उस रात का खसारा
इंसान की पेचीदगी भी क्या गुल खिलाती हैं..
ना खुद हद्द में रहती हैं ना औरों को रहना सिखाती हैं...
ज़िन्दगी में कभी एक भी लंबे वक़्त का ठिकाना ना हुआ... जवानी के दौर में क्या बचपन से ही कंधो पे घर की ज़िम्मेदारीयों का एहसास हो चला था... दौर बदलते ज़माने की होड़ का था.. वालीदानों के उस दौर में 100/- रुपए की पगार में घर के 6-7 लोग पल जाया करते थे.. लेकिन कमबख्त आज के इस ज़माने में अपनी ही पगार में खुद भी ना पल पा रहें हैं... जितना कमाओ उतना कम... महीने के आखिर से पहले खुद के पेट क्या कमबख्त किचन के डब्बे खाली हो चले होते हैं... सही मायने में देखों तों बहुत सही भी हैं और नहीं भी हैं सही उनके लिए हैं जो जिम्मेदारियों का फ़र्ज़ नौकरी करके अपनों का पेट पाल रहें हैं और ना सही उनके लिए हैं जो सिर्फ अपना भी पेट नहीं पाल पा रहें हैं..
आज ऑफिस की वेबजह की मच मच से मूड़ कुछ ज्यादा ही खराब था.. नए नए लोंडे लोंड़िया भी क्या कमाल कर रहें हैं.. आज के इस ज़माने में हुनर की कोई औकात ही नहीं रही.. जो 20 साल के तज़ूर्वे कारो की बेज्जती करने में जरा भी संकोच नहीं करते... वर्मा जी अपनी जगह एकदम सही थे उन्होंने क्या गलत बोला था.. मैं भी सुन रहा था और गलत बात जो सुनने की जो मुझे आदत नहीं थी... मैंने क्या वर्मा जी की पैरवी कर दी के कंचन के चाहने वालों की तों मेरे खिलाफ एक फौज ही ख़डी हो गई.. इतना ही नहीं महाशय बड़े सहाब भी कंचन की गलतियों पे पर्दा डालते हुए उल्टा वर्मा जी को ही लताड़ दिया... और उन्हें ही काम से चलता कर दिया... क्या ज़माना आ गया..
यही सोचते सोचते मैं घर आ पहुंचा था... हालांकि इस शहर में मैं नया था... लेकिन मैं अपनी कम्पनी का वर्षों पुराना मुलाजिम था... लेकिन आज तक मेरे सीनियर ने कभी भी इस तरह की नौबत ही नहीं आने दी... यही सोचते हुए मैंने अपनी गाड़ी अपर्टमेंट के बेसमेंट में ख़डी की अपना बेग उठाया और थकान भरे कदमों से अपने आशियाने की और जाती हुई सीढ़ियों पर चढ़ता गया..
उफ्फ... ये पांच माले तक रोज़ का चढ़ना उतरना भी क्या सजा देता हैं...जब थकान हो जाए जिस्म ए ज़ेहन में ये चढ़ना उतरना भी थका देता हैं....क्योंकि अभी फिर फ्रेश होके जो मुझे नीचे ही आना हैं... पर मैं ऐसा तों कर नहीं सकता के दिन भर का बोझ लेकर फेमस स्ट्रीट पर लादा फिरूं इस बोझ को तों नहाना कर ही उतरारना होगा .. हाय शाम ये शाम की कमबख्त तन्हाई... ये शाम की तन्हाई भी चैन से कहा बैठने देती हैं....इससे भी तों पिंड छुड़ाना हैं नहीं तों पूरी रात से नींद भी खफा हो जाती हैं....
ना ना ना... ये क्या.....अरे हुज़ूर ये तन्हाई किसी माशूका के चक्कर की नहीं हैं... हम्म....अब क्या बताएं इस ज़िन्दगी में इश्क़ की तन्हाई भी मेरे ख्याल से किस्मतगारों को ही मिलती हैं... अरे सहाब काश ऐसी किस्मत भी जो हमारी होती.. तों कमसे कम उसी की ही तन्हाइयों में जी लेते..लेकिन ये तन्हाई तों खून के अपनों ने ही नवाज़ी हैं जिनके लिए कतरा कतरा जिए जा रहें हैं
जिनके लिए मैंने अपने आपको जिम्मेदारी की आग में झोका था आज उन्ही को मैं नापसंद ना मुराद हूं.. मेरे अपनों की हसरतों की मंज़िलों को दिलाने के फेर मैं खुद ही बेमंज़िली की राह पर रहा...अब तों बस मज़बूरी सी हैं ज़िन्दगी जीने की..अभी आधी से ज्यादा उम्र जो पड़ी हैं काटने को..अब इस ज़माने में कौन हैं अपना ज़िन्दगी तों जीनी ही पड़ेगी.... इसलिए इस अकेले की ज़िन्दगी में भी कोई कम भगदौड़ थोड़े ही हैं.. अब देखो ना रोज़ दिन भर की ज़िन्दगी ए दम को नापने के बाद भी कुछ पल कहां सकून के मिलते हैं.. लेकिन एक उमंग सी रहती हैं के शाम को घर पहुंचने के बाद चलो थोड़ा तों सुकू तों मिलेगा लेकिन कमबख्त ये उदासिया भी कभी पीछा छोड़ती हैं सारे सुकू पे गिद्ध सी नज़रे गड़ाये रहती हैं. जैसे जैसे शाम का वक़्त होता हैं के उदासीयां सिमटने लगती हैं. फिर चाहे टीवी पर कोई अप्सरा ही क्यों ना जिस्म ए नुमाइश कर रही हो लेकिन ये उदासिया भी कहां किसी पर मन लगाने देती हैं. जिसे मिटाने के लिए मैं इलाके की शाम ए रौनक के दीदार को निकल पड़ता हूं ...यहां मुझे ज्यादा कोई जनता पहचानता भी नहीं पर हां फिर भी दो चार लोगों से तकज़े भर की दुआ सलाम की रफ्तारगी बढ़ती जा रही हैं...आज मैं जिस जगह का ज़िक्र कर रहा हू अमूमन ऐसी जगहे हर शहर में बन ही जाती हैं जहां शहर भर के तमाम लोग यहां इकट्ठा होकर अपना समय बिताने के वास्ते खसारा को चले आते हैं...लेकिन ज़िन्दगी में हर एब या लत को नफा से भी तों नहीं जोड़ सकते...
