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एक और दमयन्ती - 4

उपन्यास-

एक और दमयन्ती 4

रामगोपाल भावुक

रचना काल-1968 ई0

संपर्क कमलेश्वर कॉलोनी ; डबरा

भवभूति नगर जिला गवालियर ;म0प्र0

पिन. 475110

मोबा. 09425715707

एक और दमयन्ती ही क्यों?

राजा नल और रानी दमयन्ती की संघर्ष -गाथा पौराणिक आख्यानों में है। इस क्षेत्र के ऐतिहासकि नरवर के किले से ही उनका सम्बन्ध रहा है।

इसके साथ ही पंचमहल क्षेत्र में क्वॉंर के महीने में हाथी-पुजन के समय एक कथा कही जाती है-

आमोती दामोती रानी, बम्मन बरुआ

कहें कहानी।

हमसे कहते तुमसे सुनते, सोलह बोल की

एक कहानी।

सुनो महालक्ष्मी रानी ।।

इस क्षेत्र के घर-ऑंगन यों आमोती दामोती रानी की यह कथा भी प्रचलित है।

पुनर्जन्म में भारतीय जनमानस की पूर्ण आस्था है। पौराणिक दमयन्ती ने भी वर्तमान परिवेश में जन्म लिया होगा। आज वह अपनी अस्मिता के लिये संघर्ष कर रही होगी। यहाँ, मेरा चित्त एक और दमयन्ती की तलाश में रमा है।

रामगोपाल भावुक

चार

जब से भगवती का स्वास्थ्य ठीक हुआ था तो तीसरे दिन से अपनी ड्यूटी पर पहुँच गया था। सुनीता भी अपने काम पर जाने लगी थी। अब मैनेजर पहले की अपेक्षा सुनीता पर अधिक नजर रखने लगा था। सुनीता की निगाहें सारे दिन भगवती को ढूंढने में लगा रहती थीं तथा भगवती की निगाहें सुनीता को खोजती रहती। मिलने का मौका अक्सर मिल ही जाता था।

सुनीता को थोड़ी सी फुर्सत मिली कि भगवती मुस्कराता हुआ सामने होता था। भगवती को तो किसी का डर नहीं था पर सुनीता डरती थी। इसी कारण अपने प्यार का प्रदर्शन एकान्त में ही कर पाती। शेष समय में वह मन मसोसकर ही रह जाती।

चार-पांच दिनों तक दोनों छुटपुट मुलाकातें करते रहे। शाम कार्य से निवृत होने के बाद रात्रि 12 बजे छूटते। थोड़ी बहुत गपसप मारते। फिर अपने-अपने कमरों में चले जाते। सुनीता इन बातों का ज्यादा ख्याल रखती थी ‘कहीं कोई उल्टी-सीधी बात न हो जाए कि वक्त से पहले ही डस ली जाऊं।

मन ही मन नई भूमिकाएं बांधना, फिर मंजिल खड़ी करना। मन ही मन चलकर देखना। खरी लगे तो भगवती के सामने रखने पर विचार करना आदि विशयों में खोई रहती थी। भगवती एक ही कमरे में रहने की कई बार कह चुका था। पर सुनीता कहती- ‘सोच लेने दो।’

आज सुुनीता जब रुम नम्बर 15 में पहुँची। भगवती सोफे पर बैठा था। देखते ही जी की कली खिल गई। सोचा- ‘बातें करने के लिए अच्छा मौका हाथ लगा है।’ बोली-‘क्यों जी, वो साहब नहीं आए।’

भगवती मुस्कराते हुए बोला-‘वो साहब नहीं आए तो क्या हुआ, ये साहब तो यहाँ मौजूद हैं।’

सुनीता सोचने लगी-भगवती को अब कैसे समझाऊं कि चलो यहाँ से भाग चलें, कहते हैं कि दीवालों के भी कान होते हैं। मेरे दिल की बात कहीं बाहर हो गई तो सारे प्लान पर पानी पड़ जाएगा।’

यही सोचकर बोली-‘मैं आपसे एकान्त में कुछ बातें करना चाहती हूँ।’

‘कहिए। यहाँ अभी एकान्त ही है।’

