बचपन में अपने तेज स्वभाव के कारण मैं मोहल्ले के सारे लड़के-लड़कियों की नेत्री थी |माँ-बाप,भाई-बहन ,रिश्तेदार कोई भी मुझे दबा नहीं पाते थे |मुझे पेड़ों पर चढ़ना अच्छा लगता |पतली-पतली डालियों पर गिलहरी की तरह फुर्ती से चढ़ जाती और कच्चे-पक्के फलों का ढेर लगा देती |शिकायत आने पर पिता के हाथों मार भी खाती ,पर दूसरे ही दिन फिर वही काम ....|माँ टोकती –लड़कियां पेड़ पर नहीं चढ़तीं ,वरना उनमें लड़कों के गुण आ जाते हैं |
मैं चिढ़ जाती –आखिर लड़कों को पेड़ पर चढ़ने की मनाही क्यों नहीं होती ?
माँ कहती-पेड़ पुरूष होते हैं इसलिए |
मैं खूब हँसती ...|माँ की बात का मज़ाक बनाती –फिर पेड़ में फूल,फल कैसे लगते हैं माँ ?कहीं पुरूष को भी बच्चे होते हैं |माँ रूठ जाती और शाम को मैं पिता की डांट सुनती |मेरे बाहर घूमने-खेलने पर जब बाहर के लोग टोकते—लड़की हो,चूल्हा-चौका करो |तो मैं उनसे झगड़ पड़ती –लड़के भी तो घूमते –फिरते हैं ,पहले उन्हें मना करो |
गाँव में स्त्रि की दशा बड़ी दयनीय थी |मर्द अपनी औरतों को जानवरों की तरह पीटते और पूरा गाँव तमाशा देखता और टिप्पड़ी करता—'औरत की ही गलती रही होगी ...|'मुझे ये नाटक बिलकुल अच्छा नहीं लगता था |
एक दिन नकछेदी अपनी औरत को बुरी तरह पीट रहा था |लात ,हाथ ,मुंह सब चला रहा था |कह रहा था—हरामजादी, का सीख कर आई है नैहर से ...खाने में बाल डाल देती है ....| बस मुझे गुस्सा आ गया—अरे,निकल गया बाल...तो क्या मार डालोगे ?कहीं से उड़कर आ गया होगा |
नकछेदी बिफर पड़ा—तू कौन होती है हमारे मामले में दखल देने वाली ...छुट्टे सांड की तरह घूमती है इधर -उधर |मेरी लड़की होती तो पैर काटकर घर पर बैठा देता |मैं कुछ कहती कि माँ आ गयी और मुझे घसीटते हुए घर ले गयी –कलमुँही तुझे क्या पड़ी है ?उसकी औरत है मारे या काटे |कौन नहीं मारता अपनी औरत को ?औरत का जनम ही मार खाने के लिए हुआ है |चली है गाँव सुधारने...जानती नहीं मरद मेहरारू के झगरा जे छुड़ावे बने लबरा |देख लेना कल दोनों एक हो जाएंगे और तू बुरी बन जाएगी |
पर मुझे विश्वास था कि नकछेदी के औरत नकछेदी को कभी माफ नहीं करेगी |अरे,इतनी छोटी बात पर कोई इतना मारे...इतनी गाली दे तो दिल नहीं फट जाएगा उसका |दूसरे दिन मैं जान-बूझकर नकछेदी के घर की तरफ से निकली तो देखा—अपने बरामदे की चौकी पर बैठे नकछेदी के सिर की मालिश कर रही है नकछेदी की औरत |आपस में हंसी-ठिठोली भी चल रही है |बस....मेरा मन उस औरत के प्रति गुस्से से भर उठा –छि:!कैसी औरत है ...मार खा कर भी प्रेम जाता रही है |नकछेदी की औरत मुझे देखते ही बाहर निकल आई—‘’का रे छौड़ी!ते हमरे मरदे के भला-बुरा क़हत फिरत हवे ...ते हवे के ...हमार मरद हमके चाहे मारे चाहे दुलारे ...तोर करेज्जा काहें बत्थत बा ...तोके त नाही मारे गइने...अब कच्छू कहले त तोर झोंटा उखाड़ लेब....जान रखिए ....|”
मैं कुछ बोली नहीं पर गुस्से से जमीन पर थूक दिया |सोचने लगी –कुछ औरतें लात ही खाने लायक होती हैं |मैं तो ऐसे पति को कभी क्षमा न करूं|
घर लौटने पर पता चला पिता तक यह खबर पहुँच चुकी है |पिता जी ने मुझे बुलाया और गुस्से में बोले –तू लड़की होकर मर्द बनने चली है ?
