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वो पता

वो पता

साल २००० , जिंदगी का वह पहला सफ़र जब वो और सृष्टि पहुंचे थे मुंबई करीब ८ बजे संध्या। हां , मुंबई के लिए वो संध्या ही था, जिसे छोटे शहर वाले रात कहते हैं। मामा आने वाले थे लेने के लिए। स्टेशन पर गाड़ी में बिठाते हुए कितनी सारी हिदायतें दी गई थी दोनों को - किसी से ज्यादा घुलना - मिलना नहीं, खाना या पानी मत लेना दूसरे से। मामा से मिलते ही फोन करना।

दोनों इतने खुश थे और समझ रहे थे कि मम्मी की नजर में अभी भी वो छोटे हैं पर वास्तव में तो बहुत समझदार हो ही चुके हैं। दोनों एक परीक्षा देने जा रहे थे मुंबई।

करीब डेढ़ दिन का रास्ता बाहर के मनोरम दृश्यों को निहारते, नये शहरों से गुजरते, अंत्याक्षरी गाते निकल गया और आज शाम वो पहुंचने वाले थे सपनों के शहर मुंबई।

छोटे शहर की इन लड़कियों को पता भी नहीं था कि इतने सारे स्टॉपेज होते हैं एक शहर में। कुर्ला स्टेशन पर उतरना था उन्हें पर उतावलेपन में दोनों उतर गए मुंबई के किसी और स्टेशन पर। अब उनकी आंखें खोज रहीं थी मामा को। किसी से पूछने पर पता चला कि कुर्ला स्टेशन तो आगे है।

एक क्षण के लिए दोनों मित्र सोच में पड़ गए। पर अपनी समझदारी पर तो विश्वास था ही उन्हें। निकाला पर्स में पड़ा मामा का पता और लोगों से पूछ कर उस स्टेशन का टिकट ले लिया।

मुंबई का लोकल ट्रेन। पहली ही बार देखने का मौका लगा था दोनों को। पता भी नहीं चला कैसे भीड़ ने उन्हें चढ़ा दिया। रात्रि के १० बज चुके थे। कोई अंदाजा भी नहीं था कि मामा के घर वाले स्टेशन कब पहुचेंगे।

पहली मुंबई यात्रा थी। परीक्षा के बाद मुंबई घूमने का कार्यक्रम था इसलिए हर दिन के लिए एक नया ड्रेस भी रखा गया था। सामान काफी भारी था।

बहुत सारी कहानियां पढ़ रखी थी मुंबई की। लोग तेज होते हैं। लड़कियों को बेच देते हैं , अपराध नगरी है। मीरा नायर की फिल्म ' सलाम बॉम्बे ' का दृश्य घूम गया दिमाग में।

अपने हिसाब से एहतियात बरतते हुए पता दिखाया एक वृद्ध माताजी को - " कितना समय लगेगा यहां पहुंचने में।"

माता जी ने पता देखते हुए दोनों किशोरियों को ध्यान से देखा और पूछा - " कौन है साथ में। किसके पास जा रही हो।"

" हम दोनों ही हैं।" थोड़ा धीरे से बोला उसने कि कोई अन्य ना सुने पर ट्रेन में सब व्यस्त थे।

माताजी ने बोला - " अभी जाना ठीक नहीं है। बोईसर - ये जगह बहुत दूर है यहां से। रात के करीब १ - १:३० बज जाएंगे।"

जोश की कमी नहीं रही थी दोनों में। और साथ थे दोनों , तो मन मजबूत था - " चले जाएंगे हम। कोई दिक्कत नहीं है।"

वह सहृदय महिला समझ गई दोनों के जोश को। फिर से समझाया उसने - " ये मुंबई से दूर है और रात में सवारी नहीं मिलेगी तुम्हें वहां। बहुत छोटा सा स्टेशन है , जहां प्लेटफॉर्म भी नहीं है और रात में ज्यादा लोग नहीं होते वहां।"

अब समझ में आने लगा था दोनों दोस्तों के। मामा इंजीनियर थे और उनका घर उनके साइट के नजदीक ही कहीं सुदूर मुंबई में - बोईसर में था। इन लड़कियों के लिए मुंबई मतलब मुंबई था। समझ में आ रहा था उनके कि बहुत बड़ी गलती कर चुके थे वो। महानगर से उनका ये पहला परिचय जो था।

अचानक ध्यान आया जेब में पड़ा वो पता। स्टेशन पर बहुत सारे मित्र और सहपाठी आए थे छोड़ने - पहली मुंबई यात्रा जो थी ग्रुप में किसी की। रंजू , उसकी सहपाठी, एक उपहार लेकर आई थी अपने बहन बेटे के जन्मदिन के लिए, उसकी बहन मुंबई में ही रहती थी। उपहार एवम् उनका पता दिया था उसने पहुंचाने के लिए।

