मांजी के नाम की पाति Medha Jha द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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मांजी के नाम की पाति



फेसबुक खोलते ध्यान गया अपूर्वा का, कोई मैसेज आया था।

' मांजी, नहीं रही। ' - नील का मैसेज था।

एक क्षण के लिए शून्य हो गया उसका दिमाग। वात्सल्य से भरी मांजी का चेहरा घूम गया नजरों के सामने।

गांव के उस शानदार हवेली में प्रवेश करती दुल्हन अपूर्वा घानी रंग के सिल्क की भारी साड़ी और आभूषणों को संभाल रही थी और अगल बगल को भी दृष्टि से आंक रही थी। कैसा होगा ये नया घर, कैसे अपनाएंगे लोग यहां के। मन एक तरफ तो आशंकित था, दूसरी तरफ उसको विश्वास था उन बातों पर, जोकि मांजी और बाबूजी से हुई थी उसकी। पता नहीं कैसा अपनत्व सा था उनके शब्दों में, अपूर्वा को यह ससुराल लग ही नहीं रहा था और तभी उसका ध्यान गया प्रेम से गाती महिलाओं की टोली पर, जिसमें आगे आगे जो बुजुर्ग महिला थीं तुरंत वो पहचान गई - मांजी। प्रथम दृष्टि में दोनों में एक सुंदर संबंध जुड़ चुका था।

प्रेम से परिछन कर बहू को अंदर ले जाया गया और अपूर्वा भी उन सारे रिवाजों का आनंद लेने लगी। सारे रस्म खत्म हुए , सारी औरतें अपने घर चली गई , सबका खाना पीना हो गया तो पता चला , मांजी किसी बात पर नाराज़ हो रही है। साथ आए छोटे भाई से जब पूछा तो जानकारी मिली, कि मांजी ने अपनी छोटी बहू के लिए अपने कमरे से निकलवा कर अपने पिता द्वारा शादी समय में दिया गया पलंग रखवा दिया था, पर बहू के घर से भी पलंग और सामान आए थे तो बाबूजी अब ये बहू वाला पलंग उस नए कमरे में लगवाना चाहते थे जो कि इन दोनों के लिए शादी पूर्व निर्मित हुआ था। अपूर्वा भी अपनी मां का दिया पलंग ही चाहती थी। सालों बाद जब और लोगों से सुना कि ससुराल क्या होता है, तब अंदाज हुआ उसे मांजी का प्रेम। अगले दिन भी वैसा ही दृश्य था, सब लोग नई दुल्हन और मायके से आए सामान देखने आ रहे थे। मांजी तारीफ कर करके सबको दिखा रही थी कि सारी साड़ियां सिल्क की हैं, सारा सामान इतना अच्छा है। अपूर्वा भी गर्व से भर गई कि सच में उसकी मां ने दिया ही है इतना अच्छा सामान। ये भी बाद में ही समझ पाई वो कि अगर ससुराल वाले तारीफ कर रहे, तो ये उनकी खासियत होती है, नहीं तो लाखों दहेज और सामान के बाद रोते ही नजर आते हैं वर पक्ष।

पता नहीं, लड़कियां सास और ससुराल से इतना क्यों भड़कती हैं। उसके लिए तो वहां बिताए दिन आनंद से भरे होते थे । जब जाओ, कई प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन तैयार करती थी मांजी। २२-२५ साल की अपूर्वा को तब ये दुनिया का सबसे बड़ा कष्ट लगता था। कई बार चिढ़ जाती थी कि कितना खिलाती हैं मांजी। सुबह सुबह चाय। आठ बजते बजते पूरी, एक सूखी सब्जी ,एक गीली सब्जी, सलाद, भर कटोरा खीर और भी कई चीजें। देख कर ही डर जाती वो, कि कैसे खत्म करेगी इतना कुछ। खाना हजम भी नहीं होता कि बुलावा आ जाता कि दोपहर के खाने के लिए। खूब चिढ़ती वो मन ही मन कि ये कैसा प्यार है। तब कहां पता था उसे कि कितने नसीबों से उसे ऐसे लोग मिले। कहां तो लोग बहुओं को खाने तक के लिए नहीं पूछते ,कहां मांजी का पूरा समय रसोई में बीतता जब भी वो जाती। दोपहर के खाने में फिर से पूरा सचार लगाया जाता। सालों से हॉस्टल और फिर नौकरी करने के बाद रात में सब्जी रोटी बना बनाया मिल जाता , तो खुश हो जाते थे वो लोग। बहुत हुआ तो पनीर और पुलाव साथ में पापड़ , सलाद और मिठाई उनका वीक एंड स्पेशल खाना होता, कहां यहां रोज अलग तरह के पराठे, पूरियां, चावल के विभिन्न प्रकार, सूखी बड़ियां, कई तरह के साग सब्जी, मखाने का खीर और भी बहुत चीजें - जिन्हें वो मांजी स्पेशल कहती थी।

