कोरोना प्यार है - 15 Jitendra Shivhare द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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कोरोना प्यार है - 15

(15)‌‌‌‌‌

"मैडम आप! आपको तो समझना चाहिए। समय कितना खराब चल रहा है और आप लोग इस तरह।" पुलिस ऑफिसर बोला।

"साॅरी सर। पहली गलती समझकर माफ कर देवे। आगे से ऐसा नहीं होगा।" रेखा बोली।

"इस बार आपको देखकर छोड़ रहा हूं। आगे आप मुझे कार्यवाही करने पर विवश नहीं करेंगे ऐसी आशा करता हूं।" पुलिस ऑफिसर ने कहा।

रेखा और अभिनव दबे पांव घर लौट आये।

"समीर एक अच्छा लड़का है। मगर क्या वह तुझसे शादी करेगा?" अनुराधा ने अपनी बड़ी बेटी दामिनी से पुछा।

"हां मां। समीर और मैं एक-दूसरे से बहुत प्यार करते है। उसने मुझसे शादी करने का वचन दिया है।" दामिनी बोली।

"लेकिन बेटी! यदि समीर के परिवार वाले नहीं माने तब क्या समीर अपने सगे-संबंधियों का विरोध कर तुझे स्वीकार करने का साहस दिखा सकेगा?" अनुराधा के इस प्रश्न ने दामिनी को विचार मग्न कर दिया। उसने कई बार नोट किया था कि समीर के पिता का फोन आने पर उसकी घिग्घी बंध जाया करती थी। जी-हजूरी के अलावा अन्य कोई शाब्दिक प्रतिउत्तर उसके मुख से निकलते हुये दामिनी ने न कभी देखे न सुने। अनुराधा यह चाहती थी कि जो उसके साथ घटित हुआ वह उसकी बेटीयों के साथ कभी न हो। जयेश से उसने कितना प्रेम किया था। स्वयं जयेश भी अनुराधा पर जान छिड़कता था। जयेश के माता-पिता ने ईसाई समुदाय की अनुराधा को स्वीकार करने से साफ इंकार कर दिया था। अनुराधा के दबाव में आकर जयेश ने अपने पैतृक घर से विदा ली और अन्य शहर धार आकर उससे गंधर्व विवाह कर लिया। कुछ वर्ष तो जैसे-तैसे बित गये। किन्तु जब जयेश के पिता को पहला हार्ट अटैक आया तब जयेश का झुकाव अपने पैतृक परिवार की और ज्यादा होने लगा। इधर अनुराधा को एक के बाद एक तीन-तीन लड़कीयां हो जाने से जयेश के परिवार द्वारा उसे अपनाने की सभी संभावनाएं समाप्त हो गई । जयेश के पिता महेशदास जब मृत्यु शैय्या पर लेटे तब ही उसकी मां सुरीली ने जयेश का संबंध अपने समाजिक रिश्ते में मंगला नाम की युवती से तय कर दिया। अनुराधा को पता चला की जयेश दूसरा विवाह कर चुका है और मंगला से उसे एक पुत्र की प्राप्ति हो चूकी तब वह आगबबूला होकर जयेश के पैतृक घर खरगोन जा पहूंची। उसके साथ तीनों बेटीयां भी थी। दोनों नाबालिग दामिनी ,दिव्या के साथ छोटी बेटी टीना अनुराधा की गोद में थी। संपूर्ण गांव में इस घटना ने खूब चर्चा बटोरी थी। पुलिस, कोर्ट-कचहरी तक मामला गया। थक-हारकर असहाय अनुराधा ने इंदौर शहर में एक घर और मासिक भरण-पोषण भत्ते की राशी की समुचित व्यवस्था के फलस्वरूप जयेश को तलाक दे दिया।

