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आंखों ही आंखों में

आज फिर आंख खुलते ही आंखों के समक्ष उभरी एक जोड़ी जीवंत सी आंखें।

" अरे, आप यहां, किसके लिए। मेरी तो प्रतीक्षा कर नहीं सकती आप।"

वही गहरी, हृदय को बेंधती आंखें और हल्की स्मित से व्यंग्यात्मक वक्र हुए अधर, जिससे परिचित थी वो पिछले कई दशक से। स्कूल का सबसे शरारती छात्र। शायद ही कोई दिन ऐसा बीतता होगा, जिस दिन किसी अभिभावक का शिकायती पत्र नहीं आता हो प्राचार्य महोदय के पास उसके लिए। फिर स्कूल वाले भैया कक्षा से बुला कर ले जाते उसे प्रिंसिपल साहब के ऑफिस में। हम सब मित्र डरे प्रतीक्षा करते कि आज खैर नहीं इसकी। और दस मिनट बाद उसी घृष्ठता से मुस्कुराते हुए कक्षा के दरवाजे पर खड़ा नजर आता - " मे आई कम इन, सर? "

शिक्षक के जाते ही सारे लड़के घेर लेते, क्या कहा प्राचार्य ने, मारा तो नहीं? घेरने वालों में शामिल नहीं होने के बाद भी कान उधर ही होता मेरा भी। और तभी बेतकल्लुफ़ सी आवाज आती जोर से, शायद उसे भी अंदाज रहता कि मेरा भी ध्यान है उस पर - " कुछ नहीं, क्या कहता ये प्रिंसिपल? समझा दिया उसे। "

फिर खिन्नता से भर जाती वह। कितने असम्मानजनक भाषा का प्रयोग प्राचार्य के लिए। इसकी नजर में किसी की कोई कीमत ही नहीं है।

इस सबके बावजूद सारे शिक्षकों का प्रिय। हमारी क्लास टीचर कहती - जीनियस ब्रेन है इसका। थोड़ा शांत हो जाए तो कहां पहुंच जाएगा ये। ना सिर्फ पढ़ाई, खेल, वाद विवाद प्रतियोगिता - सबमें आगे।

ध्यान तो खींचता था वह मेरा अपनी हरकतों से। उस दिन भी अपने दोस्तों को कुछ समझा रहा था और मैं कोशिश कर रही थी उसकी बातों को सुनने का। अचानक घूमा मेरी तरफ और मुस्कुराते हुए बोला -" क्यों सुन रहीं हैं आप बात मेरी।आपका पूरा ध्यान रहता है मेरी तरफ। " मेरे कुछ कहने से पहले 'आंखों ही आंखों में इशारा हो गया' - गीत गाते हुए निकल गया वह।

स्कूल के वो साल - थोड़ी दोस्ती और बहुत सारे झगड़ों में ही बीता। देखते देखते वह दिन आ गया जब जीवन के एक नए अध्याय की शुरुआत होनी थी, जिसके लिए जितना लालायित था मन ,उतना ही सशंकित भी। प्रदेश में इस प्रतिष्ठित कॉलेज में नामांकन होना था कल उसका।

पापा ने रात में बैठ कर समझाया कि कल से सब अलग होगा। स्कूल के माहौल से अलग, जहां तुम अपने विवेक के हिसाब से अपने जीवन का रास्ता तय करने के लिए स्वतंत्र होगी, लेकिन याद रखना हमेशा कि किसी भी परिस्थिति में तुम्हारे सबसे निकतस्थ मित्र मैं और तुम्हारी मां हैं। कभी किसी तरह का द्वंद हो, हमारे पास आना किसी से पहले। और उसी क्षण से इस बात को गांठ में बांध लिया था उसने।

नामांकन का दिन, विस्तृत सा महाविद्यालय का कैंपस - उत्सुकता और भय दोनों जगाता और नामांकन के बाद पापा के साथ उनके प्रोफेसर मित्र के केबिन की तरफ बढ़ते हुए अचानक लगा कोई परिचित दिखा। सामने वाला भी तो उसी को देख रहा था। खुशी की तीव्र लहर सी उठी हृदय में अपने इस पुराने स्कूल मित्र को देख कर और सहसा मुस्कुराहट सी आ गई उसके अधरों पर। पापा के साथ ही निकल गई थी उस दिन कॉलेज से। कुछ दिनों बाद नियमित क्लास शुरू होने वाले थे।

कॉलेज का पहला दिन, निकल ही रही थी क्लास करके और सामने से आता दिखा सौरभ। उसी की तरफ आ रहा था वो भी। दोनों के मनोभाव एक जैसे ही थे शायद।