शादी के दूसरे दिन शौक से साड़ी पहना उसने। सीढ़ियों से उतर कर आ ही रही थी कि बाबूजी की दृष्टि गई।

'अरे, कहां से ये शहर की बच्ची साड़ी पहनेगी। आप तो आराम से सलवार सूट पहनिए। हमारी बेटी हैं आप।' स्नेह से मचल गया मन अपूर्वा का। यहां वो लोग उसका इतना ध्यान रखते कि खुद उसका मन होता कि खूब सेवा करें दोनों का।

दिन में पूरा समय उसका मांजी के कमरे में आराम से किताबें पढ़ते और बातें करते बीतता। इतनी सारी कहानियां थी मांजी के पास कि कभी खत्म ही नहीं होती। और तभी आवाज आती - ' समोसा लाया हूं। ले जाएं।' ये बाबूजी होते। मांजी हंस पढ़ती। इस खानदान के श्वसुर सब बहुत मानते हैं बहुओं को। और उनकी एक और कहानी अपने पिता समान श्वसुर की शुरू हो जाती कि जब बाबूजी प्रोफेसर बने थे और वो लोग इस कस्बे में आ गए थे तो भी उनके श्वसुर रोज सुबह घर का दूध लेकर पहुंच जाते और छोटा नील प्रेम से पुकारता कि दादा आए, चाय बनाओ मां। कहानियां इतनी सजीव होती, अपूर्वा को लगता सामने दृश्य चल रहा - दूध का कमंडल लिए एक स्नेह भरे बुजुर्ग और माथे पर आंचल संभालें चाय बनाती प्यारी सी बहू का।

शाम में बाबूजी के मित्रगण आ जाते। मुस्कुराती चाय लेकर अपूर्वा पहुंच जाती बरामदे पर, और बाबूजी के प्रोफ़ेसर मित्रों को कविताएं सुनाती और खूब वाह वाही पाती। बाबूजी ने कह रखा था कि अगली बार चुनाव में खड़ा करवाएंगे उसे। मन ही मन सपना बुनने लगी थी वो। सब मित्र और घर वाले कहते कि ससुराल जाकर फोन तक नहीं उठती वो। कहां से फोन उठाती, हर क्षण मां बाबूजी आस पास होते। बंधन सा महसूस होता उसे कभी कभी, पर ये ऐसा प्रेम का बंधन था, जिसे तोड़ना स्वयं वो नहीं चाहती थी। जब जाने के दिन नजदीक आते तो बाबूजी दस बार बाज़ार जातें। भर भर कर सामान आता अपूर्वा के लिए। दुकान में जाकर बोलते कपड़ों की, ' पटना वाली बहू अाई है, जो सबसे महंगा और सुंदर कपड़ा है वो चार पांच दे दो।' और आते ही घर पुकारते - ' देख लीजिए, जो अच्छा लगे, रख लीजिए या अगर सब पसंद है तो सब रख लीजिए। ' अपूर्वा भी सब की तारीफ करते हुए एक या दो सूट रख लेती और उसकी इस तारीफ से ही खूब खुश हो जाते बाबूजी। जब कहीं जाते तो अपूर्वा के लिए रंग बिरंगी मोतियों का माला , सुंदर हस्त शिल्प के ढेरों सामान लाते और उतनी ही चहकती अपूर्वा ले लेती उन्हें। मन ही मन गदगद हो जाते बाबूजी, दो पैसा के चीजों से भी कितनी खुश हो जाती हैं ये। उनको क्या पता, कि अपूर्वा इन चीज़ों से नहीं, उनके प्रेम से पुलकित हो रही होती है।

नील और उसकी मुलाकात भी अनायास ही हुई थी दिल्ली में, ज़ी टीवी के इंटरव्यू के लिए आया था नील और अपनी कंपनी के काम से गई थी वो वहां जी टीवी के कार्यालय में। दोनों प्रतीक्षा कर रहे थे रिसेप्शन पर और आपस में बात भी। उसी क्रम में नंबर का आदान प्रदान हुआ दोनों के बीच।

