उजाले की ओर - 38 Pranava Bharti द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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उजाले की ओर - 38

उजाले की ओर

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स्नेही मित्रो

नमस्कार

बहुत बार मनुष्य के मन में यह संवेदना उभरती है कि वास्तव में जीवन है क्या? क्या जीवन यह स्थिति है जो हम सब हर पल ओढ़ते-बिछाते हैं ?अथवा वे पल हैं जिनमें हम सुख-दुःख के भंवरों में से निकलते हैं ?अथवा जो बीत गया है? या फिर जो आने वाला है ? सच्ची—हम कितनी कितनी अपेक्षाओं,उपेक्षाओं के गहरे सागर से होकर गुज़रते हैं |कभी हँसते हुए ,कभी रोते हुए ,कभी उदास होते हुए या कभी बैचेनियों से भरकर भी | हाथ ही तो नहीं लगती जीवन की परिभाषा ---हम हाथ मलते रह जाते हैं और प्रतिदिन जीवन में आने वाले सुखद,दुखद प्रश्नों से उलझते रहते हैं |फिर महसूस होता है कि भाई बदलाव ही तो जीवन है |हम चिंतित किसलिए हैं ? क्या किसी विपरीत परिस्थिति के समक्ष आने पर हम अपने अनुसार निर्णय लेकर कुछ कर सकते हैं ?यदि नहीं तो जैसा समय,उसीके अनुसार व्यवहार करके जीवन को जीने योग्य बनाना बेहतर होगा न ?

जीवन की उहापोह में भटकता मन सच में कभी-कभी तो मंझीरा बजाने को करने लगता है |क्या, है क्या ये जीवन ?चलो ,कहीं दूर चलें ---किसी आश्रम में ,किसी वन-प्रदेश में ,किसी जंगल में या फिर ऐसे एकांत में जहाँ हम एकांतवास कर सकें |किन्तु दूसरे ही पल हम एकांत से काँप जाते हैं ,सोचकर भी घबराहट से भर उठते हैं और उसी वर्तमान को जीवन स्वीकारते हैं जो हमारे समक्ष खड़ा है क्योंकि जीवन की प्रत्येक परिस्थति हमें विभिन्न कर्तव्यों से बांधती है ,वह परिस्थिति हमें बाध्य करती है जो कुछ भी है उसका सामना करने के लिए तो कहाँ और कैसी है परिभाषा जीवन की ? वास्तव में यदि जीवन की परिभाषा के बारे में सोचें तो सच ही जीवन की कोई एक परिभाषा नहीं है |जीवन एक बहते पानी के समान है जो प्रत्येक स्थिति में हमें अपने साथ बहने का संदेश देता है |

हम किसीके गलत शब्दों से आहत हो जाते हैं ,हमें लगता है उसने हमारे साथ बहुत अन्याय किया है किन्तु इसके विपरीत भी तो होता है |जो हमें कटु शब्दों से नवाजता है,उसके मन में भी तो बहुत सी पीड़ाएँ पल रही होती हैं |वास्तव में तथ्य तो यह है कि हम उस काँटे की चुभन महसूस नहीं कर सकते जो हमारे पैर में लगा ही न हो |प्रत्येक मनुष्य के काँटे की चुभन अपनी तरह से होती है ,किसीको कम ,किसीको अधिक |उसकी पीड़ा भी अपनी-अपनी होती है और उसी समय उसके विचारों व संस्कारों की परीक्षा भी|जीवन का यही कठिन समय होता है जो हमारी परवरिश, हमारे संस्कार एवं हमारे मूल स्वभाव को दर्शाता है |यदि कठिन से कठिन परिस्थति में भी हम अपने संस्कारोंवश एक सीमा में रह सकते हैं तो हमारे जन्मभूत संस्कारों को नमन है किन्तु यदि हम अपने मुख से अथवा अपने व्यवहार अथवा क्रियाओं से ऐसे लक्षण प्रस्तुत करने लगते हैं कि जिससे सामने वाले को चोट पहुंचे और हमारी सभ्यता तथा संस्कार का पिटारा खुल जाए तब वह हमारी कौनसी व कैसी शिक्षा है ?यह चिंतन का विषय है |

हम कितने भी आहत हो सकते हैं,हमारे सिर पर आसमान भी क्यों न गिर गया हो किन्तु हम ऐसा व्यवहार कर ही नहीं सकते जिसके हम आदी न हों अथवा जो हमारे मूल व्यवहार में न हो अथवा जो हमने कभी पूर्व में किया न हो |यह व्यवहार ही हमारी परवरिश पर प्रश्नचिंह लगाता है| कभी कभी हम किसी ऐसे मनुष्य पर भी क्रोधित हो उठते हैं जिसका वास्तव में कोई दोष ही न हो किन्तु वह हमारे घेरे में आ जाए ,अथवा वह शांत प्रकृति का हो और उत्तर में हमें गलत भाषा में कुछ न कह सके अथवा चुप्पी लगाने में ही सुविधा महसूस करे इसका अर्थ यह नहीं होता कि वह भयभीत है अथवा बदतमीज़ी कर नहीं सकता ,इसका अर्थ यह है कि वह बदतमीज़ी करना नहीं चाहता क्योंकि उसने यह व्यवहार सीखा ही नहीं है,यह उसका मूल स्वभाव प्रदर्शित करता है |मनुष्य वही वस्तु बाँट सकता है जो उसके पास हो,जो उसके संस्कारों में हो,जिसमें वह सहज महसूस करे |

तो मित्रों ! जीवन की परिभाषा न खोजते हुए ,जिस लहर में वह हमें बहाकर ले जाता है ,हमें उसीके साथ बहना है |पीड़ा केवल हमें ही नहीं होती है ,पीड़ा सबकी अपनी-अपनी होती है जिसे वह अपने अनुसार महसूस करता व व्यवहार करता है ,हाँ ! उसकी परीक्षा उस समय ही होती है जब वह पीड़ा में होता है |

मुश्किलें आएंगीं तो संवर जाएंगे |

मुश्किलों में ही तो अपना पता पाएंगे ||

तो चलिए, सोचते हैं कि ये मुश्किलें हमें किस प्रकार से अन्धकार से उजाले की ओर लाती हैं,हमें किस प्रकार से अपनी संस्कारिता की सीमा में बद्ध रख सकती हैं और बहते हुए पानी के समान हमारे जीवन को परिभाषित करती हैं |

सस्नेह

डॉ.प्रणव भारती