‘इसमें मर्द बनने की क्या बात है पिता जी !अन्याय को चुपचाप देखना भी तो अन्याय करने के समान है |’
--अच्छा ,पाठशाला जाकर न्याय-अन्याय समझाने लगी है ...बंद करवा दूँगा तेरी पढ़ाई ...समझ लेना ...|
माँ ने आग में घी छोड़ा-इ लड़की जरूर हमरे मुंह पर कालिख पोतेगी |
मेरा मन नकछेदी की औरत के बदले व्यवहार से वैसे ही दुखी था |माता-पिता की बातों से और आहत हुई और रात को पहली बार ढिबरी जलाकर मैंने इस प्रसंग को कहानी में ढाला ...टूटी-फूटी भाषा में|यह मेरी जिंदगी की पहली अनगढ़ कहानी थी |उस समय मेरी उम्र नौ साल की थी|
जब मैंने दस वर्ष पूरे किए ,एक अजीब घटना हुई |मेरी सहेली रमा इधर कुछ दिनों से खूब गोरी –चिट्टी दिखने लगी थी |जब मैंने इसका राज़ पूछा तो किसी को न बताने की शर्त पर वह मुझे अपने घर के भुसौले में ले गयी और अपनी गुड़िया की पोटली में छिपाकर रखे क्रीम,पाउडर जैसी चीजों को दिखाने लगी |मेरा माथा ठनका –जिसके घर खाने को नहीं ...उसके पास इतनी कीमती चीजें ...!दूसरे दिन मैंने चुपके से रमा का पीछा किया |
जेठ की तपती दुपहरी थी |सभी अपने घरों में सो रहे थे |रमा छिपते-छिपाते गाँव के बाहर बने मंदिर की तरफ बढ़ रही थी ...फिर वह मंदिर में प्रवेश कर गयी |मंदिर के अधेड़ पुजारी ने तपाक से उसे गोद में उठा लिया |थोड़ी देर बाद वह आँसुओं से भीगा चेहरा लिए बाहर निकली |मैंने उसे घेर लिया तो उसने पुजारी द्वारा दिए दो सिक्के दिखा दिए |
मैं समझ गयी कि कुछ न कुछ गड़बड़ जरूर है |पुजारी तो प्रसाद देने में भी कंजूसी करता है फिर सिक्के ...क्रीम...पाउडर !बस मुझे गुस्सा आया ...मैंने चुन-चुनकर नुकीले पत्थर जमा किए और मंदिर के सामने वाले पेड़ पर छुपकर बैठ गयी |ज्यों ही पुजारी निकला,मैंने उसे खूब पत्थर मारे|पुजारी लहूलुहान हो गया |पूरे गाँव में शोर मच गया |मामला धर्म का था |शाम को पंचायत बैठी |पुजारी रो-रोकर अपने ज़ख्म दिखा रहा था |मेरे माता-पिता और गाँव के अन्य धर्मभीरू लोग पाप के डर से काँप रहे थे |ये क्या कर दिया इस मुंहजोर पागल लड़की ने ?कहीं गाँव में बाढ़ या सूखा न आ जाए |