यौवनावस्था के चरम पर परित्यक्तता की पदवी से विभूषित हो चूकी अनुराधा को अपनाने के लिए बहुत से पुरूष आगे आये। किन्तु अधिकतर पुरूष केवल उसके शारीरिक भोग के लोभ में उससे सहयोगात्मक व्यवहार किया करते। अनुराधा से विवाह कर तीन पली-पलाई बेटियों के पिता बनने का साहस किसी भी पुरूष ने नहीं दिखाया। बेटीयों की समुचित देखभाल करना उसके लिए बहुत कठीन होता जा रहा था। ऐसी विकट परिस्थिति में शहर के जमींदार ठाकुर नारायण सिंह उसके सम्पर्क में आये। नारायण सिंह के बंगले पर अनुराधा को खाना पकाने का कार्य मिल गया। अनुराधा पुरे मन से यह कार्य कर रही थी। साथ ही अपनी तीनों बेटियों को नियमित विद्यालय भेजने में वह पुरी तरह सजग थी। बंगले में बहुत सा भोजन प्रतिदिन शेष रह जाता। जिसे अनुराधा घर की मालकिन से पूछकर अपने घर ले जाया करती। जब उसकी बेटीयां छप्पन भोग का आनंद लेती तब अनुराधा को असीम सुख मिलता। सिंह निवास पर भोजन बनाते समय एक दिन नारायण सिंह की दृष्टि अनुराधा पर पढ़ी। वर्षा में भीगते हुये वह सिंह निवास पर आई थी। नारायण सिंह की धर्मपत्नी सुमित्रा बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थी। व्रत आदि कर्मकाण्ड के संपादन के दौरान वह अपने पति नारायण सिंह को अपने नजदीक भी नहीं आने देती। उस पर दो जवान बेटा-बेटी के कारण नारायण ठाकुर की शारीरिक आवश्यकता अपनी पत्नी से पुर्णता को प्राप्त नहीं कर पा रही थी। आज भी सुमित्रा का व्रत था। सो वह सुबह से ही मंदिर कक्ष में ध्यान पुजन-भजन में संलग्न थी। अनुराधा किचन में आकर टॉवेल से अपना शरीर पोछ रही थी। उधर वासना की अग्नि में बुरी तरह झुलस रहे नारायण सिंह छुपते-छिपाते अनुराधा को निहार रहे थे। बाहर वर्षा तेज हो गई। बादलों की गड़गड़ाहट और तेज बारिश की आवाज से अत्यधिक शौर निर्मित हो गया था। नारायण सिंह स्वयं पर नियंत्रण खो चूके थे। वे धीरे-धीरे रसोईघर की ओर बढ़ रहे थे। जहां पुर्व से अनुराधा अपने बाल सूखा रही थी। यह वही ब्लाउज अनुराधा पहने हुई थी जो पिछले दिनों सुमित्रा ने उसे दान किया था। बेक लेस ब्लाउज से श्वेत पीठ पर पानी की बूंदे चम-चमा रही थी। उसकी कमर भी वस्त्र रहित होकर नारायण सिंह को आकर्षित कर रही थी। नारायण सिंह दबे पांव किचन में प्रवेश कर गए। उनके हाथ अनुराधा की कमर की ओर तीव्रता से बढ़े चले जा रहे थे।

