खगोल विज्ञान शुरू से ही हमारी उत्सुकता, जिज्ञासा, दिलचस्पी एवं उत्कंठा का विषय रहा है। बचपन में खुले आसमान में चाँद तारों को देख उन दिनों हम कई तरह की कल्पनाओं में खो जाया करते थे। कुछ बड़े हुए तो पता चला कि चाँद पर मनुष्य ने अपने कदम सफलतापूर्वक रखते हुए झण्डा गाड़ दिया और अब मंगल ग्रह को जानने..समझने..बूझने के लिए सतत प्रयास किए जाएँगे। उन्हीं कोशिशों के फल है कि मंगल पर नासा के ज़रिए यान भेज कर अब वहाँ की तस्वीरें और वीडियो भी आम लोगों के सामने आया है।
हाल ही में लेखक राकेश शंकर भारती ने मंगल ग्रह पर मानव बस्ती बसाने की कहानी ले कर एक उपन्यास रचने का प्रयास किया है। प्रयास इसलिए कि पाठकीय नज़रिए से अगर देखें तो मुझे उनके इस उपन्यास में छोटी बड़ी कई खामियां दिखी। खामियों से पहले उपन्यास की कहानी पर चलते हैं। तो इस उपन्यास में कुल 4 कहानियाँ समांतर रूप से इस प्रकार चलती हैं कि पूरे उपन्यास में कहीं भी एक दूसरे से किसी भी हिसाब से जुड़ नहीं पाती।
इस उपन्यास में पहली कहानी कोरोना काल याने के वर्तमान की है। जिसमें रोहतक से दिल्ली आ कर बसे पुराने फौजी धर्मपाल, उसके बेटे द्वारपाल और उसके पोते रामपाल की कहानी है जो आपस में हरियाणवी लहज़े के बजाय उत्तर पूर्वी भारत के हिंदी लहज़े में बात करते हैं। धर्मपाल और उसका बेटा द्वारपाल अपनी जवानी के दिनों में, अपने अपने प्यार से घरवालों के विरोध के चलते शादी नहीं कर पाए क्योंकि लड़की नीची जाति की थी। इसी वजह से वे दोनों भी रामपाल की शादी उसकी प्रेमिका से नहीं होने देना चाहते क्योंकि वह भी छोटी जाति की है।
इसमें द्वारपाल कोरोना की चपेट में आने के बाद एक बार ठीक तो हो जाता है मगर कुछ दिनों बाद दादा, बेटा और पोता...तीनों के तीनों कोरोना से संक्रमित हो अस्पताल में भर्ती हो जाते हैं। जहाँ धर्मपाल (दादा) की प्रेमिका, जो अब विधवा हो चुकी है, भी साथ वाले बेड पर कोरोना की वजह से भर्ती है। बुढ़ापे में दादा का अपनी प्रेमिका से मिलन होता है जिसे दोनों का परिवार सहर्ष स्वीकार कर लेता है। अब दादा और बेटा, दोनों रामपाल की शादी उसकी प्रेमिका से करने के लिए राज़ी हो जाते हैं तो पता चलता है कि लड़की की माँ द्वारपाल याने के पिता की पहले प्रेमिका रह चुकी है।
अगली कहानी है यूक्रेन में रहने वाली उल्याना की। जिसकी माँ को उसका पिता बचपन में ही छोड़ चुका है। माँ ने जिससे दूसरा विवाह किया, उसका एक पहले से बेटा है। उल्याना का अफ़ेयर जिससे होता है, उससे उसे एक बेटा है। शादी के कुछ समय बाद उसका पति उसे छोड़ कर किसी और के पास चला जाता तो कुछ सालों बाद उल्याना भी नया पति ढूँढ़ लेती है। कुछ सालों बाद जब वो भी उसे छोड़ कर चला जाता है तो उसकी माँ उसे किसी अन्य देश में जा कर पैसे के साथ साथ घर बसाने की भी राय देती है। जिस पर अमल करते हुए उल्याना इटली चली जाती है और वहाँ के एक अधेड़ डॉक्टर से इसलिए शादी कर लेती है कि दो पतियों से दो बेटों के बाद उसे अब तीसरे पति से एक बेटी चाहिए जो कि डॉक्टर की भी इच्छा है। इटली में कोरोना फैलने से डॉक्टर जीजान से कोरोना के मरीजों का इलाज करता है और एक दिन खुद भी कोरोना की चपेट में आ कर मर जाता है।