"बहुत खुशी हुई उस दिन, जब कॉलेज में आपको देखा। हमारे स्कूल से हम दोनों ही यहां आए हैं। चाचाजी थे, इसलिए बात नहीं की मैंने आपसे।"

"हां, मुझे तो बहुत अच्छा लगा तुमको देख कर। इतने बड़े कॉलेज में कोई तो अपना दोस्त है।"

स्कूल की सारी लड़ाइयां कहीं अपना अस्तित्व खो चुकी थीं। यहां आते ही लग रहा था कि जैसे दोनों अभिन्न मित्र हों शुरू से। फिर तो यह रूटीन ही हो गया था क्लास खत्म करके कॉलेज के पीछे काली माता के मंदिर के सामने बहती गंगा तट पर कुछ देर तक बैठने का। लेकिन सिलसिला ज्यादा दिन तक चल नहीं पाया। बहुत से दूर दराज़ से आए लड़के भी थे, जिनके लिए लड़कियों से बात करना स्वप्न समान रहा था और ऐसे लोगों की आंखों में चुभना स्वाभाविक था हमारा सहज भाव से गंगा तट पर रोज बैठना। एक दिन आ गए सारे ग्रुप बना कर।

"हमारे कॉलेज में यह नहीं चलेगा।"

" क्या, नहीं चलेगा?" आवाज उभरी मेरी।

यहां साथ नहीं बैठ सकते आप लोग।

जवाब उसी ने दिया - " ठीक है, नहीं बैठेंगे।"

उफन पड़ी थी मैं - " क्यों डरे उन गुंडों से। "

स्कूल के छवि के विपरीत यह कोई नया ही व्यक्ति था - " हम यहां पढ़ने आए हैं। क्या करना है इन लोगों से लड़ कर। इनका काम ही यही है।"

आश्चर्य हुआ था मुझे। कहां रोज चार पांच की पिटाई करने वाला स्कूल का मेरा सहपाठी, कहां आराम से इन सामान्य से लड़कों की बात सुनता और मानता मित्र मेरा। गंभीरता बढ़ रही थी उसकी।

उस दिन जब क्लास खत्म करके निकल रही थी मैं, तो गेट के सामने बाइक रोकी उसने - ' बैठो।'

अभी भी सामान्य प्रचलन में नहीं था हमारे शहर में यूं लड़कों के साथ बाइक पर बैठना। लेकिन मना कर अपनी निर्भीक छवि स्वयं अपनी आंखों में तोड़ना नहीं चाहती थी मैं।

धीमे चलाते हुए लगातार सदा शांत रहने वाला मेरा मित्र कुछ बोले जा रहा था।

" जानती हैं आप हमारी शक्ति का अधिकांश भाग बोलने में क्षय हो जाता है। फिर हम अपने ध्येय पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते हैं। इस बीच जब से दुबारा आपसे मिला हूं, बहुत बातें करने लगा हूं मैं। कल मेरे चाचा जी आए हैं। मेरे दोस्त जैसे ही हैं। उनसे चर्चा की मैंने आपके बारे में। उन्होंने सलाह दिया है कि अगर जीवन में कुछ हासिल करना हो, तो पहले स्वयं को किसी काबिल बनाओ।"

हालांकि बाइक धीमे चल रही थी और मैं एक ही तरफ दोनों पैर रख कर बैठी थी। हेलमेट पहने होने की वजह से उसकी आधी बातें जो सुनाई दे रही थीं और मैंने निष्कर्ष निकाला कि मुझसे बात करके उसकी पढ़ाई डिस्टर्ब हो रही है।

" ठीक है, मुझसे बात करना बंद कर दो।"

घर के सामने के मोड़ तक पहुंच चुके थे हम। गाड़ी रोकते हुए हेलमेट उतारा उसने। उतर चुकी थी मैं भी।

" बंद तो नहीं करूंगा पूरी तरह, लेकिन कम करूंगा। जब से आपसे बात शुरू की है, दिमाग में आप ही छाई रहती हैं हर समय। आपको तो पता भी नहीं होगा कि मेरे सारे दोस्त कहते हैं स्कूल के समय से कि आपका दीवाना हूं मैं।"

जोर से हंस पड़ी थी मैं।
" मजाक करते होंगे तुम्हारे मित्र। स्कूल समय में तो हमारी लड़ाई ही ज्यादा हुई है। दोस्ती तो सच मानो अब शुरू हुई।"

अपनी बात का पक्का निकला वो। वैसे भी जिद्दी तो था ही शुरू से। कभी कभार कॉलेज के विशाल प्रांगण में कहीं से आता जाता दिख जाता दूर से ही प्यारी सी मुस्कान देते। विषय सारे अलग थे हमारे, हिंदी और इंग्लिश की कक्षा में कभी कभी साथ होते। उसमें भी वो लड़कों के साथ और मैं लड़कियों के। यहां आकर सबको देख कर मैं भी यहां के बिना बोले नियम का पालन करने लगी थी।

