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मेरा भारत दिखा तुम्‍हें क्‍या? - 9

मेरा भारत दिखा तुम्‍हें क्‍या? 9

काव्‍य संकलन-

मेरा भारत दिखा तुम्‍हें क्‍या?

वेदराम प्रजापति ‘’मनमस्‍त’’

समर्पण --

धरती के उन महा सपूतों,

जिनके श्रम कणों से,

यह धरा सुख और समृद्धि-

पाकर, गैार्वान्वित बनी है,

उनके कर कमलों में सादर।

वेदराम प्रजापति मनमस्‍त।

दो शब्‍द-

आज की इस भयावह चकाचौंध में भारत की पावन धरती से मानवी के बहुत सारे सच्‍चे चेहरे गायब और अनदिखे से हो रहे हैं, उन्‍हीं की खोज में यह काव्‍य संकलन ‘मेरा भारत दिखा तुम्‍हें क्‍या ?’ अपने आप को ,आप सभी सुधी समीक्षक मनीषियों के करकमलों में आत्‍म समर्पण कर रहा है। इसकी रक्षा और सुरक्षा का भार आप सभी पर ही है। इन्‍हीं आशाओं के साथ सादर समर्पित--

वेद राम प्रजापति ‘मनमस्‍त’

49- स्‍मृति के धरोहर –

गांव की पहिचान बनकर, वृक्ष टेरें।

रात-घन अंधियार में, अपनों को हेरें।

ये पुराने गांव कहते सुना सबको-

आंधरे पहिचान जाते, अपएं खेरे।।

हर कहीं, सुख-साज से धरती लदी।

ढूंढने पर, नहीं मिलत कहीं पर बदी।

भेंट लेकर, खड़े हैं यहां लभेरे-

इन्‍हीं क्रम में, बीत गई, कई एक सदी।।

बेर से लद, बेरियां छूतीं अवनि।

हर कोई ललचा गया, करते गमन।

इमलियों की महक, मन को छू गई-

इस तरह, मनमस्‍त मन, होता मगन।।

हींस के, हिंसोरे, टेरत दिखे।

गौंगची ने, लेख राहों में लिखे।

बीर बघूंटी पाबसी मुस्‍कान सी-

नाचते राहों में, शेखी ओर शिखे।।

गहन बट की छांव प्‍यारी पथिक को।

जहां जड़े पाताल, गूलर ब्रम्‍हाण्‍ड हो।

लटकते हैं जटा जूड़ा संत से-

त्‍याग-तप की मूर्ति वाले पथिक हों।।

50- स्‍वर्ग के उपहार -

गांव ही, सच में स्‍वर्ग उपहार है।

प्‍यार के, बेतार से ये तार हैं।

जिंदगी है चार दिन की, मानलो-

गांव ही, बस जिंदगी के सार हैं।।

रात तो, बस गांव की सौगात है।

शहर की, ऐसी-कहां कब रात है।

रचत है परपंच शहरी रात भर-

घात और प्रतिघात के उत्‍पात हैं।।

राम जाने, कौन से – किस कहर में।

रात सोती ही नहीं है, शहर में।

राह की सांसें कभी थमती नहीं-

लग रहा, राहें बुझी हैं जहर में।।

शहर के, चौराहे सब, खूनी लगैं।

रात्रि भी, हर तरह से, सूनी लगै।

रक्षकों से मिल, लुटत चौराहे सब-

चोर ही सींटी बजाते से लगे।।

गांव का है अलग ही वातावरण।

नहीं हुए हैं, कभी-भी सीता हरण।

गांव का, एक अलग ही संसार है-

लग रहा, शुभ का हुआ यहां, अवतरण।।

इसलिए, चलकर तो आओ गांव में।

नहीं गढ़े कटंक, तुम्‍हारे पांव में।

धूल भी, यहां की, सुमन-सा प्‍यार दे-

आओ तो, इकबार मेरे गांव में।।

51- मेरा तिरंगा -

देश पर कुर्बान है, मेरा तिरंगा।

देश की, हर शान है, मेरा तिरंगा।।

देश के कल्‍याण में, पग-पग बढ़ा है।

यह हिमालय तक, बुलन्‍दी से खड़ा है।

देश का निर्माण है मेरा तिरंगा।।

सागरों की हर लहर में, गान तेरा।

हर सुबह की, नव किरण, है मार तेरा।

खग कुलों का, मधुर स्‍वर, मेरा तिरंगा।।

केशरिया में प्‍यार रंग का, केशरी है।

श्‍वेत में सदगुण, सच्‍चाई सब भरी है।

देश की, नव हरितमा, मेरा तिरंगा।।

52- आओ बच्‍चों ...............-

आओ बच्‍चो तुम्‍हें दिखाएं, झांसी हिन्‍दुस्‍तान की।

बीर भूमि, बुन्‍देलखण्‍ड की, गाथा है कुर्बान की।।

अमर ज्‍ योति इतिहास भरे हैं, सत्‍तावन की क्रान्ति के।

इसी भूमि ने सबै जगाया, पर्दे हट गए भ्रान्ति के।।

आजादी की अ ि‍मट ज्‍योति से बादल छट गए क्‍लांति के।

लक्ष्‍मी दुर्गा की कुर्बानी, सूरज ऊगे शान्‍ती के।

