एक और दमयन्ती - 10 ramgopal bhavuk द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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एक और दमयन्ती - 10

उपन्यास-

एक और दमयन्ती 10

रामगोपाल भावुक

रचना काल-1968 ई0

संपर्क कमलेश्वर कॉलोनी ; डबरा

भवभूति नगर जिला गवालियर ;म0प्र0

पिन. 475110

मोबा. 09425715707

एक और दमयन्ती ही क्यों?

राजा नल और रानी दमयन्ती की संघर्ष -गाथा पौराणिक आख्यानों में है। इस क्षेत्र के ऐतिहासकि नरवर के किले से ही उनका सम्बन्ध रहा है।

इसके साथ ही पंचमहल क्षेत्र में क्वॉंर के महीने में हाथी-पुजन के समय एक कथा कही जाती है-

आमोती दामोती रानी, बम्मन बरुआ

कहें कहानी।

हमसे कहते तुमसे सुनते, सोलह बोल की

एक कहानी।

सुनो महालक्ष्मी रानी ।।

इस क्षेत्र के घर-ऑंगन यों आमोती दामोती रानी की यह कथा भी प्रचलित है।

पुनर्जन्म में भारतीय जनमानस की पूर्ण आस्था है। पौराणिक दमयन्ती ने भी वर्तमान परिवेश में जन्म लिया होगा। आज वह अपनी अस्मिता के लिये संघर्ष कर रही होगी। यहाँ, मेरा चित्त एक और दमयन्ती की तलाश में रमा है।

रामगोपाल भावुक

दस

गायत्री मिशन के द्वारा यज्ञ का आयोजन किया गया था। सुनीता कार्यक्रम में व्यस्त थी। भगवती को ड्यूटी पर जाना था। वह चला गया था। कार्यक्रम हृदय परिवर्तन करने वाला था। अपार जनता उसमें भाग लेने उमड़ पड़ी थी। ऐसे लगता था मानो सारा शहर ही वहाँ उमड़ आया हो। ठीक मेला की तरह दृश्य उपस्थित हो गया। दुकानें लग गई। दिन के बारह बजे तक तो विशाल मेले का रुप हो गया।

सुनीता कार्यक्रम में इतनी व्यस्त थी कि उसके ललाट पर छोटी-छोटी पसीने की बूंदे उभर आई थीं। वह उन्हें भी व्यस्तता के कारण नहीं पोंछ पा रही थी।

मिशन के संस्थापक आचार्य श्रीराम शर्मा आए हुए हैं। उनकी व्यवस्था एक अलग स्थान पर की गई है। कार्यक्रम के बाद दिन के तीन बजे से आचार्य जी के प्रवचनों का प्रोग्राम है।

आचार्य जी यज्ञ स्थल पर ठीक समय पर पधारे। उन्होंने यज्ञमण्डप की परिक्रमा की और मंच पर पहुँच गए। ध्वनि विस्तारक यन्त्र बोल उठे। उन्होंने कर्म के महतव पर एक सारगर्मित भाषण दिया। अन्त में सुनीता ने आभार प्रदर्शन किया। आचार्य जी किसी दूसरी जगह किसी कार्यक्रम में चले गए। तब कहीं सुनीता को फुर्सत मिल पाई।

रात्रि का आचार्य जी का विश्राम शान्ति भवन पर था। सुनीता अपने जीवन के बारे में कुछ प्रश्न पूछना चाह रही थी। वह आचार्य से मिलने एकान्त ढूंढती रही। कई लोग आए अपनी-अपनी समस्याएं रखते गए। उत्तर पाते गए। वह बाट देखती रही। लम्बे इन्तजार के बाद भीड़ कम हुई। वह आचार्य जी के पास पहुँच गई। बोली-

‘गुरु जी लोग मुझे शान्ति से नहीं रहने दे रहे हैं।’

वे झट से बोले-‘तुम लोगों से डरती होगी। तुम डर को निकाल फेंको। तुम्हें फिर कोई भी नहीं डरा पाएँगा। अरे काटो मत पर फुफकार तो दिया करो। बेटी तुम जिस रास्ते से चल रही हो वही रास्ता सही है।’

