अर्जुन रात भर का सोया नहीं है। अलसायी आँखों से आसपास का मुआयना कर रहा है। कोई छोटा-मोटा क़स्बा है शायद। चिड़ियाँ चहचहाकर नए दिन की सूचना दे रही हैं। रात की कालिमा छँट चुकी है, और आकाश की सफ़ेदी- मिनट दर मिनट बढ़ती जा रही है। लॉकडाउन की वजह से सड़क पर वाहनों की आवाजाही कम है। कोई सज्जन सफ़ेद कुर्ता पहने, मास्क लगाये हुए मद्धम गति से अपनी राजदूत का रौब झाड़ते चल रहे हैं। सिर के आधे बाल उड़ चुके हैं, जो बचे हैं वो हवा में उड़े जा रहे हैं। हर एकाध किलोमीटर पे सड़क के दोनों कोरों पर, कुछेक गुमटियां उग आयी हैं, जिन्हें देखकर मन में यह प्रश्न अनायास ही उमड़ने लगता है कि यहाँ पहले सड़क आयी थी या गुमटी?? सड़क के दोनों तरफ़ पेड़ों को काटकर उनके बड़े-बड़े, गोलाकार बोटे एक पर एक सजा दिये गए हैं। एनजीटी के सख़्त निर्देश हैं कि जितने पेड़ काटे जाएं, उससे दोगुनी संख्या में वृक्षारोपण हो। वन-विभाग के कर्मठ कर्मचारी उन निर्देशों को एक कान से सुनकर दूसरे कान से, इस ख़ास मक़सद से निकाल देते हैं कि वे निर्देश; हवा के जरिये जन-जन में प्रसारित हो जाएं। लोकतांत्रिक भारत की अधिकांश लोक-कल्याण संस्थाएं इसी तरह निर्देश देकर, और हमारे मुस्तैद लोक-सेवक इसी तरह उन निर्देशों को सुनकर अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हैं। बस इसी एक सरल कार्य-योजना के सहारे हमारा देश, सुचारू ढंग से काम कर रहा है।
बड़े-संभ्रांत वर्ग में चलने वाली, ठंडी बियर की सरकारी दुकानें कोसों पीछे छूट चुकीं हैं। यहाँ देशी शराब के ठेकों की बहुतायत है। सगी बहनें होने के बावजूद,देसी और अंग्रेज़ी का सेवन करने वाले एक-दूसरे के धुर विरोधी समझे जाते हैं। आधुनिक युग के आरंभ से ही इन दोनों प्रजातियों के बीच 'सुपिरियारिटी' की जंग छिड़ी हुई है। दोनों तरफ़ के लोग बड़े ही लोकतांत्रिक तरीके से, एक दूसरे पर भाँति-भाँति के लांछन लगाते रहे हैं। जहाँ एक तरफ़ अंग्रेज़ी पीने वाले अपने आभिजात्य का दम भरते हैं, और देशी पीने वालों को जाहिल-गँवार बताते हैं वहीं दूसरी तरफ़, देशी ठर्रे का पान करने वालों का दावा है कि एक शीशी के बाद वो लोग, अंग्रेज़ी पीने वालों से कहीं बेहतर अंग्रेज़ी बोलने लगते हैं। कई मर्तबा कोई बड़ा पियक्कड़ तो नशे में यहाँ तक बोल जाता है कि कि देसी सबके बस की नहीं होती, जो देशी को झेल गया वो हलाहल भी पचा सकता है।
आरोप-प्रत्यारोपों का यह दौर कई सदियों से चल रहा है, मगर किसके दावे में कितना दम है, यह तो आप खुद पीकर ही बता पायेंगे। पियक्क्ड़ों को उनके हाल पर छोड़कर आइये, हम दूसरे नज़ारे देखते हैं।
चींटियों की तरह कतारबद्ध कुछ लोग अपने-अपने हाथों में लोटा-बधनी और डिब्बे लिए, लैटरिंग को अग्रसर हैं। सरकार बदली है तब तो कुछ दशा बदली है, वर्ना जितनी दूर शहराती मॉर्निंग वॉक के लिए जाते हैं, उतनी दूर तो ग्रामीण हगने चले जाते थे।
ट्रक रुक गया। अर्जुन ने उचककर फ़ाटक से बाहर झाँका। ट्रक को रोकने का कोई महती कारण समझ नहीं आ रहा। कारण जानने के लिए उसने मुंडी घुमाकर जब ट्रक के फ़ाटक की तरफ़ देखा, तो उसे एक बड़ा विहंगम दृश्य दिखलाई पड़ा। ट्रक के खलासी साहब हाथ में 'बिलसेरी' की बोतल लिये, झाड़ियों की तरफ़ सरपट दौड़े जा रहे हैं। अर्जुन ने सोचा उन्हें रोककर जगह का नाम पूछ ले, लेकिन ऐसी हालत में उन्हें टोकना- शेर की पूँछ पर पाँव रखने जैसा होगा। अर्जुन वापस अपनी जगह पर बैठ गया है। उसने एक नज़र मीनाक्षी को देखा, वो अपनी माँ के कंधे से लगकर बैठी है। चेहरे पर भोलापन है, मानों कुछ हुआ ही न हो। लड़के तो एक किस मिलने के बाद, जाने किस-किस को बताते फ़िरते हैं। लड़कों को; लड़कियों से 'नेकी करके दरिया में डालने' का यह गुर सीखना चाहिये। लड़कों में कभी जो वैराग्य पनपता भी है तो उसका कालखंड बड़ा बेढंगा है। रतिक्रिया के तुरंत बाद जब स्त्री के ह्रदय में रोमांस के लावे फ़ूटने लगते हैं, बस उसी क्षण पुरुषों का प्रेम से मोहभंग हो जाता है। इस समय उनके सात्विक मन में यह इंस्टैंट विचार आता है कि कामक्रिया जैसी निरर्थक चीज़ का क्रियाकर्म कर देना चाहिए।
अर्जुन फ़िर बाहर देखने लगा। खलासी साहब अपना काम खलास करके वापस लौट रहे हैं। उनके चेहरे पर उपजे संतोष के भाव बता रहे हैं कि सुबह की शुरुआत अच्छी हुई है। अपने चारों तरफ़ नज़र दौड़ाने पर अर्जुन ने पाया कि उसके आसपास और भी बहुत सी साधारण चीज़ें घटित हो रहीं हैं, जिन्हें देखने में अर्जुन को ज़रा भी दिलचस्पी नहीं है। मगर क्योंकि उसकी ताज़ा-तरीन ‘गलफ्रेंड’ रात के एडवेंचर से थककर अब सो चुकी है, तो उसके जिम्मे करने को दूसरा कोई काम भी नहीं है। मन बहलाने की मंशा से अर्जुन, उस जगह की ‘स्पेशियालिटी’ को आत्मसात करने लगा।
क्रमशः