एक और दमयन्ती - 2 ramgopal bhavuk द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

श्रेणी
शेयर करे

एक और दमयन्ती - 2

उपन्यास-

एक और दमयन्ती 2

रामगोपाल भावुक

रचना काल-1968 ई0

संपर्क कमलेश्वर कॉलोनी ; डबरा

भवभूति नगर जिला गवालियर ;म0प्र0

पिन. 475110

मोबा. 09425715707

एक और दमयन्ती ही क्यों?

राजा नल और रानी दमयन्ती की संघर्ष -गाथा पौराणिक आख्यानों में है। इस क्षेत्र के ऐतिहासकि नरवर के किले से ही उनका सम्बन्ध रहा है।

इसके साथ ही पंचमहल क्षेत्र में क्वॉंर के महीने में हाथी-पुजन के समय एक कथा कही जाती है-

आमोती दामोती रानी, बम्मन बरुआ

कहें कहानी।

हमसे कहते तुमसे सुनते, सोलह बोल की

एक कहानी।

सुनो महालक्ष्मी रानी ।।

इस क्षेत्र के घर-ऑंगन यों आमोती दामोती रानी की यह कथा भी प्रचलित है।

पुनर्जन्म में भारतीय जनमानस की पूर्ण आस्था है। पौराणिक दमयन्ती ने भी वर्तमान परिवेश में जन्म लिया होगा। आज वह अपनी अस्मिता के लिये संघर्ष कर रही होगी। यहाँ, मेरा चित्त एक और दमयन्ती की तलाश में रमा है।

रामगोपाल भावुक

दो

अभी-अभी घड़ी ने जोर जोर से सुबह के चार घण्टे बजाए। चहल पहल रोज की तरह फिर सुनाई पड़ने लगी। सुनीता को चार बजे ही बिस्तर छोड़ देना पड़ता था। चाहे कितनी भी थकान हो, चाहे कितना भी कष्ट हो, चाहे जो मौसम हो। यह ठीक है होटल के जीवन से वह तंग आ गई है, पर अच्छा भोजन, अच्छे कपड़े, अच्छा मकान ऊपर से पांच सौ रुपये माहवार वेतन कम तो नहीं है यही सोचकर मन को मार लेती और दैनिक कार्य में लग जाती थी।

कभी-कभी जब उसे वहाँ की डाँट फटकार सहन न होती तो सोचने लगती थी-अब मेरे पास तीन हजार रुपये हो चुके हैं। किसी प्रकार यहाँ से भागकर किसी तीर्थस्थान में पहुँच जाऊं। वहाँ कहीं ऐसे भण्डार चलते हैं जिसमें ये दो हजार रुपये जमा कर दूँ जीवन भर प्रसादी पाती रहूँगी। भगवान का भजन करती रहूँगी जिससे पापों का प्रायश्चित भी हो जायेगा। यहाँ रहते तो पाप बढ़ते ही हैं। ये जीवन ही ऐसा है जिसमें अच्छे बुरे का कोई महत्व नहीं है। जो चाहे चला आता है और छेड़छाड़ करने लगता है, यदि मालिक के पलते गुन्डे न होते तो....।

इतने में रंजना ने कमरे के सामने आकर दस्तक दी। बेचारी रोज बुलाने आ जाती है और उत्तर की प्रतीक्षा के बिना आगे बढ़ जाती है।

सुनीता को उसकी आवाज सुनाई पड़ी -‘सुनीता क्या आज फिर डाँट खानी है? ‘ यह कहकर उत्तर सुने बिना वह चली गई।

अब सुनीता अलसाए मन से उठी। अपने काम में लगते हुए विचारों में खो गई। दोष किसे दे, अपने को या बदकिस्मती को, जो आदमी को कहाँ से कहाँ पहुँचा देता है। बदकिस्मती ही कहो जिसने गाँव से इतने बड़े आलीशान होटल में पहुँचा दिया। आह ! वे दिन जब वह होटल में लाई गई थी ! लोगों से बातें न करके भी काम करना पड़ता था।

गूँगी का अभिनय करना पड़ता था ! बोलना सीखने के चक्कर में तो उसे उस बूढ़े खूसट से पिटवाया गया। महेन्द्रनाथ ने भी कितने ही जुल्म ढाये हैं और जब पिताजी की मृत्यु की बात सुनी, तब घर तक भी न जा सकी। नहीं, नहीं, जाने नहीं दी गई। उसे जान से मारने की धमकी दी गई। उसी समय से इस महेन्द्रनाथ से घृणा हो गई है।

तब तक सुनीता वही मन को लुभाने वाली यूरोपियन ड्रेस पहन चुकी थी। तभी घड़ी ने जोर-जोर से पांच घन्टे बजाए। वह ड्यूटी के लिए चल दी। कुछ लेट पहुँची पर आज उसके मन में कोई खिन्नता न थी, शायद रोज लेट आती हो और डाँट सुननी पड़ती हो। जल्दी भी आ जाती तो डाँट खाने का और कोई दूसरा तरीका निकल आता। रोज की तरह मैनेजर ने डाँटना शुरु किया -