"ठाकुर साहब यह क्या कर रहे आप?" अनुराधा ने अपनी कमर पर अप्रत्याशित हाथों की पकड़ के विरोध स्वरूप नारायण सिंह से पुछा। नारायण सिंह कुछ न बोले। अपितु उन्होंने अनुराधा के मुंह पर हाथ रखते हुये उसे शांत रहने का आदेश दे दिया। उसके बाद तो नारायण सिंह रूके नहीं। अनुराधा के शरीर से अपनी भोग वासना की क्षुधा मिटाकर ही उन्होंने दम लिया। अनुराधा ने समाज के डर से विरोध नहीं किया। अब तो नारायण सिंह की यह आदत सी बन गई। वे जब तब जबरन अनुराधा को अपनी हवस का शिकार बना लेते। सुमित्रा को जब यह बात पता चली तब उसने उपरी मन से अनुराधा को खूब डाटा फटकारा। उसने अपने पति को भी डांट पिलाई। किन्तु इसके साथ ही उसने यह विचार किया कि नारायण सिंह के काम की तृप्ति की व्यवस्था घर में ही हो गई है। बाहर कोठे आदि पर जाने से असुरक्षित यौन संबंध का डर अब उसके मन से जाता रहा। सुमित्रा ने अनुराधा को विश्वास में लेकर यह सब स्वेच्छा से करने हेतु मना लिया। अनुराधा भी यह सोचकर सबकुछ सह लेती की बाहर राशन वाले या सब्ज़ी वाले को अपनी अस्मत बेचने से ठाकुर परिवार में सहमती से बेहतर प्रतिफल के परिणाम स्वरूप यह कृत्य करना कोई घाटे का सौदा नहीं था। उस पर ठाकुर नारायण सिंह के प्रभाव का उसके हितार्थ एक कवच तैयार हो गया था जो उसकी और उसकी बेटीयों की सतत सुरक्षा कर रहा था। आसपास के रहवासीयों को जब से यह ज्ञात हुआ था कि अनुराधा ठाकुर साहब के यहां काम करती है तब से उसके शील को भंग करने की सभी की संभावनाओं का त्वरित अंत हो गया। क्योंकि नारायण सिंह के चरित्र को समुचा शहर जानता था। और उनकी पसंद पर कोई अशुभ आंखें डाले यह वे कतई बर्दाश्त नहीं करते थे। नारायण सिंह के पाले हुये बाउंसर उनके इशारे पर मरने-मारने से भी पीछे नहीं हटते थे। मानव नाम का बाउंसर ठाकुर नारायण सिंह को सर्वाधिक प्रिय था। उसके निर्देशन में अन्य बाउंसर बंगले और परिवार सदस्यों की सुरक्षा में लगे रहते थे। बेहिसाब धन दौलत और असंख्य संपत्ति ने बहुतों का नारायण सिंह का शत्रु बना दिया था। पिछले माह ही उनके एकलौते पुत्र विराज पर अज्ञात हमलावरों ने आक्रमण कर उसे लहुलुहान कर दिया था। ऐन वक्त पर मानव ने घटनास्थल पर पहूंचकर अदम्य साहस का परिचय देकर न केवल विराज की जान बचाई अपितु नारायण सिंह की नज़रों में शिखर को प्राप्त भी किया। सबकी लाडली तनुजा कालेज अध्ययनरत थी। वह शहर के ही सम्पन्न चौधरी परिवार के करण से प्रेम करती थी। करण के विषय में केवल मानव को ज्ञात था। वह तनुजा को बहन समान स्नेह करता था। करण उसे हर प्रकार से तनुजा के योग्य लगा। किन्तु ठाकुर परिवार प्रेम विवाह के सर्वथा विरूद्ध था। माता-पिता के द्वारा ही संतान के लिए उचित जीवनसाथी तलाश करने का कार्य सदियों से उनके कुल में चला आ रहा था। स्वयं सुमित्रा इस तर्क का समर्थन करती थी। तनुजा को भय था कि यदि करण के विषय में उसके पिता नारायण सिंह और भाई विराज को पता चलेगा तब निश्चित ही बहुत खुन खराबा होगा। तनुजा ने इस संबंध में मानव से सहायता मांगी। मानव ने अपने स्तर पर विराज और तनुजा के विवाह के लिए प्रयास आरंभ किये। नारायण सिंह चौधरी परिवार से परिचित थे। शिवभानु चौधरी भी नारायण सिंह को तथोचित मान सम्मान दिया करते थे। एक परिवारिक आयोजन में जब शिवभानु ने अपने पुत्र करण का विवाह नारायण सिंह की बेटी तनुजा से करने का प्रस्ताव दिया तब ठाकुर परिवार ने इसे बहुत ही सकारात्मक रूप से लिया। ठाकुर परिवार में तनुजा के विवाह की बात आगे बढ़ चली। यह मानव के ही प्रयास से सफल हुआ था जिसने प्रेम विवाह को पारिवारिक विवाह बना दिया था। उसने ही शिवभानु से मिलकर तनुजा और करण के रिश्तें की प्रारंभिक बात की थी। चौधरी जी इस प्रस्ताव को सोचने पर विवश हुये बिना नहीं रह सके थे। करण हर प्रकार से तुनजा के योग्य था। सो उन्होंने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर स्वयं जाकर ठाकुर परिवार से तनुजा का हाथ मांगा। शहर भर में तनुजा और करण का विवाह चर्चा का विषय बना हुआ था। अनुराधा अपनी किशोरवय बेटीयों के संग नारायण सिंह की बेटी की शादी में समर्पित थी। चारों मां बेटीयों ने अपनी-अपनी जिम्मेदारीयां संभाल ली थी। चौधरी जी ने जहां अपने बेटे की बारात को हेलीकॉप्टर से ले जाना सुनिश्चित किया तो वहीं नारायण सिंह ने सभी एक सौ ग्यारह बारातियों को मोटरसाइकिल उपहार में देकर समूचे देश में वाह-वाही लुटी। शहर भर की प्रसिद्ध हस्तियों की उपस्थिति ने विवाह आयोजन के रिसेप्शन को और भी अधिक ऊंचाईयों तक पहूंचा दिया। विवाह विधि-विधान और शाही अंदाज से सम्पन्न हुआ। तनुजा अपने पति के रूप में करण को पाकर प्रसन्न थी। सिंह निवास पर विवाह आयोजन पुर्ण हो चूका था। मेहमान एक-एक कर लौट रहे थे। टेन्ट आदि की सामग्री मजदुर ट्रक में लोड कर वापिस यथास्थान ले जा रहे थे। नारायण सिंह अपनी थकान उतार रहे थे। उन्होंने अनुराधा को अपने कमरे में बुलाया। काम काज के बोझ से स्वयं थकी-हारी अनुराधा बेमन से नारायण सिंह के शयनकक्ष में दाखिल हुई। रात गहराती जा रही थी। अनुराधा ने तीनों बेटीयों को भोजन आदि से निवृत्त करा कर सिंह निवास पर ही सुला दिया था। कल प्रातःकाल ही वह तीनों को अपने घर छोड़ देगी जिससे कि तीनों आगे नियमित स्कूल जा सके। देर रात अनुराधा को नारायण सिंह के कमरे में जाते हुये विराज ने देख लिया। थोड़े ही समय में उन्हीं के शयनकक्ष से सुमित्रा बाहर निकलते हुये दिखाई दी। विराज को कुछ संदेश हुआ। हालांकि वह अपने पिता के स्वभाव से परिचित था किन्तु घर की नौकरानी से नारायण सिंह के संबंध का विचार वह पचा नहीं पा रहा था। थोड़ी हिम्मत कर वह नारायण सिंह के शयनकक्ष के करीब आया। वह कक्ष के द्वार पर कान लगाकर सुनने का प्रयास करने लगा। भीतर से आ रही समागम उत्सर्जित आवाजें सुनकर वह आगबबूला हो गया। उसने तय किया कि वह अनुराधा को कल ही काम से निकाल देगा।