‘होटल के अन्दर कुछ कहने से डर लगता है।’

यह सुनकर वह क्रोध में आते हुए बोला-‘किसका डर मेरे रहतेऽऽ साले कोऽऽ।’

‘किस-किस से लड़ोगे मेरे पीछे। मुझे तो यहाँ सभी का डर लगता है।’

‘तो क्या इन सबके डर से हम इस तरह घुट-घुटकर जिएंगे।’

‘जब तक हम इस होटल की चाहर दीवारी से निकल नहीं जाते तब तक तो ............।’ सुनीता ये क्या कह रही हो। मेरा जीवन मेरे अपने पापों के कारण अतृप्त है। इसी अभाव की पूर्ति के लिए मैंने तुम्हारी शरण ली है, मैं यह नहीं चाहता कि हमारे ............।’

यह सुनकर सुनीता ने प्रश्न कर दिया-‘कहो-कहो, रुक क्यों गए।’

उत्तर भगवती ने दिया-‘तुम्हारी बातें हमारे मिलन में बाधक बन रही हैं।’

यह सुनकर वह बोली-‘आप काम-वासना में बह गए हैं। मैं नहीं चाहती कि हमारा ये मिलन कुछ क्षणों के लिए हो। काम-वासना मिटी, फिर कौन किसका है। जन्म-जन्मान्तर तक निभाने की आकांक्षा लेकर तुम्हारे पास आई हूँ। आप मुझे दुल्हन की अस्मिता को समझें। अब कहो क्या मेरी बात अधूरी रह जाएगी।’

सुनीता अपनी बात कहकर सोचने के लिए कुछ विराम चाहती थी इसलिए वह वहाँ से जाने लगी।

भगवती ने पूछा-‘कहाँ जा रही हो ?’

‘अभी आती हूँ।’ और चली गई।

जब सुनीता चली गई तो वह कक्ष उसे काटने को दौड़ने लगा। वहाँ बैठना खलने लगा। अब वह भविश्य की कुछ कल्पनाओं में खोना चाहता था।

‘बहुत सोच चुका भूतकाल के बारे में। अब तो वर्तमान और भविश्य के बारे में ही सोचना चाहिए। तभी सुनीता की कल्पनाओं को साकार कर सकूंगा। वह कितना प्यार करती है मुझे। दुलहन की अस्मिता की बात कहकर वह क्या नहीं कह गई। और मैं हूँ अपनी कहे जा रहा हूँ। अब यह नहीं होगा। सुनीता की जो सलाह हो, वह मेरी मंजिल होनी चाहिए। कितने अच्छे विचार हैं उसके, पता नहीं कहाँ गई है?’

तभी दरवाजे पर आहट हुई। सुनीता चाय की ट्रे लिए हुए थी। आते ही बोली-‘हमारा संयम टूटना नहीं चाहिए।’

‘क्यों नहीं टूटना चाहिए?’

यह सुनकर सुनीता लजा गई और उपदेशात्मक शब्दावली में बोली-‘ऐसी बातों से जीवन नहीं चलता। हम जीवन के उस रास्ते से चलना चाहते हैं जिस पर चलकर मैं आदर्श गृहणी की अपनी कल्पना साकार कर सकूं। इसे मेरी प्रतिज्ञा समझें, पर नारी सदा हारती रही है, युग-युग से त्रस्त इस धरा का उद्धार कर दो। आपके अनुसार चलूंगी, मचलूंगी नहीं। नहीं मचलूंगी तो अवश्य जिससे स्वर्ग की कामना यहाँ ही साकार कर सकूं।

सुनीता चाय उड़ेलने लगी। तभी भगवती ने कहा-‘सुनीता तुम कहती रहो। अपने हृदय की वेदना को बह जाने दो।’

यह सुनकर वह अपने विशय पर आते हुए बोली-‘कल मेरे साथ नहीं चलेंगे।’

‘कहाँ ?’