जब मुझसे पुजारी का अपराध पूछा गया तो मैंने कुछ बताने से पहले एक बार कोने में दुबकी भयभीत सहेली की ओर देखा ...जिसकी आँखों में अपनी जिंदगी की भीख मांगने जैसी गिड़गिड़ाहट थी |मेरी जुबान को मानो काठ मार गया |पहली बार मैंने खुद को असहाय महसूस किया |सजा के तौर पर मेरी पीठ पर पुजारी डंडे बरसाता रहा और मैं मंदिर,पुजारी ,यहाँ तक कि ईश्वर के प्रति भी घृणा से भरती रही |
ठीक दो वर्ष बाद एक और हादसा हुआ|मेरी मौसी की लड़की को उसके ससुराल वालों ने जलाकर मार दिया |सब लोग लड़की के नसीब को दोष देकर रोते रहे तो मैं भड़क उठी –मौसी बैठकर रोती रहोगी कि उन हत्यारों को जेल भिजवाओगी |
‘अब केस करने से क्या फायदा ?मेरी बेटी तो लौटकर आएगी नहीं ...बेकार में कोर्ट-कचहरी का झमेला ....|’
--झमेला!...तो क्या झमेले के डर से अन्याय सह लोगी?क्या इससे अत्याचारियों का मन नहीं बढ़ेगा ...और भी तो लड़कियां हैं ...|मैं चीखकर बोली तो मौसी ने सहमकर कहा—हाँ ,मेरी तो और भी लड़कियां हैं [बात को अपनी लड़कियों की ओर मोड दिया था उन्होंने ]तभी तो चुप हूँ ....किसी का नसीब नहीं बदला जा सकता |संसार से जिस विधि जाना लिखा है,उसी विधि जाता है इंसान ....|
--बहुत बकवास खयालात हैं आपके मौसी ...|
मौसी नाराज हो गईं-‘तू क्यों इतना आग हो रही है ?लड़की मेरी जली है...वह भी तुम्हारी तरह जुबान की बहुत तेज थी ...बहुत गुस्सा था उसमें ...किसी ने कुछ कह दिया होगा ,तो जला लिया होगा खुद को |तू भी अपने को सुधार ले वरना तेरा भी यही हाल होगा |मुँहज़ोर बहू किसे अच्छी लगती है ?’
मैं हतप्रभ हो गयी ...हत्यारों के प्रति मौसी की सहानुभूति मेरी समझ के बाहर की चीज थी |बात तो तब खुली जब माँ ने बताया कि मौसी अपनी छोटी लड़की की शादी उसी लड़के से करने जा रही हैं |उन लोगों ने ही यह रिश्ता मांगा है ...ऐसा घर-वर जल्दी मिलता कहाँ है ?
मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि ऐसा भी हो सकता है |स्वार्थ का ऐसा नृत्य!तेज स्वभाव की लड़की को जला दिया जाए तो माँ बस दो आँसू बहकर चुप हो जाए और न केवल चुप ,वरन अपनी दूसरी पुत्री को भी उसी हत्यारे परिवार में ब्याह दे ...उफ!यह क्या है ?क्या इस देश में लड़की के रूप में जन्म लेना ही दुर्भाग्य है?आँखों पर पर्दा डालकर किस्मत को कोसना ...!कब बंद होगा यह ?कब लड़की को बोझ नहीं समझा जाएगा ?बोझ भी इतना भरी कि लड़की को हत्यारे के घर पटक दें |यह तो वही बात हुई कि किसी की हत्या कर दें और कहें कि यह उसका भाग्य था|अगर कल मौसी की दूसरी लड़की भी जला दी जाए तो....तो क्या वह उसका भी भाग्य होगा ?और क्या अन्याय के खिलाफ बोलने मात्र से लड़की की जान तक ले लेने का अधिकार हो जाता है समाज को !कैसा है यह समाज?आग लगे इस समाज को |
मैं सदमे में बीमार हो गयी |मुझे लगने लगा मेरा जीवन बेकार है ...मैं गलत के खिलाफ लड़ नहीं पा रही हूँ |बार-बार मुझे दबा दिया जाता है |अन्याय के शिकार भी मेरा साथ नहीं देते |कितनी अकेली पड़ गयी हूँ मैं ...|
माँ ने शहर के बड़े डाक्टर को मुझे दिखाया |वे कभी-कभार गाँव के लोगों की फ्री सेवा के लिए आते थे |बड़े ही हंसमुख और ज़िंदादिल |मुझे वे बड़े अच्छे लगते |मुझे बीमार देखकर वे हँसे –मेरी झांसी की रानी को क्या हो गया ?माँ ने मेरे रोग का रहस्य बताया –डाक्टर साहब ,क्या करें इस लड़की का ....|जहां,जिसने जो भी अन्याय किया ,वह जैसे इसी पर किया |सबका झमेला अपने ऊपर लेकर कष्ट पाती है |खदेरन ने अपनी तेरह बरस की बिटिया का विवाह पचास साल के आदमी के साथ तय किया,तो इसने हंगामा खड़ा कर दिया|बच्चों की टोली बनाकर मंडप में पहुँच गयी और बारातियों को भगाकर दम लिया | पूरे गाँव के लोग इससे नाराज हैं |आप ही बताइये डाक्टर साहब गरीब आदमी है खदेरन |ऊपर से छह... छ्ह लड़कियां ...कहाँ से लाएगा दहेज ...लड़की अनब्याही रह जाए या जात-कुजात कर ले ,इससे तो अच्छा है बूढ़े से ब्याह दी जाए |
मुझसे रहा नहीं गया |अपनी कमजोर आवाज में ही बोल पड़ी—और हाँ ,दो दिन बाद बुड्डा मर जाए तो लड़की के नसीब को कोस-कोसकर उसे मार डाला जाए |जब संभालता नहीं है ,तो इतने बच्चे क्यों पैदा करते हैं ?डाक्टर साहब परिवार नियोजन के बारे में बताते तो रहते हैं ...|
-‘तो ठेका ले रखा है तुमने सबका ...मर तो रही है जनमजली ,इसी तरह सोचती रही तो एक दिन टी.बी. हो जाएगी तुम्हें ...फिर पूरे जीवन हमारी छाती पर बैठकर मूंग दलना |...अरे ,यह लड़की कितना भुजेगी मुझे ....|माँ रोने लगी |डाक्टर साहब ने माँ को चुप कराया और एक किनारे ले जाकर समझाया –अजीब माँ हैं आप ,लड़की इतनी बीमार है और आप हैं कि...क्या गलत कह रही है लड़की ...पढ़-लिख रही है...संवेदनशील है तो अपनी और समाज की स्थिति के संबंध में चिंतित है |यह जागृति तो शुभ लक्षण है |
