उजाले की ओर - 35 Pranava Bharti द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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उजाले की ओर - 35

उजाले की ओर

---श्रद्धांजलि ---

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आएँ हैं तो जाएँगे ,राजा-रंक-फकीर

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जीवन के इस किनारे पर आकर उपरोक्त पंक्ति का सत्य समझ में आने लगता है और मन जीवन की वास्तविकता को स्वीकार करने लगता है |मन में आता है जाने-अनजाने हुई त्रुटियों की सबसे क्षमा माँग ली जाए ,न जाने कौनसा क्षण हो जब --

जब मनुष्य के हाथ में ही कुछ नहीं तो कर क्या लेंगे ? केवल इसके कि परिस्थितियों में विवेकी बनकर रह सकें | फिर भी आसान नहीं होता कुछ परिस्थितियों को सहज ही ले लेना | कहीं न कहीं बेचेनी उमड़-घुमड़कर मन में बार-बार सूईं सी चुभती रहती हैं | बड़ी कठिनाई से मन को वश में करके नॉर्मल होने या दिखने का प्रयास खोखला लगने लगता है | जबकि होना तो यह चाहिए कि सामने होती घटनाओं से असहज हो भी जाएँ तो कुछ समय बाद पुन: नॉर्मल होने का प्रयास कर सकें | क्योंकि ‘होई है वही जो राम रचि राखा ‘ सुनते,रटते जीवन व्यतीत हो गया लेकिन सूनी दृष्टि से शून्य को निहारता मन भीतर से छटपटा ही जाता है |

पिछली बार की लहर से कहीं अधिक विकराल है यह लहर ! पिछले चार-पाँच दिनों में न जाने कितने –कितने दिल दहला देने वाले समाचार सुनकर ,नॉर्मल रहने के प्रयास ने एक अजीब सी अशक्यता,असहजता को जन्म दे दिया है |मेरे बहुत से दोस्त या एफ.बी मित्र जब मुझसे बात करते हैं ,अपने डिप्रेशन की ,मैं कोशिश करती हूँ कि उन्हें उस मानसिक अवस्था से दूर करने में उनकी सहायता कर सकूँ|मुझे खुशी भी होती है जब वे मुझसे अपने मन की बात सांझा करते हैं ,दीदी आपकी बातें सुनकर अच्छा लगता है |मेरे पास स्नेह,प्यार ,सहानुभूति के अतिरिक्त और कुछ तो है नहीं | उनके शांत होते हुए मन की आवाज़ सुनकर मेरे मन का एक कोना सुख से भीगने लगता है लेकिन फिर भी मन है ,कभी न कभी बिखरने की स्थिति में आ जाता है |

इस महाकाल ने न जाने कितनों को लील लिया है ,बेशक हम यह समझ रहे हैं कि इस सबमें मनुष्य की गलतियाँ रही हैं लेकिन अभी जो अंजाम हो रहा है वो तो कल्पनातीत है |आज किसी के जाने की ख़बर सुनते ही सबसे पहले प्रश्नचिन्ह सामने आ खड़े होते हैं |

साहित्य –जगत की अपूरणीय क्षतियों के बारे में सुनते ही ,उनसे जुड़ी बातें याद न आना नामुमकिन है | अपनी साहित्यिक-यात्रा के नाम पर मैंने कोई इतनी बड़ी उपलब्धि तो हासिल नहीं की किन्तु मैं जिन उच्च स्तरीय कवियों व साहित्यकारों से मिल पाई ,वे सब मुझे रह रहकर स्मृतियों में घसीट रहे हैं |

अभी दो,ढाई वर्ष पूर्व ही मैं आख़िरी बार डॉ. कुंवर बेचैन से मिली | उनसे मिलने की कहानी मुझे पीछे खींचकर ले जा रही है | 87 /88 की बात होगी जब मैं उनसे पहली बार गाजियाबाद रूबरू मिली | मेरी बेटी श्रद्धा ,दामाद मनीष काम के सिलसिले में अहमदाबाद से गाजियाबाद चले गए थे | स्वाभाविक था हम लोग साल में एक-दो बार तो वहाँ जाते ही |