‘ओऽऽहोऽऽऽ अब आ रही हो मेम साहब, मैंने तो उसी समय कहा था कि ये गाँवटी यहाँ काम देने की नहीं है, पर मालिक महेन्द्रनाथ की बातों में आकर तुम्हारी सुन्दरता पर मुग्ध हो गए अन्यथा तुम्हें जाने कब की भगा देता।’‘

बात सुनकर सुनीता को गुस्सा आ जाता पर क्या करती ? यदि बोलती तो गुण्डों से खाल नुचवाना पड़ती। इसीलिए वह शान्त रहना ही उचित समझती किन्तु वह वहीं खड़े-खड़े विचारों में खो जाती - ये दुष्ट महेन्द्रनाथ मैनेजर का खास आदमी है, तभी तो यह उसका नाम लेकर मुझे जलील करता रहता है। व्यर्थ का ऐहसान जमाता है। ये महेन्द्रनाथ बनता तो आदर्श नेता है, पर दुनिया के लोग इसके गुण नहीं जानते। मैं दुनिया को इसके गुण बता दूँ, तो इसे कोई न पूंछेगा, पर है बड़ा दुष्ट आदमी, उसने मुझे भी तो कहीं का नहीं छोड़ा है।’

तभी मैनेजर की आवाज गूंजी -‘खड़ी क्यों हो ? मेम साहब, बाइस नम्बर में ड्यूटी दो।’

सुनीता बाइस नम्बर कमरे की ओर चल दी।

‘मैनेजर का राम भला करे, मेरी ड्यूटी तो हमेशा फैमिली वाले रुमों में ही रहती है। दिल से तो आदमी अच्छा लगता है, डांटता चाहे कितना हो पर मेरी मेहनत की कमाई के पीछे इसका महेन्द्रनाथ से मन-मुटाव हो गया है तो भी उसे परवाह नहीं है। मैनेजर की कृपा है कि तीन हजार रुपये इकट्ठे हो गए अन्यथा महेन्द्रनाथ कब का डकार जाता।’ सोचते-सोचते वह रुम नम्बर 22 में पहुँच गई। कमरा खाली था, वह जाकर कुर्सी पर बैठ गई और किसी के आने की प्रतीक्षा करने लगी पर विचारों की श्रृंखला से वंचित न रह सकी-आज मुझे क्या हो गया है, जो सोचते ही चली जा रही हूँ। सोचने में मन खूब रम रहा है शायद कोई रास्ता निकल सके पर इस प्रकार जाने कितनी बार सोच चुकी हूँ, अभी तक कोई रास्ता नहीं खोज पायी हूँ। इस महेन्द्रनाथ से पीछा भी छुड़ाए तो कैसे ?

जब तक यहाँ रहूँगी उसकी बनकर रहना ही पड़ेगा। यदि भाग भी जाऊं और पकड़ी गई तो महेन्द्रनाथ जाने क्या-क्या कर्म कराएगा। बेचारी रंजना इस दुष्ट की सारी बातें मुझे बता देती है। रंजना भी तो उसकी रखैल है। उसके भी पैसे तो वह डकारता रहता है पर रंजना ने मुझे होशियार कर दिया है। अब मैं उसे एक भी पैसा देने की नहीं ।’

दरवाजे पर आहट हुई। आगन्तुक एक महिला थीं। उनके साथ में उनके पति थे। अब दोनों सोफे पर बैठ चुके थे। उनमें बातें होने लगीं, आपस में बातें करते तो क्यों जी, ऐ जी, शब्द बोलते जाते थे। भारती परम्परा के पति-पत्नी के बीच बोले जाने वाले ये लोकप्रिय शब्द हैं। सुनीता न सुनने का अभिनय करते हुए उनकी बातें सुनने लगी-‘तुमने भगवती को क्यों छोड़ दिया ? धवन साहब से मना कर देते।’

अब उसके पति बोले -‘मना तो कर देता, पर उन्हें एक विश्वासपात्र आदमी की जरुरत थी, पनी टॉकीज का काम है वह चलता ही रहेगा।’

‘तुम तो यों ही हो, अपने को इससे अच्छा आदमी कोई दूसरा न मिलेगा। भगवती से तुम नहीं कह सकते तो मैं कह देती हूँ कि तुम वापस टॉकीज पर आ जाओ।’

‘ ‘तुम समझती नहीं हो, मैंने उनसे वादा कर दिया है।’

‘क्या नहीं समझती अब काम कौन देखेगा ?’

‘बाबा, जब तक आदमी नहीं मिलता, तब तक मैं देखूंगा।’

‘तो मुझे क्या है? तुम जानो पर इतना विश्वास का आदमी.........।’

‘तभी तो हम मिलने आए हैं कि उसे यहाँ यह न लगे कि पुराने मालिक से अब क्या मतलब ?