तीसरी कहानी यूक्रेन में रह रहे खुद लेखक, उसकी पत्नी और उनके दो बच्चों की है। जिसमें कोरोना से संबंधित बातों, लक्षणों को कभी पिता पुत्र की बातचीत के ज़रिए तो कभी आत्ममंथन के ज़रिए बताया गया है।
चौथी कहानी अब से एक हज़ार साल बाद की है जब ग्लोबल वार्मिंग के चलते पूरी दुनिया तबाही की कगार पर खड़ी है। एक तरफ जंगलों की आग फैल रही है तो दूसरी तरफ़ कुदरती बैलेंस के बिगड़ने से सभी देशों पर समुद्र हावी हो उन्हें अपने चपेट में ले डुबोता जा रहा है। धरती पर आए इस संकट से बचने के लिए मंगल ग्रह पर बस्ती बना वहाँ कुछ चुनिंदा आबादी को ले जाया जा रहा है। इस कहानी में खामख्वाह वरिष्ठ साहित्यकार 'तेजेन्द्र शर्मा' जी, प्रवीण झा का मंगल ग्रह पर आगमन दिखा दिया गया है जबकि कहानी में इसकी कहीं ज़रूरत नहीं थी। साथ ही इसमें आज से 1000 साल बाद की कहानी को बचाने/बनाने के मकसद से इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी को भो एक अहम रोल दिया गया है जो कि महज एक बचकानी कोशिश साबित हुई है।
अब खास बात ये कि इनमें से कोई कहानी कहीं भी किसी कहानी से ना मिलती..ना बिछुड़ती और ना ही एक दूसरे को काटती है। किसी भी कहानी का किसी कहानी से आपसी तालमेल सिवाय इस बात के नज़र नहीं आता कि उनमें कोरोना की कम या ज़्यादा बात है। बतौर पाठक और एक लेखक के मेरा मानना है कि एक ही उपन्यास में एक साथ कई समांतर कहानियाँ तो बेशक चल सकती हैं मगर कहीं ना कहीं उन सभी का आपस में कोई ना कोई संबंध जुड़ना या होना अवश्यंभावी है।
पता नहीं चलता कि कब लेखक फटाक से पलक झपकते ही कोरोना काल से एकदम एक हज़ार साल बाद की दुनिया में पहुँच जाता है और उस अध्याय के खत्म होते ही वापिस अगले सीन में फिर कोरोना काल में पहुँच जाता है।
एक बड़ी कमी इस उपन्यास में और दिखाई दी कि भारत के पूर्वी क्षेत्र के लोग कई बार स्त्रीलिंग और पुल्लिंग में भेद नहीं कर पाते। इस उपन्यास में भी यही कमी अनेकों जगह दिखाई दी। साथ ही उपन्यास के एक हिस्से में 'द्रेप्रो नदी' का बार बार नाम आना अखरता है जिसे एक दो बार 'द्रेप्रो नदी' लिख कर बाद में सिर्फ 'नदी' लिखने से काम चलाया जा सकता था।
दिल्ली के बाशिंदे होने के नाते जिन किरदारों को अपनी उम्र और दिल्ली के हिसाब से अपनी भाषा..अपने संवाद बोलने चाहिए। वे साहित्यिक या शुद्ध हिंदी वाली भाषा बोल रहे थे।
यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे दो युवा जो एक दूसरे से प्रेम करते हैं। वे आपस में 'तू', 'तुझे' वाली भाषा बोलते दिखाई दिए जबकि इश्क में इतनी समझ तो बनती ही है कि किसी से तमीज़ से बात की जाए।
*पेज नम्बर 42 पर एक जगह लिखा दिखाई दिया कि...शाम के साढ़े आठ बजे सूरज आहिस्ता आहिस्ता पश्चिम में डूब रहा है।
जबकि वहाँ पर याने के यूक्रेन में आमतौर पर शाम 5.50 तक सूरज डूब जाया करता है।
*पेज नम्बर 44 में एक जगह कोरोना के लक्षणों को ले कर दादा, बेटे और पोते में बात चल रही है। वहाँ लिखा दिखाई दिया कि..