माँ मुंह बनाकर बाहर चली गयी तब डाक्टर साहब मेरे पास आए |उन्होंने मुझे समझाया –‘इस तरह हर बात में बगावत करके कुछ न पाओगी |अभी तो तुम खुद पराश्रित हो ...पहले सक्षम बनो …. तभी सक्रिय विरोध कर पाओगी ....|’और मुझे लगा सच कह रहे हैं वे |
मैं स्वस्थ हो गयी और खूब मन लगाकर पढ़ने लगी |अब मन की बातें अपनी डायरी में लिखती |पर एक दिन फिर घर में बवाल हो गया |मेरी डायरी छोटी बहन के हाथ लग गयी |उसने रस ले-लेकर डायरी में लिखी सारी बातें माँ और पिता जी को सुना दी |जब मैं स्कूल से लौटी तो देखा घर के सभी सदस्य आँगन में उपस्थित हैं और सबका मुँह सूजा हुआ है |कुछ समझ न पाई तो चुपके से कमरे के अंदर जाने लगी, तो पिता जी ने दहाड़ते स्वर में मुझे आवाज दी –इधर आ...| माँ बोली –बड़ी जहरीली है यह लड़की ....हम जो-जो बोलते हैं ,सब लिख लेती है |इसके पेट में तो दाढ़ी है |
भाई ने कटाक्ष किया –महादेवी वर्मा बनेगी न |बहनें खीं-खीं करके हंस पड़ी |पिता जी ने मुझे बाल से पकड़ा –क्या चाहती है तू बता ...नाक कटाएगी मेरी ...लड़की होकर उल्टे-सीधे काम करती है |मेरी पीठ पर बेंत बरसते रहे और मैं चुपचाप अपना अपराध ढूंढती रही |मैं क्यों अपनी बहनों -सी नहीं हूँ ...माँ की तरह नहीं हूँ...गाँव की दूसरी लड़कियों की तरह नहीं हूँ |क्यों अलग- सी हूँ |जो कुछ करती हूँ सब गलत क्यों माना जाता है ?गुरू जी कहते हैं डायरी लिखनी अच्छी बात है |पर इनके अनुसार तो लड़की कुछ लिखना भी अपराध है ?
जब पिताजी मुझे मारते-मारते थक गए ,तो बोले—देख लड़की ,तू सुधार ले अपने को ,लड़की है...लड़की की तरह रह ...अपनी बहनों की तरह घर-गृहस्थी के काम सीख ,,,वरना मार डालूँगा तुझे |मेरा मन चाह रहा था मैं भी चीखकर कहूँ –‘लड़की.....लड़की...लड़की !क्या लड़की इंसान नहीं होती ?उसे कुछ सोचने का ...करने का ...यहाँ तक की लिखने का भी हक नहीं |आखिर क्यों ?’
पर मैं चुप रही |मुझे डाक्टर साहब की सलाह याद थी |
मेरे मस्तिष्क में जो अग्निबीज था ,वह उम्र के साथ बढ़ता गया |हाईस्कूल और इंटर मैंने प्रथम श्रेणी में पास किया तो घर में खुशी की लहर दौड़ गयी |अपने पूरे खानदान में इतना पढ़ने वाली मैं पहली लड़की थी |माँ-पिताजी सबसे यह गर्व के साथ बताते |पर जब मैंने शहर जाकर आगे पढ़ने की इच्छा जताई तो फिर हंगामा होने लगा |मैं भी मजबूर थी क्योंकि गाँव में स्कूल इंटर मीडिएट तक ही था |आगे पढ़ने के लिए शहर जाना जरूरी था |मेरे स्कूल के प्रिंसिपल ने बताया था कि मुझे छात्रवृति के साथ ही महिला छात्रावास में रहने की जगह मिल जाएगी |उन्होंने आवश्यक फार्म वगैरह मँगवा देने का आश्वासन दिया था |पर पिता जी मेरे आगे पढ़ने और शहर भेजने के बिलकुल खिलाफ थे |जब मैंने जिद की तो उन्होंने स्पष्ट कहा –कौन पढ़ाएगा तुझे ...मेरे पास तो पैसा नहीं है ....|
‘छात्रवृति तो मिलेगी ही ...कुछ ट्यूशन कर लूँगी |’
-ट्यूशन करके खानदान की नाक कटाएगी ...|
‘काम करने से नाक नहीं कटती पिताजी ...|’
-मनमानी करनी है तो चली जा इस घर से ...|
