मेरा भारत दिखा तुम्‍हें क्‍या? - 7 बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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मेरा भारत दिखा तुम्‍हें क्‍या? - 7

मेरा भारत दिखा तुम्‍हें क्‍या? 7

काव्‍य संकलन-

मेरा भारत दिखा तुम्‍हें क्‍या?

वेदराम प्रजापति ‘’मनमस्‍त’’

समर्पण --

धरती के उन महा सपूतों,

जिनके श्रम कणों से,

यह धरा सुख और समृद्धि-

पाकर, गैार्वान्वित बनी है,

उनके कर कमलों में सादर।

वेदराम प्रजापति मनमस्‍त।

दो शब्‍द-

आज की इस भयावह चकाचौंध में भारत की पावन धरती से मानवी के बहुत सारे सच्‍चे चेहरे गायब और अनदिखे से हो रहे हैं, उन्‍हीं की खोज में यह काव्‍य संकलन ‘मेरा भारत दिखा तुम्‍हें क्‍या ?’ अपने आप को ,आप सभी सुधी समीक्षक मनीषियों के करकमलों में आत्‍म समर्पण कर रहा है। इसकी रक्षा और सुरक्षा का भार आप सभी पर ही है। इन्‍हीं आशाओं के साथ सादर समर्पित--

वेद राम प्रजापति ‘मनमस्‍त’

