कहते हैं कि हर इंसान की कोई ना कोई..बेशक कम या ज़्यादा मगर कीमत होती ही है।कौन..कब..किसके..किस काम आ जाए..कह नहीं सकते। ठीक उसी तरह जिस तरह ताश की गड्ढी में मौजूद उसके हर पत्ते की वक्त ज़रूरत के हिसाब से अपनी अपनी हैसियत..अपनी अपनी कीमत होती है। जहाँ बड़े बड़े धुरंधर फेल हो जाते हैं..वहाँ एक अदना सा.. कम वैल्यू वाला पत्ता या व्यक्ति भी अपने दम पर बाज़ी जिताने की कुव्वत..हिम्मत एवं हौंसला रखता है।
पुराने इतिहास के पन्नों को खंगालने पर पता चलता है कि आज से हज़ारों साल पहले चीनी राजवंश की राजकुमारी अपने रिश्तेदारों के साथ आपस में पेड़ के पत्तों पर चित्रित तस्वीरों से बनी ताश खेला करती थी। बाद में ताश का यही मनोरंजक खेल, चीन की सीमाओं को लांघ, पत्तों से कागज़ और कागज़ से आगे प्लास्टिक तक की यात्रा करता हुआ यूरोप, इंग्लैंड और स्पेन समेत पूरी दुनिया में फैल गया।
आज बातों ही बातों में ताश का जिक्र इसलिए कि आज मैं सोहेल रज़ा जी के पहले उपन्यास 'ताश के पत्ते' की बात करने जा रहा हूँ। जो अपने नाम याने की शीर्षक के अनुसार किसी क्राइम थ्रिलर जैसा भान देता है मगर असल में इसमें आदिल- समीरा की प्रेम कहानी के अलावा कहानी है उन हज़ारों लाखों अभ्यर्थियों की जो अपने..अपने घरवालों के सपनों को पूरा करने के लिए हर साल SSC CGL (स्टाफ सिलेक्शन कमीशन - कंबाइंड ग्रैजुएट लेवल) जैसी कठिन लेवल की परीक्षाओं में सलैक्ट होने के लिए अपने दिन रात एक किए रहते हैं।
इस उपन्यास में कहानी है IAS, IPS और स्टॉफ सलैक्शन कमीशन की कठिन परीक्षाओं की तैयारी करने और करवाने के लिए कोचिंग हब में तब्दील हो चुके दिल्ली के मुखर्जी नगर और उसके आसपास के इलाके की। जहाँ ऑटो चालक से ले कर प्रॉपर्टी डीलर तक हर कोई पीजी और टिफ़िन सर्विस प्रोवाइड करने हेतु आतुर नज़र आता है। इसमें कहानी है यहाँ के छोटे छोटे सीलन..बदबू भरे तंग कमरों में बड़ी मुश्किल से गुज़ारा कर..अपने दिन रात होम करते हज़ारों अभ्यर्थियों की। साथ ही इसमें बात है लक्ष्य प्राप्ति हेतु रात रात भर जाग कर की गयी अथक मेहनत..लगन और तपस्या के बीच डूबते-चढ़ते..बनते-बिगड़ते इरादों..हौंसलों और अरमानों की।
कनपुरिया शैली में लिखे गए इस उपन्यास में ममता..त्याग और स्नेह के बीच ज़िद है खोए हुए आत्मसम्मान को फिर से पाने की। धार्मिक सोहाद्र और भाईचारे के बीच इसमें बात है यारी..दोस्ती और मस्ती भरे संजीदा किरदारों की।
इस उपन्यास में एक तरफ़ बात है छोटी छोटी खुशियों..आशाओं और सफलताओं को सेलिब्रेट करते अभ्यर्थियों की। तो वहीं दूसरी तरफ़ इसमें बात है हताशा..निराशा और अवसाद के बीच खुदकुशी करने को मजबूर होते युवाओं की। इसमें बात है एकाग्रचित्त मन से सफ़लता हेतु अपना सर्वश्रेष्ठ देने के बावजूद लाखों सपनों के धराशायी हो टूटने..चटकने और बिखरने की। इसमें बात है एकता..अखंडता के जज़्बे और जोश से भरे अभ्यर्थियों के बीच फूट डालने को आतुर होते खुराफाती राजनैतिक प्रयासों की।
इस उपन्यास में एक तरफ़ बात है अफसरशाही से जुड़े लापरवाही भरे फैसलों के चलते सड़कों पर धरने प्रदर्शन और अनशन को मजबूर होते देश भर के हज़ारों..लाखों युवाओं की। तो दूसरी तरफ़ इसमें बात है सरकारी नुमाइंदों के ढिलमुल रवैये.. खोखले आदर्शों और झूठे वादों से लैस गोलमोल इरादों की। इसमें बात है गैरज़िम्मेदाराना प्रशासनिक एटीट्यूड के मद्देनज़र अदालती फैसलों में निरंतर होती देरी और उससे पैदा होती निराशा और फ्रस्ट्रेशन भरे अवसाद की।
बाँधने की क्षमता से लैस इस उपन्यास में बतौर सजग पाठक मुझे कुछ कमियां भी दिखाई दी जैसे कि..