"धर्मपाल चिंतित मुद्रा में लंबे समय तक बेटे और पोते से बकता रहा।
खामख्वाह की अनर्गल बात के लिए 'बकता' कहा जाए तो चलो..माना भी जा सकता है लेकिन ये भी साहित्यिक भाषा नहीं है।
मेरे हिसाब से यहाँ आना चाहिए था कि..." चिंतित मुद्रा में लंबे समय तक बात करता रहा अथवा गंभीर विषय को लेकर उनमें लंबे समय तक वार्तालाप चलता रहा।"
*तकनीकी या मेडिकल जानकारी को ज्यों का त्यों कठिन शब्दों में ऐसे किरदारों के मुखारविंद से कहलवा दिया गया है कि जानकारी विश्वसनीय लगने के बजाय नाटकीय प्रतीत होती है। मेरे हिसाब से किरदार को उसकी भूमिका के हिसाब से भाषा बोलनी चाहिए।
*घूम फिर कर कई कई बार कोरोना के लक्षणों और उनसे बचाव के तरीकों की बातें उकताहट पैदा करती हैं।
*पेज नम्बर 55 पर अखबार में से खबर पढ़ कर सुनाने का जिक्र किया गया है जबकि शुरुआती पृष्ठों ये बताया जा चुका है कि कोरोना के चलते अखबार का घर में मँगवाया जाना बंद किया जा चुका है।
*पेज नम्बर 56 में एक जगह लिखा दिखाई दिया कि कामयाब वैक्सीन की पैदावार शुरू हो जाएगी जबकि पैदा तो फसल होती है। यहाँ होना चाहिए कि.."कामयाब वैक्सीन का उत्पादन/निर्माण शुरू हो जाएगा।"
*पेज 59 पर एक गाने का जिक्र कुछ इस प्रकार है कि.."मेरा प्यार सावन भादों, फिर भी मेरा मन प्यासा।"
जबकि असली गाना इस प्रकार है..."मेरे नैना..सावन भादों। फिर भी मेरा मन प्यासा।"
*पेज नम्बर 65 पर यूक्रेन की स्थानीय युवती जिसका भारत से कोई लेना देना नहीं है। वह "मुख में राम बगल में छुरी तथा अपनी सौतन को देख कर गंगा और यमुना के आपस में संगम की बात करती है।
*वर्तनी की त्रुटियाँ भी काफ़ी जगहों पर दिखाई दी।
*इसी उपन्यास में कहीं "छिपकली की तरह रंग बदलना।" लिखा दिखाई दिया जब यहाँ "गिरगिट की तरह रंग बदलना।" होना चाहिए था।
*पेज नम्बर 75- अभी मोदी का भारत है। चीन को डंडा कर देंगे।
आपसी बातचीत और चीज़ है लेकिन लेखन में इस तरह की स्तरहीन बात से बचा जाना चाहिए।
*पेज नम्बर 85 पर ग्लोबल वार्मिंग को ले कर पति पत्नी में चल रहे गंभीर वार्तालाप को अंत में अनाप शनाप सोच विचार करार दिया गया है।
*पेज नम्बर 97 ईसाई युवक उलयाना से दोस्ती करते वक्त "खुदा की कसम" खा रहा है जबकि दोनों में से इस्लाम को मानने वाला कोई भी नहीं। साथ ही पहली बार की मुलाकात में दोस्ती करने का प्रयास करते वक्त युवक, युवती की तारीफ करते हुए उससे बिना कोई इधर उधर की बात कहते हुए सीधा कहता है कि.."एक नज़र में तेरी ख़ूबसूरती में गुम हो गया। कसम खुदा की।"
