मेरा भारत दिखा तुम्‍हें क्‍या? - 2 बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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मेरा भारत दिखा तुम्‍हें क्‍या? - 2

मेरा भारत दिखा तुम्‍हें क्‍या? 2

काव्‍य संकलन-

मेरा भारत दिखा तुम्‍हें क्‍या?

वेदराम प्रजापति ‘’मनमस्‍त’’

समर्पण --

धरती के उन महा सपूतों,

जिनके श्रम कणों से,

यह धरा सुख और समृद्धि-

पाकर, गैार्वान्वित बनी है,

उनके कर कमलों में सादर।

वेदराम प्रजापति मनमस्‍त।

दो शब्‍द-

आज की इस भयावह चकाचौंध में भारत की पावन धरती से मानवी के बहुत सारे सच्‍चे चेहरे गायब और अनदिखे से हो रहे हैं, उन्‍हीं की खोज में यह काव्‍य संकलन ‘मेरा भारत दिखा तुम्‍हें क्‍या ?’ अपने आप को ,आप सभी सुधी समीक्षक मनीषियों के करकमलों में आत्‍म समर्पण कर रहा है। इसकी रक्षा और सुरक्षा का भार आप सभी पर ही है। इन्‍हीं आशाओं के साथ सादर समर्पित--

वेद राम प्रजापति ‘मनमस्‍त’