यह बात सुनकर सुनीता उनके चरण छूकर वहाँ से हट गई। बार-बार मन से आचार्य जी की बातों को दोहराती रही।

जेठ का महीना था। दिन चढ़ते ही लू चलने लगती है। छुट्टी का दिन था। सुनीता अन्दर थी। भगवती बैठक में था। किसी ने दरवाजा खटखटाया। भगवती ने दरवाजा खोला। पड़ोसी रामलाल जी की माताजी आईं थीं। मोहल्ले भर के लोग उन्हें माताजी ही कहते हैं। उनका नाम तो रामवती है। सुनीता के साथ कार्यक्रमों में जाया-आया करती है। सुनीता कमरे में न थी। भगवती से बातें होने लगी।

माताजी बोलीं-‘तुम बहुत भाग्यवान हो, बहुत चतुर पत्नी मिली है तुम्हें। उस जैसा मुझे कोई दूसरा नहीं दिखता। हमारी बहू को ही लो। खाना बनाना तक नहीं जानती। वह मेरा लड़का रामलाल बड़ा सपूत है। कह रहा है माताजी कोई साथ मिल जाए तो तीर्थ-यात्रा कर आओ।’

भगवती बोला-‘वह यह तो ठीक कहता है। चली जाओ। घूम-फिर आओ।’

‘लेकिन बेटा कोई अच्छा साथ मिले तब ना। मैं सोचती हूँ कहीं सुनीता को साथ भेज दो तो मेरे जीवन की यह इच्छा भी पूरी हो जाये।’

भगवती ने सोचा-‘बेचारी होटल से निकली यहाँ आकर कैद हो गई है, घूम-फिर आए। और कहीं तो जाने-आने की जगह है ही नहीं।’

यही सोचकर बोला-‘आप कहती हो तो साथ लिवा जाओ।’

कमरे में प्रवेश करते हुए सुनीता बोली-‘कहाँ लिवा जाओ ?’

जवाब माताजी ने दिया-‘मैं कह रही थी कि तुम साथ चलतीं तो मेरी मनोकामना पूरी हो जाती। लड़के के ब्याह को इतने दिन हो गए कोई बाल-बच्चा नहीं हुआ। मथुरा के द्वारिकाधीश से यही दुआ मांग आऊं। हरिद्वार जाने की इच्छा भी बहुत दिनों से है। घर के सूने पन की बात तो उसके मन को भी भा गई, किन्तु इस सम्बन्ध में न चाहते हुए भी वह अपनी स्वीकृति देते हुए बोला-‘माताजी मेरे से तीर्थयात्रा पर जाने की कह रही हैं, मैंने तो कह दिया तुम्हें साथ लिवा जाएं।’

‘मैं कैसे जा सकती हूँ ? आप यहाँ। लम्बी छुट्टी तो मिलने वाली है नहीं।’

बात सुनकर भगवती बोला-

‘तुम माताजी के साथ चली जाओ।’

वह बोली-‘मेरा कोई धर्म है पति के बिना कोई औरत तीर्थ करने जाती है?’

‘सुनीता छोड़ो इन परम्पराओं को। मेरा नौकरी पर रहना जरुरी है। माताजी की वजह से जाने में कोई दोष नहीं है।’

‘आप कहते हैं तो मुझे क्या ?’

‘सुनीता की स्वीकृति की बात सुनकर माताजी बोलीं-बेटा मैं वैसे न कहती। मैं सोचती हूँ बहुत दिन हो गए। घर में सूना-सूना दिखता है। शायद द्वारिकाधीश ही हमारी सुन लें।’

भगवती बोला-‘यही सोचकर तो मैंने हाँ कर दी है।’

इस लोभ में तो दोनों के मन में यात्रा पर जाने का निश्चय हो गया।

रामवती बोली-‘मैं तुम्हारे भले की कहती हूँ तभी तो तुम्हारे पास आई हूँ।’

बत का जवाब भगवती ने दिया-‘तो कौन मना कर रहा है? माताजी अब तो आप जाने का कार्यक्रम बना लें जब चाहे चली जाएं।’

यह सुनकर रामवती यह कहते हुए उठ खड़ी हुई-‘अब मैं अपने लड़के से पूंछूँगी कब तक व्यवस्था कर पाएँगा। मैं शाम तक बतला दूँगी, कब चलना है?’

