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एक और दमयन्ती - 14

उपन्यास-

एक और दमयन्ती 14

रामगोपाल भावुक

रचना काल-1968 ई0

संपर्क कमलेश्वर कॉलोनी ; डबरा

भवभूति नगर जिला गवालियर ;म0प्र0

पिन. 475110

मोबा. 09425715707

एक और दमयन्ती ही क्यों?

राजा नल और रानी दमयन्ती की संघर्ष -गाथा पौराणिक आख्यानों में है। इस क्षेत्र के ऐतिहासकि नरवर के किले से ही उनका सम्बन्ध रहा है।

इसके साथ ही पंचमहल क्षेत्र में क्वॉंर के महीने में हाथी-पुजन के समय एक कथा कही जाती है-

आमोती दामोती रानी, बम्मन बरुआ

कहें कहानी।

हमसे कहते तुमसे सुनते, सोलह बोल की

एक कहानी।

सुनो महालक्ष्मी रानी ।।

इस क्षेत्र के घर-ऑंगन यों आमोती दामोती रानी की यह कथा भी प्रचलित है।

पुनर्जन्म में भारतीय जनमानस की पूर्ण आस्था है। पौराणिक दमयन्ती ने भी वर्तमान परिवेश में जन्म लिया होगा। आज वह अपनी अस्मिता के लिये संघर्ष कर रही होगी। यहाँ, मेरा चित्त एक और दमयन्ती की तलाश में रमा है।

रामगोपाल भावुक

चौदह

आज भगवती जल्दी ही सोकर उठ गय पहुँच गया था। जब वह वहाँ पहुँचा न्यायालय का समय हो चुका था। उसने न्याय कक्ष में प्रवेश किया। जिसमें सुनवाई होनी थी। जब उसने उसमें पैर रखा, पूरा हॉल खचाखच भरा था। ऐसे लगता था मानो सारा शहर यही उमड़ आया हो।

इसी समय न्यायाधीश महोदय का आगमन हुआ। सभी ने उनका खड़े होकर स्वागत किया। उन्होंने आते ही सुनीता के अपराध की सुनवाई की सूचना कर दी।

मुजरिम के कटघरे में सुनीता को लाकर खड़ा किया गया। सुनीता ने एक नजर दर्शकों पर डाली। उसकी नजरें भगवती से जा टकराई। अब वह न्यायमूर्ति जी की ओर देखने लगी।

गीता की शपथ दिलाई गई। सरकारी वकील ने न्यायाधीश महोदय से केस के सम्बन्ध में तथ्य प्रस्तुत करने की अनुमति ली। सुनीता के पास पहुँच गया। भगवती एक चित्त होकर कार्यवाही को देखने लगा। सरकारी वकील ने यह घटना सुनाना शुरु की। जिस प्रकार महेन्द्रनाथ की निर्मम हत्या की गई। उसे गटर में डाला गया।

पुलिस ने अपराधी को किस तरह पकड़ा। किस तरह लाश बरामद की। उसके बाद वह बोला-

‘जिस प्रकार तुमने पुलिस के सामने अपना अपराध स्वीकार किया है। न्यायालय के समक्ष अपना अपराध स्वीकार करें।’

यह सुनकर सुनीता बोली-‘साहब यह लम्बी कहानी है। बिना व्यवधान उत्पन्न किये मेरी कहानी सुन ली लाए।’

यह सुनकर न्यायाधीश महोदय बोले-‘हाँ-हाँ, सुनाओ।’

आदेश मिलते ही सुनीता ने कहानी सुनाना प्रारम्भ कर दी। वह कुछ सोचते हुए बोली-‘बहुत दिनों की बात है, इतने दिनों की, कि मेरे ही जीवन के चित्र मुझको ही धुंधले से दिख रहे हैं। होटल में आने से पहले लोग मुझे दमयन्ती के नाम से जानते थे। मैं टेकनपुर नामक गाँव में पैदा हुई थी। वहीं मेरा पालन-पोशण हुआ।

