सवाल है नाक का
"सुबह के साढ़े - पाँच बज गए, महारानी की नींद नहीं खुली अब तक।"
माँ ने जोर-जोर से बड़बड़ाते हुए कहा तो पास वाले कमरे में सो रही बड़ी बेटी सरोज आँखे मलती-मलती बाहर आई और बोली - "माँ जब आपकी कोई सुनता ही नहीं तो आप क्यों रोज सुबह बड़बड़ाने लगती हो।"
"क्या करूँ, मुझे पसंद नहीं कि घर की बहु इतनी देर तक सोती रहे इसीलिए कहती हूँ वरना मुझे क्या।"
" आप तो पिछले दो सालों से कह रही हैं पर
भाभी को कोई असर हुआ क्या? नहीं ना, ज्यादा कहोगे तो जबान लड़ाएगी।"
"घर वालों ने यही संस्कार दिए हैं, किसी की बात सुनती है नहीं फिर कहती हैं मैं पढ़ी - लिखी हूँ।"
अपने कमरे में सोया अजीत माँ-बेटी की सारी बातें सुन रहा था क्योंकि ये लोग इतनी तेज़ बातें कर रहे थे कि कमरे में आराम से सुना जा सकता था। अब वो भी आँखें मलते हुए बाहर आया और -" रूबी - रूबी... चाय बना दो भई। "
" माँ रूबी तो शायद पाँच बजे, अपने रोज के टाईम पर ही उठ गई, नहा रही होगी।"
"कहाँ उठी, मुझे तो आज कहीं नहीं दिखी वो। " अजीत की बात में माँ ने कहा। "
" नहा तो नहीं रही भाभी, मैं ऊपर देखकर आती हूँ ।" कहती हुई सरोज ऊपर गई तो वहाँ भी रूबी नहीं मिली। अब सभी के मन में घबराहट शुरू हो गई... कहीं कल वाली बात से नाराज़ हो कर...
" ओह्ह! वो रात को कुछ कहना चाह रही थी पर मैंने नहीं सुनी...! " कहते हुए अजीत अपने कमरे की और दौड़ा वहाँ टेबल पर रूबी का लिखा खत देखा और तुरंत उसे उठाकर पढ़ने लगा...
"क्या संबोधन दूँ,समझ नहीं आ रहा....
खनकती चूडियां, छनकती पायल, और अठखेलियाँ करते झुमकों पर बलिहारी मैं। नए जीवन के सतरंगी सपनों को पलकों में बसाए, तुम्हारे साथ गठबंधन में बंधी, सहन करती रही भरी गर्मी में उस भारी भरकम शादी के जोड़े को। पाँव में पहनी चुटकी भी बड़ा दर्द कर रही थी अंगुलियों में, पर .. नई सुहागन को पिया की प्रीत का पहला दर्द था वो। अद्भुत आनंद था उस दर्द में। तुम्हारे हाथ से पहनाई गई उस अँगूठी को देख-देखकर मैं पगली कितनी खुश हुई जाती थी ।
कितनी इतरा रही थी नाक में पहने उस नथ रूपी गोल छल्ले को देखकर । जो बार-बार मेरे भारी भरकम कपड़ों में अटक-अटक कर मुझे परेशान कर मेरी नाक की पीड़ा बढ़ा रहा था
पर मैं सहन कर रही थी उस पीड़ा को अपने सुनहरे भविष्य के लिए। सच ही तो कहती थी माँ, बहुत भोली हूँ मैं । तभी तो उस नथ के गोले में अपने सुखी संसार को देखकर मंद-मंद मुस्कुरा रही थी रही थी मैं ।
माँ ने बहुत मना किया था मुझे नाक छिदवाने के लिए। वो कहती रही तुम्हारी नाक मुझ पर गई है इसलिए बड़ी है। नहीं सहन कर पाओगी नाक पर ये बंदिश देखो मैं नहीं पहनती नाक में बाली । पर तुम्हारी माँ के कहने पर मैंने नाक छिदवा लिया। बहुत दर्द हुआ और पक गया था मेरा नाक। शादी के समय माँ ने बहुत समझाया कि मत पहनो नाक में नथ पर.. मैं पगली प्यार के ख़ुमार में डूबी ख़ुद अपनी ही नाक को घायल कर बैठी।