गाज़ियाबाद जाकर मैंने डॉ . बेचैन को केवल एक फ़ोन किया और अगले दिन वे मेरे सामने थे |मुझे सुखद आश्चर्य हुआ कि वे पता पूछते हुए पैदल ही बेटी के घर तक आ गए थे |उनसे यह पहली मुलाक़ात मैं इसलिए कहती हूँ कि बेशक कवि-सम्मेलनों के मंच पर मैं उनसे अहमदाबाद में मिल चुकी थी किन्तु चर्चा के लिए न तो कोई अवसर होता था ,न ही समय ! कार्यक्र्म समाप्त होते ही हमें छोड़ने के लिए गाड़ी तैयार रहती और कभी डिनर किए बिना भी दूर से नमस्ते करके हम चले आते,उस समय वे प्रशंसकों में घिरे रहते थे |

गाज़ियाबाद में एक अनौपचारिक मुलाक़ात हुई और तबसे कई बार किसी न किसी मंच पर दिल्ली,अहमदाबाद ,बड़ोदा के कवि-सम्मेलनों में उनसे मिलना होता रहा |सन तो याद नहीं है लेकिन एक बार बड़ौदा के ओ.एन.जी.सी के कवि-सम्मेलन में देर रात तक चलते कार्यक्र्म में मुझे माँ शारदे की वंदना का सुअवसर प्राप्त हुआ जिसकी डॉ. बेचैन व डॉ . मिश्र से प्रशंसा सुनकर मैं प्रसन्न जो उठी थी , उसके बाद रचना भी पढ़ी मैंने | उस समय मंच पर डॉ . बुद्धिनाथ मिश्र जी भी थे | डॉ . बेचैन की सागर व नदिया वाली रचना मैंने पहली बार सुनी थी | ‘पानी की कलाई हूँ’ ने मन में जो चित्र उकेरा उसे मैं अपने कमरे में आकर भी दिमाग से उतार न सकी | नदिया शब्द मेरे मन में उमड़-घुमड़ करता ही रहा उस दिन मैं सो नहीं पाई ,कुछ लिखती ,काटती –पीटती रही | एक गीत जैसा कुछ बना भी ‘तृप्त सागर के सिरहाने ,एक नदिया आनमनी है |‘

सुबह नाश्ते पर मैंने उनको बताया कि मैंने उनका शब्द ‘नदिया’ चुरा लिया है |

उन्होने कहा कि मैं रचना सुनाऊँ लेकिन वह इतनी कच्ची रचना थी कि मैं उस समय सुनने का साहस नहीं कर सकी | ख़ैर बात आई-गई हो गई |

बहुत वर्षों बाद एक बार अहमदाबाद के दूरदर्शन में बाहर के कवियों के खूबसूरत रचना-पाठ से मन तृप्त हुआ | उस बार बलकवि बैरागी जी भी सप्त्नीक थे |बैरागी जी से मेरा व माँ का परिचय तबका था जब मैं कॉलेज में पढ़ती थी | ख़ैर ,उस दिन न जाने क्या हुआ डॉ . बेचैन व उनके साथ एक और कवि थे ,जिनका नाम मुझे याद नहीं है ,उन लोगों के ठहरने की व्यवस्था में कुछ गड़बड़ी थी | उनकी अगले दिन सुबह की ट्रेन की बुकिंग थी |

मैंने उन्हें अपने घर चलने का अनुरोध किया | घर तो ले आई लेकिन उनके कपड़ों का बैग किसी और के साथ चला गया था | मैंने अपने पति के कुर्ते टटोले ,धुले-प्रेस किए हुए तो मिल गए लेकिन एक कुर्ते की जेब उधड़ी हुई थी जिसे मैंने किसी तरह सिलकर ठीक किया और वो कुर्ता बेचैन जी को दिखा भी दिया | उन्होने हँसकर कहा कि इसमें उन्हें खज़ाना थोड़े ही रखना है | उस रात उनसे मेरे पूरे परिवार ने शायद रात के 2/3 बजे तक कविताएँ सुनीं | उनके कहने पर उस दिन बड़ौदा में लिखा गया कच्चा-पक्का गीत सुनाया जो दरअसल मेरे पति को बहुत पसंद था |