इंटरमीडिएट के परीक्षा का आखिरी दिन, हमारे स्कूल के कुछ मित्र आने वाले थे हमारे कॉलेज। खुशी खुशी मैंने बताया उसे भी। और फिर हम सब लोग अपने दोस्तों को अपना कॉलेज दिखाने लगे। बातचीत के क्रम में गाने का दौर भी प्रारंभ हुआ और पहली बार सुना मैंने उसकी दिल को छूती आवाज - " दीवानों से ये मत पूछो , दीवानों पर क्या गुजरी है...।"

आज भी वह आवाज और गाने वाले की गहरी मुझे निहारती आंखें वैसे ही अंकित है हृदय में।

अब हमलोग स्नातक के छात्र छात्रा थे और विषय भिन्न था हमारा। कम ही टकराते थे कॉलेज में। हां, घर कभी कभार आता था वह और हमारे स्कूल के मित्र रीतेश के घर हमारा अड्डा जमता रहता था, जहां हम सब एकत्रित होते।

उस दिन स्नातक का दूसरा वर्ष था और साथ ही लौट रहे थे हम कॉलेज से। अपना चिर परिचित प्रश्न फिर से पूछा उसने।

" आपने कभी सोचा मेरे बारे में।"

एक क्षण के लिए जवाब देते नहीं बना था। किसी तरह अपने भाव को नियंत्रित करते हुए जवाब दिया था मैंने।

" जिसे पूछना चाहिए ये प्रश्न, उसने तो पिछले चार साल से नहीं पूछा।"

" क्या मतलब आपका।"

फिर नियंत्रण तोड़ कर सैलाब बह निकला। बताया उसे मैंने अपनी पसंद के बारे में, सालों से चल रही प्रतीक्षा के बारे में और अपनी दीवानगी के बारे में। साथ में ये भी कि आज तक उससे बातचीत नहीं हुई मेरी हालांकि वह भी मुझे पसंद करता है, यह अंदाज है मुझे।

तुरंत संभल गया वह।

" आपने बताया नहीं कभी कि वो आपको पसंद है। आने दीजिए इस साल दिल्ली से उसे। बात करता हूं मैं। अच्छी तरह जानता हूं उसे।"

कुछ दिन बाद कॉल बेल के बजते ही दरवाजे पर खड़ा था वह।

" मैंने बात की हर्ष से तुम्हारे बारे में। मिलना चाहता है तुमसे।" अपने उतावलेपन में गौर नहीं किया उसकी आवाज को मैंने।

और मुलाकात भी कैसी। कहां मैं दूर से देख देख कर उसके लिए पागल थी, कहां मुझे जानता तक नहीं था हर्ष। लेकिन जिद्दी तो मैं भी कम नहीं थी। जो चाहिए सो चाहिए।

उसी की वजह से आज मेरी और हर्ष की दोस्ती हो चुकी थी। हर्ष ने बताया बाद में कि पूरी पूरी रात साथ में बैठ कर या कभी चाय पीते हुए हमेशा तुम्हारी तारीफ की उसने। तुम्हारी खासियतों के बारे में इतनी बार बताता रहा कि मेरी तुममें रुचि जगने लगी।

आज भी आश्चर्य होता है ये सोच कर कि कैसे एक युवा किसी और को विवश कर सकता है उस लड़की को चाहने के लिए, जिसे सालों से वो चाहता रहा हो।

लेकिन जीवन बढ़ने का नाम है। मेरी तरफ से निराश होकर मुहल्ले की एक सुंदर सी लड़की पर दिल आ गया था उसका। कभी कभी बताता - " सुंदर है और खूब घमंडी भी, पर अच्छी लगती है मुझे। फिर हंस कर कहता -

" मुझे पता है , ना हर्ष आएगा आपके जीवन में, ना ये मैडम हिम्मत करेंगी कभी। वास्तव में ना हर्ष आपके लायक है,ना ये मैडम हमारे। देखिएगा आखिर में हम दोनों ही साथ होंगे। फिर हम दोनों अपने अपने प्यार की तस्वीर सामने रख कर , बैठ कर साथ रोएंगे और आंसू पोछेंगे एक दूसरे के।"

फिर खूब हंसते हम हर्ष और उसकी गर्ल फ्रेंड के टेढ़ेपन का मजाक उड़ाते हुए।

रिजल्ट आने वाला था उस दिन हमारा। हाथ तोड़ कर बैठा था वो। तो उसका रिजल्ट भी मुझे ही लाना था। कॉलेज का सेकंड टॉपर था अपने विषय का। जैसे ही घर पहुंचे हम, अच्छे रिजल्ट का क्रेडिट भी हमें ही। तुमने लाया इसलिए इतना अच्छा रिजल्ट है।