मैं अपने पिता की इकलौती सन्तान हूँ। मेरे पिताजी की गाँव में अच्छी प्रतिष्ठा थी। छोटे-बड़े सभी उनका सम्मान करते थे। मां बचपन में ही चल बसी थी। पिताजी ने दूसरी शादी नहीं की। वे मुझे इतना प्यार देते थे कि मां की अनुपस्थिति कभी खली नहीं। पिताजी कहते थे कि तेरी माँ तुझे राजा नल की पत्नी दमयन्ती की तरह संघर्ष शील बनाना चाहतीं थी।

पिताजी अपने काम में अधिक व्यस्त रहते थे। उन्हें राजनीति का ऐसा चस्का लगा था जैसे किसी को पान-बीड़ी का होता है। जब भी फुर्सत मिलती मुझे इतना प्यार देते कि मैं कभी मां का नाम न लेे बैठूं। हम दोनों के बीच मां का जिक्र भी आ जाता था। तो वे गम्भीर हो जाते थे।

मैं यह जानने लगी थी कि मां की याद दिलाकर उन्हें दुख पहुँचाती हूँ। इसलिए मैंने मां का जिक्र करना छोड़ दिया था। गाँव के सार्वजनिक कामों से उन्हें फुर्सत ही न मिलती थी। महेन्द्रनाथ उन्हीं का चेला बन गया था। पिताजी देश के स्वतन्त्रता आन्दोलन में भी एक बार जेल हो आए थे। सभी लोग उन्हें श्रृद्धा की दृष्टि से देखते थे।

हर गाँव में, हर कस्बे में कुछ मनचले होते हैं। जो मासूम भोली-भाली युवतियों को फंसाने में बहुत चतुर होते हैं। ऐसे कई लोग होते हैं जो दूसरी लड़कियों को अपना एजेण्ट बना लेते हैं। एक लड़की थी मंजरी। देखने में भोली-भाली लगती थी। उसका घर मेरे घर के पास ही था। धीरे-धीरे वह मेरी सहेली बनने लगी। अब मैं उसके घर भी जाने-आने लगी।

उस समय मेरे मन में यौवन की झलक तो आ गई थी। मंजरी मुझसे इधर-उधर की बातें करने लगी थी। एक दिन उसने अपने यौवन को लुटाने की शुरुआत की कहानी सुना दी। मेरा दिल धड़कने लगा। कोई अंकुर जो अभी तक सुसुप्त अवस्था में पड़ा था। जाग गया। मैं नारी बनने की ओर तीव्रता से बढ़ने लगी।

यों मंजरी मेरी घनिश्ठ सहेली बन गई थी। महेन्द्रनाथ की चर्चा भी बीच में करने लगी थी। इसी महेन्द्रनाथ की मैंने हत्या की है। उस समय यह मेरे पापा के पास आता रहता था। पापा से राजनीति की बातें सीखने हमारे घर आया करता था। उस समय उसकी उम्र 22-23 वर्ष के लगभग रही होगी। मैं पन्द्रह-सोलह की थी।

एक दिन दोपहर का समय था। आकाश में बादल छाए हुए थे। पिताजी किसी काम से ग्वालियर गए थे। मैं अपना मन बहिलाने के लिए मंजरी के यहाँ जा पहुँची। पन्द्रह या बीस मिनट ही बैठ पाई थी कि महेन्द्रनाथ वहाँ आया। मंजरी और महेन्द्रनाथ में निगाहों-निगाहों में कुछ बातें हुईं। महेन्द्रनाथ वहीं बैठ गया। मंजरी बोली-

‘कहो तो मैं आप दोनों को चाय बना लाती हूँ।’

मैंने मना किया ‘मैं चाय नहीं पीती।’

महेन्द्रनाथ बोला -‘अरे हम तो पिएंगे।’

‘यह सुनकर वह चाय बनाने चली गई। मैं भी उसके साथ जाने को हुई तो महेन्द्रनाथ ने हाथ पकड़ लिया।’ बोला-‘ अरे! हमारे पास थोड़ी देर के लिये बैठो ना।’

मैं मंजरी का नाम ले-लेकर उसे बुलाने लगी। मंजरी ने मेरा बुलाना अनसुना कर दिया। महेन्द्रनाथ ने मुझे अपनी ओर खींचा। मैंने चिल्लाना जोर से शुरु कर दिया। महेन्द्रनाथ की हिम्मत पस्त हो गई। मुझे छोड़ते हुए बोला-‘देख दमयन्ती तू नहीं मान रही है तो छोड़ देता हूँ। विचार कर ले। तूने इधर-उधर किसी से कुछ कहा तो तुम्हारी बदनामी होगी। मेरा क्या है? मुझे तो सभी जानते हैं।’