‘अरे अभी तक आया नहीं ।’

अब वह महिला सुनीता की ओर मुड़ी और बोली -‘भगवती को तो बुला लाओ।’

सुनीता भगवती का नाम सुनकर चौंक पड़ी, बोली -‘जी, अभी बुलाती हूँ।’

सुनीता भगवती को बुलाने चली पड़ी। वह भगवती के बारे में सोचने लगी -‘दीवानगिरी उर्फ गुण्डों के सरदार पर हमारे तो अफसर ही हैं। पहले वाला खूंसट अच्छा बदल गया, मनमानी भी करने लगा था। मालिक भी उसके खिलाफ हो गए थे। इन लोगों की वजह से ही वह यहाँ आया है, इनका बड़ा विश्वासपात्र है भगवती। कहाँ से आ गया इस नाम का आदमी, मुझे तो इस नाम से नफरत है, इससे काम तो पड़ेगा ही पर इस नाम के होते भी बदमाश हैं। मुझे इस नाम के जितने मिले सब ऐसे ही मिले। ये कहाँ के शरीफ आए होंगे ! आए तो दादागिरी करने ही हैं।’

अब तक वह फाउन्टर पर पहुँच चुकी थी। वहाँ रंजना बैठी हुई थी उसने रंजना से पूछा -‘भगवती कहाँ है?’

वह झट से बोली -‘भगवती नहीं सर जी कहो। सर जी। शायद वे मैनेजर के रुम में होंगे। चली जाओ।’

अब सुनीता मैनेजर के रुम की ओर चल दी। दरवाजे पर पहुँची तो मैनेजर और भगवती दोनों बातों में व्यस्त थे। वह बातों की परवाह न करके बोली -‘आपको रुम नं. 22 में याद किया है।’

भगवती याद करते हुए बोला -‘अरे, मैं तो भूल ही गया वे प्रतीक्षा कर रहे होंगे।’

‘कौन ?’

‘मेरे पुराने मालिक हैं, कल ही फोन आया था।’

‘अच्छा-अच्छा, ये ही हैं टॉकीज के मालिक।’

‘जी‘ कहते हुए वह उठ खड़ा हुआ। जल्दी-जल्दी कमरा नंम्बर 22 की ओर चल दिया।

सुनीता भी उसके पीछे-पीछे चल दी। रुम नम्बर 22 में तीनों में बातें होने लगीं। सुनीता चुपचाप कॉफी सर्व करने लगी। अब वह महिला बोलीं -‘देखो भगवती, यह न समझ लेना कि तुम हमारे यहाँ से आ गए हो, हमें कोई काम पड़ गया तो तुम्हें ही करना पड़ेगा ! ’

‘कैसी बात करती हो मैडम, आज ही इस नौकरी को छोड़कर, अभी चलूं ! ’

अब उनके मिस्टर के. जी. साहब बोले-‘‘ऐसा है धवन साहब से वायदा कर दिया था, नहीं तो भगवती तुम जैसे आदमी को कौन छोड़ेगा ? इनका ये मैनेजर भी बदमाशी देने लगा था। इस पर नजर रखने के लि ही तुम्हें ।’

‘आप चिन्ता न करें सर, मैं यहाँ बिना लड़े-भिड़े ही सब ठीक कर दूँगा।’

अब वह महिला बोली -‘तभी तो धवन साहब तुम्हारे लिए अड़ गए। वे जब धर आते-जाते थे तो मैं तुम्हारी खूब बढ़ाई करती थी। मुझे क्या पता था कि वह हमसे भी चाल खेल जाएंगे और इनसे वादा करा लेंगे।’

‘मैडम, यहाँ आने से क्या फर्क पड़ता है, जो काम हो कहने में संकोच न कीजिएगा।’

‘अपनों से संकोच नहीं किया जाता।’ यह कहते हुए वे उठ खड़े हुए।

वह महिला फिर बोली-‘क्वार्टर मिल गया क्या ?’

‘मिल तो गया है मैडम, लेकिन वहाँ पहुँचा नहीं हूँ। क्यों सुनीता रुम नंबर दस तो तुम्हारे सामने वाला क्वार्टर ही है ना।’ हूँ

‘जी।’

‘तब तो मैं तुम्हारे सामने वाले क्वार्टर में ही रहूँगा। आज ही पहुँच जाऊंगा।’ इतना कहते हुए भगवती भी उनके पीछे-पीछे उन्हें छोड़ने के लिए उनकी कार तक गया। इधर सुनीता पुनः मैनेजर के कमरे की ओर चल दी।

इसी प्रकार के कार्यक्र्रम में सुनीता का सारा दिन व्यतीत होता। काम तो अधिक नहीं है पर तमीज का चक्कर सुबह से शाम तक चलता है। कहीं कुछ भी गड़बड़ हुई, चाहे जो डाँट पिला देता। अनुशासन बहुत कड़ा है।

