मेरा भारत दिखा तुम्‍हें क्‍या? - 3 बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • स्वयंवधू - 31

    विनाशकारी जन्मदिन भाग 4दाहिने हाथ ज़ंजीर ने वो काली तरल महाश...

  • प्रेम और युद्ध - 5

    अध्याय 5: आर्या और अर्जुन की यात्रा में एक नए मोड़ की शुरुआत...

  • Krick और Nakchadi - 2

    " कहानी मे अब क्रिक और नकचडी की दोस्ती प्रेम मे बदल गई थी। क...

  • Devil I Hate You - 21

    जिसे सून मिहींर,,,,,,,,रूही को ऊपर से नीचे देखते हुए,,,,,अपन...

  • शोहरत का घमंड - 102

    अपनी मॉम की बाते सुन कर आर्यन को बहुत ही गुस्सा आता है और वो...

श्रेणी
शेयर करे

मेरा भारत दिखा तुम्‍हें क्‍या? - 3

मेरा भारत दिखा तुम्‍हें क्‍या? 3

काव्‍य संकलन-

मेरा भारत दिखा तुम्‍हें क्‍या?

वेदराम प्रजापति ‘’मनमस्‍त’’

समर्पण --

धरती के उन महा सपूतों,

जिनके श्रम कणों से,

यह धरा सुख और समृद्धि-

पाकर, गैार्वान्वित बनी है,

उनके कर कमलों में सादर।

वेदराम प्रजापति मनमस्‍त।

दो शब्‍द-

आज की इस भयावह चकाचौंध में भारत की पावन धरती से मानवी के बहुत सारे सच्‍चे चेहरे गायब और अनदिखे से हो रहे हैं, उन्‍हीं की खोज में यह काव्‍य संकलन ‘मेरा भारत दिखा तुम्‍हें क्‍या ?’ अपने आप को ,आप सभी सुधी समीक्षक मनीषियों के करकमलों में आत्‍म समर्पण कर रहा है। इसकी रक्षा और सुरक्षा का भार आप सभी पर ही है। इन्‍हीं आशाओं के साथ सादर समर्पित--

वेद राम प्रजापति ‘मनमस्‍त’