वह यही कह रहा था कि मंजरी आ गई। वह आते ही मुँह बनाते हुए बोली-‘देख महेन्द्र मुझे तुम्हारी यह बात अच्छी नहीं लगी। हाँ ! तुम ऐसी हरकतें करते हो तो मेरे यहाँ न आया करो, समझे।’

यह सुनकर महेन्द्रनाथ उठकर चला गया। मंजरी मुझे समझाने लगी। अरी हम औरतों के साथ तो ऐसे कोई न कोई करता ही रहता है। जो देखो हमें खा जाना चाहता है। हम कुछ कहें तो बदनामी हमारी ही है। तू चिन्ता न कर मैं उसे अच्छी तरह डाँट दूँगी। कोई सुनेगा तो बदनामी हमारी ही होगी।’

उस दिन उसकी बातों ने मुझे छल लिया। उस दिन से मैंने मंजरी के यहाँ जाना बन्द कर लिया। उन्हीं दिनों मेरी सगाई भगवती से हो गई। चटमगनी पट ब्याह रच गया। एकदम पैसे की व्यवस्था करना कठिन हो गया। पिताजी की नेतागिरी ने आर्थिक स्थिति खराब कर दी थी। जिस पर लेन देन था। इतनी जल्दी पैसे लौटने बाले न थे।

महेन्द्रनाथ भी पिताजी से बीस हजार रुपये लिये था। उसने शादी के समय देने का विश्वास दिया था। शादी का दिन आ गया। महेन्द्रनाथ पैसे की टालमटोल करने लगा। टीका हुआ, भावर पड़ी। सारे नेग दस्तूर हुए। थाली का समय आ गया। पिताजी पर पैसा न रहा, उधर महेन्द्रनाथ बरात से मिल गया। थाली 101 रुपये की दी गई।

बड़ी बदनामी हुई। बरात ने उसे अपनी इज्जत का प्रश्न बनाया। दूल्हा अपने पिताजी की बातों में आ गया। बारात लौट आई। मैं ब्याही अनब्याही रह गई। कोई भी नारी सब कुछ सह सकती है लेकिन अपने यौवन की उमंगों को कुचना जाना सहन नहीं कर सकती। मेरे पिताजी मुझे बहुत हिम्मत बंधाते रहे..........। महेन्द्रनाथ ने पिताजी को फिर बातों में ले लिया। हमारे घर आने-जाने लगा। धीरे-धीरे मन ने जाने क्यों महेन्द्रनाथ का विश्वास कर लिया।

एक दिन महेन्द्रनाथ ने सलाह दी। पिताजी बात मान गए। पिताजी ने महेन्द्रनाथ पर विश्वास कर लिया। मुझे उसके साथ ग्वालियर कार्ट में तलाक का दावा दायर कराने भेज दिया।

हम दोनों ग्वालियर पहुँचे। सारे दिन इस वकील से उस वकील के यहाँ। कहीं किसी के यहाँ, कहीं किसी काम के बहाने, सारे शहर में चक्कर लगाते रहे। शाम हो गई। हम घर के लिए चल दिए। अब मैं सब कुछ समझ रही थी कि यह जानबूझकर लेट हुआ है।

हम बस स्टैण्ड पर पहुँचे तो घर के लिए जाने वाली सभी गाड़ियां निकल चुकी थीं।

हम धवन होटल में रुके। मुझे भूख लगी थी। महेन्द्रनाथ मिठाइयां ले आया। मैं खाने लगी। महेन्द्रनाथ भी मेरे साथ खाने लगा। मैं उसकी नियत साफ समझ गई। मन ही मन छटपटाने लगी। पर क्या करती ? महेन्द्रनाथ ने मेरे विरोध के बावजूद मुझे मसल डाला। तलाक मुकदमा उसका बहाना था। इस नाम पर पिताजी से वह पैसे ऐंठता रहा।