होटल का कोई भी कर्मचारी गड़बड़ नहीं कर सकता है। जिसने गड़बड़ की, गुण्डों से खाल नुचवानी पड़ती है। इसी कारण सबके सब कर्मचारी डरे हुए से रहते हैं। जो लोग मैनेजर या दीवान के पिट्ठू होते हैं वे मौज उड़ाते हैं। पिट्ठू बनने के लिए भी तो अक्ल चाहिए। सुनीता के पास वह भी कहाँ थी।

भगवती सुनीता के सामने वाले रुम में रहने लगा था। सुबह एक-दूसरे से मिल ही जाते थे, पर शाम को मिलना नहीं हो पाता था। रात्रि के बारह बजे छुट्टी मिल पाती थी। वैसे इधर-उधर जाते-जाते एक-दूसरे को देख लेते थे। बातचीत भी होती थी तो वह होटल के सम्बन्ध में।

भगवती को थोड़े-से समय में ही सब लोग जान गए थे। उसके मुधर व्यवहार से भी खुश थे पर सभी लोग उससे डरते भी थे क्योंकि भगवती मालिक के मुँह लगा है। किसी को भी नौकरी से अलग करवा सकता है। वह पेट पर लात न मारे पर, किसी की मारपीट कर दे। इससे भी लोग डरते ही थे। लोगों को क्या ? बस अपने बाल-बच्चे पालना हैं। सुनीता भगवती से नहीं डरती थी, पर यह मनकी बात लोगों को ज्ञात न हो जाए, इसीलिए दिल की दिल में ही यह बात छिपाकर रखती थी।

शुरु शुरु में वह उसके नाम से भी नफरत करती थी। ज्यों-ज्यों समय व्यतीत होता जा रहा है सुनीता का आकर्षण भगवती की ओर बढ़ता जा रहा है। भगवती भी सुनीता का हरदम ख्याल रखता है। सुबह-सुबह काम पर जाते वक्त पूछ लेता है -‘सुनीता कोई परेशानी तो नहीं है।’

सुनीता जवाब देती-‘आपके रहते और परेशानी।’

यह कहते हुए वह मुस्करा देती। भगवती उत्तर सुनते हुए निकल जाता था।

भगवती का सारे दिन का काम घूमना-फिरता था। होटल में अकसर लड़ाई-झगड़े होते रहते थे, उन्हें निपटाना। न मानें तो अच्छे-अच्छों पर भी हाथ उठा देना ही उसका काम था। फिर भी हाथ उठाने का मौका ही न आए, समझाने से ज्यादा काम लेता था इसी कारण मारपीट का मौका ही न आता था।

आज सुनीता रुम नम्बर 19 में बिल देने गई तो दो-तीन गुण्डों ने उससे छेड़छाड़ कर दी। वापिस लौटी तो मुँह उतरा हुआ था। भगवती की निगाह सुनीता के चेहरे पर पड़ गई। भगवती ने उसे पास बुलाकर पूछा-

‘कहो, तुम्हारा चेहरा क्यों उतरा हुआ है?’

सुनीता ने उत्तर दिया-‘रहने दो बाबू, ये जीवन ही ऐसा है, अब तो सहन करनेकी आदत पड़ गई है।’

इस बात पर भगवती को गुस्सा आ गया, बोला-‘बताओगी भी या पहेलियां बुझाती रहोगी।’

सुनीता को उत्तर देना आवश्यक हो गया, बोली -‘बेचारे उनका भी क्या दोष ? आप उन्हें तंग करेंगे मैं बतलाना नहीं चाहती।’

भगवती के दिल में इससे नारी के सम्मान की भावना जाग गई। वह समझ गया कि सुनीता क्यों मना कर रही है। ‘बिचारे‘ शब्द के सम्बोधन को सुनकर उसके दिल में सुनीता के लिए प्यार उमड़ आया। अब उसने पूछा-‘तुम कहाँ से आ रही?’

सुनीता के मुँह से निकल गया-‘रुम नम्बर 19 में बिल देकर।’

‘अच्छा अब समझा।’ यह कहकर वह रुम नम्बर 19 की ओर चल दिया। पीछे-पीछे न चाहते हुए भी सुनीता को जाना पड़ा।

रुम नम्बर 19 में जब भगवती पहुँचा। तीनों मित्र आपस में सुनीता की सुन्दरता की बातें कर रहे थे। उसने जाकर तीनों से कहा-‘तुम्हें शर्म नहीं आती। किसी औरत के बारे में ऐसी बातें करते।’

वे समझ गए सुनीता ने जाकर सब बातें कह दी हैं। सभी सिटपिटा गए। क्षमा मांगने लगे तो भगवती ने उनसे कहा-‘अच्छा अब कभी यह किया तो ठीक न होगा।’

अब वह पीछे मुड़ा और सुनीता से बोला-‘चलो मैनेजर से कहो, तुम्हारी ड्यूटी फैमिली में ही लगाया करें।’