सृष्टि ने पता निकाला। माताजी ने देखकर कहा - "यह तो कल्याण का पता है। अब बस 10 मिनट पर आने वाला है कल्याण। बेहतर है तुम लोग वहीं रुक जाओ आज रात।"

सामान सहित दोनों उतरे स्टेशन पर। टैक्सी में निकले उस पते की तरफ। मुख्य मार्ग से होती हुई अब टैक्सी गलियों में दौड़ रही थी। अगल बगल का दृश्य बहुत अच्छा नहीं लग रहा था दोनों को। रात का समय उनके डर में और इजाफा ही कर रहा था। तभी अजीब सी हंसी हंसते कमर पर हाथ डाले युवक-युवती का एक जोड़ा निकला गली से। लड़कियों के लिए यह सब दृश्य नया ही था। टैक्सी अब रुक गई थी। टैक्सी वाले ने कहा - "आ गया आपका पता।" दोनों मित्र थोड़ी भयभीत थी अंदर से, पर ऊपर से सहज दिखने का प्रयास कर रही थी। बगल से निकलते एक बुजुर्ग से उन्होंने पता कंफर्म किया। सही पता था वह।

पहुंच चुके थे दोनों मित्र १२बजे रात्रि को एक सहपाठी की बहन के घर, जिस बहन से सिर्फ एक बार मुलाकात हुई थी उनकी एक शादी में।

थोड़ा घबराते हुए कॉल बेल बजाया और जिस महिला ने आंखे मलते हुए खोला दरवाजा - दोनों ने तुरंत हाथ थामा उनका - "पहचाना , सीमा दीदी। ये पता रंजू ने दिया हमें और आपके बेटे के लिए ये उपहार।"

एक - दो क्षण लगे उन्हें, अपनी बहन के लिखे एवम् उपहार को देख कर अधरों पर परिचित मुस्कुराहट आई और साथ ही इन दोनों की जान में जान।

"रंजू की दोस्त हो ना तुम दोनों।"

"जी दीदी , हमारे मामा आने वाले थे लेकिन हम लोग गलत स्टेशन पर उतर गए। बस आज रात आपके यहां रुकना चाहते हैं। कल सुबह ही चले जाएंगे।" जल्दी - जल्दी सब बता देना चाहते थे दोनों।

"हां, हां, आओ ना। तुम्हारे जीजा जी भी देर से ही आते हैं कोई दिक्कत नहीं है।"

"अच्छा ,ऐसा करो पहले अपने घर में एक बार फोन कर दो कि तुम लोग पहुंच गई हो।" दीदी ने कहा।

सच में वो लोग तो अपने तनाव में भूल ही गए थे मामा और घर को।

और जब पहला फोन उससे लगाया मामा को। घबराहट से मामा की आवाज कांप रही थी। स्टेशन पर कई बार अनाउंसमेंट करवाया था उन्होंने। पुलिस ने रिपोर्ट करवा चुके थे।

"कहां हो तुम लोग ? ठीक हो ना? अभी आता हूं मैं लेने। " एक बार में ही जैसे सब पूछ लेना चाहते थे मामा।

फोन दीदी ने थाम लिया था - "मामा जी, आप चिंता ना करें। मेरी बहन की दोस्त हैं यह लोग और मेरे यहां पूर्णत: सुरक्षित है। अभी आप वहां से निकलेंगे भी तो सुबह हो जाएगी पहुंचते हुए । सुबह मैं इनको ट्रेन में बिठाकर भेज दूंगी।"

किसी तरह मामा आश्वस्त हुए।

अगला फोन मम्मी को। घर में कुहराम मचा था शाम में मामा के फोन के बाद से ही। मुंबई में खो गई मेरी बिटिया। मम्मी ने बिस्तर पकड़ लिया था। पापा पूजा घर में पूजा पर बैठे थे।

उन दोनों से बात कर शांति हुई सब लोगों के मन में।

अगला दिन बाल ठाकरे साहब के समर्थकों ने हंगामा बरपा रखा था। मुंबई बंद थी और हमारी परीक्षा भी १० दिन आगे बढ़ गई थी।

अगले ५ दिन उस प्यारी नई बनी दीदी ने हमें ना तो जाने दिया मामा के घर क्योंकि बाहर माहौल ठीक नहीं था और आवभगत तो ऐसी हुई मानो उनकी खुद की बहन आई हो।

पांचवे दिन माहौल सामान्य होने पर मामा आए लेने। कई क्षण तक गले लग रोते रहे मामा।

आज तक दुबारा नहीं मिली उस दीदी से। पर हृदय से प्रणाम करती हूं दीदी तुम्हें, जिसने एक लगभग अपरिचित लड़कियों को ना सिर्फ रात में सहारा दिया बल्कि बड़ी बहन वाला प्यार भी दिया।

मानवता तुम्हारे जैसे लोगों से ही जिंदा है।

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