*"टापू पर रेस्टोरेंट के पास एक बूढ़ी दादी फूल बेच रही थी। सेरगेई(होने वाला प्रेमी) ने झट से वहाँ पहुंचकर रंग बिरंगे गुलाब फूलों का एक बड़ा गुलदस्ता खरीदा और "धड़ाम" से उल्याना के प्यासे हाथों में थमा दिया।"
धड़ाम से कोई चीज़ गिरती है जबकि फूलों का गुलदस्ता प्यार से पकड़ाया जाता है। 'प्यासे हाथों' का उदाहरण भी पहली बार पढ़ने को मिला।
*पेज नम्बर 106 में लिखा दिखाई दिया कि.. "कोरोना से संक्रमित व्यक्ति की मौत के बाद उसकी लाश को रिश्तेदारों के हवाले कर दिया गया और उसके दाह संस्कार के तुरंत बाद ही उसकी अस्थियों को डिब्बे में बंद कर दिया गया।"
जबकि कोरोना से मरने वालों का सरकार खुद क्रियाकर्म करवा बाद में उनकी अस्थियां रिश्तेदारों को सौंपती थी। और गर्म जलती लाश से अस्थियां एकत्र करना प्रैक्टिकली भी संभव नहीं है।
*पेज नंबर 113 पर एक जगह लिखा है कि एक जोड़ा अपने बेटे के साथ खुशी खुशी समुद्र तट घूमने निकला और उन्हें इस तरह अपना वक्त ज़ाया करना अच्छा लगता है।
ज़ाया करना का अर्थ होता है बर्बाद करना जबकि वे खुशी खुशी अपना समय व्यतीत कर रहे थे।
*पूरे उपन्यास में गोरे गालों और गोरे चेहरे के लिए सफ़ेद रुख़सार या सफ़ेद चेहरा लिखा आ रहा है।
जबकि सफ़ेद चेहरा या सफ़ेद रुख़सार बीमारी की निशानी होता है। यहाँ सीधे सीधे गोरे रुख़सार/ गोरे गाल और गोरा चेहरा लिखा जाना चाहिए था।
*पेज नम्बर 122 पर एक जगह लिखा है कि.." इस धरती पर हमारी आखिरी मुलाकात आँसू की मूसलाधार बारिश के साथ खत्म हो जाएगी।"
आँसू की मूसलाधार बारिश?
*पेज नंबर 128 पर यूक्रेन का एक डॉक्टर सोने पर सुहागा मुहावरा बोलता है जोकि हिंदी का मुहावरा है और मज़े की बात ये कि उसे हिंदी बिल्कुल नहीं आती।
*पेज नंबर 131 पर लिखा है कि..."अपनी मम्मी के साथ मिलकर दादाजी और पिताजी से हार्दिक विनती करूंगा।"
'हार्दिक' शब्द को प्रसन्नता के लिए इस्तेमाल किया जाता है जैसे.."मुझे आपसे मिल कर हार्दिक प्रसन्नता हुई।"
लेकिन विनती के साथ हार्दिक शब्द का इस्तेमाल पहली बार दिखा।
*पेज नंबर 134 सूरज दूर से आलस्य की मुद्रा में टिमटिमा रहा है।
तारे टिमटिमाते हैं जबकि सूरज टिमटिमाता नहीं बल्कि जगमगाता है।
*पेज नम्बर 146 में एक पाँच-छह साल का बच्चा,जो मंगल ग्रह पर पहुँच गया है और पृथ्वो को बहुत मिस कर रहा है, के लिए लिखा है कि..." वह अपनी नई नवेली दुल्हन जैसी निराली सुंदर पृथ्वी को याद करके खूब रोता है।
पाँच छह साल जितने छोटे बच्चे के लिए नई नवेली दुल्हन?