सुनीता ने उत्तर दिया-‘वे तो मेरी ड्यूटी फैमिली में ही लगाते हैं पर आज कोई बैरा नहीं था इसलिए मुझे बिल देने भेज दिया। अब भगवती, ‘ठीक है’ कहते हुए वहाँ से चला गया।

सुनीता को रात्रि के बारह बजे छुट्टी मिली। जाकर बिस्तर पर जा गिरी। आज उसे जाने क्या हो गया था? उसे नींद नहीं आ रही थी, वह सोचने लगी-‘एक वह भगवती था जिसके ठुकराने से जीवन जीने का यह रास्ता मिला है। काश ! वह ही मुझे, तो वह आज यहाँ न होती और दूसरा ये है जो उस पर पूरा दयालु है। उसकी इज्जत को अपनी इज्जत समझ रहा है। काश ! पहले वाला भगवती ऐसी ही होता, तो आज वह यहाँ न होती। एक बार फिर आठ वर्ष पूर्व के भगवती की प्रतिमा उसके सामने से गुजर गई और इसी के साथ सारी कहानी पुनः सजीव हो गई। पता नहीं कब नींद लगी। वह चार बजे न उठ पाई थी तो आज भगवती स्वयं जगाने आ गया।

‘उठो न सुनीता, क्या आज सोती ही रहोगी ?’

सुनीता ने यह सुनकर दरवाजा खोल दिया और भगवती से बोली-‘आओ ना।’

भगवती बोला-‘जल्दी तैयार हो, मुझे भी ड्यूटी पर पहुँचना है, फिर आऊंगा।’ यह कहकर वह चला गया।

सुनीता उठी और तैयार होते हुए सोचने लगी-‘अपने पिता से अलग होने का इतना दुःख उस समय नहीं हुआ, जितना अब होता है, काश ! ये दुःख उसी समय होता तो आज महेन्द्रनाथ की बातों में आकर यह दुर्दशा न होती।’

यह सोचते हुए तैयार भी हो गई और ड्यूटी पर चली आई। सारे दिन काम में व्यस्त रही पर उसकी निगाहें भगवती को ढूंढने में लगी रहीं। आज उसे भगवती नहीं दिखा। शाम को ही सिर दर्द का बहाना बनाकर अपने कमरे में लौट आई। भगवती के कमरे की ओर नजर डाली। दरवाजा बन्द था पर अन्दर की बत्ती का प्रकाश खिड़की से बाहर झाँक रहा था।

सुनीता दरवाजे के निकट पहुँची। अन्दर की आहट लेने लगी। उसे दर्द में कराहने की आवाज सुनाई पड़ी। सुनीता समझ गई भगवती को जरुर कोई बात है वह उसका दरवाजा खटखटाने को हुई पर एकदम ठहर गई। किसी के भी यहाँ किसी नारी को अकेले, पर मैं तो गई-बीती हूँ। अब उसने दरवाजा खटखटाया। अन्दर से आवाज आई-‘कौन ?’

‘मैं सुनीता।’

‘क्या बात है? आओ न।’

अब सुनीता ने कहा-‘आप सारे दिन दिखे नहीं, मैंने सोचा क्या बात हो गई ?’

‘तो आओ न, दरवाजा तो वैसे ही बन्द है।’

अब सुनीता ने दरवाजा धक्का देकर खोला। सुनीता अन्दर पहुँच गई। भगवती पलंग पर लेटा हुआ था। सामने कुर्सी पड़ी थी। जाकर कुर्सी पर बैठ गई बोली-‘आज क्या बात है?’

भगवती ने उत्तर दिया-‘कल रात मुझे नींद नहीं आई, अतीत को कुरेदता रहाँ जीवन में आए गमों को दोहराता रहाँ‘

वह कह रहा था, सुनीता सोच रही थी-इसे भी गम, मैं तो सोचती थी बस मैं ही दुःखी हूँ। क्या यहाँ जितने आते हैं सभी गमों के मारे ही आते हैं ?

भगवती कहता चला जा रहा था-‘सुबह जब तुम्हें जगाने गया, मैं समझ गया कि कल तुमने जीरो वाट का बल्ब नहीं जलाया था। मेरा अन्दाज गलत नहीं निकला, ड्यूटी पर देर न हो जाए इसलिए तुम्हें जगाने जाना पड़ा। मेरा भी सिर भारी था,पर काम पर पहुँच गया था। रात के जागरण के कारण चक्कर आ गया। मैनेजर से कहकर बिस्तर पर आ गिरा। सिर दर्द कर रहा है तब से अब तक बिस्तर से नहीं उठा हूँ। यहाँ किसी के मरने-जीने से क्या ? तुम क्यों आज इतनी जल्दी चली आईं ?’

सुनीता ने विशय बदला-‘आप क्या लेंगे ?’

‘कुछ नहीं।’

‘तो डॉक्टर को बुलाकर लाऊं ?’

‘नहीं सुनीता, अपने आप सब ठीक हो जाएगा। अब इस दुनिया में करना ही क्या है?’