‘मैं आपके साथ गुप्तेश्वर महादेव के दर्शन करने जाना चाहती हूँ।’

‘कैसे जाओगी, यहाँ बात करने के लिए तो फुर्सत मिलती नहीं है।’

‘इसकी चिन्ता न करें। व्रत का नाम लेकर कल की छुट्टी मांग लूंगी।’

बातें चल रही थीं तभी दरवाजे पर आहट हुई। सुनीता उठ खड़ी हुई और फिर अपने काम में लग गई। भगवती भी उस रुम के आगन्तुओं को देखकर वहाँ से चला गया।

रात्रि को ड्यूटी से वापस आते समय सुनीता ने मैनेजर से छुट्टी चाही। मैनेजर ने शंकात्मक ढंग से पूछा-‘यह अनाचास छुट्टी कैसे ?’

‘कल मेरा व्रत है। मन्दिर जाऊंगी।’

‘देखो जाना चाहती हो तो चली जाओ पर तुम्हारा रवैया ठीक नहीं लग रहा है।’

‘क्यों आप यह कैसे कहते हैं ?’

‘मुझे क्या ? मैं तो सोचता हूँ कल अपने पैसे ले लेतीं और बैंक में जमा करा देतीं।’

मैं यह काम परसों करुंगी, एक बार शान्ति के लिए मन्दिर जाने दीजिए ना।’

यह बात सुनकर मैनेजर बोला-‘अच्छी बात है चली जाना।’

यह सुनकर वह अपने कमरे में पहुँचने के लिए चल दी। जब कमरे में पहुँची। भगवती उसे देख अपने कमरे से बाहर निकल आया औरा बोला-‘छुट्टी मिल गई ?’

‘हाँ, मिल तो गई।’

‘मिल तो गई, ऐसे क्यों कह रही हो ?’

‘सोच रही हूँ ,छुट्टी बेकार न चली जाए।’

‘सुनीता इस दिन की पता नहीं कब से प्रतीक्षा कर रहा हूँ, यह दिन व्यर्थ नहीं जाने दूँगा।’

बात सुनकर वह लजा गई। बोली-‘मेरी बात का अर्थ यह नहीं था।

‘तुम अपने मन की बात कहती हो, मैं अपने मतलब की............।’

‘मेरे मतलब की बात नहीं सुनोगे।’

‘हाँ-हाँ, कहो ना, अभी तक तो कह डालना चाहिए।’

‘सोचती हूँ कल मेरी जिन्दगी के बदलाव का निर्णय हो जाना चाहिए।’

‘तो क्या अभी निर्णय नहीं हुआ है?’

‘शायद हो भी गया होगा पर कल से निर्णय को कार्य रुप से परिणित कर दिया जाएगा, तभी उसके परिणाम को देखा जा सकता है।’

बातें करते हुए वह अपने कमरे में ताला खोलकर घुस आई थी। भगवती भी अन्दर पहुँच गया था। दोनों खड़े थे। भगवती ने कहा-‘आज अपने घर में बैठने के लिए नहीं कहोगी।’

‘मैं सोच रही थी घर आपका है। आप मुझसे ही बैठने की कहेंगे पर जब मेरे से कहते हो तो मैं आज नहीं कहूँगी। रात बहुत हो गई है। किसी की निगाह पड़ गई तो सारी की सारी योजना धूल में मिल जाएगी।’

‘कायरों की तरह डरकर रहना, मेरी सामर्थ्य के बाहर की बात है।’

‘आपकी क्या सामर्थ्य है और क्या नहीं, कल से देखती हूँ। आज की बात तो बस इतनी ही है कि आप अपने कमरे में चले जाएं।’

उसकी यह बात सुनकर उसने उसकी बात का विरोध नहीं किया। वह लौट पड़ा। आकर बिस्तर पर आ गिरा, सोचने लगा-‘कितनी पीड़ा छुपाएँ है अपने अन्तस् में, नारी होते हुए भी इतना साहस। मैं पुरुष होकर मिलन के लिए इतना व्यग्र। यही न होता तो दादागिरी ही क्यों करता। यह जैसा कहे वैसा ही क्यों न किया जाए। मेरा क्या, मैं पुरुष ठहरा। नारी होकर अपना पथ बना रही है।