‘आप बतला दीजिए, हम भी तैयारी किए लेते हैं।’ यह सुनते हुए वे चली गईं।

खाना खा-पी चुकने में दोपहर का समय हो गया। दोनों दोपहरी में सोने की तैयारी कर रहे थे। रामलाल आया। उसे देखते ही भगवती बोला-

‘क्यों भई रामलालजी माताजी ने क्या कहा है?’

रामलाल बोला-‘भाई साहब, सुनीता भाभी जा रही हैं। अब मुझे माताजी को भेजने में क्या परेशानी हो सकती है? माताजी कहती हैं कि कल रात की गाड़ी से जाना ठीक है। दो-चार दिन घूम-फिर लेंगी। हरिद्वार में गंगा दशहरे का पर्व लेकर लौट आएंगी।

‘हमें क्या कल शाम को ही सही।’ सुनीता ने सहज में ही कह दिया।

रामलाल ने पूछा-‘क्यों भाई साहब कौन-सी गाड़ी से जाना ठीक रहेगा ?’

‘अरे यहाँ से तमाम गाड़ी जाती हैं। सीधे दिल्ली के लिए तो किसी भी टेªन से जाया जा सकता है।’

‘तो कल यहाँ से आठ-नौ बजे रात तक निकल जाना चाहिए।’

‘यही मैं सोचता हूँ।’

‘तो ठीक है भाई साहब। मैं चलता हूँ जरा जल्दी में हूँ। अब उनके लिए व्यवस्था भी करनी है। समय थोड़ा रह गया है।’

क्हते हुए वह चला गया। अब दोनों बिस्तर अपर लेट गए। सुनीता को कुछ याद आया तो उसने उठकर आवश्यक सामान की सूची बना डाली।

जब हम कहीं अज्ञात जगह पर जाने की तैयारी करने लगते हैं तब हमारे अन्तर्द्वन्द्व में कई तरह के संकल्प-विकल्प उठने लगते हैं आशंकाएं दरवाजा खटखटाने लगती हैं। काल्पनिक बिम्ब मनःपटल पर तेजी से बनने और मिटने लगते हैं।’

सुनीता यात्रा के बारे में ऐसी ही तमाम अटकलों को लगाने में लग गई थी। कैसी होगी वहाँ की व्यवस्था ? कहाँ रहेंगे ? कहाँ भोजन बनेगा ? कहते हैं गंगा दशहरे पर हरिद्वार में बहुत भीड़ होती है। भगवान मेरी यात्रा सफल कर दें। भगवान द्वारिकाधीश ही यह यात्रा करा रहे हैं।

भगवती जाने के बारे में तरह-तरह की सुचनाएं देता रहाँ दोनों एक-दूसरे को छोड़ने में कठिनाई अनुभव कर रहे थे। रिक्त स्थान दोनों का खल रहा था। सुनीता भी इतने लम्बे समय बाद, पहली बार भगवती को छोड़ रही थी। वह भी घर की सारी बातें भगवती को समझा रही थी। खाना ढंककर रखा करें। बिल्ली चक्कर लगा जाती है। दाल का डिब्बा अलमारी में है। सब्जी की डोलची खूंटी से टंगी है। इत्यादि-इत्यादि।

रात सोते में सुनीता स्वप्न में जाने क्या-क्या कहती रही ? मनुश्य जाग्रत अवस्था में जैसा चिन्तन करता है। स्वप्नों पर भी इसका प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। स्वप्न की वजह से आज जल्दी सोकर उठ गई। सुबह से ही तैयारी में लग गई। रास्ते के लिए कुछ नाश्ता बनाना आवश्यक है।

भगवती दैनिक काम से निवृत होकर अपनी ड्यूटी पर जाने के लिए तैयार हो गया था। सुनीता खाना बना चुकी। भगवती ने भोजन किया। ड्यूटी पर जाते समय बोला-‘मैं शाम को 5 बजे तक लौट सकूंगा। तुम तैयारी कर लेना। सामान बांध लेना। नही ंतो जल्दी-जल्दी में कोई चीज छूट गई तो परेशानी होगी।’

भगवती के जाते ही सुनीता अपने काम में व्यस्त हो गई।