सुनीता ने प्रश्न किया -‘तो क्या सब कुछ कर चुके ?’

उसने सहज में ही उत्तर दिया-‘हाँ ।’ हाँ

सुनीता ने फिर प्रश्न किया-‘व्याह ?’

अब उसने उत्तर दिया-‘वह भी।’

अब सुनीता को प्रश्न करना अनिवार्य हो गया, बोली-

‘भाभी ?’

अब भगवती बात को टालते हुए बोला-‘छोड़ो इन बातों को क्यों गड़े मुर्दे उखाड़ रही हो।’

सुनीता समझी ‘शायद वही कोई गम रहा होगा। ऐसी हालत में ऐसा प्रश्न कर उसने अच्छा नहीं किया। शायद वह चल बसी होंगी। क्या करना है यह बस जानकर ? अब कभी ऐसा प्रश्न नहीं करुंगी।’ यह सोचते हुए वह चुपचाप बैठ गई।

उसने भगवती की कराहट पुनः सुनी तो चौंक गई, इसके विचारों की श्रृंखला टूट गई, बोली-‘लाओ आपका सिर दबा दूँ।’

भगवती ने कहा-‘रहने दो सुनीता। एकाकी जीवन में साथी की क्या आवश्यकता ?’

सुनीता ने सोचा-‘बहक रहे है।’

यही सोचकर बोली-‘छोड़ो इन बातों को, जब स्वस्थ हो जायें तब दिखाना अपना दर्शन‘ यह कहते हुए वह उसके सिर के पास जा पहुँची। धीरे-धीरे कोमल उंगलियों से उसका सिर दबाने लग गई। उंगलियों के स्पर्श से भगवती के सारे शरीर में सिहरन होने लगी। वह विचारों में खो गया-काश ! आज मेरी पत्नी होती तो आज किसी दूसरी नारी के स्पर्श से शरीर में सिहरन न हुई होती। मेरी भूल यह रही, मैं अपने पिताजी का समय पर विरोध नहीं कर सका। बाद में उन्हें इस गलती के लिए ताने देने लगा था। वे भी अपनी इस गलती को महसूस करने लग गए थे। इसी चिन्ता में, वे बीमार पड़ गए और अचानक समय से पहले चल बसे।’

सुनीता बोली-‘आपका शरीर तो बुखार से तप रहा है, डॉक्टर को बुला लाऊं।’

तभी दरवाजे पर आहट हुई। मैनेजर भगवती को देखने आया था। वह कुर्सी पर बैठते हुए बोला-‘ अरे! भगवती ये क्या हाल हैं? एक ही दिन में ये हालत बना डाली।’

‘कुछ न कहो, पता नहीं क्यों, रात में नींद नहीं आई। आज इस बुखार ने आ घेरा।’

‘डॉक्टर को भेजना ही पड़ेगा, मैंने सोचा शायद आराम करोगे इसलिए।’

‘नहीं भाई, हम जैसों के लिए आराम हराम है।’

‘अच्छा, मुझे अधिक समय तो नहीं है, कोई काम हो तो कहलवा भेजिए। और हाँ, तुम अच्छे नहीं हो जाते तब तक सुनीता की ड्यूटी तुम्हारे यहाँ ही रहेगी।’

मैनेजर को यह बात रुचिकर तो नहीं लगी थी सुनीता भगवती की सेवा में रहे। सुनीता भी तो सिर दर्द का बहाना बनाकर आई है।

बहाना बनाकर अपने की बात मन में सन्देह उत्पन्न कर रही है किन्तु भगवती के स्वास्थ्य की सोचकर ही यह कहना पड़ रहा है-

‘सुनीता भगवती का ख्याल रखना।’ यह कहकर कुछ सोचते हुए वह चला गया।

सुनीता अज्ञात भय की आशंका से कांपने लगी। वह सोचने लगी-मैं अभी अपने सिर दर्द का बहाना बनाकर आई थी, यह बात महेन्द्रनाथ से मैनेजर जरुर कह देगा। यह सब कुछ जान गया है। यदि वह मेरी ड्यूटी यहाँ न भी लगाता तो भी मैं सेवा करने आती। यदि पड़ोस में कोई बीमार पड़ जाए और उसके यहाँ कोई देखरेख करने वाला नहीं हो, शायद इसीलिए उसने मेरी ड्यूटी भी यहाँ लगा दी होगी। भगवती भी तो मालिक के मुँह लगा है।’ मेरी यह आखिरी बात आवेश में बुदबुदाहट के रुप में निकल गई-‘भगवती भी तो मालिक के मुँह लगा है।’

भगवती ने सुनने का प्रयास करते हुए कहा -‘क्या कह रही हो सुनीता ?’

सुनीता ने संभलकर कहा-‘कहाँ, क्या कहा है?’

वह समझ गई कि भगवती कुछ नहीं समझ पाया है, उसे तेज बुखार है।’

‘कहाँ -क्या‘ के उत्तर में उसने फिर प्रश्न किया-‘कुछ कह रही थीं ना ?’