13- इस पसीने को कदर ..............-

इस पसीने को कदर अब चाहिए।

मीत इसके, अब सही बन जाइए।

अन्‍यथा, होगा यहां कुछ और ही।

सोचलो। नहिं बाद में पछताइए।।

हर कहीं पर, जल रहीं अमराइयां,

जहर पीकर जी रहीं परिछाइयां।

दर-ब-दर चौड़ी ही होतीं जा रहीं।

मन-दरारैं, बन रहीं अब खाइयां।।

कर्म की पूजा ही करना चाहिए।।

यहां, हलाहल घट, सभी ने पीलिया।

हंसी ले, इसकी लहर में जी-लिया।

क्‍या तुम्‍हारे पास, इससे कुछ अधिक।

नयन ये, तीलीं उगलते, लख लिया।

विश्‍व को मनमस्‍त, कुछ कर जाइए।।

आपको जीवन मिला यह मानवी,

इस तरह के कार्य मत कर दानवी।

जिन्‍दगी का एक दिन अवशान है,

मत उठाना इस तरह की हानि भी।।

विश्‍व में, बदलाव कुछ कर जाइए।।

मौत के सामां जुटा मत, आज तूं।

मत छिपाना, राज कुछ भी आज यूं।

समय का चक्‍कर निरंतर चल रहा,

वच न पाएगा, समय से आज तूं।

बैठ कुछ सोचो इसी पर आइए।।

14- उस गुलशन का क्‍या होगा -

सोच, आज मानव का कुंठाओं से कुंठित,

तुम कहते, कुछ नए गीत, मनमस्‍त, सुनाओ।

बागवान, ही, बागीबन, जहां करै बगावत,

उस गुलशन का क्‍या होगा, अब तुम्‍ही बताओ।।

वातावरण प्रदूषित इतना, स्‍वांस कहां लै,

जल भी, लगता उड़कर के, अब वाष्‍प हो गया।

बौनों की पल्‍टन ने, यहां कुरूक्षेत्र रचा है,

दुर्योधन परिवार, लगा ज्‍यौं, पाक हो गया।

पावन ग्रह, परमाणु शस्‍त्रागार हो गए,

आज जिंदगी जिएं कहां, अब तुम्‍हीं बताओ।।

गहन वेदनाएं, घहरातीं गगन चढ़ीं हैं।

पथरीले गलियारे, कटक गढ़ें पांव में।

राज मार्ग को यहां बबूलों ने ही घेरा,

नागफनी उग आयीं, देखो, ठांव ठांव में।

जहरीला हो गया धरा का चप्‍पा-चप्‍पा,

जन जीवन का क्‍या होगा, अब तुम्‍ही बताओ।।

मान सरोवर पर कागों की लगीं सभाएं,

यूं लगता, हंसों को, कैदी बना लिया है।

स्‍यार, जंगलों के, शाही राजा बन बैठे,

अब भी समय, संभालो इस वीराने जग को,

बारूदी घर बैठ, अमन के गीत न गाओ।।

कभी सोचते। रातों के उन अंधियारों में।

सनन-सनन वायु, किससे, क्‍या क्‍या कहती है।

और सुनो। सरिता की, बह कल-कल वाणी भी,

कितने जीवन ज्‍वार लिए, आगे बढ़ती है।

सच मानो यहां- आज उल्‍लुओं की बन बैठी,

राजहंस की व्‍यथा, यहां अब किसे सुनाओ।।

गिद्ध घेर कर, नौंच रहे, भारत माता को,

चीत्‍कार सुनकर भी, कोई नहिं सुनता है।

कितना बौना, आज हुआ, मानव का चिंतन,

विषम-वेदना के ताने-बाने बुनता है।

कब तक, कितने और विभीषक तांण्‍डव होंगे,

परिवर्तन, कर आज, अमन के बाग लगाओ।।

15-- गर ...........आपने सोचा नहीं --

गर .....आपने सोचा नहीं। नव जिंदगी मुरझाएगी।

इस तरह, भारत युवन की, आनि ही मिट जाएगी।।

बोलो। हृदय के चच्‍छुओं को खोल कर, देखा कभी।

सोचो जरा। कितनी प्रगति। गुजरा शतक आधा अभी।

मद, मोह के पी मादकों को हो गए बेसुध इधर।

भटके हुए हो मार्ग से, सोचा कभी जाना किधर।

युग चिंतनों के देश में, नव चेतना, कब आएगी।।

सिद्धांत को रख ताक पर यहां न्‍याय की होली जली।

अन्‍याय, उत्‍पीड़न घुटालों, की प्र‍बल आंधी चली।

आस्‍था, विश्‍वास के ढहते दिखे, मंदिर यहां।

धरती दरकती दिख रही, सोचो जरा जाएं कहां।

क्रूर-झंझा-नर्तनों की, बाढ़ कब मिट पाएगी।।

वह मानवी चिंतन कहां, हो दर्द जिसको देश का।

युग की विरासत को लिए, निज वेष का परिवेश का।