अनहद गीतों की सरगम पर, गाथाएं कुर्बान की।।

भारत का इतिहास कह रहा, झांसी के मैदान में।

अमर हो गई, झांसी रानी, वीर बुन्‍देली शान में।

किले-कंगूरे, आज गा रहे, जीवन है बलिदान में।

इसी भूमि ने, स्‍वतंत्रता दी, सारे हिन्‍दुस्‍तान में।

जय हो, वीर चन्‍द्रशेखर की, जय सुभाष बलिदान की।।

बुन्‍देली की, पावन धरती के, सभी-सभी आभारी हैं।

यहां अनेकों वीरों ने आ, आजादी दी न्‍यारी है।

ज्‍योति जली थी स्‍वतंत्रता की, यह धरती अ ि‍त प्‍यारी है।

दुनियां इस पर न्‍योछावर है, इस‍की अति आभारी है।

बने आज मनमस्‍त सभी हम, धरती है स्‍वाभिमान की।।

53- पदमाबती -

मौन बनकर क्‍यों खड़े हो बोलना होगा।

इस धरा के राज सारे, खोलना होगा।

कुछ अधिक ही, कुल बुलाते, साधना के पल।

ज्‍यादा समय तक रोकना संभव नहीं होगा।।

बोलती सब कुछ, यहां की मौन धरती भी।

धूल कण के बजन को भी, तौलना होगा।।

दर्द दिल के, ये कगारें किस कदर कहतीं।

श्रावण के जो बंद द्वारे, खोलना होगा।।

झिल्लियों की चीत्‍कारें दादुरों के गीत।

तीर के उस पार का भी, मोल तो समझो।।

केकियों का नृत्‍य करना, अब हुआ क्‍यों बंद।

कोटरों के उल्‍लुओं के, बोल तो समझो।।

वृक्ष से झड़ते पर्ण की, यात्रा कैसी।

और कितनी दूर गामी, मापना होगा।।

सिंध पारा का मनोरम है, कहां संगम।

मालती स्‍नेह के पग चिन्‍ह तो खोजो।।

श्री पर्वत की, कहां मनुहार मई गाथा।

विष्‍णू मंदिर है कहां, मन में जरा सोचो।।

सेव्‍य सेवाधाम, कहां नौचंकिया निर्झर।

इन सभी की हर कथा को, खोजना होगा।।

रोकतीं हैं, राह को, जो राह में अड़कर।

गुम्‍बजें वे कौनकीं, क्‍या कह रही बोलो।।

खाइयां, भरके, कगारें, अरू सलिल धारा।

कौन से अनुराग में पागे, उन्‍हें खोलो।।

अनछुए कुछ प्रश्‍न पूंछे, मौन रजनी भी।

मधुमती अरू लवण सरिता खोजना होगा।।

54- जीवन सरिता नौंन -

जीवन सरिता सरस शत, गंगा के समतुल्‍य।

सकल तीर्थ का फल यहां, लवण सरित स्‍नान।

मोक्ष दायकु तृण, तरू, कूल-कुल उद्धार।

धन्‍य हो, सरिता लवण तट, अहर्निश कर ध्‍यान।।

उभय कूलो कलोलित मन, द्रुमों के मृदुयात।

झूमते-झुक-झूलते, जल, बात से बतियात।

जल पिए मृग, विहग, मानव, शान्‍त-पाते शान्‍ती।

बुद्धि, बल मनमस्‍त, बनता, मिटत मन की भ्रान्ति।।

परम पावन, पतित पावन, ब्रम्‍ह का अबतंश,

जान्‍हवी सी जानकर, पूजन करूं तेरा।

जीव का जीवन, स्‍वजन उद्धार कारक,

लवण सरिता को सतत, वंदन है मेरा।।।

धरा, धाम, धन-धन्‍य, भरत भू, मध्‍यप्रदेश सुखा धाम।

गालिब ऋषि की तपोभूमि, जय पंचमहल सुचि नाम।।

विन्‍ध्‍याटवी लखेश्‍वरी रानी, गोले, मकरध्‍वज धाम।

धूमे, शीतला, रतनगढ़, जीवन पावन नाम।।

पंचमहल की वन्‍य स्‍थली, कब होगी गुल्‍जार।

कई युगों से प्रकृति यहां की, करती रही विचार।

कोयल, कीर, पपीहा यहां पर मन से कभी न गाते।

मानो इनके जन्‍मभूमि से, ऐरे-गैरे नाते।।

राजा, कृषक, श्रमिक सब ही का एक पावस आधार।

पावस-मावस दूज चांद सा, कैसे हो उद्धार।

जीव जन्‍तु, तृण धान्‍य, दुमादिक, सबका, जीवन यानि।

बिन पानी इस पंचमहल की, धरती व्‍याकुल जानी।।

अवनि कृषक, जीव-जन्‍तों का, मन जीवन हरषाने।

पर्वत, दर्द भरी तड़पन से, झरना लगे बहाने।।

प्रकृति जानती है जीवों के, सब जीवन का राज।

नौनन्‍दा मूंई धन्‍य हो गई, प्रकट सरित नव काज।।

जनक राज-सा गौरव पाया, नौनन्‍दा सुचि ग्राम।

लवण सरित को अंक खिलाकर, पाया युग में नाम।

पंच महल की, पावन भू को, मिला नया वरदान।

नौन नदी, गौरव की थाथी, बनी सभी पहिचान।।

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