चूल्हा ठंडा नहीं होता Sunita Bishnolia द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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चूल्हा ठंडा नहीं होता

चूल्हा ठंडा नहीं होता-कहानी
"रामनारायण बाजा बजाए… रामनारायण बाजा बजाए सब लोगों का दिल बहलाए" गाते हुए रामनारायण सोचता है "अच्छा है अपने परिवार से कोसों दूर रहने वाले मेरे साथियों के चेहरों पर मेरे कारण मुस्कान तो आती है।"
साथियों की बातों को याद कर मन ही मन मुस्कराते हुए चिलचिलाती धूप में सोने सी चमकती रेत से चुंधियाती आँखें, घुटनों तक लंबे जूतों में पसीने के कुलबुलाते कीड़े, उड़-उड़कर कपड़ों में भर चुकी रेत की काटती चीटियों के अहसास से अनजान।
पचास डिग्री टेंप्रेचर में भी इन रेतीले धोरों के बीच मुस्तैद खड़ा ये है सिपाही रामनारायण।
जैसा नाम वैसा काम रामनारायण के अनुसार रामजी के दिए जीवन पर पहला हक है राम के बंदों का।
यानी भगवान का दिया ये जीवन तभी सच्चा और अच्छा है जब ये किसी के काम आ सके। बापू कहते हैं मनुष्य जीवन का उद्देश्य ही दूसरों की सेवा करना है। माँ भी कहती हैं कि करोगे सेवा तो मिलेगा मेवा।
अरे, भाई मेवा मिले या ना मिले, इस धरती पर आए हैं तो अपने हिस्से के फर्ज निभाकर ही जाएंगे।
इसलिए किसी को कोई समस्या हो या किसी तरह की जरूरत, रामनारायण अपने दुख तकलीफ़ भूलकर जुट जाता दूसरों की समस्या हल करने। अब ये निरीह और भोला भाला जीव फौज में क्या कर रहा है ? भई इसके पीछे भी एक रोचक प्रसंग है।
जीविकोपार्जन के लिए भजन गाते-गाते पंडित मोहनलाल जी ना जाने कब देश भक्ति के गीत गाने लगे। माँ भी सुर में सुर मिला लिया करती थी तो भई घर के इकलौते चिराग रामनारायण पीछे कैसे रहते। वो भी स्कूल के हर कार्यक्रम में देशभक्ति के जो गीत सुनाते कि पूरे स्कूल में देशभक्ति की लहर दौड़ने लगती जो बच्चों की जोशीली तालियों की गड़गड़ाहट में सुनाई देती।

इधर गाँव के हर छोटे बड़े कार्यक्रम में पंडित जी और उनकी पत्नी को गायन के लिए आमंत्रित किया जाता। वो दोनों भी देशभक्ति के गीतों का ऎसा समां बाँधते कि सारा गांव जोश में झूमने लगता।
अब तो पति-पत्नी की जोड़ी लता मंगेशकर - मोहम्मद रफ़ी की जोड़ी कहलाती।
देशभक्ति के गीत गाते-गाते पति-पत्नी के मन में देशभक्ति की लहरें हिलोरें लेने लगी।
इसी बीच उनके मन में भी खयाल आया देशसेवा करने का। अपनी समझ में तो लोगों के मन में देशभक्ति की भावना का संचार कर वो देशसेवा ही कर रहे थे। फिर भी वो देश के लिए कुछ विशेष करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने विचार किया बेटे को फौज में भेजने का ।
देशभक्ति के गाने सुनने समझने के लिए पंडित जी और उनकी पत्नी, बेटे को साथ बिठाकर देशभक्ति की फिल्में देखा करते। बॉर्डर फिल्म देखते-देखते उनके मन में बेटे को फौज में भेजने का विचार दृढ़ निश्चय में बदल गया।