दर-ब-दर चौड़ी ही हो रही, बेमानियों की खाइयां।

देखो उधर। दिखने लगी विपल्‍वी परिछाइयां।

होगा नवोदय कब यहां, ऊषा कभै, मुस्‍काएगी।।

आस और विश्‍वास लेकर, हम खड़े हैं, यहां पर।

सूर्य तो उगना अवश्‍य है, रात नहीं हो यहां पर।।

वह सुबह निश्‍चय मिलेगा, अंध तम मिट जाएगा।

शून्‍या का साया हटेगा, कोई तो यहां गायेगा।

मोर की ऊषा सुनहरी, धैर्य धरलो, आएगी।।

16--- जीवन धाम गांव ---

प्रकृति जहां उन्‍मुक्‍त, आपने पांवन चलती।

शहरों की सब कथा, सच्‍चाई को ही छलती।

छोड़ो वह संसार, जहां दुख का हो डेरा।

चलो गांव की ओर, सुखद है वहां सवेरा।।

शहरों वाटर पूल, मगर आनन्‍द कहां है।

प्राकृतिक झरनों का झरना, सदां जहां है।

जल का बहना गजब, चाक-चकवी की बातें।

मेढ़क, झिल्‍ली गीत, रात को सुधर बनाते।।

झरनन-झरनत फुहार, पाथरों से जल खेलैं।

लूमत तट के वृक्ष, झूमतीं मन हर बेलैं।

बक के गहरे ध्‍यान, लगत हैं नेतन जैसे।

संत भाव अपनांय, फसैं मछलीं कब, कैसे।।

थोड़ी आहट सुनत, टिटहरी, तुरतहि बोलत।

उछल-उछल कर, करत कलोलै मछली डोलत।

बैठ रेत पर, लिखत चांदनी, गीत निराले।

मरियादा के बंधे किनारे, जीवन वाले।।

पगडंडी पर बैठ, कहानी युग की लिखना।

अनजाने मत बनो, जिंदगी भर नहीं पिसना।

वहां न रहना मीत, जहां रोगों की भरती।

चलेा गांव की ओर, पुकारत तुमको धरती।।

17- आसाढ़ी गंध –

धरती रही न जहां, शहर की दशा, क्‍या होगी।

आसाढ़ी बह गंध, कहां से पैदा होगी।

पाषाणों से पाट दिया हो, जहां पर आंगन।

तुम्‍हीं बताओ। वहां हो ऐगा कैसा सावन।।

प्रतिरोधी कीटाणु कहां से जीवन लेंगें।

रवि किरणों के प्रत्‍यावर्तन, क्‍या फल देंगे।

शहरों के घर तो, सूरज को देख न पाते।

कब ऊगे, गए डूब कबै कुछ समझ न पाते।।।

भौरों की गुन्‍जार, कभी सुनने नहिं आती।

वह वायु स्‍वछन्द भूल उस ओर न जाती।

चिडि़यों की वह फुदक देख नहीं बालक पाते।

कौन जीव है मातु, पूंछ बालक, सकुचाते।।

वे स्‍वछन्‍द मन गीत, कभी-भी गा नहिं पाएं।

पछताते हैं सभी, प्रकृति संग, खेल न पाए।

शहरों के इस विरह रूदन से, गांव दूर है।

आजादी की गोद बैठ, आनन्‍द पूर है।।

शहर उगलते रोग, महामारी को लाते।

जिधर देखते उधर, सभी तो यह बतियाते।

जीवन का सुख-सार, गांव में सारा-सारा।

आओ गांव की ओर, तुम्‍हें मनमस्‍त पुकारा।।

18- गांव- राम राज्‍य –

हिलमिल पीते चाय, छूत का नहीं बसेरा।

राजनीतिकी घात, आदि का जहां न डेरा।

बैठक एकहिं ठौर, जांघ से जांघ मिलाएं।

भील, स्‍वपच अरू दुबे, बैठकर भोजन पाए।।

प्‍यार का प्‍याला पिए, सभी उपबीत खो गए।

जो भी हो, सब समय के साथ हो गए।

जाति भेद को त्‍याग, नया संसार यहां का।

हंस-हंस खेलत बाल सुखद है रूप जहां का।।

धूल धूसरित बदन, खेलते नंग-घडंगे।

साधुने से बन रहे, सोच में, नहीं अडंगे।

मैले कुचले बसन मिलन की नीति निराली।

श्‍यामल गौर शरीर, दसन छवि जहां निराली।।

खेलत नित नव खेल, भेद नहीं अपना-दूजा।

ईश्‍वर के अवतार लगैं, सच्‍ची मन पूजा।

गांव-गली की धूल, उगलती प्‍यार-सलौना।

जिसमें मिलकर सभी, बना रहे जीवन-सोना।।

मेहनत के अवतार, रहा मेहनत से नाता।

छल प्रपंच से दूर, प्‍यार के खोलें खाता।

श्‍वेत केश मनमस्‍त, लटकती उर पर दाढ़ी।

बीच खेत, कढ़ गई उमर की, जीवन गाढ़ी।।