दूसरे दिन हम घर लौट आए थे। मुझे दिन चढ़ गए। मैं पिताजी को बदनामी से बचाना चाहती थी। कोर्ट का बहाना बनाकर हम फिर ग्वालियर गए। मुझे गर्भ गिराने की दवाएं दी गईं तो गर्भ गिर गया। इस चक्कर में दस दिन ग्वालियर में व्यतीत हो गए। महेन्द्रनाथ बोला-‘दमयन्ती गाँव में यह अफवाह फैल गई है कि दमयन्ती किसी के साथ भाग गई। तुम्हारी बहुत बदनामी हो गई है। तुम्हारे पिताजी ने कह दिया है कि दमयन्ती उनके लिए मर चुकी है, उन्हें मुँह न दिखाए।’

मैंने कहा-‘अब मैं क्या करुं ?’

‘अब क्या ?’

इसी होटल में नौकरी करने लगो। मैनेजर मेरा परिचित है। चाहो तो नौकरी लगवा सकता हूँ।

मैंने उसकी बात मान ली। मैं होटल में नौकरी करने लगी। मेरा नाम बदलकर सुनीता रख दिया गया। एक बार महेन्द्रनाथ नाथ आया उसने बताया कि तुम्हारे पिताजी बीमार पड़ गए तो सारी जायदाद मेरे नाम से लिख दी है।

कुछ दिनों बाद बताया-‘सुनीता, तुम्हारे पिताजी चल बसे। उनकी तेरहवीं मुझे करनी पड़ी है।’ उसकी इन बातों पर मुझे विश्वास नहीं हुआ। मुझे आज तक लगता रहा है वे जीवित हैं। हो सकता है इसी महेन्द्रनाथ ने हमारी जायदाद के लालच में उन्हें मार-पीटकर कहीं भगा दिया हो।

भगवती नाम से भी मुझे नफरत थी। पहली बार जब भगवती उसी होटल में नौकरी करने आया तो में उसे पहचान नहीं पाई। काफी लम्बा समय व्यतीत हो गया। एक दिन जब मैंने भगवती का एलबम देखा, तब उसे पहचान पाई।

मुझे उससे जाने क्यों प्यार हो गया। उसके बाद मैं उसे भगाकर भोपाल ले आई। भगवती आज तक नहीं जान पाया है कि मैं उसकी विवाहिता पत्नी हूँ। दूध का जला छाछ को फूंक-फूंककर पीता है। इसलिए इस राज को मैंने उससे छिपाकर रखा। भगवती को कभी नहीं बताया कि मैं कौन हूँ ? भगवती तो बस यह जानता रहा कि मैं उसके द्वारा भगाकर लाई गई औरत हूँ।’

सरकारी वकील बीच में बोल पड़ा-‘श्रीमान, मैं एक बात कहना चाहता हूँ कि सुनीता इस तरह न्यायालय का समय बर्बाद कर रही है। मुद्दे की बात से लोगों को भटका रही है।’

यह सुनकर न्यायाधीश महोदय ने आदेश दिया-‘उसे कहने दो। हाँ सुनीता तुम कहती रहो रुको नहीं।’

यह सुनकर सुनीता ने फिर कहना प्रारम्भ कर दिया-‘कोई भी नारी अपने पति से कितना छिपा सकती है। पर क्या करती ? परिस्थितियां ही ऐसी बन गई थीं कि ............। फिर छिपाना नारी का महान गुण है। यदि नारी में यह गुण न होता तो आपके इस समाज में नारी का जीना कठिन हो जाता। आज नारी की समाज में क्या दुर्दशा है। उसका जीना कठिन हो गया है।

मैंने अपने पति को पा तो लिया था पर मैं उसे हर कुर्बानी देकर खोना नहीं चाहती थी। उसने भी मुझे वही प्यार दिया जो एक पति अपनी पत्नी को देता है। मेरे थोड़े से कष्ट से वह व्याकुल हो उठता था।

मैंने अपने रास्ते बदल दिए। धर्म के रास्ते पर मुड़ गई। किन्तु आप लोगों का यह वासना में रंगा समाज, किसी को भी सुपथ पर चलने नहीं देता है। मैंने अच्छी तरह पहचान लिया आप लोग आदमियतता के नाम पर कलंक हैं। पशु हैं। नहीं-नहीं, आप लोग तो पशुओं से भी गए बीते हैं।