इस बात की भनक जब रामनारायण को लगी तब तक गाँव में ढिंढोरा पिट चुका था कि पंडित जी का बेटा फौज में जा रहा है।पढ़ाई - लिखाई में शुरू से ही ठीक था इसलिए गांँव में सबको यकीन हो गया कि ये लड़का जरूर फौज में पहुँच कर दिखाएगा। सब अपने-अपने बेटों को उलाहने देते कि पंडित का बेटा फौज में जाएगा पर हमारे छोरे तो माँ का पल्ला ही नहीं छोड़ते।
पूरे गांँव में सब पंडित जी और रामनारायण की भूरीभूरी प्रशंसा करते कि पूरे गाँव में यही एक लायक बेटा निकला जो फौज में जाकर गांव का नाम रोशन करेगा।
अब पीछे हटने का तो सवाल ही नहीं था क्योंकि पिताजी की बात पत्थर की लकीर होती। जब गाँवभर में उसके फौज में जाने की बात फैल चुकी है तो पिताजी के सम्मान के लिए रामनारायण सहर्ष फौज में जाने को तैयार हो गया क्योंकि माँ और पिताजी का सम्मान ही उसके लिए सबसे बड़ी पूँजी है। ।
माँ को इस बात का गर्व था कि बेटा फ़ौज में जा रहा है। हर माँ की तरह वो तो बस इसी बात से डरती थी कि बेटा मुझसे दूर जा रहा है कहीं मुझे भूल ना जाए।
एक समय तो ऐसा भी था जब माँ रामनारायण की शादी ही नहीं करना चाहती थी। क्योंकि उसे तब भी डर था कहीं शादी के बाद बेटा बहू का ना हो जाए। मैं अपने बेटे को कैसे किसी को सौंप दूँ नहीं बाँट सकती अपने बेटे को किसी के साथ।
माँ का बस चलता तो वो राम को अपने पल्लू से बाहर ही ना आने देती। पर देशभक्ति के गीतों ने उनके संकुचित विचारों को बदल दिया।
रही बात राम की शादी की तो स्कूल में पढ़ने के दौरान ही शास्त्री जी की बेटी कुसुम भाने लगी थी राम को। कुसुम भी राम को पसंद करती थी। बस उसको नहीं पसंद था तो राम का जरूरत से ज्यादा भोलापन इसके लिए वो उसे समझाती भी रहती थी।
राम के फ़ौज में जाने की बात गांँव में आग की तरह फैल गई। शास्त्री जी स्कूल में राम के अध्यापक हुआ करते थे उसी दौरान उन्होंने कुसुम को एक दो बार राम से बात करते हुए देखा। उस समय तो उन्होंने राम या कुसुम से कुछ नहीं कहा पर अब जब उन्होंने राम के फौज में जाने की बात सुनी तो वो फटाफट बेटी का रिश्ता लेकर
पंडित जी के पास गए।
पंडिताइन और पंडित जी शास्त्री जी के भक्त थे और कुसुम को भलीभाँति जानते थे। वो तो अपने बेटे के लिए कुसुम का रिश्ता पाकर खुद को कृतार्थ समझ रहे थे।
रिश्ता उसी दिन पक्का हो गया और तय हुआ कि राम के फौज में जाने से पहले ही शादी कर दी जाएगी ताकि घर में रौनक रहे और पंडित-पंडिताइन भी खुद को अकेले ना महसूस करें।
महीने के आखिर में शादी तय हुई और शादी के दस दिन बाद रामनारायण को जैसलमेर पोस्टिंग मिल गई।
रामनारायण फौज में पहुँच तो गया पर उसे गाँव की बहुत याद आती थी। गाँव में सारा दिन दोस्तों के साथ मौज-मस्ती और गीत गाते हुए बीत जाया करता था। वो सोचता मौज-मस्ती का जीवन भी कोई जीवन है असल में तो एक फौजी का जीवन ही सच्चा जीवन है।
देशभक्ति के गीत गाने और देश सेवा की बातें करने से बहुत ही अलग आनंद है सीमा पर खड़े होकर पहरेदारी करना। देश पर मर-मिटने का वो जज़्बा, वो जोश किसी गाने का मोहताज नहीं ये तो सुप्त ज्वालामुखी के भीतर दहकता लावा है जो हवा के एक झोंके से भी भड़क उठने पर आमादा है। यहाँ का कठिन और अनुशासित जीवन सिखाता है दिन के हर मिनट का हिसाब रखना और संयमित जीवन जीने की कला ।