पिताजी गुस्से से उठकर बाहर चले गए और दूसरे दिन से ही मेरे विवाह के लिए वर ढूँढने लगे |मैंने सुना तो मुझे झटका लगा |मैंने माँ से स्पष्ट कहा –‘मैं किसी भी कीमत पर अभी विवाह नहीं करूँगी...|ग्रेजुएशन से पहले तो कतई नहीं|’
माँ ने पहली बार मुझे प्यार से समझाया –देखो बेटी,क्यों अपना जीवन तबाह कर रही हो ?अपनी बहनों की तरफ देखो ....चार-चार हैं ...उनकी भी तो शादी करनी है |
‘तो कर दो उनकी शादी ...बस मुझे नहीं करनी है ...|’
-ठीक है मनमानी कर ...पर जान ले...तू इस घर में अपना अधिकार खो देगी ...पढ़-लिख कर भी तो लड़की को चूल्हा ही फूंकना होता है ...|
‘चूल्हा ही क्यों ?और भी तो विकल्प है |नौकरी भी तो की जा सकती है ...|'
‘-अरे बाप रे! माँ ने अपना माथा पकड़ लिया -इस लड़की के हौसले तो बढ़ते ही जा रहे हैं|बाप के नाम साग-पात बेटी बनेगी परोरा ....|बहुत दुख उठाएगी तू जान ले |जो हमेशा ऊपर की ओर देखकर चलता है,वह मुँह के बल गिरता है ...चेहरा पहचानना मुश्किल हो जाता है ...|’
माँ बोलती रही और मैं उठकर कमरे में चली गयी |
आखिर मैंने निर्णय ले लिया |घरवालों का विरोध कमजोर पड़ गया |जवान और जिद्दी लड़की के मुँह कौन लगे और कहाँ तक लगे ?फिर भी तानों,उलाहनों नसीहतों का दौर चलता रहा |पूरा गाँव,सारे रिश्तेदार और परिवार मेरे खिलाफ था पर डाक्टर साहब ,मेरे स्कूल के प्रिंसिपल और टीचर मेरा मनोबल बढ़ा रहे थे |अंतत:पिता जी ने स्वीकृति दे दी ...और मैं शहर आकर पढ़ने लगी |
छुट्टियों में घर आती तो पूरा गाँव इस तरह उमड़ता जैसे मैं किसी दूसरे ग्रह से आई हूँ |माँ कुरेद-कुरेदकर तमाम बातें पूछती ,उन्हें भय था कि शहर की हवा लड़की के चरित्र को खराब न कर दे |पिता जी चुप ही रहते |भाई बात तक नहीं करते और बहनें इस तरह दूर-दूर रहतीं कि मेरे स्पर्श से उनका धर्म नष्ट हो जाएगा |मुझे लगता मैं गाँव की मिट्टी से काट दी गयी हूँ |मैं हसरत से बाग-बगीचों को देखती|पेड़ों पर चढ़कर आम –अमरूद तोड़ने को दिल करता |पर कुछ नहीं कर पाती थी |बचपन के साथियों को देखती,तो खुद शर्म से गड़ जाती | जवानी में ही बूढ़े दिखने लगे थे |पर वे मेरे आगे इस तरह गर्व से इतराते जैसे गाँव की परंपरा का निर्वाह कर उन्होंने महान कार्य किया है और मैंने परंपरा को तोड़कर पाप!
दशहरे की छुट्टियों में घर आई तो हंगामा मचा हुआ था |छोटी बहन ससुराल से भाग आई थी |उसके ससुराल वालों ने उसे बुरी तरह पीटा था |वह वापस नहीं जाना चाहती थी|माँ ने बहन को समझाया—कितने दिन अत्याचार करेंगे ...अंत में सच्चाई की जीत होती है |सीता-सावित्री कैसी थीं ?औरत का यही धर्म है |सब सहकर भी दोनों कुल का मान रखना |
बहन फिर भी नहीं मान रही थी |तो माँ झल्लाकर बोली –कोई बात हो तो वहीं किसी नदी-नाले में कूद जाना |करंट लगा लेना पर यहाँ मत आना |शादीशुदा लड़की को घर में रखने से बदनामी होती है ...तुम्हारी किस्मत में जो लिखा है ,वही न मिलेगा ...हम क्या करें ?