सुनीता ने फिर बात बनाई-‘वैसे ही कह रही थी कि दुनिया में कोई किसी का नहीं है।’

वह यह बात अन्दाज के लिए कह गई। उसका यह अन्दाज ठीक निकला कि भगवती उसकी बात समझ नहीं पाया है क्योंकि भगवती सुनीता का उत्तर सुनकर चुप रह गया। सुनीता सिर दबाए जा रही थी।

कुछ क्षणों के लिए चिन्तन ने विराम ले लिया। भगवती को चेतना सी आती तो अतीत में खो जाता-दहेज रुपी दानव उल्टे मुझे ही निगल गया। मेरे पिताजी लोभ में आ गए थे। लड़की के पिताश्री की विवशता रही होगी कि जितने पैसे देने का उन्होंने वादा किया था वे दे नहीं पाएँ। हम आवेश में आ गए। हमने इस बात को इज्जत से जोड़ लिया। हम बारात लौटा लाए थे, जाने कहाँ होगी वह ?

इधर सुनीता सिर दबाए जा रही थी। सिर दबाते सिहरन हो आई तो सोचने लगी - ‘अब क्या मेरे से यह और पाप होगा ? क्या मैं भगवती के प्रेम में बंध जाऊंगी ? मैं नहीं चाहती कि भगवती से प्रेम करुं। पर पता नहीं मुझे क्या होता जा रहा है। जब से भगवती को देखा है एक नयी स्फूर्ति-सी पैदा हो गई है। भगवती की ओर दिन-पर-दिन खिंचती चली जा रही हूँ। मैं नहीं चाहती अपना प्यार किसी और को दूँ। प्यार के नाम पर उसने कितना धोखा खाया है। क्या मुझमें अब भी वासना की भूख है? नहीं, यह नहीं हो सकता।’

‘नहीं, यह नहीं हो सकता‘ वाली बात वह जोर से कह गई।

‘क्या नहीं हो सकता ?’ भगवती चेतना में आते हुए पूछ बैठा।

सुनीता संभलते हुए फिर से बोली-‘वैसे ही आपकी हालत देखकर सोच बैठी, कहीं मैं बीमार पड़ जाती तो अच्छा होता, पर बीमारी जिसे होना है उसे ही होगी, यह अपने बस की बात नहीं है न, इसलिए निकल गया- नहीं, यह नहीं हो सकता।’

बीमारी की बात सुनकर वह बोला-‘तुम क्यों बीमार होती हो ? मैं ही बहुत हूँ बीमारी के लिए। फिर यह बीमारी क्या ? मामूली-सा बुखार आ गया है।’ यह कहकर वह फिर चुप हो गया।

कमरे में कुछ क्षणों के लिए फिर सन्नाटा छा गया। भगवती पुनः प्यार व्यक्त करते हुए बोला-‘सुनीता तुम जाओ, सोओ, ऐसे कब तक सिर दबाती रहोगी। रात्रि बहुत हो गई, तुम भी थक गई होंगी।’

सुनीता ने उत्तर दिया-‘मैं इतने में ही थक गई क्या ?’

भगवती ने फिर कहा -‘मैं अब सोना चाहता हूँ, तुम रहोगी तो बातें होंगी ही, मैं सो नहीं पाऊंगा।

थोड़ी देर की चुप्पी के बाद वह पुनः बोला-‘हाँ, पानी जरुर पिला दो और उस अलमारी में गोली रखी है वह भी दे दो। आज मैं समझ गया था मुझे बुखार आने वाला है इसलिए मलेरिया की स्लाइट चैक करवाकर ही दवा लाया हूँ।’

सुनीता उठी और अलमारी में से गोली निकाली। उसे गोली खिलाई। पानी पिलाया। वह फिर सिर दबाने को हुई तो भगवती ने मना कर दिया। वह बोला-

‘देखो सुनीता अब मैं ठीक हूँ। सुबह फिर आ जाना, अब तुम जाओ।’

सुनीता का मन वहाँ से जाने को नहीं कर रहा था। भगवती के इतना कहने पर जाना ही पड़ा। जाते वक्त वह भगवती के कमरे का दरवाजा भी लगाती गई। अपने कमरे में पहुँची। थकान तो वह महसूस कर ही रही थी। अपने बिस्तर पर लेट गई और फिर उसे पता नहीं चला कि कब सो गई।

सुबह जब उठी तो धूप निकल आई थी। वह छटपटाकर उठते हुए सोचने लगी-‘भगवती बाबू जाने कब से प्रतीक्षा कर रहे होंगे?’

वह तुरन्त भगवती के कमरे में जा पहुँची।

भगवती बिस्तर पर पड़े-पड़े सिगरेट के कस खींच रहा था। सुनीता के पहुँचने पर उसने मुस्कराकर स्वागत किया। सुनीता भी प्रति उत्तर में मुस्करा दी। सुनीता ने ऐसे भाव से पूछा मानो दोनों में कोई अन्तर न रहा हो-‘कहो रात कैसी कटी ?’

