उपन्यास या कहानियों के संदर्भ में अगर हम बात करें तो आमतौर पर कहीं इनमें सामाजिक चेतना डंके की चोट पर सरेआम अपना परचम लहराती दिखाई देती है तो कहीं इनमें प्रेम एवं दुख का कॉकटेलिए मिश्रण अपने पूरे शबाब पर दिखाई देता है। कहीं इनमें सामाजिक ताने बाने से जुड़ी ऊँच नीच अथवा अमीरी गरीबी आपस में एक दूसरे से टाइमपास हेतु दोस्ती-दुश्मनी का पसंदीदा खेल खेलती नज़र आती है। तो कहीं इनमें निराशा..अवसाद एवं हताशा के कहे अनकहे लम्हों को भी हास्य-व्यंग्य के ज़रिए पोषित कर तमाम सामाजिक विद्रूपताओं..विषमताओं एवं असमानताओं को निशाना बनाया जाता है।
हर कहानी या उपन्यास मे इन्हीं तयशुदा मसालों में से किन्हीं चुनिंदा मसालों का कम या ज़्यादा मात्रा में अपनी समझ एवं बुद्धिमत्ता का इस्तेमाल कर, उन्हें बेजोड़..अद्वितीय बनाने का प्रयास समय समय पर लेखकों द्वारा किया जाता रहा है। अब ये और बात है इनमें से कितने अपने तयशुदा मकसद याने के मंज़िल को प्राप्त कर, अपने लेखन को उल्लेखनीय की श्रेणी में ला पाते है और कितनों का लेखन तमाम तरह की छोटी बड़ी कोशिशों के बावजूद बिना किसी के नोटिस में आए सिफ़र का सिफ़र याने के वही ढाक के तीन पात ही रह जाता है।
दोस्तों..आज मैं बात कर रहा हूँ मलय जैन जी के व्यंग्य उपन्यास 'ढाक के तीन पात' की। अब अगर इसके शाब्दिक अर्थ पर जाएँ तो इसका अर्थ है तमाम प्रयासों(?) के बावजूद फिर से ठीक उसी तरह शून्य पर पहुँच जाना जिस तरह ढाक याने के पलाश का पेड़ भी पूरा खिलने के बाद छाया देने के समय अपने सारे पत्ते, जो कि हमेशा तीन की संख्या में एक साथ जुड़े होते हैं, गिरा देता है अर्थात किसी काम का नहीं रहता।
धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस उपन्यास में अगर कदम कदम पर व्यंग्य के साथ होने वाले एनकाउंटर के दौरान पृष्ठ दर पृष्ठ कभी आपको ठठा कर हँसने के अनेकों मौके मिलेंगे। तो कभी वितृष्णा और अवसाद में डूब आपको सोचने के गहन अवसर भी मिलेंगे। मूलतः इस उपन्यास में कहानी है सरकारी योजना के तहत कमिश्नर साहिबा के औचक ग्राम भ्रमण के फैसले और उससे कमिश्नर, कलेक्टर, एसडीएम, तहसीलदार से ले कर नीचे तक फैले तमाम सरकारी नुमाइंदों में फैली बदहवासी भरी अफरातफरी की।
मनोरंजन से भरपूर इस उपन्यास में कोई भी एक तयशुदा नायक या नायिका नहीं। सभी किरदार अपनी वक्त ज़रूरत के हिसाब से समयानुसार अपना हित साधते हुए नज़र आते हैं। इसमें जहाँ एक तरफ बात है धूल खाती फाइलों के अंबार के बीच दफ़्तरों में लापरवाह बैठे हर छोटे बड़े कामचोर सरकारी नुमाइंदे की। तो वहीं दूसरी तरफ़ इसमें बात है इसी सिस्टम में कोढ़ की खाज की भांति फैले भ्रष्टाचार और उससे निजात दिलाने को आतुर दलालों और उनके माध्यम से पैसे खिला..झटपट होते हर छोटी बड़ी श्रेणी के उचित अनुचित कामों की।
इसमें एक तरफ़ बात है मीडिया तक में घुसपैठ जमा चुके उन छद्म या झोलाछाप पत्रकारों की जो RTI के दुरुपयोग से अपने हितों को साधने से ले कर ब्लैकमेलिंग तक के हर काम में सिद्धहस्त हैं। तो कहीं इसमें टीआरपी की चाह में टीवी चैनलों द्वारा भूत पिशाच, जिन्न, डायन,चुड़ैल, भुतहा हवेलियों और नाग नागिन जैसे किस्सों को ज़रूरी मुद्दों के मुकाबले तरजीह दिए जाने की बात है।
कहीं इसमें अपनी सुविधानुसार ज़मीन की सही-ग़लत नापजोख करने वाला जुगाडू बुद्धि के पटवारी है। जो बड़े अफसरों के एक इशारे पर लीपापोती के माध्यम से प्रशासन की कमियों छुपाने में माहिर है। तो कहीं इसमें भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ महज़ कागजों में, पानी को तरसते प्यासे गांवों में, खुदते कुएँ हैं। तो कहीं अदृश्य हैंडपंपो को लगवाने की एवज में पास होते मोटे मोटे ठेके हैं। कहीं इस बात का फैसला करना मुश्किल हो जाता है कि सड़क में सैकड़ों..हज़ारों की तादाद में गड्ढे हैं या फिर इन्हीं गढ्ढों में गडमड होती सड़क। तो कहीं इसमें सरकारी भवनों की जीर्ण हालत और उनके जीर्णोद्धार के नाम पर सरकारी पैसे की दिनदहाड़े होती लूट है।
