनि देर करौ कह मानौ, निकसी जाति घरी।।

नाम प्रताप प्रगट या जग में, जल पर सिला तरी।।

मीरा हेत कियौ विष अमृत, पीवत हर्ष भरी।।

गरूड़ बिहाय पियादै धाये, तारौ ग्राह करी।।

कन्‍हर करि विस्‍वास राम कौ, ताकी सब सुधरी।।302।।

निमिष मन राम नाम नहिं लीनौं।।

बीति गयौ सब जन्‍म अकारथ, काज नहीं सुभ कीनौं।।

सुत दारा के घेर फेर में, खोय दिये पन तीनौं।।

कन्‍हर बिना भजन सियावर के धृग – धृग नर जीनौं।।303।।

मन की जानत सीताराम ।।

सौंरी ओर कृपा करि हेरै, तारी कुबजा नाम।।

कौन नेम व्रत कियौ गीध ने, ताय दियौ निज धाम।।

अजामिल सौं पारि कियौ द्विज, सुत हित लीनौं नाम।।

जा विधि लाज रही द्रोपति की, सोई कीनौं काम।।

कन्‍हर अधिक नाम की महिमा, सुमिरि लहत विश्राम।।304।।

कहु मन सीता राम हरी।।

अब तौ देर करै मति येरे, निकसी जाति घरी।।

और उपाय नहीं अब दीसत, मोकौं समझि परी।।

भनत पुरान भागवत गीता, तिन्‍ह तिन्‍ह की सुधरी।।

पार भये भव वार न लागी, अर्ध नाम उचरी।।

कन्‍हर नाम प्रभाव प्रगट जस, सुनि जमराज डरी।।305।।

सदा राम कहु रे मन मेरे।।

आवागमन ख्‍याल जा जग मैं, ताते कहौं सबेरे।।

नर तन बार – बार ना मिलिहैं, समझि – समझि तूं ऐसे।।

कन्‍हर सुमिरि सिया वर सुंदर, नहीं करौं अब देरे।।306।।

राग – विभास, ताल – त्रिताल,

मन तूं सुमिरै राम कबै।।

फिर पीछे पछिताउ होइगौ, ताते समझि अबै।।

नीच करम तै बीच करौ अब, त्‍यागौ बिसै सबै।।

कन्‍हर चलती बार बार तोइ, मिलिहैं नहीं जबै।।307।।

संकर हम पर करहु सहाई।।

तुम सम और नहीं कोई जग मह, राम भक्ति सुखदाई।।

गंगधार शुभ लसत जटनि मह, चन्‍द्र भाल दुति छाई।।

अंग विभूति माल मुंडनि की, पाइ पदम झलकाई।।

बाघंबर आसन पर राजत, ध्‍यान मगन मन ल्‍याई।।

कन्‍हर वेद भेद नहिं पावत, ऐसी प्रभु प्रभुताई।।308।।

जय – जय गिरजापति कैलासी।।

भस्‍म अंग सिर गंग विराजत, चन्‍द भाल दुति रासी।।

बाघंवर वर लसत मनोहर, राम नाम गुन गासी।।

भूषन व्‍याल माल मुंडनि की, जटा जूट सिर जासी।।

तन वर लसत भेष जोगी कौ, रहत सदा अविनासी।।

कन्‍हर वेद भेद नहिं पावत, गुन गन कहि हरषासी।।309।।

पारवती पति प्‍यारौ वही बैल वारौ।।

आक धतूरौ बेल की पाती, तापर रहत सुखारौ।।

व्‍याघ्र चर्म उर सेली श्रृंगी, भूषन व्‍याल सम्‍हारौ।।

कर त्रिसूल छवि छटा जटनि की, जोगी रूप निहारौ।।

कन्‍हर ध्‍यान परायन सुन्‍दर, रघुवर नाम उचारौ।।310।।

जपना रे प्रानी बड़ सिव दानी।।

राम नाम उपदेस करत हैं, हृदै बहुत सुख मानी।।

ऐसौ समरथ और न जग में, बरनत वर मुनि ग्‍यानी।।

कन्‍हर वेद भेद नहिं पावत, सारद सेस वर बानी।।311।।