राम की सात पुश्तों में भी कोई सेना में नहीं गया था इसलिए उसके लिए यहाँ की हर बात नई थी। दोस्तों द्वारा मज़ाक में कहा गया काम भी वो ऑर्डर समझकर करता। वो यही समझता अगर गलती से भी अगर मैं कोई काम ना कर पाया तो यह अपराध होगा और कहीं सेना का अनुशासन भंग करने के जुर्म में सजा ही ना मिल जाए या कहीं फौज से निकाल ही ना दिया जाऊँ। इसलिए वो हर काम को जी-जान से पूरा करने की कोशिश करता।
दिन में सुलगते कोयलों से झरती राख सी तपती बालू चाँद की रोशनी में खसखस सी ठंडी और सुगंधित हो जाती है। यहाँ दूर-दूर तक कोई पेड़ नहीं दिखाई देते फिर भी बिन पेड़ों के महसूस होते मंद-पवन के झोंकों संग उड़ती बालू ।
ऐसा लगता जैसे सपेरे ने छेड़ दी बीन की धुन और जिद करती है माटी को अपने साथ ले जाने की और बीन के सुरों से बंधी मज़बूर माटी भी थिरकने लगती है बेबस नागिन सी।
रामनारायण को दिन की गर्म रेत भी सुहाती है तो रात को ये सर्पीले धोरे उसे बांध लेते है अपने वात्सल्यमयी आँचल में।
दिन में ड्यूटी पर मुस्तैद राम को गर्म माटी पर हाथ फेरते हुए गुस्सा करती हुई प्रियतमा के अरुण कपोलों का सा नर्म अहसास होता है । तो संध्या के समय यही धोरे दिनभर प्रिय वियोग में जलती विरहिणी के समान लगते हैं जो शाम होते-होते शांत और शीतल हो जाती है।
इस मिट्टी का व्यवहार परिवर्तन देख रामनारायण की आँखों में कुसुम की छवि घूमने लगती है। इसी तरह स्कूल के दिनों में जब वो उसके बताए समय पर उससे नहीं मिलता तो वो गुस्सा करती और मिलने पर बहुत मनाना पड़ता था उसे। जैसे ये माटी, ये धोरे जलते हैं दिनभर और शाम को जाकर ठंडे होते हैं वैसे ही उसका गुस्सा भी बड़ी मिन्नतों के बाद ही शांत होता।
उसने अपनी ट्रेनिंग के दौरान ये सीखा और देखा भी था कि सेना में काम करने वाले को हमेशा अलर्ट रहना पड़ता है इसलिए वो सदा अलर्ट रहता था। उसके अफसर सभी को कहते थे कि यह बहुत ही संवेदनशील पोस्ट है पाकिस्तानी जासूस और आतंकवादी कभी भी धोखा देकर इधर से आ सकते है।
हालांकि ये बातें और आर्डर सभी के लिए होते पर राम को लगता जैसे सारी जिम्मेदारी उसी की है और वो हर जिम्मेदारी खुद पर लिए घूमता था।
एक तो वैसे ही सारे साथी उसे पंडित जी कहा करते दूसरे खाने पीने का शौक ना होने के कारण अधिकतर उसे अकेले को खाना खाना पड़ता।
रात के समय जब संगी साथी पार्टी के मूड में होते तो वो चाँद की रोशनी में चंदन से शीतल और खुशबू से भरे धोरों को माँ का आँचल समझ सिमट जाता था उन धोरों में। उसे वही आराम, वही ठंडक वही शीतलता मिलती जो माँ के पास होने पर मिलती थी ।
लेकिन कुछ दिनों से वो अनमना सा रहता है। बस खोया रहता है धुएंँ वाली अम्मा के ख्यालों में ।
अम्मा का बेटा आया कि नहीं ? क्या अभी भी रोज उसके लिए चार रोटी बनाकर रखती है ?
क्या अभी भी अम्मा चूल्हा बुझने नहीं देती?
क्यों नहीं आता उनका बेटा अपनी माँ को संभालने? बेटा फौज में है तो अम्मा इतनी गरीब क्यों? क्यों अपना पेट भरने के लिए अम्मा को गाँव भर की बकरियांँ चराने जाना पड़ता है ?