कितने दृढ़ निश्चय वाली है। कितना तड़पा रही है। एकाकार होने के लिए मेरी पूरी परीक्षा ले रही होगी। परीक्षा तो मुझे भी लेनी चाहिए, पर किस बात की परीक्षा ? एक होटल में रहने वाली नारी की परीक्षा। कौन सी परीक्षा ? खरी उतरेगी। अरे! इस जीवन को छोड़कर मेरा साथ दे सकी तो समझूंगा, अब भी इसमें नारी की अस्मिता जीवित है।’ सोचते-सोचते जाने कितनी रात बीत गई तब कहीं नींद लग पाई।

सुबह उठकर देखा तो दिन निकल आया था। बिस्तर से उठकर सुबह के काम से निवृत हुआ। तभी उसके पास आकर सुनीता ने कहा-‘जल्दी से एक टैक्सी लेकर आएं। मैं तैयार हूँ। मैं आपके पीछे-पीछे आती हूँ। आम के पेड़ की छाया में टैक्सी खड़ी मिले।’

यह सुनकर वह टैक्सी लेने चला गया था।

अब सुनीता होटल से बाहर निकली। भगवती टैक्सी में बैठा उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। सुनीता उसकी बराबर में जाकर बैठ गई। टैक्सी वाले ने पूछा-‘किधर साब।’

सुनीता ने उत्तर दिया-‘सीधे चलो।’

वह सीधे चल पड़ा। चलता चला गया। शहर निकल गया जब अगला मोड़ आया उसने पूछा-‘कितना और चलना है साब।’

‘गुप्तेश्वर महादेव मन्दिर।’

निश्चित स्थान पर टैक्सी रुकी। सुनीता ने टैक्सी वाले से कहा-‘यहीं रुकना, हम वापिस चलेंगे। तुम्हारा जो बनेगा दे देंगे।’

अब दोनों झाड़ियों को पार करते हुए मन्दिर की ओर चल दिए।

आकाश में काले बादल छाए हुए थे। सुनीता का सपना साकार होता जा रहा था। दोनों मन्दिर की ओर चले जा रहे थे। झरने की निरन्तर ध्वनि सुनाई पड़ रही थी। दोनों मन्दिर में पहुँचे। भगवान के सामने पहुँचते ही दोनों के हाथ जुड़ गए। शंकर भगवान की ओर एक दृष्टि डालने के बाद भगवती ने देखा सुनीता बड़ी तन्मयता से प्रार्थना कर रही है। यह देखकर वह भी प्रार्थना करने लगा। जब सुनीता की आंखें खुलीं तब भगवती आंखें बन्द किए प्रार्थना कर रहा था।

दोनों ने साश्टांग प्रणाम किया। प्रसाद चढ़ाया और दोनों बाहर निकलने को हुए तो भगवती बोला-‘भूल हो गई, दो मालाएं लानी चाहिए थीं।’

‘क्यों ?’

‘यहाँ वरण की प्रक्रिया भी हो जाती।’

‘वरण, माल्यार्पण, मन के वरण से महत्वपूर्ण नहीं हो सकते हैं। मेरे मन से वरण तो पता नहीं कब से हो चुका है। रहा आपका तो आप जानें।’

‘मेरा मन भी तुम्हें स्वीकार कर चुका है।’

यह बात सुनकर सुनीता बोली-‘ और क्या-क्या स्वीकार कर चुके हो, मैं भी तो सुनूं ?’

‘तुम्हारी आधीनता, तुम्हें खुश रखने की इच्छा मन के स्वीकार किए हुए विशय हैं।’

‘सच है मन जो स्वीकार कर ले, स्वीकारा जाता है और मन जिसे नकार दे, अस्वीकारा जाता है।’

‘तुम ठीक कहती हो।’

‘ठीक तो कहती हूँ पर आज स्वीकारी जा रही हूँ, कल अस्वीकारी जाऊंगी तो।

‘तुमने यह कैसे कह दिया ?’