महेन्द्रनाथ ने मुझे फिर खोज निकाला। मुझे ब्लैकमेल करने लगा। सहनशक्ति की भी कोई सीमा होती है। मैंने तीर्थयात्रा पर जाने की तैयारी कर ली थी। दोपहर का समय था। मैं अपने कमरे में सोई हुई थी। भगवती अपने काम पर गया था किसी ने दरवाजा खटखटाया। मैंने समझा भगवती है। मैंने दरवाजा खोल दिया। सामने महेन्द्रनाथ था।

मैंने सोचा-अब क्या करुं ? हाय राम ये कहाँ से आ गया।

वह अन्दर आ गया था। वासना की गन्ध उसके चेहरे से साफ नजर आ रही थी। उसने मुझे डराने के लिए पिस्तौल निकाल ली। मैंने भी उसे डराने के लिए पिस्तौल निकाल ली। पता नहीं क्या सोचकर उसने अपनी पिस्तौल रख ली।

मैंने सोचा वह डर गया तो मैंने अपनी पिस्तौल नहीं रखी। इस बार वह घबड़ा गया। वह मेरे ऊपर टूट पड़ा। छीना-झपटी में पिस्तौल चल गई। वह वहीं ढेर हो गया। मैं समझ गई वह मर चुका है। मैंने पिछले दरवाजे से बाहर झांका। लू चल रही थी। कोई नहीं दिखा। मुझे मेरे पखाने का गटर दिख गया।

मैंने उसे घसीटकर गटर में डाल दिया। सफाई कर डाली। कपड़े धो डाले। तभी भगवती आ गया। मैंने सोचा भगवती को सबकुछ बता दूँ। पर यह सोचकर रह गई कि अभी इस बात को कोई नहीं जान पाया है।

भगवती को भी इस बात का पता नही चलने दूँ। अब किसी को क्या पता चलता है? इसलिए यह बात मैंने भगवती को भी नहीं बतलाई। भगवती मुझे स्टेशन तक छोड़ने गया। वह बहुत बातें करना चाहता था। मैं चुप रही। भगवती मुझे ट्रेन में बिठाकर लौट गया।

मेरे साथ पड़ोस की माताजी थीं। मेरा सोचना गहरा होता गया। सोचने में मैं मथुरा में उतर गई द्वारिकाधीश के दर्शन किए। जाने क्या लगा कि वापिस चली आई। यहाँ आकर पुलिस को सबकुछ बता दिया। सुना है पुलिस ने इस मामले को किसी और तरह से बनाया है पर मुझे उससे क्या सच. तो बस यही है।

महोदय, मैंने आपका इतना समय बर्बाद किया इसके लिए मुझे क्षमा करेंगे। आपके न्याय में जो सजा हो मुझे सिर-माथे है।

जब उसने अपना बयान बन्द किया। सन्नाटा छाया हुआ था। सभी ठगे से दिख रहे थे। इस समय सरकारी वकील ने मौन तोड़ा, बोला-‘सुनीता हमें तुम्हारे साथ हमदर्दी है। अब मैं कुछ प्रश्न पूछना चाहता हूँ। उनके उत्तर भी दीजिए। पहले यह बतलाइए कि तुमने अपने पति से जीवन के कई राज छिपाए रखे।’

‘हाँ।’

सरकारी वकील झट से बोला-‘न्यायघीश महोदय नोट किया जाए। सुनीता अब भी कुछ छिपाना चाह रही है।’

यह सुनकर सुनीता चीखी-‘ये झूठ है, मैं आज कुछ भी नहीं छिपा रही हूँ। मैंने सत्य तथ्य प्रगट करने में कुछ भी नहीं छिपाया है।’

दूसरा प्रश्न है तुमने उसे डराने के प्रयास में पिस्तौल नहीं रखी। मुझे तो लगता है तुम उसे मारना ही चाहती थीं।’

‘यह झूठ है यदि महेन्द्रनाथ जिन्दा होता तो वह स्वयं इसकी सफाई दे देता।’

‘महोदय नोट दिया जाए कि न महेन्द्रनाथ जिन्दा होकर आएगा न सफाई देगा।’