इन प्रश्नों के सागर में डूबे राम को अब ना ही दिन की गर्म रेत में प्रिया का सौंदर्य नजर आता ना ही रात को माँ के आँचल का अहसास ही होता। हाँ ड्यूटी के समय वो पूरा चौकस रहता है।
दो हफ्ते पहले की ही तो बात है सीमा से सटे गाँवों में पाकिस्तान की तरफ से सीजफायर का उल्लंघन कर दिया गया ।
लोगों में भय का माहौल था लोगों को गाँव से सुरक्षित निकालने और चौकसी के लिए वहाँ अतिरिक्त सेना तैनात की गई उन्हीं सैनिकों में एक रामनारायण भी था।
रामनारायण ने बड़ी ही फूर्ति से घर खाली करने में लोगों की मदद की।
डर और घबराहट के मारे गाँव वालों ने झटपट मकान खाली कर दिए पर एक अम्मा ने अपना मकान खाली करने से साफ मना कर दिया।
रामनारायण ने उसे बहुत समझाया पर वो नही मानी जबकि उसके घर में पहले ही पाकिस्तान की तरफ से आई गोलियां लगने से छेद हो चुके थे।
आखिर मे हार कर रामनारायण ने कैप्टन सुमित को बुलाया। उनकी समझाइश से बड़ी मुश्किल से अम्मा घर खाली करने को तैयार हुई।
सेना की मदद से सभी लोगों को टेंट के अस्थायी घरों में रखा गया। जहाँ लोग अपने साथ अपना थोड़ा - थोड़ा सामान लेकर आ गए।
कैप्टन सुमित के निर्देशानुसार अम्मा को घर से हर प्रकार का सामान लेने की छूट थी और अम्मा की मदद की जिम्मेदारी मिली सिपाही रामनारायण को।
बहुत कहने पर भी अम्मा ने ज्यादा सामान नहीं लिया पर खूंटी पर टंगी फौजी की यूनिफॉर्म उतार कर अपनी लोहे की पेटी में रखने लगी।
रामनारायण ने फौजी की ड्रेस देखकर आश्चर्यचकित होते हुए पूछा- ‘‘अम्मा ये ड्रेस ... ’’
"मेरे बेटे की है... ’’
रामनारायण को बहुत आश्चर्य हुआ क्योंकि जिस स्थिति में वो यूनिफॉर्म खूंटी पर से उतारी गई उसे देखकर ऐसा लग रहा था कि कई सालों से ये यूनिफॉर्म ना ही खूंटी से उतारी गई और ना किसी ने पहनी।
" आपके बेटे की..! " रामनारायण ने
आश्चर्यचकित होकर पूछा।

आश्चर्य में डूबे रामनारायण को गौर से देखते हुए अम्मा बोली - " हाँ मेरे बेटे की....!"
"तो क्या वो भी फौज में है ?"
रामनारायण की आँखें में खुशी से चमक उठी और वो बोला - "अच्छा!"
अम्मा ने रामनारायण के चेहरे के भाव पढ़ लिए थे इसलिए उसकी जिज्ञासा को शांत करते हुए कहा - हाँ बेटा, मेरा बेटा फौज में...
अरे! वाह अम्मा ये तो बहुत अच्छी बात है। कहाँ पोस्टिंग है आपके बेटे की…
अम्मा ने रामनारायण के प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया तो राम ने भी दुबारा पूछना उचित नहीं समझा ।
जब वो घर के अंदर से अम्मा का सामान ले रहा था तो उसने पूरे घर को एक ही नज़र में देख लिया।
घर की स्थिति को देखकर कतई नहीं लगता था कि इस घर का बेटा फौज में हो सकता है ।
ऐसा लगता है जैसे मकान बनने के बाद से लेकर एक बार भी इसमें सफेदी नहीं की गई। जगह जगह से टूटा फूटा। टिन शेड में बन चुके सुराखों से आती रोशनी घर की बदहाली की कहानी खुद कह रही है।
सरसरी नज़र डालने पर गिनती के पाँच बर्तन, गोबर से लिपा चूल्हा, एक कमरे का मकान उसी के आगे छोटा सा बरामदा, कमरे के पीछे सरकार का बनवाकर दिया हुआ टॉयलेट और फटे पुराने कपड़ों में लिपटी अम्मा।