मैंने कुछ कहना चाहा तो भाई ने डपट दिया –तुम तो चुप ही रहना ,इस घर में दखल देने का अधिकार खो चुकी हो ...अपनी तरह बनाना चाहती हो इसे |शहर में पढ़ाई कर रही हो तुम्हें पता भी है लोग क्या-क्या कहते हैं ?
और मुझे लगा मेरा आक्रोश अंतर्मुखी हो गया है |मैं कुछ कह नहीं पा रही हूँ |विरोध नहीं कर पा रही हूँ ...सक्रिय विरोध ...|दूसरे दिन बहन को भाई उसके ससुराल छोड़ने गया |
मेरा मन विरक्त हो गया |माँ से ....इस घर से ...इस गाँव से |लगा मैं पराई हूँ इन सबके लिए |यहाँ का संसार मेरा अपना नहीं |मुझे अपनी दुनिया खुद तलाशनी होगी |इस गाँव की नियति घास की तरह उगना और उखाड़ लिए जाना है बस ...|मैं नहीं जी सकती यहाँ...इन लोगों के बीच |मैं बचपन से ही स्वतंत्र विचारों और न्याय की पक्षपाती हूँ तो क्या गलत हूँ ?पढ़-लिखकर आत्मनिर्भर होना चाहती हूँ,तो अपराधी हूँ ...हमेशा मुझे गलत समझा जाता है |मैं किस तरह इन्हें समझाऊँ |ये लोग सुधरना नहीं चाहते ...रोशनी इन्हें पसंद नहीं ....पर मैं हार नहीं मानूँगी ...लड़ूँगी ...मुझे सबल बनना ही होगा ..|अब कुछ बनकर ही गाँव लौटूंगी,तभी इन लोगों में चेतना का संचार होगा ...|मैं साबित कर दूँगी कि मैं लड़की ही हूँ ...और लड़की होना अभिशाप नहीं है |
और दूसरे दिन ही अपनी अटैची उठाकर मैं अपने संघर्ष पथ पर चल पड़ी |
दिन गुजरते गए |नए-नए संघर्ष |शहरी जीवन में भी दुश्वारियां कम नहीं थीं |मैं सबसे लड़ती रही |कभी शहरी चमक-दमक अपनी ओर खींचती,कभी प्रेम के सुनहरे जाल फँसाने की कोशिश करते |कई बार गिरते-गिरते बची ,कई बार फँसकर निकली पर इन सबके बीच में भी मैंने अपने लक्ष्य को नहीं भुलाया| मेरे पास कोई सोर्स-सिफ़ारिश नहीं थी ,पैसे नहीं थे ...था तो हौसला थी तो एक लगन और मैंने पढ़ा था कि इंसान अगर ठान ले तो विपरीत परिस्थितियाँ भी उसके आगे घुटने टेक देती हैं |रास्ता अपने-आप बनता चला जाता है |
और आज मैं कामयाब हो गयी हूँ |मेरे हाथ में चमचमाती डाक्टर की डिग्री है |मेरे पास बड़े-बड़े शहरों के अस्पतालों से आमंत्रण है पर मैंने सोच लिया है कि मैं अपने गाँव लौटूँगी और वहाँ के लोगों की सेवा करूंगी |पैसा और शोहरत कमाना मेरा लक्ष्य नहीं सेवा करना मेरा लक्ष्य है |मैं अपने गाँव को शरीर से ही नहीं मन और विचारों से भी स्वस्थ करूंगी ताकि फिर कोई किसी लड़की को आगे बढ़ाने से यह कहकर न रोक सके कि ‘तुम तो लड़की हो |’और हर लड़की गर्व से कह सके –हाँ.... हाँ मैं लड़की ही हूँ |