अंतिम पर्यटन Ratna Raidani द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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अंतिम पर्यटन


मधु मेरी कॉलेज की सहपाठी, मेरी अभिन्न सहेली आज मेरे शहर, मेरे घर पर आ रही थी। मेरी खुशी को नापने का अगर कोई पैमाना होता तो शायद वह भी आज नाकामयाब हो जाता।

मधु और मैंने नागपुर में साथ साथ ग्रेजुएशन किया था। वह मराठी माध्यम और मैं हिंदी माध्यम की छात्रा थी। हम दोनों के अपने अपने माध्यम के टॉपर होने के बावजूद भी हमारी दोस्ती कॉलेज में एक मिसाल थी।

ग्रेजुएशन के बाद मेरा विवाह बनारस में और उसका चेन्नई (उस समय का मद्रास) में हो गया। उस जमाने में संपर्क के माध्यम आज की तरह शीघ्र और सरल नहीं थे किन्तु फिर भी पत्राचार से हम दोनों जुड़े रहे।

कुछ दिन पहले उसका फोन आया और हमारी बातों का सिलसिला शुरू हो गया।

"हैलो ! सुधा कैसी हो?"

मैंने कहा, " अच्छी हूँ। बनारस की ठण्ड का मजा ले रही हूँ। तुम्हें तो इतने सालों से कह रही हूँ कि तुम और प्रकाशजी "सुबह-ए-बनारस" का आनंद लेने आओ किन्तु तुम्हें चेन्नई से निकलने की फुरसत ही नहीं है।"

मैं बोले ही जा रही थी कि उसने बीच में टोकते हुए कहा, "अरे! बोलती ही जाओगी या मेरी भी सुनोगी?"

"अच्छा सुनाओ " मैंने हँसते हुए कहा।

"मैं और प्रकाशजी परसों बनारस पहुँचेंगे। हमने अब तक ११ ज्योतिर्लिंगों के दर्शन कर लिए हैं और अब उम्र के इस पड़ाव पर हार्दिक इच्छा है कि काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग के दर्शन भी कर लें।" मधु ने उत्साहित स्वर में कहा।

मैंने पूछा, "सच में? कहीं तुम मज़ाक तो नहीं कर रही? अभी तो अप्रैल का महीना भी नहीं है। "

मधु ने हँसते हुए जवाब दिया, "अरे नहीं सुधा। इस बार दोनों बेटियाँ छुट्टियों में नहीं आ रही हैं, इसलिए हमने बनारस आने का प्रोग्राम बना लिया।"

मैं और सुनीलजी उनके आगमन की तैयारी में लग गए। एक सप्ताह के प्रोग्राम में किस दिन कहाँ जाना है? कब क्या खिलाना है? मैंने सब तय कर लिया। मैं नहीं चाहती थी की उन लोगों का बनारस का कोई भी दर्शनीय स्थल और खाना छूट जाए। निर्धारित दिन और समय पर सुनीलजी उन्हें लेने बाबतपुर एयरपोर्ट पहुँचे। मेरे दोनों बेटे अपनी नौकरी की वजह से मुंबई और अहमदाबाद में सैटल्ड थे इसलिए यहाँ भी हम दोनों अकेले ही रहते थे।

घर पहुँचने पर मैंने ठेठ बनारसी अंदाज़ में उनका स्वागत तिलक, फूल माला और इत्र छिड़क कर किया। इतने लम्बे सफर की थकान के बावजूद दोनों बहुत खुश और स्वस्थ दिख रहे थे।

"मधु! तुम और प्रकाशजी थोड़ा आराम करके फ्रेश हो जाओ। आज हम दोपहर में ज्योतिर्लिंग का दर्शन करके शाम को घाट पर गंगा आरती देखेंगे नाव पर बैठकर।" मैंने सबको चाय नाश्ता देते हुए कहा।

"प्रकाशजी! आज के लिए सिर्फ इतना ही काफी रहेगा क्योंकि आप भी दूर से सफर करके आ रहे हैं। कल फिर हम सारनाथ और बी.एच.यू. और परसों अन्य मंदिरों का दर्शन करेंगे।" सुनील जी ने आगे का प्लान विस्तार से समझाते हुए कहा।

नियत समय पर निकलकर हम चारों बनारसी गलियों का आनंद लेते हुए ज्योतिर्लिंग की ओर बढ़ रहे थे क्योंकि कार को बहुत पहले ही पार्क करना पड़ता है।