‘अब सुनीता यह बतालाओ, तुम्हारे पास जो पिस्तौल थी वह किसकी थी।’

पुलिस ने पिस्तौल सुनीता की ही दिखाई थी। अन्यथा भगवती भी पकड़ा जाता। भगवती को बचाने की इच्छा से सुनीता झूठ बोली-

‘श्रीमान वह पिस्तौल मेरी थी।’

नरी को पिस्तौल की क्या जरुरत है? यानी तुमने उसकी हत्या करने की योजना बहुत पहले से बना ली थी। उसकी तैयारी भी कर ली थी। श्रीमान पुलिस की भी यही राय दी है।

फिर सुनीता ने स्वयं हत्या करके गटर में डालना स्वीकार किया है। यानी सुनीता ने हत्या के सारे गवाहों को छिपाने की कोशिश भी की है। हत्या के साथ यह भी एक बड़ा अपराध है। पुलिस की धारा 302 एवं 176 के तहत भी सुनीता सजा की पात्र है। पुलिस के सामने सुनीता ने स्वयं अपराध स्वीकार किया है। क्या यह झूठ है पुलिस को अपराध की खबर लग गई ?’

सुनीता चीखी-‘यह झूठ है मेरे बताने से पहले पुलिस कुछ भी नहीं जान सकी थी।’

इस पर सुनीता के वकील मिस्टर गुप्ता ने मौन तोड़ा-‘महोदय सुनीता को जबरदस्ती अपनी बात से गुमराह न किया जाए।’

इस पर सरकारी वकील बोला-‘महोदय मिस्टर गुप्ता जी की चुप्पी ने सिद्ध कर दिया है कि सुनीता एक चतुर कातिल है। अब श्रीमान से मेरा अन्तिम निवेदन यह है कि सुनीता ने न्यायालय के तीन घण्टे बर्बाद करके सुनीता यह बतलाने में सफल हो गई है कि उसने यह कत्ल मजबूरी में किया है पर यह बात नहीं है। इनका उससे मेल-मिलाप चलता रहता था।

इसी क्रम में वह इसके घर आया था तो इसने उसकी हत्या कर दी और उसे बेरहमी से घसीटकर गटर में डाल दिया। महोदय, सुनीता के इस अपराध में सजाये मौत की सजा दी जाए।

अब सुनीता का वकील बोला-‘महोदय, जब सुनीता अपना अपराध स्वीकार कर रही है फिर मौत की सजा की बात करना हास्यप्रद लगती है। वह क्यों अपने आपको फांसी के फन्दे से लटकाना चाहती है। इसलिए कि उसका आपके समाज ने न्याय से विश्वास उठ गया है। मैं भी सुनीता से एक बात पूछ रहा हूँ कि- ‘सुनीता तुम तीर्थयात्रा से क्यों लौट आईं।’

उत्तर में सुनीता बोली-‘मेरे से जब इतना बड़ा अपराध हो गया था। मैं तीर्थयात्रा करने चली गई थी। मेरे मन में एकदम प्रायश्चित करने की बात आ गई थी। सोचा, पाप का प्रायश्चित गंगा स्नान करने में नहीं। पाप का प्रायश्चित अपराध स्वीकार करने में है उसकी सजा भुगतने में है।’

वाह ! वाह ! सुनीता तुम धन्य हो, किसी ऐसे विचार वाले प्राणी को सजा देने में न्याय की गरिमा कम ही होगी। सुनीता जो तुम सजा भोग रही है सभी जानते हैं, न्याय उससे बड़ी सजा उसे नहीं दे सकता। इसलिए सुनीता सत्य को अस्वीकार नहीं कर पाई है। मैं तो सोचता हूँ सुनीता पागल है।’

सुनीता चीखी-‘यह झूठ है, मैं पागल नहीं हूँ।’

मिस्टर गुप्ता फिर बोला-‘आप सुनीता की आवाज अभी सुन रहे थे। यह पागलों जैसी आवाज नहीं थी। दुनिया हत्या करके स्वीकारती नहीं है। हर हत्या करने वाले को मैंने आज तक इस तरह स्वीकारते नहीं देखा है।

