डॉमनिक की वापसी - विवेक मिश्र राजीव तनेजा द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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डॉमनिक की वापसी - विवेक मिश्र

आमतौर पर किताबों के बारे में लिखते हुए मुझे कुछ ज़्यादा या खास सोचना..समझना नहीं पड़ता। बस किताब को थोड़ा सा ध्यान से पढ़ने के बाद उसके मूल तत्व को ज़हन में रखते हुए, उसकी खासियतों एवं खामियों को अपने शब्दों में जस का तस उल्लेख कर दिया और बस..हो गया। मगर कई बार आपके हुनर..आपके ज्ञान..आपकी समझ की परीक्षा लेने को आपके हाथ कुछ ऐसा लग जाता है कि आप सोच में डूब..पशोपेश में पड़ जाते हैं कि इसके बारे में आप कम शब्दों में ऐसा क्या सार्थक लिखें जो पहले से लिखा ना गया हो।

दोस्तों..आज मैं बात कर रहा हूँ प्रसिद्ध साहित्यकार विवेक मिश्र जी के उपन्यास 'डॉमनिक की वापसी' की। साहित्य की दुनिया में कई महत्त्वपूर्ण पुरस्कारों को प्राप्त कर चुके विवेक मिश्र जी का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है।

रंगमंच की पृष्ठभूमि को आधार बना कर लिखे गए उनके इस उपन्यास में मूलतः कहानी है रंगमंच के उम्दा कलाकार दीपांश उर्फ़ डॉमनिक की। जिसकी जीवंत रंगमंचीय प्रस्तुतियों की बदौलत शहर दर शहर उसके असंख्य चाहनेवाले हो चुके हैं। इसमें बात है नियति और यतार्थ के बीच झूलते उस डॉमनिक की, जिसे घायलावस्था और बेसुध हालत में दूरदराज के एक अस्पताल में भर्ती कराया गया है।

फ्लैशबैक के माध्यम से इस उपन्यास में कहानी है हिमानी , शिमोर्ग और रेबेका के दीपांश के जीवन में प्रेम बन कर आने और किसी ना किसी बहाने उसे अकेला छोड़..चले जाने की। इसमें बात है संघर्ष, द्वंद, प्रतिरोध और टूटन के बीच पिसते दीपांश के अपनी शर्तों पर जीवन जीने की ज़िद की।

इसमें पहाड़ों को बचाने की पुरज़ोर कोशिशों के बीच बात है राजनीति के तथाकथित सौम्य मगर कुत्सित चेहरों और उनकी मौकापरस्त चालों की। इसमें बात है अवसरवाद के पुरोधा याने के पूंजीवाद के आक्रामक चरित्र और उसके आगे घुटने टेक.. नतमस्तक हो समर्पण करने वालों और निरंतर उनसे अपनी शर्तों पर झूझते चेहरों की। इसमें बात है मानवीय संबंधों की आपसी जटिलता और जीवन में चयन के उठते प्रश्नों के बीच निरंतर होती उठापटक भरी आवाजाही की।

मंचीय तौर पर उपन्यास में, प्रेम पर केंद्रित, नाटक असीम सफ़लता प्राप्त करता है लेकिन नाटक के बाहर असली जीवन में प्रेम अपेक्षित सफ़लता प्राप्त करने के बजाय शनै शनै रिसते हुए..प्रैक्टिकल हो..एक दिन मौकापरस्ती की भेंट चढ़ जाता है।

यह उपन्यास जीवन में अभिनय और अभिनय में जीवन के दो विपरीत ध्रुवों के बीच अतीत, वर्तमान और भविष्य की छोटी बड़ी कई कहानियों को कुरेदते हुए..प्रेम एवं जटिल मानवीय संबंधों के बौद्धिक स्वरूप को समझने के इरादे से इसप्रकार आगे बढ़ता है कि पाठकों को कब अपनी पकड़ में जकड़ लेता है..पता ही नहीं चलता।

तमाम गंभीर, बौद्धिक एवं विचारशील बातों के बीच उपन्यास का धाराप्रवाह एवं पठनीय होना अपने आप में ही प्रशंसनीय है।

मंचीय दुनिया से जुड़ा हुआ उपन्यास का कवर डिज़ायन अगर स्पष्ट एवं आकर्षक होता तो और बेहतर था। संग्रहणीय क्वालिटी के इस 208 पृष्ठीय उम्दा उपन्यास के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है किताबघर प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 350/- रुपए। जो कि मुझे ज़्यादा लगा। आम पाठकों के बीच पकड़ बनाने के लिए कम दामों पर किताबों का उपलब्ध होना बेहद ज़रूरी है। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।