कहीं इसमें दो इलाकों की दहलीज़ पर मिली लावारिस लाश को स्वीकारने में आनाकानी करते ढिलमुल थानाध्यक्ष हैं। तो कहीं इसमें हास्य उत्पन्न करने को, जुर्म का श्रेय ना मिलने पर गुमनामी में जी रहे पुराने मुजरिमों में पनपनी निराशा..अवसाद और उत्कंठा का मज़ेदार चित्रण है। कहीं इसमें छोटे बड़े अपराधों में गवाही या फिर रिपोर्ट तर्ज करवाने पर होने वाली परेशानियों से बचने के लिए आम लोग पुलिस की मदद करने से कतराते नज़र आते हैं। तो कहीं इसमें कत्ल और लूट जैसे गंभीर मामलों के बजाय पुलिस, प्रभावशाली लोगों के मामूली मामलों पर तवज्जो देती नज़र आती है। कहीं इसमें पुलिसवालों की बढ़ती तोंद पर मज़ेदार ढंग का कटाक्ष है। तो कहीं इसमें पुलिसिया टॉर्चर का ऐसा मज़ेदार विवरण है कि हर दूसरे वाक्य पर कभी मुस्कुराहट तो कभी बेसाख्ता हँसी छूटने को आए।
कहीं इसमें निर्दलीयों की स्थिति..औकात और उनमें लालबत्ती की चाह की बात है। तो कहीं इसमें सरकारी अध्यापकों से अध्यापन के अतिरिक्त अन्य कामों जैसे जनगणना, पशुगणना, नसबंदी पोलियो, मलेरिया रोकथाम इत्यादि के काम लेने जैसे विवेकहीन प्रशासकीय फैसलों की बात है। कहीं इसमें सरकारी विद्यालयों में बच्चों से ही सफाई..झाडू इत्यादि कामों को करवाए जाने का जिक्र है। तो कहीं इसमें सरकारी अध्यापकों द्वारा पढ़ाई से इतर निजी व्यवसायों की तरफ़ ध्यान देने की बात है। कहीं घर बाहर की लापरवाही के चलते स्कूली बच्चों/अध्यापकों में बढ़ती तंबाकू की लत तो कहीं बच्चों/अध्यापकों में बढ़ते नैतिकता के पतन एवं कोताही बरतने की बात है।
कहीं इसमें जर्जर हालात वाली खस्ताहाल बिल्डिंगों में बच्चों को कुपोषण से बचने के लिए अनहायजेनिक तरीके से बनते मिड डे मील की बात है। तो कहीं इसी मिड डे मील के लिए खरीदे गए बर्तनों एवं राशन की आपस में ही बंदरबांट के चलते बच्चों के कुपोषित रह जाने की बात है।
कहीं इसमें अच्छे विचार के साथ शुरू की गई योजनाओं का क्रियान्वयन के स्तर बंटाधार होते दिखाया गया है। तो कहीं भ्रष्टाचार की बलिवेदी पर चढ़ ठेकेदारों द्वारा बनाई गई नई बिल्डिंग में भी बनते ही दरारों के आ जाने का जिक्र है। कहीं इसमें ढोंगी बाबाओं के चक्कर में फँस, अंधविश्वास में जकड़े लोगों की बात है। तो कहीं गांव देहात के विद्यालयों तथा घरों में शौचालयों की कमी का प्रभावी ढंग से जिक्र है। तो कहीं इसमें भोले..निरीह मरीज़ों की ज़िंदगी से खिलवाड़ करते झोलाछाप डॉक्टरों, वैद्यों और हकीमों की व्यथा का जिक्र है।
इस फुल पैकेज मज़ेदार ड्रामा उपन्यास में एक आध जगह वर्तनी की त्रुटि के अतिरिक्त एक छोटी सी तथ्यात्मक ग़लती भी नज़र आयी कि.. इसमें पेज नंबर 67 पर बताया गया कि कुर्सी से फिसलते हुए मंच से गिरने पर राणा जी को चारपाई पर लेटा कर हवेली के लिए रवाना कर दिया गया।
जबकि इसके 2 पेज बाद याने के पेज नंबर 69 पर लिखा दिखाई दिया कि अनोखी बाबू मंच पर कमिश्नर साहिबा के बगल में जगह पाने से चूक गए थे और हवेली राजा(राणा जी) ने इस प्रतियोगिता में विजय प्राप्त की थी।
अब सवाल यह उठता है कि जिस व्यक्ति को मंच से गिरने पर चारपाई पर लिटा कर हवेली पहुँचाया गया। तो अगले सीन में कैसे वह कमिश्नर साहिबा की बगल में जगह पा लेता है?
*फ़ॉन्ट्स थोड़े और बड़े होते तो बेहतर था।
हालांकि उम्दा क्वालिटी का यह 200 पृष्ठीय संग्रहणीय उपन्यास मुझे उपहार स्वरूप प्राप्त हुआ मगर फिर भी अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इस उपन्यास के प्रकाशक हैं 'राधाकृष्ण' और इसके हार्ड बाउंड संस्करण का मूल्य 400 रुपए रखा गया है जो कि मुझे ज़्यादा लगा। आम पाठक तक इस उपन्यास की पहुँच को बनाने के लिए यह ज़रूरी है कि इसका पेपरबैक संस्करण जायज़ दामों पर निकल जाए। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।