बाद में कई वर्षों के अंतराल में उनसे मिलना हुआ और अंत में जब मैं इनके न रहने के बाद अपने दामाद,बेटी के साथ हरिद्वार,ऋषिकेष गई और वहाँ अपने भाई जयवीर के पास दो माह रही तब अयन प्रकाशन के कार्यक्र्म से पूर्व एक छोटी सी गोष्ठी उनके घर पर हुई जिसमें मेरे साथ मेरे बेटे जैसा भाई प्रिय प्रताप भी था | उस समय भाभी जी बीमार चल रही थीं |इससे पूर्व मैं उनकी बेटी से गाज़ियाबाद के एक कार्यक्रम में मुलाक़ात हो चुकी थी |

अयन प्रकाशन में हुई उनसे अंतिम मुलाक़ात थी | अयन प्रकाशन के भूपि सूद जी डॉ . बेचैन के समीपी मित्रों में से थे ,कुछ दिनों बाद उन्हें भी ईश्वर ने अपने पास बुला लिया |

मैं इस विषय पर बिल्कुल कुछ भी नहीं लिखना चाहती थी किन्तु न जाने क्यों ,शायद स्वयं को सहज करना चाहती थी या न जाने क्या भरा था मन में ! कुछ दिनों बाद जब कुमार विश्वास ने ट्वीट किया था कि डॉ . बेचैन को अस्पताल में बैड नहीं मिल रहा है | रोहित अवस्थी ने बताया | मैंने तुरंत प्रवीण कुमार जी को गाज़ियाबाद में फ़ोन लगाकर बात की ,मेरे सामने उनका मुस्कुराता चेहरा घूम रहा था |प्रवीण जी से भी मेरी मुलाक़ात दो ढाई वर्ष पूर्व हुई थी और उनके निमंत्रण पर मैं गाज़ियाबाद उनकी संस्था के कार्यक्रमों में गई भी थी | उन्होंने मुझे बताया कि बेचैन जी को बैड मिला गया है |

मैं तो सोच रही थी कि अब तक वे अपने परिवार के पास सुरक्षित पहुँच गए होंगे लेकिन कुमार विश्वास का ट्वीट फिर रोहित ने मेरे पास भेजा और मैं प्रवीण जी को फ़ोन कर बैठी |

“ये सच है क्या ?”पता नहीं मैंने कुछ ऐसा ही उनसे पूछा था |

“हमारे पिताजी के बारे में ?”मैं और भी चौंकी | मन व्यथित हुआ जब उन्होंने बताया कि कल ही उनके पूज्य पिता जी उन्हें छोड़कर चले गए हैं | मैंने धीरे से उन्हें बताया कि मैं नहीं जानती थी | मेरे मुँह से बेचैन जी की बारे में भी निकल गया बाद में अफ़सोस भी हुआ ,वो बेचारे खुद ही अपनी पीड़ा में थे |

ईश्वर सभी दिवंगत आत्माओं को अपनी शरण में लें ,हमारे पास केवल प्रार्थना के शब्दों के अतिरिक्त कुछ नहीं है | यहाँ आकर ‘मैं ये,मैं वो’ सब धराशायी हो जाता है |

मन व्यथिय है शायद यह सब इसीलिए लिखा गया |

सर्वे भवन्तु सुखिन :

पूरे विश्व पर से घोर विपत्ति हटाओ प्रभु,बहुत सज़ा हो गई | जो बीमार हैं ,उन्हें स्वस्थ्य करें प्रभु |

हम सबकी सामूहिक प्रार्थना स्वीकार करें |

ॐ शांति :

नमन

डॉ.प्रणव भारती