शादी की रात को तुमने सिंदूर से मेरी मांग भरी थी जब वो बहकर आ गई मेरे माथे तक। उसी को ठीक करते हुए उतर गई मुझ नादान से तुम्हारे नाम की बिंदी। ये देखकर तुम्हारी माँ ने झट से मुझे फिर मांग भरने का आदेश देते हुए कहा कि आज से तुम्हारे माथे से बिंदी और मांग से सिंदूर कभी नहीं मिटने चाहिए। माँ की बताई हुई मान्यता को उन्होंने फिर से मेरे सामने दोहराते हुए कहा- " एक स्त्री का सबसे बड़ा शृंगार है उसका पति और ये सब सुहाग के चिह्न देते हैं पति को लंबी आयु इसलिए एक सुहागन स्त्री को सुहाग के प्रतीकों का विशेष ध्यान रखना चाहिए।"
मैंने देखा कि तुम कपड़े बदलकर बड़े आराम से हँसी मज़ाक करने लगे हो अपने दोस्तों से। तुम और तुम्हारे दोस्त बात - बात में जब मेरे परिवार वालों का मज़ाक बना रहे थे तो नहीं अच्छा लगा मुझे बिल्कुल। तुम्हारी माँ और बहनों ने मुझे भी कपड़े तो बदलवा दिए पर साथ ही दे दिया नथ ना उतारने का तुगलकी फरमान । काफूर होने लगी थी मेरी ख़ुशियाँ उसी क्षण.. पर इतने में मेरे दुखते हुए नाक तक पहुँच गए तुम्हारी माँ - बहन के हाथ और छिटक दिया मैंने मेरे नाक तक पहुँचते उनके हाथ पहली ही बार में ।
उसी दिन दुत्कार झेलनी पड़ी थी मुझे सबकी। पर मुझे माँ ने सिखाया था गलत का विरोध करना सो बन गई मैं विद्रोहिणी। मान्यताएँ और परंपराएं जानती सब थी माँ, पर निभाना ना निभाना मर्जी पर था उनके।
खन-खन करती चूडियांँ, पायल-बिछिये, सिंदूर से रोज नहीं करती है शृंगार मेरी माँ।अपनी मर्जी से सजती-संवरती है वो क्योंकि दौड़ती है पिता के कंधे से कंधा मिलाकर दिनभर।
उतार देना चाहती थी मैं नाक की नथ उसी क्षण। पर तुम्हारे प्रेम की डोर से बंधी सहती रही दुखती नाक का दर्द । पर अब बहुत हुआ....नहीं रह सकती एक मूक पशु की भाँति इस घर में। नहीं सह सकती प्रहार अपनी नाक पर। जहाँ आजादी नहीं बोलने की, अपनी बात रखने की जहाँ कर्त्तव्यों के बदले में हर बार रख दिया जाता है हाथ उसके दुखते नाक पर ।
नहीं कहती कि तुम प्रेम नहीं करते मुझसे, हाँ बहुत प्रेम करते हो तुम। पर जाने क्यों खुली आँखों से भी नहीं देख पाते हो मेरे घायल नाक को। बहुत कोशिश की तुम्हें बताने और समझाने की पर तुम्हें तो सिर्फ अपनी नाक प्यारी है। इसलिए आज सौंप रही हूँ तुम्हारे नाम की नकेल जो दो सालों तक पड़ी रही मेरी नाक में। तुम्हारा प्रेम एक तरफ और मेरी नाक एक तरफ..... जिस दिन मेरे नाक की सुरक्षा करने की हिम्मत बटोर सको तो ले आना मुझे खुद अपने हाथ से नाक की ये नथ पहनाकर। तभी लौटाऊंगी तुम्हारा मेरे पास गिरवी रखा तुम्हारा संबोधन......
रूबी__
पत्र पढ़ते ही अजीत ने जल्दबाज़ी में टी शर्ट पहनी और मोटर साइकिल उठाकर बस स्टेशन की तरफ चल दिया। वो मोटर साइकिल किल को खड़ी कर ही रहा था कि एक बस की खिड़की से उसे रूबी दिखी। वो बस के पास पहुँचता तब तक बस रवाना हो गई, वो रूबी को आवाज लगाता रहा और रूबी उसे अनदेखा करती रही।
सुनीता बिश्नोलिया
जयपुर