‘संसार का जितना अनुभव तुम्हें है, शायद उससे ज्यादा कटु अनुभव मुझे भी है।’

‘ओ ............हो ............ तो ये बात है, पर मैं तुम्हें विश्वास ही दे सकता हूँ।’

‘ आप पर विश्वास करलूँ! ’

‘ करना ही चाहिए ! सुनीता इसी विश्वास पर धरती और आकाश टिके हैं।’

‘कहीं आपके विश्वास पर संदेह करने लगूं तो।’

‘सन्देह, यह प्रश्न तुम्हाने मन में कैसे आ गया। यह बात मेरे दिल को कचोटने लग गई है।’

‘मैं तो सोचती हूँ पुरुष के दिल-विल कुछ नहीं होता।’

भगवती ने ठण्डी सांस ली और बोला-‘यह भी सच कहती हो सुनीता, मैं बहुत बड़ा पापी हूँ। मुझ पर तुम्हें विश्वास नहीं करना चाहिए। क्या पता ............?’

‘सब कुछ पता है। संसार ने ठुकराया है, तुम भी ठुकरा दोगे। पर आपकी सेवा करने को मन स्वीकारता है और जब तक मन स्वीकारता रहेगा सेवा करती रहूँगी।’

‘सुनीता तुम्हें हृदय की हृदयेश्वरी बनाना चाहता हूँ। इतनी ठोकरें खाने के वाद भी उसे हृदयेश्वरी नहीं बना पाया तो मेरा दुर्भाग्य होगा।’

‘जब बात इतनी बढ़ गई है तो समर्पण में संकोच नहीं करुंगी।’

‘किन्तु वह समय कब आएगा ?’

‘जब ?हृदय को जोड़ने के विचारों को स्थाई रुप दोगे तब।’

‘जाने क्या-क्या कहती रहती हो। अब चलो उस टीले पर बैठेंगे।’ यह सुनकर दोनों टीले की ओर चल दिए।

‘अब दोनों हरी दूब से आच्छादित टीले के पास पहुँच गए। झरने की ध्वनि तेजी से कानों में पड़ने लगी। दोनों उस टीले पर बैठ गए। चारों ओर झाड़ियों की दीवारें थीं। अपने स्वयं के घर जैसे आनन्द की अनुभूति हुए बिना न रह सकी।

झरने की अवरिल ध्वनि, आसपास हरी-हरी पहाड़ियां, दूर आकाश को चूमते हुए वृक्ष। आकाश में बिखरे काले-काले बादल, फिर एकान्त, मन के संयम को तोड़ने में सहायक थे। दोनों की निगाहें सामने की ओर उठीं, सामने बह रहा था विचारों के प्रवाह की तरह झरने का स्वच्छ निर्मल जल का चिर प्रवाह।

मानव-जाति का एक विशिश्ट स्वभाव है कि दुःखों की बात सोचने में उसे अच्छा नहीं लगता है। सुनीता ने मौन तोड़ा-‘किन विचारों में खो गए आप।’

भगवती ने सहमी-सी दृष्टि से उसे देखा और मनोभावों को बदलने का प्रयास करते हुए बोला-‘यहाँ का दृश्य कितना सुहावना है?’

‘मन को मोहित कर रहा है।’ यह कहकर सुनीता ने बात का समर्थन किया।

भगवती बोला-‘यह पानी की दूधिया धार जो सतधार बनकर गिर रही है। यह अपने में असीम शक्ति छुपाएँ है और महाप्रलय भी। इसी से नारी की तुलना भी की जा सकती है।

‘आज ये क्या बेकार की बातें ले बैठे ? मैं यहाँ इसलिए नहीं आई हूँ।’ मन्दिर की परिधि में बैठकर हम कोई निर्णय लेना चाहते हैं।’

वह सोचने लगा-‘इसे कोई निर्णय लेना है इसीलिए होटल में मेरे प्रणय निवेदन को टालती रही।’

सुनीता ने बात आगे बढ़ा दी-‘होटल के वातावरण में मुझे घुटन होती है। आज आप यहाँ कोई ऐसा उपाय निकालो जिससे इस होटल की घुटन से छुटकारा मिले।’

‘सुनीता तुम्हारी घुटन मिटाने की दवा हमारे पास है।’

यह कहकर भगवती ने सुनीता को अपने आलिंगन में लेने के लिए हाथ आगे बढ़ाए। सुनीता स्वतः ही आलिंगन में आ गई। इस स्पर्श ने जीवन भर की थकान मिटा दी । सुखद रोमांच उपस्थित हो गया। दोनों एक-दूसरे को जी भरकर देख रहे थे।