अगर इस यूनिफॉर्म को छोड़ दें तो पूरे घर में बेटे की कोई तस्वीर या दूसरी निशानी नहीं दिखाई देती। कमरे की एक दीवार पर इंदिरा गांधी की बहुत ही पुरानी तस्वीर लगी है। उसी के पास साँवली सी लड़की और रौबदार व्यक्ति की बहुत पुरानी तस्वीर जरूर लगी है जो देखने में पति-पत्नी लग रहे हैं और ये तस्वीर किसी मेले में खिंचवाई हुई लगती है।
राम अम्मा को जल्दी बाहर आने के लिए कह रहा है पर वो है कि चूल्हे के पास बैठकर कुछ करने लगी। राम के जल्दी करने पर अम्मा बोली -
"आती हूँ बेटा पर आग तो दबा दूँ राख में। बड़े बूढ़े कहकर गए हैं कि घर में कभी चूल्हा ठंडा नहीं होना चाहिए । जिस घर चूल्हा ठंडा हो जाता है वहाँ लछमी चली जाती है।"
अम्मा की बात सुनकर राम की आँखें फटी की फटी रह गई और उसने सोचा - " जिस घर दरिद्रता का ऎसा वास है वहाँ इन टोटकों से लक्ष्मी की आस…ओह! वाह मेरी भारतीय संस्कृति और भारतीय संस्कार।
अम्मा ने बताया कि उसके घर के चूल्हे में हरदम आग रहती है जब रसोई में काम नहीं होता तो वो आग को राख के नीचे दबा देती है और गाँव भर की भेड़-बकरियाँ चराने ले जाया करती है । घर आकर उसी आग से दुबारा चूल्हा सुलगा लिया करती है।
रामनारायण ने जल्दी-जल्दी अम्मा का सामान समेटकर पेटी में डाला और उन्हें साथ लेकर घर से बाहर निकलने लगा। पर अम्मा थी कि घर से बाहर निकलने को तैयार ही नहीं थी। बहुत मुश्किल राम उन्हें बाहर लेकर आया ।
रामनारायण ने कहा - - "अम्मा लाइए ताला मैं लगा देता हूँ।" तो अम्मा बोली -
"ना बेटा ताला नहीं लगाना कौन-सा धन गड़ा है मेरे घर में । इतना ही कमाती हूँ जितना खा लेती हूँ और कौन यहाँ चोर है। पीछे से अगर बेटा आ गया और घर बंद मिलेगा तो बेचारा मारा-मारा फिरेगा।"
राम ने देखा अम्मा ने एक थाली में खाना लगाकर रखा है। उसने सोचा अम्मा अभी खाना खाएगी पर अम्मा ने जो कहा उसे सुनकर तो राम के आश्चर्य की सीमा ही ना रही अम्मा बोली - -
"रोटी बनाकर रख दी, रसोई में चाय चीनी सब चूल्हे के पास रखकर आई हूँ । पानी के दो मटके भरे हुए हैं। रोटी खाकर पानी पीले या चाय बनाकर पीले....भई आना न आना उसकी मर्जी बस मैं अपने सारे काम रोज करती हूँ ताकि दुनिया मुझे दोष ना दे कि माँ अपने बेटे के लिए रोटी तक ना बना पाती है ।"
अम्मा की की बाते सुनकर रामनारायण ने सोचा - "ऐसी क्या बात है कि इतना प्यार करने वाली माँ को संभालने के लिए उसका बेटा आता ही नहीं ! "
"बेटे के लिए रोटी बनाई है उसके आने की तो भगवान जाने। आया तो रोटी पड़ी है थाली में खा लेगा। चल तू भी बुढ़िया के हाथ से बनी थोड़ी सी रोटी खाले। "

रामनारायण ड्यूटी पर था वो जल्दी से जल्दी अम्मा के साथ घर खाली करवाना चाह रहा था पर अम्मा थी कि अब नया राग लेकर बैठ गई। जब रामनारायण ने खाने से मना कर दिया तो अम्मा की आँखों में आँसू आ गए और बोली --
" अपनी माँ के हाथ का बना समझकर ही खा ले,
एक कौर तो खा बेटा ।"
कहती हुई अम्मा ने खाने के लिए मना करते हुए राम के मुँह की तरफ अचानक रोटी का कौर कर दिया। जाने क्या जादू था उन क्षणों में राम ने चुपचाप रोटी का वो कौर खा लिया और उसकी आँखें भर आई। एक नन्हे बच्चे की तरह वो अम्मा को देखता रहा और बस इतना ही बोल पाया - "अम्मा चलें…!"