"प्रकाशजी! बनारस हिन्दू, बौद्ध और जैन धर्म का बहुत बड़ा तीर्थ है इसलिए यहाँ साल के बारहों महीने तीर्थ यात्रियों का तांता लगा रहता है।" सुनीलजी बनारस के इतिहास एवं भूगोल से मधु और प्रकाशजी को अवगत कराते हुए आगे बढ़ रहे थे। काशी विश्वनाथ का दर्शन करने के उपरांत हमने नाव तय की और नौका विहार का आनंद लेने लगे।

जैसे ही हमारी नाव मणिकर्णिका घाट पर पहुँची मैंने कहना शुरू किया, "यह वही घाट है जिसके बारे में कहा जाता है कि यहाँ चिताएं कभी ठंडी नहीं होती। एक के बाद एक दाह संस्कार होते ही रहते हैं।"

प्रकाशजी ने कहा, "हाँ! मैंने इसके बारे में पढ़ा और सुना भी है। बहुत भाग्यवान होते हैं वह लोग जो शिव की नगरी काशी में मोक्षदायिनी गंगा के किनारे मृत्यु को पाते हैं और जिनका पिंडदान यहाँ होता है वे शीघ्र ही मुक्ति पाते हैं।"

"हाँ! ये सब सही बात है और जीवन का अंतिम सत्य भी यही है किन्तु अभी से इतनी वैराग्य की बातें मत करिये। कल हमें सुबह-ए-बनारस और यहाँ की चाट और ठंडाई का मज़ा लेना है।" मधु ने मुस्कुराते हुए कहा।

लौटते समय नाविक ने हमें बताया - "साहबजी! यहाँ तो कुछ लोग लाशों के पूरे जलने तक का भी इंतज़ार नहीं करते। अस्थि विसर्जन तो बहुत दूर की बात है। तुरंत मुखाग्नि देकर और स्नान करके कई पुरुष तो मंदिर में दूसरी शादी करके ही घर लौटते हैं।"

"किन्तु दिवंगत आत्मा वाइब्रेशंस कैच करती है तभी तो तीये, तेरहवीं और बरसी का प्रावधान शास्त्र सम्मत माना गया है।" प्रकाशजी ने कहा।

"अरे साहबजी! जब जीते जी रिश्तों का महत्त्व नहीं तो मरने के बाद किसे फुरसत है विधि विधान, कर्म काण्ड करने की।" नाविक ने अपना पक्ष रखा जो रोज ही इन सब चीज़ों से रूबरू होता था। रिश्तों की सच्चाई का यह भयावह पहलू सुनकर मन वितृष्णा से भर उठा। गंगा आरती देखकर हम चारों घर लौटे। कल के प्रोग्राम को तय करके सब निद्रा के आगोश में चले गए।

करीब ३ बजे रात में मधु ने मेरे कमरे का दरवाजा खटखटाया, "सुधा! सुधा! प्रकाशजी को अचानक बहुत पसीना आ रहा है।" उसने हाँफते हुए कहा। मैं और सुनीलजी उसके कमरे की तरफ दौड़े। उन्हें साँस लेने में दिक्कत हो रही थी और इतनी ठण्ड में भी वो पसीने से लथपथ हो रहे थे। सुनीलजी ने हेरिटेज हॉस्पिटल में फोन करके एम्बुलेंस बुलवाई। हमारे पड़ोसी मिश्राजी और फॅमिली डॉक्टर जैन साहब को भी फोन करके तुरंत घर पहुँचने के लिए कहा। एम्बुलेंस आने तक डॉ जैन ने फर्स्ट ऐड किया। फिर हम सब हॉस्पिटल पहुँचे। हार्ट अटैक का इमरजेंसी केस था इसलिए तुरंत ही C.C.U. में एडमिट किया गया। सुनीलजी और उनके मित्र दौड़ धूप कर रहे थे। मधु की दोनों बेटियों को विदेश में खबर दी गयी किन्तु इस समय एकाएक उनका आना भी संभव नहीं था।

"सुधा आंटी! वैसे तो मम्मी बहुत स्ट्रॉंग हैं किन्तु ऐसी परिस्थिति में हर कोई घबरा जाता है। आप उनका ध्यान रखियेगा। हम जल्दी से जल्दी आने की कोशिश कर रहे हैं।" मधु की बड़ी बेटी ने फोन पर मुझसे कहा।