37- तुझे मुबारक -

लगता तूं का पुरूष, राग के गीत सुनाता।

उनको करने खुशी, चापलूसी से नाता।

पागलपन का दौर, लगा तेरे में आया।

बे-फजूल की बात लिए, ऐसे बड़बड़ाया।।

मनो चिकित्‍सक कुशल, तुम्‍हारे यहां नहीं है।

जहां दुरश्‍त हो जाय, कोई अस्‍पताल नहीं है।

लगता तूं हो गया, कहीं सत्‍ता का चेरा।

आता है संदेह घेर में, यह सब तेरा।।

घर में भड़की आग, कहीं महिफिल गाएगा।

लगता अति बीमार, स्‍वस्‍थ्‍य नहीं हो पाएगा।

कभी दिखाती भूंख आरती बड़े तौंद की।

चापलूस हो गया, प्राप्ति हित, तूं अभीष्‍ठ की।।

पीड़ा का ऐहसास कभी क्‍या होता मन में।

घर का भेदी बना, मूर्ख यौं कहता रण में।

अंधी कविता दौड़, विजय का पथ पाएगी।

तुझे मुबारक मूंढ़, अक्‍ल कब तक आएगी।।

ठकुर सोहाती लिखत, बात कुछ नहीं सोहती।

गांवों की बह धरा, तुम्‍हारी बाट जोहती।

चलो गांव की ओर, नया संसार जहां है।

जीवन का सुख साज, सभी कुछ वहां, वहां है।।

38- डूबेगी यौं नाव –

टूक-टूक हो गया, नियोजन का यहां फण्‍डा।

है गिनती छ: सात, गाढ़ दयो अपनों झण्‍डा।।

देत ईश को दोष, सभी चिन्‍तन को भूला।

सब कुछ करता ईश, झूलता मन का झूला।।

नहीं होश में रहा, न आगा-पीछा देखा।

पंडित के घर जाय, रोज दिखवाता रेखा।

कब बदलेगा समय, भाग्‍य की रेखा कैसी।

क्‍या-कैसे हो गयाय, हो रही ऐसी-तैसी।।

बच्‍चों का नहिं ध्‍यान, प्‍यार बिन पत्‍नी सोई।

मां की ममता भूल, किया परहित नहीं कोई।

पितु को दिया न नीर, सुनीं ना बातें उनकी।

चिंता करी न कोई, करी सब, अपने मन की।।

जीवन भर बे फिकर, समय का ध्‍यान विसारा।

कोरी कविता करीं, गया जीवन यौं सारा।

खोजी कई जुगाड़, झौक आंखों में धूला।

महाकवि बन यगा, फिर रहा फूला फूला।।

लगा भटक तूं गया, किधर की राह पकड़ली।

लगता तेरी बुद्धि भ्रम ने आज जकड़ली।

चलना गांवन ओर, संभलजा अब भी प्‍यारे।

जहां स्‍वर्ग सी भूमि, प्‍यार उसका कुछ पारे।।

39- भलाई का फल –

भला न होबै, भला किसी का, बुरा किसी का मत करना।

भोगत कई भलाई का फल, घुट-घुट जीवन भर मरना।।

लंका नगर, निवास स्‍वयं को, शिवजी ने बनवाया था।

ग़ृह प्रवेश पर, जिसे दक्षिणा में रावण ने पाया था।।

मिला भलाई का तोहफा यह, जन्‍म – जन्‍म हिम गिरी रहना।।

विश्‍व मोहिनी के झंझट से, प्रभु ने नारद बचा लिया।

शाप, पाय, भटके बन-बन में नारद ने यह सभी किया।

कष्‍टों की घानी भा जीवन, जग कोल्‍हू पिरते रहना।।

भस्‍मासुर पर, हो प्रसन्‍न, शिव, मुंह मांगा, वरदान दिया।

तीन लोक में भागत डोले तब विष्‍णू ने बचा लिया।

बनना पड़ा विष्‍णु को नारी, छलिया का लांछन सहना।।

नहिं मारा मारीच दुष्‍ट तब रूप छली यहां बना लिया।

स्‍वर्ण मृगा बन, पंचवटी में, सीता से ही कपट किया।

हरण सिया, भटके वन-वन प्रभु, दुष्‍ट ग्रह, सिया का रहना।।

छली छोड़ते नहीं दुष्‍टता, मृगुने याद प्रहार किया।

छलियों के छल को ही प्रभु ने, निज उर पर ही धार लिया।

बचते रहना छली जनों से, संभल संभल के पग धरना।।

शिवि, दघीच, हरीशचन्‍द्र आदि ने, फल भलाई के बहु पाए।

स्‍वर्ण अच्‍छरों में अंकित है, इतिहासों ने सब गाए।

सोच-समझ के चलना साथी, मन मनमस्‍त यही कहना।।

40- गांव सवेरा -

बहुत भोगलीं काली रातें, नहीं मिला कही छोर।

हंस कर आता गांव सवेरा, चलो गांव की ओर।।

बड़े भोर, मगरे पर बोले, सुन्‍दर सगुन चिरैया।

दूध पिलाने, प्‍यार उड़ेले, रभां रभां- कर गइया।

कौआ बैठ मुडेरन बोलत, आ रहे कोउ, लिबउआ।

दूध पिता रहीं, हंस-हंस गोरी दे-दे बाय बुलउआ।

चलतीं चाकीं लगत सुहानी, गीतों की घन-घोर।।

झार‍त सार, सार संग गोरी, गोबर डारत गावै।

ऊंचा देव, गोबर की डलिया, कान्‍ह रोज बुलावै।

सबरी झाड़ बुहारी करके, पथन बाए में जाती।

जय गोवर्धन बाबा तुमरी, गोबर पाथत गाती।

है मनमस्‍त काम में इतनी, चितऐ न कोनऊं ओर।।।

सब मिल करते काम आपने, भेद-भाव नहिं जाने।

नीति-धर्म कौ, बज रहों डंका, कोउन अपनी ताने।

कक्‍का, दद्दा, भइया, भाभी, है संबंध घनेरे।

द्वारन डरे उरैन, चौतरा लीपत बहुत सबेरे।

यौं लगतई, त्‍यौहार रोजयीं, आंय पाहुने मोर।।

आम और जामुन के पातन, बंध रहे बंदन बारे।

भए स्‍वर्ग से गांव हमारे, सब को लग रए प्‍यारे।

खुशियों से संसार भर रहा, दु:ख को कहीं न ठौर।

सूरज भी न्‍यौछावर हो रहो, पनिहारिन पर दौर।

सबई जनन कौं लगत सुहानौं, आवत नौनों भोर।।

41- गरीबी रथ -

तुम्‍हीं बैठते रहे सदा से, सदां-सदां ही,

विवस गरीबी और गरीबों के ही रथ पर।

उनकी टूटी कमर, पड़े पैरों में छाले।

बे-बेचारे चले, सदां ही नंगे पथ पर।।

उनने ढोया तुम्‍हें, खून का पानी करके,

पेट पीठ कर एक, किए उपवास हजारों।

रैन-दिवस कर एक, सौंप कर सब कुछ तुमको,

दौड़े नंगे पैर, बिठाया तुमको, कारों।।

अब भी दल रहे मूंग, बैठ नंगी छाती पर,

तुमको तोरण-द्वार, गरीबा खूंदे जाते।

धरती पर नहीं पैर, उड़ रहे हो अंबर में,

ढोते जीवन-बोझ, कि उनकी पीठ दुखाती।।

कब तक, कितना और, अंधेरे में राखोगे,

मजबूरी है मगर सभी कुछ समझ रहे हैं।

हमें रौंदते रहे, हमारे ही इस रथ से,

अंधे, बहरे नहीं, कदम अब बहक रहे हैं।।

अब भी लौट जाओ बन्‍दे। अपनी धरती पर।

ये नाटक, नौटंकी करदो बंद, सुन रहे।

वरना, यूं लगता, कुछ भी है, होने वाला,

बहक रहे हैं कदम, हाथ कुछ करने उठ रहे।।

42- अच्‍छा नहीं है -

प्‍यार करलो मानवी से रूठना अच्‍छा नहीं है।

झूंठ और धोखा घड़ी से, लूटना अच्‍छा नहीं है।

बने हो मानव कहीं तो, मानवी व्‍यवहार करना।

दानवों के आचरण को, धारणा अच्‍छा नहीं है।।

पीर का अहसास है तो, घाव पर मरहम लगाना।

नमक को ब्रण पर छिड़कना तो, कहीं अच्‍छा नहीं है।

बन सको यदि तुम कहीं तो, मील के पत्‍थर ही बनना।

राह के अवरोध बनना, तो कहीं अच्‍छा नहीं है।।

जिंदगी में, मौत के भी भूलकर सामां जुटाता।

दे सको निर्जीव को यदि जिंदगी तो अच्‍छा कहीं है।

भूलते-भटके को यदि कहीं, राह जीवन की जो दे दी।

आदमी होने का साया, फिर तो ये अच्‍छा, सही है।।

और क्‍या। कितना कहैं अब जो कहा थोड़ा न समझो।

देश को बरबाद करना, भूल कहीं अच्‍छा नहीं है।।

बन सको आजाद, गांधी और विवेकानन्‍द बनना।

विध्‍वंश का लादेन बनना तो, कहीं अच्‍छा नहीं है।।

इस पिशाची वेश को, यदि कहीं बदला न तुमने।

तूफान ये सागर मंथन का, तो कहीं अच्‍छा नहीं है।

होश में, मनमस्‍त आओ, देश को स्‍वाधीन रखने।

इस तिरंगे की शहादत, भूलना अच्‍छा नहीं है।।