7- ग्राम्‍य दर्शन -

देखीं नहीं होयगीं तुमने, गांवन की वे भोर।

चिडि़यों की चहकन से जगते, हंसते बाल किशोर।।

गइयां रम्‍मा–रम्‍मा कै देरईं, बछड़न कौं आवाज।

कितनौं सुन्‍दर लगै समैइया, खिरक बताते राज।

लएं दोहनियां चल दए भैया, खोलत खिरकन द्वार।

चाटत बछड़न वे पसुराई, करत प्‍यार हुंकार।

नया-नया संगीत मचलता दुगध-देहनी घोर।।

धरै हेल- गोबर की चल दई, रमसइया की बाई।

पथन बाए में कण्‍डा पाथत, दौलत की भौजाई।

उपलन में रम-रए रमापति, गीत मनोहर गाती।

जय-जय हो। गोवर्धन बाबा, कण्‍डन हेल सजाती।

जीवन धन-सौ लगत मनोरम, दधि मंथन कौ शोर।।

सूरज उगने से ही पहले, झाड़-बुहारी हो गई।

द्वार लिप गए गऊ गोबर से, अंधियारी सब खो गई।

पानी भरन चल दई मइया, संग में रमको ताई।

भी़ड़ भई पनघट पै खाशी, मिल जुल कै बतराई।

ऐसे लग रईं, एकई घर की, नहिं बातन कौ छोड़।।

भोरईं जगा देत थी मइया, पढ़वे करन तैयारी।

उठ कै, हाथ मुंह अब धो लेऊ, जग गई दुनियां सारी।

पाठ फेर लेउ, अपने सबरे, कसर न नैंकऊ छोड़ो।

घण्‍टी बजन लगी, शाला को बांध कलेबा दौड़ो।

ले बस्‍ता मनमस्‍त चल पड़े गुरूचरन की ओर।।

8- परिवर्तन -

बदल गए कई, गांव, शहर की छाया पाके।

अपनापन दऔ खोय, रोज शहरों जा-जाके।

भोलेपन की साख, खाक में मिल गई प्‍यारे।

सच का दामन छोड़, करै बारे के न्‍यारे।।

वह जीवन की चमक, नकल के हाथौं बिक गई।

प्‍यार, प्रेम-व्‍यवहार, की गाड़ी द्वारेहि रूक गई।

नकली चौंगे पहन, बनन चाहे नेता जी।

विकीं मड़इयां बैल, रहे मुल्‍ला, ना काजी।।

ढुलक नगरिया तान, पलाशन की कहां लाली।

लोरी, कजरी, फाग नहीं, मन खाली खाली।

हुक्‍कन की वह ठसक, कसक रही पौर-पौर में।

अमुआ, महुअन महक, खो गई, नए दौर में।।

गोरी गर्वित लाज आज उड़ गई अंबर में।

हो गए छोटे वस्‍त्र चुनरिया है कम्‍बर में।

मिटै मल्‍हारी गीत, बहिन-भइया की यादें।

आल्‍हा की दम दौर, कहां ढोला की नांदे1।

लम्‍बे करके हाथ शहर, गांवों में हाए।

झांझर पातर बने, खींच लए गांव हमाए।

फिर भी उन्‍नति मेख आज गांवन ने गाढ़ी।

लए कर्मणि पुरस्‍कार, आज भी गांव, अगाड़ी।।

9___बहुत हो चुका__________

अंधियारे से भरा उजाला, सुख की कहीं न कोर।

बहुत हो चुका, शहर छोंड़ अब चलो गांव की ओर।।

शहरों में दुर्दशा बहुत है, कोऊ न जानें, मानें।

कोउ काऊ के नहीं दुख दर्दों, अपनी अपनी तानें।

पंच और सरपंच न कोऊ, अपनी अपनी हांके-

वर्षों हो गए, कई पड़ौसी नाम न जानत मोर।।

द्वार लिपत नहिं, नहीं अंगनवा, नकली बंदन वारे।

कंकरीट की चकाचौंध से, मिट्टी गंध न प्‍यारे।।

मिट्टी दीप नहीं धृत बारे, बल्‍बों की झालरियां।

सपनेहु सुख, कतहुं नहिं दीसे, बीमरिन के दौर।।

गांवन में निश्चिंत हो सोते, सुख की खोल किवरियां।

चैन नहीं शहरों में पाते, आपा-धापी विरियां।

बड़े मजे का जीवन, गांवन, मन के नाचत मोर।।

मनमस्‍ती के सूरज-चंदा, मुदभय जीवन भोर।।।।

बांध लेउ पोटली में सब कुछ, समय न बिल्‍कुल खोए।

आसमान की छत के नीचे, डारि पिछौरा सोए।

कोविड से बचना जो चाहो, गांवन गैल सम्‍हारो-

रूखी-सूखी खा कैं भइया, गहलो लुटिया डोर।।

10- शहरी व्‍यथा कथा -

शहर उगलते धुआं, कार्बन ओर प्रदूषण।

सुबह उठत ही मंडराता है धुआं नर्तन।

थम जाती है श्‍वांस छतों पर धुआं छाया।

यूं लगता है, आज घरों ने धुआं नहाया।।

सींटी देती रेल, घड़ाघड़- धड़-धड़ धड़कन।

करते शोर, अपार, कार खानों के बर्तन।

वायुयान की घोर चीत्‍कारी, धुनि भारी।

नहिं सो पाते चैन, नींद की मिटत न खुमारी।।

ट्रकों की भरमार भौंपुओं की घनघोरें।

टैम्‍पू दौड़ सपाट, कि बचना तांगा घोरे।

मोटर साइकल चाल, राम जानें क्‍या होगा।

बचके चलना यार, जिंदगी कैसे ढोगा।।

इतनी भारी-भीड़, बिछुड़कर, मिल नहीं पाते।

कूंजडियों की टेर, शोर का शोर बढ़ाते।

रोड़न मिलत न सांस कि चलना मुश्किल होवे।

अगर चूक गए कहीं, जान को निश्चित खोवे।।

ऊब गए हम यहां, गांव की गैल संभारो।।

सुख का वह संसार, गांव का प्‍यार हमारो।

शहर उगलते रोग, शान्ति है गांव-गांव में।

पाओ शीतल छांव, गांव के ठांव-ठांव में।।

11- धरती का स्‍वाभिमान -

मेहनत जिसका गान, धरती का स्‍वाभिमान।

मां की सेवा ही करने का, पाया हो। वरदान।।

बड़ी दयालू धरती मइया, महिमा तेरी जानी।

दाने, मिट्टी में खोए थे, वापिस किए भवानी।

कितना छोटा बीज, कि जिसमें- बट-सा वृक्ष समाया।

एक बीज से, सहस्‍त्र बीज भए, आज समझ मैं पाया।

तुम तो सचमुच रचनाकर हो, मैं जो था अज्ञान।।

हर्षाती सी आज, दिख रही मां धरती की काया।

यह है सच्‍चा जीवन, जिससे जीवन, जीवन पाया।

खलिहानों में जमा हुआ है, गौरव का गिरिराज।

कैसे भुला सकोगे साथी जीवन का यह नाज।

हो मनमस्‍त बांटता सबको, धन-धन तुझे किशान।।

इतने सच्‍चे जीवन को लख, प्रकृति परीक्षा हारी।

चलता रहा अडिग जीवन भर, कभी न हिम्‍मत हारी।

यह वह पथिक, कि जिसके श्रम से, पथ छोटा हो जाता।

इसके जीवन गीत हमेशां, सारा जग ही गाता।

ईश्‍वर भी, जिस पर न्‍यौछावर धरती का भगवान।।

12- लेना नहीं विराम -

जीवन करो सुफल सब अपना, लेना नहीं विराम।

पाओ फलों भरी जहां धरती, ऐसे प्‍यारे गांव।।

वनवेरिन के लाल बेर जो, मूंगा से दरसाते।

पकीं निबौरीं, बैठ डा‍ली पर, तोता, कौआ खाते।

पीपर चढ़त बबूल फूल पै, और पलाशन लाली।

गुन्‍जा ऐसे लटक रहीं ज्‍यौं मोतिन माक की डाली।

सिरस फूल से फूटत किरने, जैसे सूरज घाम।।

हरे घास पर शशि शाबक के खेल अनौखे पावैं।

जैसे पंख लगे हो उनके उछल-उछल कर धावैं।

मोर नाचता, कोयल गाती, हरिणा भरत छलांगें।

सिंह बयाह में, स्‍यार बाराती, लोमड़ी नाचत, आगे।

तोता गीता पाठ उचारैं, मैंना बोलत राम।।

हर मौसम का नया रंग है, उसको समझो प्‍यारे।

आसाड़ी पावन भू के, रंग ढंग है न्‍यारे।

वर्षा की रिमझिम बूंदन को, स्‍वाद कभी क्‍या जाना।

शरद चांदनी की चादर पर, गाया कोई गाना।

शिशिर- शिशिर कर, शिशिर ऋतु में कैसे आती शाम।।

मौसम की मनुहारें प्‍यारीं जहां हर समय पाओ।

बासन्‍ती की सुमन धरा पर, हंसते-हंसते गाओ।

ग्रीष्‍म के आतप में, विरवा पतझड़ होते देखा।

जीवन के बदलाव निरख लो करते रहना लेखा।

गांवों में चलकर तो देखो जहां बैकुण्‍ठी धाम।।