आज जैसी गम्भीरता, चंचलता, उन्माद सुनीता में उसे कभी देखने को नहीं मिला था। पल-पल भगवती उसके रुप में उलझता जा रहा था।

इसी समय बादलों में से निकलकर सूर्य का प्रकाश उन पर पड़ा। दोनों को एक पेड़ की छाया का आश्रय लेना पड़ा। ठण्डी हवा चल रही थी। सुनीता ने अपना सिर भगवती के कन्धे पर टिका दिया और बोली-‘मुझे इस संसार से डर लगता है।’

‘मेरी भुजाओं के घेरे में रहने पर भी डर लगता है।’ यह कहकर सुनीता को उसने आलिंगन में भींच लिया।

तब सुनीता ने बात को आगे बढ़ाने के लिए कहा-‘क्या यह आलिंगन इन्हीं क्षणों तक सीमित रहेगा ?’

उसने यह बात सुनकर झट से आलिंगन छोड़ दिया और बोला-‘मेरी समझ में नहीं आता असमय बार-बार यह प्रसंग आकर क्यों हम दोनों के बीच दीवार बनकर खड़ा हो जाता है।

‘आप चाहें तो दीवार तोड़ी जा सकती है।’

‘तो फिर आज से ही तुम अपना कमरा छोड़ दो और मेरे कमरे में ही आकर रहने लगो।’

‘नहीं, भगवती नहीं। यहाँ रहकर, यह नहीं कर सकती। मैं विवश हूँ।’

‘विवशता का कारण जान सकता हूँ।

‘यह फिर बताऊंगी।’

‘क्यों ?’

‘यह सब आज कहने का वक्त नहीं है। यह सब जानकर घृणा करने लगे तो।’

‘विश्वास करो सुनीता, घृणा नहीं करुंगा, क्योंकि मैं यह जानता हूँ कि तुम लम्बे समय से होटल में रही हो। ऐसा पेशा करने वाले लोगों से प्यार यही सोचकर।’

‘जो भी हो आप कभी मेरे अतीत के सम्बन्ध में कुछ नहीं पूंछेंगे।’

‘इस मन्दिर के अहाते में आपकी यह बात स्वीकार करता हूँ।’

‘मैं एक बात और करना चाहती थी ............।’

‘कहो-कहो रुक क्यों गई ............।’

‘मैं चाहती हूँ ............।’

‘अरे फिर रुक गई, कहो ना ............।’

‘मैं और आप कल ही यहाँ से कहीं दूर चलें। जिससे इस दुनिया को हमारी हवा ही न लगे। मैं इस जीवन से उकता गई हूँ। अब मैं यहाँ से दूर चलकर एक दुलहन की अस्मिता से आपको परिचित कराना चाहती हूँ।’

‘मैं भी युग-युगों से भटका हुआ प्राणी हूँ। यही एक अतृप्त इच्छा रही है। कोई नारी जीवन में दुलहन बनकर आए और मुझे अपनी अस्मिता से परिचित कराए। बोलो, करा सकोगी उससे परिचय।’

‘यदि आप उसका परिचय पाना चाहते हैं तो कल यहाँ से कहीं दूर चलें।’

‘अचानक कहीं चलने का प्रोग्राम। फिर कहाँ चला जाए। पैसे की व्यवस्था भी करनी पड़ेगी।’

पैसे की बात सुनकर सुनीता उत्तेजित हो उठी, बोली-‘इस समय आप पैसे की चिन्ता नहीं करें। चलने लायक पैसा मेरे पास है।’

‘तुम कल की कहती हो आज ही चलें। तुम जहाँ कहो वहाँ चलते हैं। कहो तो यहीं से सीधे ............।’

यह सुनकर वह मुस्कराई और कहने लगी-‘आज नहीं कल, कल मुझे और आपको भी वेतन मिल जाएगा। मेरे पास तीन हजार रुपये भी हैं। उन्हें भी मैनेजर प्रकाश से ले लूंगी।’

बात सुनकर सुनीता की आंखों में आंखें डालकर बोला-‘और ?’