नई नवेली दुल्हन के बजाय अगर 'धरती माता' शब्द का प्रयोग किया जाता तो जायज़ होता।
*पेज नंबर 161 पर इटली का एक डॉक्टर, यूक्रेन की एक युवती को उस भाषा में जिसे वे दोनों ही नहीं जानते हैं, हिंदी का "हम बने तुम बने इक दूजे के लिए" गीत तथा "सोने पे सुहागा" जैसा मुहावरा सुना कर अपना प्रेम प्रदर्शित रहा है।
*पेज नम्बर 170 पर लिखा दिखाई दिया कि.."तेजेन्द्र सर ने अपनी घनी मूँछें नोचते हुए कहा।"
यहाँ आना चाहिए था कि.."मूँछें सही कर रहे थे।"
*पेज नंबर 174 पर बूढ़ा धर्मपाल कहता है कि.. "मैंने उस समय पर समाज का डट कर मुकाबला नहीं किया और इसकी सज़ा मेरी अतृप्त आत्मा और तुम दोनों को मिली।"
आत्मा तो मृत व्यक्ति की होती है जबकि बूढ़ा धर्मपाल तो अभी जीवित था और अपनी बात कह रहा था।
*पेज नम्बर 175 पर दो सौतेले भाई जब पहली बार मिलते हैं तो एक दूसरे को 'दबोच कर' अपने सीने से लगा रहा है।
दबोचा, चोर या फिर उस व्यक्ति के लिए कहा जाता है जो भागने की कोशिश कर रहा हो।
*पेज नंबर 186 पर मोदी जी मंगल ग्रह से वापस पृथ्वी पर जा रहे हैं तो लेखक का बेटा रोते-रोते कहता है प्रधानमंत्री मोदी जी कहां जाने की फिराक में हैं?
फ़िराक शब्द शातिर या फिर चालाकी कर रहे व्यक्ति के इस्तेमाल हो, यही सही लगता है।
मंगल ग्रह पर शादियाँ हो रही हैं। किंडरगार्टन, स्कूल, कॉलेज से ले कर कब्रिस्तान वहाँ पर बना हुआ है।
मिनी बस चल रही है। सब कुछ अगर धरती के हिसाब से होना था तो फिर उपन्यास में अनोखा क्या था?
उपन्यास में लेखक ने बताया कि..मंगल ग्रह पर बस्ती अंडरग्राउंड हॉल में बनी हुई है। उससे बाहर निकलने पर स्पेस सूट और ऑक्सीजन सिलेंडर पहनना पड़ता है। लेकिन यही अहम बात खुद लेखक भी कई जगहों पर लिखना भूल गया है।
अच्छा होता कि इस उपन्यास से धर्मपाल, द्वारपाल, रामपाल, उल्याना और लेखक के हिस्से को बिल्कुल गायब कर के सिर्फ़ मंगल मिशन और उस पर बस्ती बनाए जाने को ले कर पूरा डिटेल्ड उपन्यास या फिर बच्चों के हिसाब से इस पर कॉमिक बनती।
अंत में वैसे एक सुझाव भी है लेखक के लिए कि इस उपन्यास में बच्चे को मुख्य पात्र बना..पिता पुत्र के मध्य होने वाली बातचीत के हिसाब से इसे इस प्रकार लिखा जाता कि काल्पनिक बातों को स्वप्न के ज़रिए कहलवाने के लिए बच्चे को और ज्ञान एवं जानकारी भरी.. समझदार बातों के लिए पिता को माध्यम बनाया जाता। उदाहरण के तौर पर वाचाल बच्चे को विज्ञान पढ़ाते समय या प्रोजेक्ट बनाते समय पिता और बच्चे के मध्य रोचक वार्तालाप शुरू होता। और फिर रात को सोने के बाद सपने में ही मंगल यात्रा और वहाँ पर मोदी जी का आगमन होता तो काफी हद तक कहानी को संभाला जा सकता था।
उम्मीद है कि लेखक अपनी आने वाली किताबों एवं रचनाओं में इस तरह की कमियों से बचने का प्रयास करेंगे। 200 पृष्ठीय इस उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है अमन प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 250/- रुपए। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।