लगभग आधे घंटे से राम अम्मा के साथ है अब तक उसने अम्मा को मुस्कराते नहीं देखा पर जैसे ही राम ने रोटी का एक कौर मुँह में लिया अम्मा मुस्करा उठी। छलछलाती बूढ़ी आँखों में खुशी की लहर दौड़ पड़ी और बची हुई रोटियों को कपड़े में लपेटकर अम्मा खुशी-खुशी राम के साथ चल पड़ी।
गाँव से लगभग पैंतीस-चालीस किलोमीटर दूर शिविर में सेना की मदद से गाँव के सभी लोग पहुँच चुके थे। सभी के चेहरों पर घर छूटने का दर्द साफ दिखाई दे रहा था। अम्मा के वहाँ पहुँचते ही एक बहुत बुजुर्ग महिला बोली - " अरी भागो कहाँ रह गई थी तू! आजा यहाँ बैठ ।"
अम्मा ने सबसे पहले बुजुर्ग महिला से सारे मवेशियों के बारे में पूछा और जानकर शांति मिली। कि थोड़ी दूर एक चार दिवारी में गाँवभर के मवेशियों को रखा गया है।
शिविर में छोटे बच्चे खाने लिए रो रहे थे । अम्मा उन्हें अपने साथ लाया खाना दे ही रही थी कि कुछ फौजी सबके लिए खाना लेकर आ गए।
अम्मा ने खाना खाने से साफ मना करते हुए कहा वो यहाँ रहेगी भी नहीं।
सबकी समझाइश से वो यहाँ सो तो गई पर सबके सोने के बाद वो मवेशियों के बाड़े की तरफ जा रही थी कि रामनारायण ने देख लिया।
राम ने अम्मा को रोकने की बहुत कोशिश की पर अम्मा ने कहा कि मुझे तो इतने लोगों के बीच नींद नहीं आती। बहुत समझाने पर भी वो नहीं रुकी और उस चारदीवारी के भीतर जाकर बैठ गई जहाँ पर मवेशी बंधे हुए थे।
रामनारायण भी थका हुआ था जब वो ये देखकर निश्चिंत हो गया कि शिविर में सब सब कुछ ठीक है तो वो भी जाकर सो गया।
सुबह पाँच बजे कुछ अन्य सैनिकों के साथ राम तैयार होकर अपनी ड्यूटी के लिए अम्मा के गाँव जा रहा था। थोड़ी ही दूर जाने पर जीप की रोशनी में दिखा कि अम्मा एक जवान से बहस कर रही है - वो बोला - आप मवेशियों को कहीं नहीं ले जा सकती। अम्मा इन सबको यहीं हरा चारा मिल जाएगा आप मानिए।"
पर वो नही मानी और जिद करके ले जाने लगी भेड़-बकरियों को चराने।
" पास ही चरा लाऊँगी देखते रहना दूर से" - कहती हुई अम्मा ले गई भेड़-बकरियों को।
राम की जीप भी अब तक बहुत दूर जा चुकी थी। पर जाने राम को ममता की किस डोर से बाँध लिया था अम्मा ने कि उसकी आँखें पीछे मुड़-मुड़कर अब भी अम्मा को ही देखने की कोशिश कर रही थी।
राम दिनभर सीमा पर चौकस खड़ा अपनी ड्यूटी देता रहा। शाम के समय ड्यूटी बदलने पर जब वो गाँव की तरफ आया तो ये देखकर घबरा गया कि अम्मा के घर से धुआं कैसे उठ रहा है। ओह! अम्मा चूल्हे को सुलगता छोड़ गई थी कहीं आग ना लग गई हो वो यही सोचता हुआ दौड़कर अंदर गया तो देखकर हतप्रभ रह गया। कि
अंदर तो अम्मा खाना बना रही है ।
रामनारायण को देखते ही अम्मा मुस्कुरा उठी और बोली - "देख बेटे के लिए खाना बनाया है वो आए तो ठीक ना आए तो ठीक।
"अब खाने के बखत तो जो घर आए वो भाग्यवान होता है। तू तो मेरे बेटे जैसा है तू ही खा ले रे बेटा खाना, बुढ़िया का जी राजी हो जाएगा ।"
राम ने आश्चर्य से पूछा -"आप यहाँ कैसे आईं, आप तो शिविर में थी फिर इतनी दूर..!"