हमेशा से स्वछंद विचार की रही थी वो। मन में था कि जीवन साथी खुले दिमाग का होना चाहिए। और जब नील से भेंट हुई कुछ क्षण तक तय नहीं कर पाई वो। उधेड़बुन में ही अपनी शर्तें रखीं कि वो चाहती है कि शादी का पैग़ाम लड़के की तरफ से आए और नील राज़ी हो गया। उसने आराम से कहा कि अपूर्वा ये बात उसके पिताजी को कह दे। और अगले ही दिन अपूर्वा पहुंच गई फोन बूथ। फोन लगाया और फोन पर किसी बुजुर्ग की आवाज अाई।

' गोर लागय छी।' अपने तरफ के बुजुर्ग की आवाज सुनते ही स्वत: उसके मुंह से ये शब्द निकला नमस्कार के लिए।

उस तरफ के बुजुर्ग भी खूब खुश होकर आशीर्वाद दे रहे थे शायद ये शब्द सुनकर - ' खुश रहू। आबाद रहू। अहां के परिचय।'

' जी, हम , अपूर्वा। अहांक पुत्र नंबर देलखिन।'

बुजुर्गवर समझ गए अपनी होने वाली पुत्रवधू से बात कर रहे वो। बाद में उन्होंने बताया था कि जब अपूर्वा ने अपनी भाषा में प्रणाम किया, तभी उस शब्द से प्रभावित हो चयन कर लिया था उन्होंने उसे।

जानकारियों का आदान प्रदान हुआ और अपूर्वा ने अपनी बात रख दी कि वो चाहती है फोन लड़के के घर से जाए उसके नाना पास क्योंकि अपूर्वा नाना नानी की चहेती ही नहीं, उस घर की सबसे बड़ी बच्ची भी थी, जिसकी शादी की सब प्रतीक्षा कर रहे थे।

प्राचार्य रह चुके बुजुर्ग खुशी से मान गए और तुरंत नंबर ले लिया। अपूर्वा ने अगला फोन नाना को लगाया।

' नाना , एक लड़का देखे हैं अपने लिए। सब पूछ चुके। हमको पसंद है। उनके पिताजी फोन करेंगे। आप हां कह दीजिएगा।'

नाना ने प्रेम से बातें सुनी। सारी जानकारी ली - शहर, आय, परिवार के बारे में और अंत में पूछा - किस जाति का है?

' ब्राह्मण है, नाना। ' नाना खुश कि तब तो कोई दिक्कत ही नहीं है। जैसी वह थी, सब किसी भी परिस्थिति के लिए मानसिक रूप से तैयार थे और यहां सारी बातें अपने ही पक्ष में थीं। खुशी खुशी दोनों परिवार मिले, शादी तय।

बाद में मांजी ने बताया था कि वह कभी लड़की देखने नहीं जाती जब भी कोई बहू आती है। उनका कहना था सब लड़कियां सुंदर ही होती हैं अपने हिसाब से - ' मैं ही कौन बड़ी सुंदर हूं कि दूसरों को देखूं।' यही विचार उनका लड़की के घर से आने वाले सामान के लिए भी था - ' सब माता पिता अपने हिसाब से अच्छे से देते हैं। उसने कमी निकलना , उनकी बेज्जती करना है।' हतप्रभ रह गई थी अपूर्वा, आज तक लोगों को बढ़िया से बढ़िया लड़की और दहेज में कमी ही निकालते देखा और ये सामान्य सी दिखने वाली ये महिला इतने ऊंचे विचार वाली हैं। और जितने दिन वो लोग ससुराल में रहते रोज मांजी के साथ अगल बगल सोते। कहानियों का भंडार थी मांजी। रोज उनकी कहानियां चलती रहती, और नील और वो बेसुध सो जाते।

आज भी याद है उसको वो दिन। हैदराबाद में थे वो लोग। ऑफिस बस से उतर कर तेज क़दमों से बढ़ती जा रही थी अपूर्वा। साथ वाली मित्र जानती थी ये तेजी किसके लिए है। मांजी अाई हैं ना गांव से। उसे पता था चाय बना कर, खिड़की पर लटकी हुई वो इंतजार कर रही होंगी।