और शीघ्र वो दिन आ गया जब वह निकल रहा था दिल्ली के लिए। धुन लग गई थी उसे कि तैयारी करनी है दिल्ली जाकर। छोटा भाई आया था मुझे बुलाने।" दीदी, चलिए, भैया बुला रहें।"

बार बार एक ही आग्रह -" तुमलोग को बहुत मिस करूंगा। मुझे पत्र जरूर लिखना। हरेक हफ्ते एक पत्र। ये मेरा पता है। जरूर लिखना"

पत्रों का आदान प्रदान चलता रहा शुरुआत में हरेक हफ्ते, फिर महीने में एक दो से घटते हुए अब कभी दो तीन महीने में लिखती थी पत्र मैं। सूचना मिलती रहती थी उसके बारे में चाची या छोटे भाई के द्वारा। जब भी कोई फल आता उसके बगीचे में, चाची भिजवा देती या कभी कभी खुद आ जाती ये कहते हुए कि सौरभ को बहुत पसंद है, वो यहां है नहीं तो उसकी प्रिय दोस्त के लिए ले आई मैं, तुम भी तो बेटी हो मेरी।
बड़े होते गए हम, पहले दोस्त सब अलग हुए, फिर अपने शहर जाना भी कम होता गया।

पता नहीं चला कब पच्चीस वर्ष बीत गए। आज बिटिया समेत पहुंची थी मैं प्रकृति के गोद में बसे दक्षिण के स्कॉट लैंड कहलाने वाले प्रदेश मडिकेरी में। घर- नौकरी की जिम्मेदारियों से अलग यहां की अद्भुत शांति मन को मोह रही थी। बिटिया भी खुश थी यहां आकर उसके लिए तमाम तरह के क्रिया कलाप उपलब्ध थे। सुबह की शुरुआत हुई मनमोहक कॉफी बागानों की सैर से हमारी, फिर हम निकल गए मडिकेरी से 48 किलोमीटर दूर तलकावेरी - कावेरी नदी की उद्गम स्थल तरफ, जिसका कहते हैं यहां के लोगों के लिए धार्मिक दृष्टि से बहुत महत्व है।

दूसरे दिन हमने अब्बे झरना तरफ निकल कर खूब मज़ा किया। निजी कॉफी बागान के भीतर इस झरने को देखने पर्यटक बड़ी संख्या में आते हैं। मॉनसून होने की वजह से प्रकृति अपने सुंदरतम रूप में सजी थी। यहां आकर लग रहा था कि पुन:अपने पुराने दिनों में पहुंच गई हो, ना नौकरी की चिंता ना घर की, बस आंखें खोलते ही स्वर्गीय सुन्दरता वाला यह प्रदेश दिखता खिड़की से और एक फोन कॉल पर खाने नाश्ते का सारा इंतजाम भी।

बिटिया के साथ अपने लिए भी खूब शॉपिंग की थी मैंने इस ट्रिप के लिए - स्लिट वाले स्कर्ट, फ्लोरल टॉप्स, कुछ कैजुअल ड्रेस और सही में लग रहा था कि फिर से अपने बीसवें इक्कीसवें वर्ष में पहुंच गई हूं।

आज सुबह जल्दी नींद खुली, दरवाजा खोल कर इस मनोरम रिसॉर्ट के पाथवे पर घूमने लगी। रिसॉर्ट सच में बहुत सुंदर था और चारों तरफ की हरियाली इसके सुन्दरता में चार चांद लगा रही थी। रिसॉर्ट के उस स्थान से पहाड़ियों के पीछे से निकलते सूर्य की लालिमा देख ठिठक गई क्षण भर।

अचानक लगा किसी ने धीमे से कहा हो - " आप आज भी नहीं बदलीं।"

किलक उठा मन - "तुम।"

अपनी स्नेहिल स्मित लिए मेरे चेहरे को एकटक निहारते खड़ा था वही पुराना प्रिय मित्र। भावावेश में कस कर थामा हाथ उसने, कुछ क्षण उसी आवेग में खड़े रहें दोनों।

" आओ, वहां बैठते हैं।"

पहली बार हाथ बढ़ाया उसने मेरी तरफ और अब उसका हाथ कंधे पर था मेरे।

अपने कंधे पर रखी उसकी बाहों की ऊष्मा को मेरे शरीर का पोर पोर महसूस कर रहा था। बीच के सारे साल कहीं विलीन हो गए थे। गगन की लालिमा का स्थान धीमे धीमे खिलती सुबह लेते जा रही थी।

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