कुछों को देखा भी होगा तो वे भी ऐसे ही होंगे। यदि न्याय ने उसे क्षमा कर दिया तो सुनीता सोचती है कि उसकी इतनी छीछालेदर हो गई है कि सम्भव है उसका पति उसे स्वीकार न करे। वह अब कहाँ जाए। वह सब कुछ समझती है। अपराध स्वीकार कर वह स्वयं आत्महत्या करना चाहती है।’

सुनीता संभलते हुए बोली-‘मैं आत्महत्या क्यों करुंगी ? यदि न्याय क्षमा करता है तो ............मैं ............मैं ............।’

गुप्ता ने वाक्य पूरा किया-‘मैं-मैं कहाँ जाऊंगी। महोदय देखा दर्द। कहाँ तक छुपाएँगी सुनीता इस दर्द को।’

मैं तो सोचता हूँ-‘सुनीता का पागलपन मुक्ति का संघर्ष है। कौन ऐसा है जो अपना जीवन नष्ट करना चाहेगा ? सुनीता ने उस लाश को ठिकाने लगा दिया। किसी पुरुष में इतना साहस नहीं दिखता कि लाश को इस तरह तत्काल ठिकान लगा देता।

फिर इसने हत्या के अवशेशों को भी मिटा डाला। सम्भव सा नहीं लगता। अत्याचार के विरोध में तलवार उठाने वाली, हमारे देश में कुछ ही नारियां हुई हैं। सुनीता भी उनमें से एक है तो यह सुनीता का अपराध हो गया।

अतः मैं इतना ही कहूँगा कि सुनीता को बाइज्जत रिहा कर दिया जाए। जिससे हमारा समाज शिक्षा ले सके कि न्यायनीति का पक्षधर है।’

यह कहकर वह अपनी कुर्सी पर जा बैठा। सदन में सन्नाटा छाया हुआ था। न्यायमूर्ति जी ने अदालत बर्खास्त करके अगले दिन की तारीख लगा दी। दर्शक सदन के बाहर चले गए। भगवती सुनीता की ओर बढ़ा। सुनीता के पास पहुँच गया। सुनीता को पुलिस हथकड़ी पहना रही थी। भगवती से यह दृश्य देखा न गया। वह झट से बोला-‘सुनीता मुझे क्षमा कर दो ना। दोशी तो मैं हूँ जिसने दहेज के लालच में, तुम्हें ठुकराया था। मैं न जानता था कि सुनीता तुम इतनी बहादुर हो। तुम इतने दिनों साथ रही, मैं जान ही न पाया कि तुम ही दमयन्ती हो।

नहीं-नहीं, दमयन्ती तो दहेज की बलिवेदी पर चढ़ गई। सुनीता ने नया जन्म लिया। उसे भी दहेज ही निगल गया। एक जन्म नहीं, दो जन्मों तक दहेज की बेदी पर यह शहीद होती रहीं।

सुनीता मुझे धिक्कार है। तुम तो निर्दोश हो, दोशी तो मैं हूँ जिसके कारण यह सब हुआ है। सुनीता तुमने सभी कुछ सहकर सुपथ अपना लिया। इसकी हत्या तो सुनीता मुझे करनी चाहिए थी। प्रायश्चित तो मुझे भी करना है। सुनीता मुझे क्षमा कर दो।

‘सुनीता ............‘

भगवती कहता रहाँ

पुलिस सुनीता को लेकर चली गई। वह हतप्रभ सा खड़ा रहाँ अब वह बाहर निकला। उसने उस भवन की ओर देखा, जहाँ दूध का दूध और पानी का पानी किया जाता है।

भारत के नागरिकों को यहाँ के न्याय पर अगाध विश्वस है। सुनीता निर्दोश है। सुनीता को फिर किस बात की सजा मिलने जा रही है। यह बड़बड़ाते हुए वह न्यायालय के प्रांगण से बाहर निकल गया। अब वह सड़क पर आ गया।

रास्ता चलते सोचने लगा-‘किस तरह सुपथ पर चलते रहने के लिए समस्याओं से जूझा जाता है। कोई सीख सके तो सुनीता के जीवन से सीखे। अब तो सुनीता को किसी भी तरह बचाया जाए। क्या करुं ? कहाँ जाऊ ?

यह सब सोचते हुए वह घर पहुँच गया।

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