दोनों बेटियाँ दिन भर रात भर हालचाल लेती रही। जितना अधिकतम संभव हुआ, अच्छे से अच्छे इलाज का प्रयास किया गया किन्तु विधि के विधान के आगे सबको नतमस्तक होना पड़ा। २४ घंटे जीवन और मृत्यु के झूले में झूलते प्रकाशजी ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। उनका यूँ अचानक चले जाना अप्रत्याशित और दिल दहलाने वाला था। बनारस पर्यटन उन्हें अंतिम पर्यटन तक पहुँचा देगा, यह किसी दुःस्वप्न जैसा था जिससे सब आहत थे।

अब अगला कदम क्या और कैसे होगा? यह तय कौन करेगा? मधु की स्थिति को समझते हुए मैंने उसकी बेटियों से बात की। उसकी दोनों बेटी और दामाद ने निश्चय किया कि दाह संस्कार बनारस में ही होगा क्योंकि चेन्नई ले जाना या वहाँ से किसी का आना संभव नहीं हो सकेगा। मधु ने भी अपनी सहमति जताई। अंतिम यात्रा की तैयारी की गयी। उन्हें उसी मणिकर्णिका घाट पर ले जाया गया जहाँ उन्होंने कहा था कि - "बहुत भाग्यवान होते हैं वह लोग जो शिव की नगरी काशी में मोक्षदायिनी गंगा के किनारे मृत्यु को पाते हैं और जिनका पिंडदान यहाँ होता है वे शीघ्र ही मुक्ति पाते हैं।"

यूँ लगा मानों उनकी यही इच्छा ही उन्हें यहाँ खींच कर ले आयी। मधु ने वहाँ पहुँच कर दृढ़ स्वर में कहा, "सुनीलजी! मुखाग्नि और सारे कर्मकाण्ड मैं ही करना चाहती हूँ। आप सब प्रबंध करवा दीजिये।"

दाहसंस्कार और कुछ समय पश्चात अस्थि विसर्जन का कार्यक्रम भी वहीं संपन्न करा दिया गया। मधु स्नान कर वापिस आयी तब तक उसकी बिंदी और सिन्दूर भी गंगाजी में धुल चुके थे। उसका यह रूप मुझसे नहीं देखा जा रहा था। उसके पर्स में हमेशा बिंदी, सिन्दूर और कंघी रखी होती थी।

मैंने उससे कहा, "मधु! प्रकाशजी की वह बात तुम्हें याद है जो उन्होंने दो दिन पहले इसी जगह पर कही थी।"

"हाँ सुधा! वो मेरे वाइब्रेशन कैच कर रहे होंगे।" मधु ने भरे गले से कहा।

"तब फिर कंघी करके बिंदी लगाओ।" मैंने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।

उसने पर्स की तरफ हाथ बढ़ाया और उसके सब्र का बाँध टूट गया। वह फूट फूटकर रो पड़ी। मैंने भी उसे नहीं रोका। यही सोचा कि आज वह जी भरकर रो ले वरना अपने अंदर भावनाएं दबाकर घुटन महसूस करेगी।

कुछ देर बाद कंघी करते हुए उसने कहा, "सुधा! अब कल मैं वापिस चेन्नई जाना चाहती हूँ।"

"हाँ मधु! किन्तु तुम अकेले नहीं बल्कि हम तीनों ही जायेंगे और तब तक दोनों बेटियां और दामाद भी पहुँच जायेंगे। उनकी तेरहवीं की रस्म पूरे विधि विधान से की जाएगी। तब तक हॉस्पिटल की औपचारिकता पूरी करके डेथ सर्टिफिकेट भी ले लेंगे।" मैंने उसे ढांढस बँधाते हुए कहा।

३-४ दिन बाद हम चेन्नई की फ्लाइट पकड़ने के लिए बाबतपुर एयरपोर्ट पहुँचे। मधु का अगला सफर भविष्य की गर्भ में छुपा था किन्तु मेरे लिए यह घटना एक चिंतन छोड़ गयी कि जीवन भी एक यात्रा ही है और यहाँ कब कौन सा साथी साथ छोड़ दे या कौन सा गंतव्य हमारा अंतिम गंतव्य बन जाए इसका किंचित मात्र भी किसी को पता नहीं होता।