अम्मा ने कहा - "जब मेरा बेटा यहाँ है तो मैं वहाँ कैसे रहती। मैं तो आ गई तुम्हारे जैसे ही किसी बाबू के साथ। "

अम्मा की पहेलियों सी बातें राम के समझ नहीं आई। अब राम ने फिर अम्मा को शिविर में चलने को कहा तो अम्मा ने मना कर दिया। पर अम्मा के लाख मना करने के बावजूद भी वो उन्हें अपने साथ शिविर में ले गया।


अब तो रोज ऎसा ही होने लगा दिन में अम्मा कैसे ना कैसे घर आ ही जाती और घर से धुआँ उठता देखकर ना चाहते हुए भी रामनारायण उनके पास चला ही जाता।
अब यहाँ हालात सामान्य हो गए लोग शिविर छोड़कर घर आने लगे हैं। रामनारायण के वापस जाने की बात पर अम्मा की आँखें भर आई और ज़बर्दस्ती उसे खाना खिलाकर प्यार से माथा चूमा।रामनारायण को बिल्कुल ऐसा लगा जैसे उसकी माँ ही उसका माथा चूम रही हो। अम्मा के "फिर कब आएगा " कहने पर राम की आँखें भी भर आईं और वो वहाँ से निकल आया।
वापस अपने ड्यूटी स्थल पर पहुँचकर उसका ना दिन ही कट रहा था ना रात ही। उसे तो बस धुएँ वाली अम्मा की याद आ रही थी।
वो बस उसी के बारे में सोचकर धिक्कार रहा था उसके बेटे को। -" ऎसा बेटा किस काम का जो अपनी माँ की ऎसी हालत का पता होने पर भी उसे देखने नहीं आ रहा।"
पर अगले ही पल …"नहीं नहीं वो भी फौजी है उसके लिए देश पहले है बाकी सब बाद में शायद मेरी ही तरह….नहीं आ पा रहा होगा।"
ये सोचते ही उसे माँ की याद आ गई.. "ओह्ह मेरी माँ भी तो मुझे याद करती होगी। मैंने भी तो कई दिन से माँ से बात नहीं की।"
दूसरे दिन राम ने अपनी माँ को फोन किया और माँ को धुएँ वाली अम्मा के बारे में सब कुछ बताया और ये भी बताया कि - "माँ जब मैं धुएँ वाली अम्मा के पास होता हूँ तो मुझे ऎसा लगता है मैं आप ही के पास हूँ आप नाराज मत होना माँ..." बेटे के भर्राए गले से ये बात सुनकर माँ बोली -
" ये तो मेरे कर्म और संस्कार हैं जो मेरे लाडले ने अनजान अम्मा का बेटा बनकर उन्हें संतान का सुख दिया। आगे भी उनसे मिलते रहना बेटा मैं तुझसे नाराज नहीं मुझे तो गर्व है तुझ पर। नाराज तो तू भी मत होना राम, अपने पीछे तू जो ये गुलाब का फूल छोड़कर गया है ना घर में इसकी महक ने हमें तेरी कमी महसूस ही नहीं होने दी। अब ये इस क्यारी में सुखी है या नहीं ये तू इसी से पूछ ले।" कहती हुई माँ ने फोन कुसुम को दे दिया और खुद पंडित जी के साथ घर से बाहर चली गई।
कुसुम से कई देर बात करने पर राम को बहुत अच्छा लगा कभी गुस्से का कांटा तो कभी अपनी मुस्कराहट की महक से कुसुम ने राम का ह्रदय प्रेम के सागर से आप्लावित कर दिया। माँ और कुसुम के कहने पर आज राम अम्मा से मिलने गाँव गया।
अम्मा भेड़-बकरियां चराने के लिए गई हुई थी। उसे आया देखकर गाँव के कुछ लोग भी उसके पास आ गए। उसके अच्छे और मिलनसार स्वभाव के कारण सारे गाँव वाले उसे बहुत पसंद करने लगे थे।
उसने गाँव वालों से अम्मा के बेटे के बारे में पूछा कि वो अभी तक आया या नहीं।इस पर गाँव वालों ने आश्चर्यचकित होते हुए बताया कि अम्मा के तो कोई बच्चा है ही नहीं। आज लगभग पैंतीस सालों से वो यह मानती आ रही है कि उसके एक बेटा है और वो फौज में है। अम्मा की यही सोच अब पक्के विश्वास में बदल चुकी है अब वो इसे सच मान बैठी है इसलिए सारे गांव वाले भी उसे बेटे के आने का आश्वासन देते रहते हैं ।
"अम्मा का कोई बेटा नहीं?"
