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पिंडदान

सुबह के रोज़मर्रा के कार्यों के बाद जैसे ही फुर्सत मिली और मैंने अपने मोबाइल फ़ोन पर नज़र घुमाई तो पाया कि तीन चार मिस्ड कॉल्स और व्हाट्सएप्प पर कई मैसेजेस थे।

एक ही मैसेज को कई लोगों ने भेजा था। शहर के विख्यात उद्योगपति श्री अशोक कुमार सक्सेना का निधन लम्बी बीमारी की वजह से दिल्ली में हो गया था। पहले से ही सबको पता था कि वे हेपेटाइटिस सी और लीवर सिरोसिस से ग्रस्त थे।

अभी भी बाजार में यह खबर थी कि पिछले पंद्रह दिनों से उनका इलाज़ वहाँ के किसी बड़े अस्पताल में चल रहा है। चूँकि उनके दोनों बेटे विदेश में बसे थे और अभी कोरोना संक्रमण के कारण भारत आने में असमर्थ थे और उनकी पत्नी भी अस्वस्थ्ता की वजह से उनके साथ नहीं जा सकती थी इसलिए वे अपने छोटे भाई के साथ जौनपुर से दिल्ली इलाज के लये गए हुए थे। नामी गिरामी परिवार होने के कारण सभी की रूचि उनके बारे में जानने की रहती थी।

अब मैंने मिस्ड कॉल को कॉल बैक करना शुरू किया।

पहला कॉल - "हैलो अमृता"

अमृता का जवाब - "हैलो चित्रा, तुम्हें अब तक तो खबर मिल ही गयी होगी, सक्सेना साहब के निधन की। जानकारी मिली है कि उनका दाह संस्कार दिल्ली में ही होगा। परिस्थितियों के कारण शव को यहाँ नहीं लाया जा सकेगा।"

"ओह! सो सैड! चलो ठीक है फिर बात करते हैं।" मैंने आह भरकर कहा।

दूसरा कॉल - "हैलो रोहिणी"

रोहिणी का जवाब - "अभी अभी पता चला है कि सक्सेना साहब की मृत्यु लीवर की बीमारी की वजह से नहीं बल्कि कोरोना पॉजिटिव के कारण हुई है। उनकी हालत बहुत ही गंभीर थी।"

"ओह हो रोहिणी, ये तो बहुत ही शॉकिंग न्यूज़ है। लो इम्युनिटी वालों पर कोरोना का असर ज्यादा होता है।" मैंने कहा।

"तुम सही कह रही हो, चित्रा। अच्छा चलो फिर बाद में बात करते हैं।" यह कहकर रोहिणी ने फ़ोन रख दिया।

तीसरे मिस्ड कॉल को जब कॉल बैक किया तो जो खबर सुनने को मिली वो कुछ ज्यादा ही दुःखद थी।

"हैलो दामिनी"

"हैलो चित्रा, मेरा मैसेज तो तुमने देखा ही है। सक्सेना साहब के करीबी रिश्तेदार से पता चला है कि हॉस्पिटल वाले कोरोना होने के कारण उनके शव को नहीं देंगे और किसी को भी उनके अंतिम दर्शन की भी अनुमति नहीं है इसलिए सभी परिवार जनों ने दुखी मन से वहां न जाने का निर्णय लिया है।"

दामिनी की बात सुनकर मैंने कहा, "हे भगवान, ये तो बहुत ही दुःखद खबर है। मेरा मन भी बहुत भारी हो रहा है। उनके परिवार वालों पर क्या बीत रही होगी?"

यह कहकर मैंने फ़ोन रख दिया।

तभी अचानक बाजे वालों की ढम ढम करती हुई "रघुपति राघव राजा राम" की धुन कानों में गूँज उठी। बाहर बालकनी में आकर देखा कि चार पाँच बाजे वाले थे और दस बारह लोग बदल बदल कर कांधा दे रहे थे एक अर्थी को। कुछ फूल मालाओं से सजी अर्थी में शव का खुला चेहरा और मस्तक पर बड़ा सा तिलक।

अरे! ये तो नुक्कड़ वाले तिवारी जी थे। सरकारी नौकरी से रिटायर्ड अफसर थे। पति पत्नी दोनों अकेले ही रहते थे। दो शादी-शुदा बेटियाँ थी। संयोग से अभी बेटियाँ और उनके बच्चे आये हुए थे। मुझे अक्सर पार्क में मॉर्निंग वॉक करते हुए दिख जाते थे तिवारी जी। मेरी काम वाली बाई भी मेरे पीछे आकर बालकनी में खड़ी हो गयी।

"देखो भाभी, कितनी अच्छी मौत मिली है तिवारी जी को। दूध पीकर रात को सोने गए और बस हमेशा के लिए सो गए। आपको पता है उनका अंतिम संस्कार उनकी दोनों बेटियाँ ही करेंगी।" काम वाली बाई ने बेटियाँ शब्द पर जोर देकर बताया।

दो दिन बाद फिर फ़ोन कॉल का सिलसिला चालू हुआ तो पता चला कि सक्सेना साहब की जो फाइनल रिपोर्ट आयी वो निगेटिव थी किन्तु तब तक यहाँ तीये की रस्म भी हो चुकी थी।

पुत्रों द्वारा पिंडदान की महत्ता और मोक्ष प्राप्ति की पौराणिक मान्यता आज मेरे सामने प्रश्न बन कर खड़ी है और उनका उत्तर मैं इन दो घटनाओं में ढूंढने का प्रयास कर रही हूँ।

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