‘मैं सोचती हूँ कल 10 बजे भोपाल जाने वाली हवाई बस से हम रवाना हो जाएंगे।’

यह सुनकर भगवती चुप ही रहाँ लेकिन उसने घड़ी पर नजर डाली। चार बज चुके थे।

सुनीता उसके घड़ी देखने के भाव को समझते हुए बोली-‘चलो अब चलते हैं, टैक्सी वाला प्रतीक्षा कर रहा होगा।’

बदल फिर घिर आए थे। पानी की फुहारें आकर उनका स्वागत करने लगी थीं। मौसम और सुहावना हो गया। प्रकृति का आनन्द लेते हुए टैक्सी तक आ गए। टैक्सी में बैठते हुए सुनीता बोली-‘देखो, आज मेरे लिए एक साड़ी अपनी पसन्द की लेते आना। मैं कल से अंग्रेजी मैम नहीं बनूंगी।’

टैक्सी में इसके अलावा और कोई बातें नहीं हुईं। दोनो गुम-सुम सोचते हुए बैठे रहे। पांच बजे दोनों होटल पर उतरे। पहले भगवती उतरा, उसने टैक्सी का किराया चुकाया और सीधे होटल में चला गया। 5 मिनट बाद सुनीता उतरी। होटल में पहुँचने के लिए चल दी।

आज सारे होटल में तहलका मचा हुआ था। सुनीता और भगवती जाने कहाँ चले गए हैं? जब सुनीता को देखा तो साथ काम करने वाली रंजना ने पूछ ही लिया-

‘कहो सुनीता आज कहाँ से ?’

सुनीता ने सभी को यह कहकर सन्तुष्ट कर दिया-‘आज मन्दिर गई थी।’

वह और कुछ न पूछ ले इसा लिये वह आगे बढ़ गई।

वह होटल में जाकर अधिक देर तक नहीं ठहर सकी। अपने बिस्तर पर जाकर लेट गई। बड़ी देर तक निश्चल पड़ी रही। फिर उठी, पेन और कागज उठाया। साथ ले जाने वाले सामान की सूची बना डाली। सामान पैक करने लगी।

एयरबैग में आवश्यक सामान उसने ले जाने के लिए चुना। शेष सामान को होटल में छोड़ देना चाहती थी। सामान पैक करके वह भगवती कमरे में पहुँची। भगवती अपना सामान पैक कर चुका था। यह देखकर बोली-‘एक बैग मेरा भी है। मैं सोचती हूँ अपना सामान उस टपरे वाले होटल में पहुँचा दो। जिससे कल पैसा लेना शेष रह जाए।’

यह बात भगवती को भी ठीक लगी। दोनों कुछ सोचने में खो गए थे। दोनों ही अब चैन की जिन्दगी व्यतीत करना चाहते थे।

सुनीता सोचने में लगी थी-‘वह दुलहन बहुत पहले बनी थी किन्तु दहेज ने उसका अस्तित्व मिटा दिया। मैंने उस समय दुलहन बनने के कितने सपने संजोए थे। उस अस्तित्व के लिए आज तक भटक रही हूँ। अब कल होगी वह साध पूरी।

कल इस सुनीता का अस्तित्व पूरी तरह मिट जाएगा। जो सुनीता भगवती के साथ दुलहन बनकर जाएगी उसकी अस्मिता कुछ और ही होगी। अब मैं अपने अतीत को पूरी तरह भुला दूँगी।

अब तो मैं जीवन भर अपने दूल्हे की दुलहन बनकर रह सकूंगी। उस दिन विवाह मण्डप में यही भगवती, उसे इस दुलहन को छोड़कर भाग आया था। आज उसे ही भगाकर ले जा रहा है। जीवन में मैंने कभी ऐसा सोचा भी न था। मैं तो इस नाम से घृणा करती रही। उसकी हत्या कर देने के सपने संजोए थे। मुझे यह क्या हो गया है? मैं क्यों इससे बंधती जा रही हूँ। नहीं-नहीं, मैं इससे नहीं बंधूंगी। इससे अपने अपमान का बदला लेकर रहूँगी।’

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