‘पहले बेहोशी में, फिर स्वप्न भरी नींद में। सच कहूँ तो आज जैसे स्वप्न जीवन में कभी न आए और मधुर स्वप्नों को देखते-देखते आज अभी-अभी आपके आने से कुछ क्षणों पूर्व ही सोकर उठा हूँ।’

कुछ रुककर वह पुनः बोला-‘अब उन मधुर स्वप्नों को जागकर फिर से संजो रहा हूँ।’

इस पर उसके चेहरे के भावों को पढ़ने का प्रयास करते हुए सुनीता बोली-‘तो हमें भी सुना डालिए उन मधुर स्वप्नों को।’

यह सुनकर उसने कह दिया-‘स्वप्न, फिर मधुर, किसी को सुनाने के लिए नहीं।’

भगवती की यह बात सुनकर सुनीता ने कह दिया-‘तो रहने दो। यह तो बताइए आपका स्वास्थ्य कैसा है?’

‘भगवती ने उत्तर दिया-‘बहुत अच्छा।’

अब सुनीता ने पूछा-‘अब क्या पिएंगे ?’

भगवती बोला-‘कॉफी।’

सुनीता कॉफी लेने चली गई, जब वह लौटी तो भगवती सिगरेट पीते ही मिला। सुनीता को आता देखकर बिस्तर पर बैठ गया। अब वह कॉफी पीने लगा। कॉफी की चुस्कियों के साथ वह सुनीता को घूरे जा रहा था। जब सुनीता ने उसकी निगाह देखी तो सहम गई और उठकर कोने में पड़ी मेज के सहारे कुर्सी पर जा बैठी।

उस मेज पर कुछ पत्रिकाएं पड़ी थीं, उसने पहले तो एक पत्रिका उठाई। उसके कुछ पन्ने पलटे, भगवती की ओर छिपी निगाह से देखा, वह कॉफी के घूंटों के साथ अभी भी उसे घूरे जा रहा था। वह उसकी निगाह बचाए जा रही थी। उसने ,यहाँ से चला जाए, पर वह पत्रिका में उलझ गई थी। अब उसने उस पत्रिका के सारे पन्ने पलट दिए। उसने किसी दूसरी पत्रिका पर नजर डाली।

टेबिल पर एक तरफ लाइन लगी कुछ पत्रिकाएं और रखी थीं। उनमें से एक-दो पत्रिकाएं और पलटीं, उसमें एक एलबम भी नजर आया। उसने पत्रिका छोड़कर एलबम को अपने सामने खिसका लिया। वह उसे खोलने को हुई तो भगवती बोला-‘तो अब मेरा इतिहास जाना जाएगा। मैं कैसा था, कैसा हो गया?’

सुनीता झेंपते हुए बोली-‘आप कहें तो न देखूं।’

‘नहीं, नहीं, आप उसे अवश्य देखें जिससे मेरे अन्तःकरण से न सही बाह्य जीवन से तो परिचित हो ही जाओगी।’

बात सुनकर सुनीता ने पृष्ठ पलटने शुरु किए। उसने बचपन के चित्र देखे, फिर और पृष्ठ पलटे। जीवन के चित्र सामने से गुजरते चले गए। एकाध पेज और पलटा कि उसी निगाह एक चित्र पर आकर अटक गई।

भगवती सुनीता के चेहरे की प्रतिक्रिया देखे जा रहा था, जिससे वह महसूस कर सके कि उसके दिल में वह कौन-सा स्थान पाता जा रहा है।

सुनीता कुछ क्षणों तक उस चित्र को देखती रही। उसने एक दृष्टि भगवती के चेहरे पर डाली। भगवती ने अपनी निगाह झुका ली, मानो अपराध स्वीकार कर रहा हो। वह जागृत स्वप्न में खो गई-‘वह यह सब क्या देख रही है।’

उसने एलबम बन्द किया और यथास्थान रख दिया। सुंभलते हुए बोली-‘अच्छा मिस्टर मगवती, मैं अब चलती हूँ।’

भगवती सामने ही अपना नाम सुनकर चौंक गया, बोला-

‘क्यों, तुमने उस एलवंम को पूरा नहीं देखा ?’

‘सॉरी, फिर देखूंगी, चित्र हैं और क्या हैं ? मुझे अभी फिर दैनिक कार्यों से निवृत्त होना है क्योंकि बिस्तर से उठकर सीधी आपके यहाँ चली आई हूँ।’

‘अच्छा, अच्छा, जाओ पर जल्दी आना, कहीं डर तो नहीं गई।’

‘किसका और कैसा डर ?’

यह कहकर वह घबराई हुई सी कमरे से बाहर हो गई। अपने कमरे में दौड़कर जल्दी से प्रवेश किया जैसे कमरा उसे बुला रहा हो। उसने कमरे के किवाड़ बन्द किए और बिस्तर पर जा गिरी।