*टीचिंग के पहले प्रयास में ही आदिल को बारह सौ रुपए हर बैच के हिसाब से रोज़ के दो बैच मिल जाना तथा उसका समीरा को चंद औपचारिक मुलाकातों के बाद पहली ही डेट में 'आई लव यू' बोल प्रपोज़ कर देना और बारिश के दौरान बिजली कड़कने से समीरा का घबरा कर आदिल के गले लग जाना थोड़ा अटपटा..चलताऊ एवं फिल्मी लगा।
*पेज नंबर 12 पर एक जगह लिखा दिखाई दिया कि..
"मैं उन पैसों को ऐसे संभाल कर रख रहा था जैसे पुजारी अपनी पवित्र ग्रंथ को संभाल कर रखता है।"
यहाँ पर मेरे हिसाब से 'पुजारी' शब्द का इस्तेमाल तर्कसंगत नहीं है क्योंकि इस बात को कहने वाला 'आदिल' मुस्लिम है। इस नाते यहाँ पर पुजारी की जगह पर मौलवी या कोई और जायज़ शब्द आता तो ज्यादा बेहतर था।
*पेज नंबर 13 पर 'यूकेलिप्टस' की लकड़ी को 'लिपटिस' कहा गया जबकि सफ़ेदे के पेड़ की लकड़ी को 'यूकेलिप्टस' कहा जाता है।
*इसी तरह पेज नंबर 52 पर लिखा दिखाई दिया कि..
"विवेक भाई! तुम सरकारी व्यवस्था से क्षुब्ध क्यों हो? जब देखो तंत्र का अवगुण करते रहते हो।"
यहाँ 'तंत्र का अवगुण करना' सही वाक्य नहीं बन रहा है। इसके बजाय वाक्य इस प्रकार होना चाहिए था कि..
"जब देखो तंत्र का निरादर करते रहते हो।"
*पेज नंबर 191 पर लिखा दिखाई दिया कि..
"समीरा का चेहरा आज पहले से ज़्यादा खिला हुआ था। उसके डिम्पल्स में पहले से ज़्यादा गहराई थी। गाल ज़्यादा गुलाबी हो गए थे।"
(यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि बुखार के ठीक हो जाने की वजह से समीरा का चेहरा खिला खिला था।)
जबकि अगले पैराग्राफ में लिखा दिखाई दिया कि..
"वह एकदम से मायूस सी हो गई थी। सैकड़ों फूल भी मुरझा से गए हो जैसे।
माना कि समीरा के उदास होने की वजह एक अभ्यर्थी द्वारा खुदकुशी कर लेना था। मगर फिर भी पढ़ने में यह थोड़ा अटपटा लगा कि एक ही पल में कैसे किसी में इतना बदलाव आ सकता है?
अगर इस सीन को लिखा जाना बेहद ज़रूरी था तो दृश्य को इस प्रकार लिखा जाना ज़्यादा तर्कसंगत रहता कि...
"बुखार से उबर जाने के बावजूद समीरा का चेहरा तरोताज़ा ना हो कर हल्की मायूसी लिए हुए था।"
या फिर...
"बुखार से उबर जाने के बाद समीरा का चेहरा तरोताज़ा होने के बावजूद हल्की मायूसी लिए हुए था।"
*काफ़ी जगाहों पर एक ही बात को खींचते हुए छोटे छोटे वाक्य पढ़ने को मिले। Raw ड्राफ्ट में तो ऐसा लिखना सही है मगर फाइनल ड्राफ्ट या एडिटिंग के वक्त उनकी तारतम्यता को बरकरार रखते हुए आसानी से बड़े..प्रभावी एवं परिपक्व वाक्य में तब्दील किया जा सकता था।
*वर्तनी की कुछ छोटी छोटी त्रुटियाँ जैसे..*रगजीन- रैक्सीन, खुसकिस्मत- खुशकिस्मत, कार्गिल - कारगिल इत्यादि दिखाई दी।
• फ़ॉन्ट्स के छोटे होने और काफ़ी पेजों में प्रिंटिंग का रंग उड़ा हुआ दिखाई दिया जिससे पढ़ने में अच्छी खासी मशक्कत के बाद भी असुविधा ही हुई।
हालांकि यह उपन्यास मुझे उपहार स्वरूप मिला मगर फिर भी अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि 224 पृष्ठीय के इस उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है राजपाल एण्ड सन्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 295/- रुपए जो कि मुझे ज़्यादा लगा। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।