गांव वालों की बातें सुनकर आश्चर्यचकित होते हुए राम ने कहा।
हाँ में सिर हिलाते हुए एक व्यक्ति ने दूर एक घर की तरफ इशारा करते हुए कहा कि उस घर में गाँव की सबसे बुजुर्ग माँजी रहती हैं वो बताती हैं कि -
भागो और उसका पति लगभग चालीस साल पहले यहाँ आए थे दोनों में बहुत प्यार था।
ऐसा लगता था जैसे अभी कुछ दिन पहले ही ब्याह कर आई हो । उसका आदमी हट्टा-कट्टा जवान था देखने में फौजी लगता था उसके एक पैर नहीं था। साँवली सी भागो बहुत दुबली-पतली थी। सजने-सँवरने का बहुत शौक था उसे। पैरों में टनटन करती मोटी-मोटी चांदी की कड़ियाँ और घेरदार घाघरे पर जो बड़े बड़े सितारों से झिलमिलाती ओढ़नी ओढकर पति के साथ निकलती तो गांव के सब लोग उसे मुड़-मुड़कर देखते। वैसे देखने में पति-पत्नी का कोई मेल न था। कहाँ पतली-दुबली साँवली सी भागो और कहाँ बड़ी-बड़ी मूछों वाला उसका हट्टा-कट्टा पति। दोनों दिनभर इधर-उधर घूमते और जहाँ कहीं हरियाली मिलती वहीं बैठ जाते।
शायद कुछ दिन के खाने का तो जुगाड़ था उनके पास। अब आगे के लिए उन्होंने हमारी बस्ती में काम मांगना शुरू कर दिया।
माँजी की सास को उन पर तरस आ गया और उन्होंने भागो और उसके पति को बकरियां चराने का काम दे दिया। धीरे-धीरे आसपास के और लोगों ने भी उन्हें भेड़- बकरियां चराने को दे दी। भागो की आवाज बड़ी मीठी थी वो रेवड़ चराते हुए बहुत ही मीठे गीत गाया करती ।
रेवड़ चराने से थोड़ी बहुत कमाई होने लगी तो थोड़े दिन बाद वो बस्ती से दूर यहाँ झोपड़ी बनाकर रहने लगे। साल दो साल बाद कुछ पैसे जोड़कर उन्होंने झोंपड़े की जगह पक्का घर बना लिया।
लगभग पैंतीस साल पहले भी पाकिस्तान ने ऐसे ही गाँव की तरफ गोलियां बरसाई थी तब ये दोनों घर में थे। इनका घर सीमा के बहुत नजदीक होने के कारण सीमा पार से दागी गई गोलियां इनके घर तक पहुँच जाती हैं। उस समय भी इनके घर पर कई गोलियाँ लगी थी उन्हीं में से एक गोली अम्मा के पति को लगी और गोली लगने से अम्मा के पति की मौत हो गई।
उस समय भागो पेट से थी। दोनों पति-पत्नी अपने बच्चे को फौज में भेजना चाहते थे। पति की मौत के सदमे में भागो का गर्भ गिर गया पर इसका अहसास भी भागो को नहीं था वो तो पति की मौत के बाद पागल सी हो गई और सबको कहती थी मेरा बेटा फौज में जाएगा मार और देगा सबको ।
समय बीतने के साथ भागो सबको ये कहने लगी कि उसका बेटा फौज में गया उसने कभी ये सच माना ही नहीं कि उनका कोई बेटा नही ।
वो हमेशा गाँव वालों की बकरियां चराती और बेटे के नाम से चार रोटियां बनाकर रख देती हैं और शाम को वो रोटियाँ हमारी गाय को खिला देती हैं और दूसरे दिन फिर रोटियाँ बनाती हैं ।
राम गाँव वालों से अम्मा के बारे में बात कर ही रहा था कि उसे दूर से रेवड़ को घेर कर लाती हुई अम्मा दिखाई देती है।
अम्मा भी राम को देखकर बहुत खुश हुई और जल्दी-जल्दी उसके पास आई और बोली -
"बाहर ही खड़ा रहेगा क्या राम ? घर के अंदर गया ही नहीं.. देख तेरा खाना बनाकर रखा है जा खा ले…!"
इस पर सब गाँव वाले अम्मा की शकल देखने लगे इतने में अम्मा फिर बोल पड़ी
"अब अंदर चल भी राम तेरी रोटी ठंडी हो गई होगी । मैं रोटियों को फिर से गर्म कर दूँगी आजा.. . आजा ।"
"चलो अम्मा, बहुत भूख लगी है, पर आज खाना तो तुम्हारे हाथ से ही खाऊँगा।"
कहते हुए रामनारायण अम्मा के पीछे घर के अंदर चला गया। अंदर जाकर अम्मा ने अपने पल्लू से लोटे को पकड़कर हाथ धोए और जल्दी-जल्दी चूल्हे में राख के नीचे दबी आग को सुलगा कर थाली में ढक कर रखी रोटियों को गरम किया। फिर वहीं चूल्हे के पास बैठे राम को बड़े प्रेम से अपने हाथों से खाना खिलाने लगी।
गाँववाले भी राम और अम्मा के पीछे-पीछे घर के अंदर आ गए थे। चूल्हे से उठती धुआँ और माँ-बेटे के इस प्रेम को देखकर वो अभिभूत हो गए….

सुनीता बिश्नोलिया


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