बालों के वेणी को ठीक करते ज्योति की हंसी खनकी - ' तुम कैसे इतना प्यार कर लेता सास को। मैं तो नक्को, कभी नहीं।' हंसी अपूर्वा भी, जानती जो थी कि महीने में पांच दिन आकर भी महीने भर के लिए पेल जाती है ज्योति की सास। रात में कई बार जगा कर फिल्टर कॉफी बनवाती हैं। एक ही फ्लोर पर रहने वाली ज्योति और अपूर्वा अच्छे मित्र बन गए थे।

अपूर्वा, बिहार की थी। शादी से पहले दिल्ली में कार्यरत थी। शुरू से घूमने की शौकीन अपूर्वा को जब हैदराबाद के प्रसिद्ध रामोजी फिल्म सिटी में काम करने का मौका मिला, तो पहले वो समझी नहीं कि क्या चीज़ है फिल्म सिटी। और जब नव विवाहिता अपूर्वा अाई तो फिल्म सिटी की भव्यता को देख कर कुछ क्षण तो उसका मुंह खुला रह गया। शहर ने भी जैसे बांहे पसार कर स्वागत किया उसका। और ये दिन और सुंदर हो जाते जब बाबूजी और मांजी आते। दोनों साथ कभी नहीं आते पर उनका आना उत्सव था उसके लिए। जब भी बाबूजी आते मांजी साल भर कर मसाला, घी, दाल, चावल, मखाना और कितनी चीजें भेज देती। मखाना को घी में तल कर पीस कर भेजती कि अपूर्वा नौकरीपेशा है, सिर्फ दूध में डाल कर बन जाएगा खीर। बाबूजी को लेकर जब रामोजी फिल्म सिटी दिखाने गई अपूर्वा, उसके सीनियर ने पूछा - ' तुम्हारे पिता हैं?' जवाब अंदर से स्नेह में आकंठ डूबे बाबूजी ने दिया कि रिश्ते में पुत्रवधू है पर है पुत्री जैसी उनके लिए।नील के विदेश जाने के बाद जब अपूर्वा बहन के पास दिल्ली आ गई थी तो भी बाबूजी उससे मिलने दिल्ली आते, और खूब घूमते अपूर्वा, बाबूजी और छोटी बहन उसकी। कितने खुशनुमा दिन थे वो।

और जब मांजी आती, अपूर्वा फरमाइश कर करके रोज नए व्यंजन खाती और सहयोगियों को भी खिलाती। वो ही नहीं, उसके सहकर्मी भी मांजी की प्रतीक्षा करते।

और उस दिन तो नील के गांव की परिचित अाई थीं। रोज के आदतानुसार वो बैठ गई एक थाली में अपना और मांजी का खाना लेकर। ध्यान गया उस महिला का, कि सास बहू एक थाली में - ये तो गलत है। मांजी हंस पड़ी थी, ये बेटी ही है। इसको कहां पता ये सब।

पता नहीं, किसकी नज़र लगी। दूरी बढ़ने लगी थी नील से उसकी जबसे वो विदेश गया था। दूरी इतनी बढ़ी कि परिवार को तय करना पड़ा, कि दोनों अलग हो जाएं। उसी बीच बाबूजी बीमार पड़े। पूरे अधिकार से उन्होंने फोन किया कि अपूर्वा घर आ जाए। शायद मन में था उनके कि इस तरह शादी बचा लेंगे वो। छटपटाती रही अपूर्वा , क्या करे, क्या ना करें। पता था उसे, एक बार चली गई तो इन दोनों से रिश्ता तोड़ना बहुत मुश्किल था उसके लिए। नहीं गई वो, हालांकि मन धिक्कारता रहा उसे। बाबूजी ठीक हो गए। कुछ महीने तनावपूर्ण रहे और अंतत: एक पेपर ने दोनों को अलग कर दिया।

आज भी मांजी के वो अंतिम शब्द कानों में हैं - ' अपूर्वा, तुमने कैसे छोड़ दिया हमें , अपने बेटे से ज्यादा तुम पर विश्वास था मुझे। '

सदा की वाचाल अपूर्वा खामोश थी उस दिन भी, आज भी। काश मांजी एक बार आपसे मिल पाती। काश एक पत्र भेज पाती, जो कि कई कई बार लिखा आपको अपने मन में।

वहीं स्नेहसिक्त चेहरा कौंधा मन में अपूर्वा के और अश्रु ढलक पड़े।