तभी दरवाज़े पर जोर से दस्तक हुई थी...
अब ये कौन विराने की ज़िन्दगी में आन पड़ा...इतना बड़बड़ाते ही मैंने अपने रिछ नुमा अधनंगे जिस्म को लिवास ए सुपुर्द करते हुएमैंने दरवाजा खोला था के एक बद हबास सी मोहतरमा सीधे अंदर दाखिल होते हुए उसने जल्दी से दरवाजा बंद कर लिया... मेरे तों फाकते से उड़े हुए थे...ऐसा माज़रा ए वाकिया मेरी ज़िन्दगी में पहली दफा हुआ था... मोहतरमा निहायती घबराहत में थी उसका दम फूल रहा था वो अपनी संसो को काबू करने की मशक्कत में लगी थी... साथ ही वो मुझे दरवाजा ना खोलने देने का हिदायतें इशारा कर रही थी..मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था पर हा उसके हालत ए जिस्म को देख कर मैं कुछ कुछ समझने की कोशिस जरूर कर रहा था.. तभी फिर दरवाजे पर दस्तख हुई.. तों वो रोते हुए हांथ जोड़ कर इशारे में मुझसे मिन्नतें सी करने लगी थी.. और वो छुपने के लिए इधर उधर देखतें हुए किचन की तरफ भागी थी... जब तक दरवाजे पर दस्तख कई बार हो चुकी थी..तब मैंने मन ही मन सोचा मोहतरमा से तों बाद में समझ लूंगा पहले ये बहार वाले से तों सुलझ लूं... और मैंने बडबडते हुए दरवाजा खोला...
क्या मुसीबत हैं यार सुकून से हल्का भी नहीं होने देते हैं लोग...बोले क्या बात हैं..?
यहां कोई औरत तों नहीं आई...
अमा यार मुझे वामुश्किल 15 मिनट ही हुए हैं दफ्तार से आए हुए... और सीधे हल्का होने गुसलखाने को हो लिया... इस बीच में कोई बाहर आया हो तों पता नहीं..भाई खा...
उसने कमरे के अंदर निगाहें घुमाते हुए कहा
माफ़ करना भाई.. शायद ऊपर को गई होंगी और वो ऊपर की तरफ सीढ़ियां चढ़ते हुए ऊपर को चला गया मैंने फ़ौरन दरवाजा बंद करके सीधे बबर्ची खाने में पहुंचा... मेरे पहुंचते ही वो मोहतरमा मेरे कदमों में गिर पड़ी थी... मैंने उसे उठाते हुए कहा था
आप जो भी हैं...यहां आप मेहफूज़ हैं... कुछ हद तक मैं आपकी परेशानी को समझ गया हूं इस वक़्त मैं अभी बाहर जा रहा हूं... एकाद घंटे से लौट आऊंगा.. नहीं तों वो लोग अभी घर की तलाशी लेने को कहने लगेंगे... अगर मना करूंगा तों उन्हें शक होगा... आप यही रहना... मैं आता हूं...
और मैं जल्दी से अपने कपड़ो को ठीक करता हुआ अपने कमरे की लाइट बुझा कर बाहर निकल कर ताला लगा ही रहा था तों वही आदमी हफता सा उतरता आ रहा था उसके मेरे नज़दीक आते आते तक दरवाज़े में ताला जड़ दिया था..
कहां जा रहें हैं आप...?
अकेला आदमी कहां जाएगा.. होटल जा रहा हूं.. क्या हुआ जिसको आप ढूंढ रहें थे मिली वो...?
साले इस्तला देने वाले ने शायद मुझे गलत इस्तला दी हैं...
हो सकता हैं ये बाजू वाली बिल्डिंग में हो...
और मैं सीढ़ियां उतरने लगा था वो भी मेरे पीछे पीछे आ रहा था...
भाई अगर बुरा ना माने तों वजह पूछ सकता हूं..?
तुम अपना काम करों....!
उसने थोड़ा कड़क लहज़े में जवाब दिया था इतना सुनकर मैं चुप हो गया और तेजी से सीढ़ियां उतरते हुए फेमस स्ट्रीट की और निकल आया था. मन में बहुत सारे ख़्यालात उमड़ रहें थे... डर भी लग रहा था... बार बार ज़ेहन में यही बात आ रही थी के कही कुछ गलत तों नहीं किया. मैंने.... कोई मुसीबत तों नहीं आन ख़डी हुई... क्या मुझे उस मोहतरमा को इस तरह अपने घर में रखना ठीक था... या उस हावसी के हांथो में उसे सुपुर्द करना ठीक था इन्ही ख्यालातो के चलते शाम की रौनक का शवाब का कब अपने शावाब में आया और ढल गया उस तरफ में देख ही नहीं पाया था... पेट में आंते गुलाटिया मारने लगी थी 2 घंटे का वक्त कब गुज़र गया महसूस ही नहीं हुआ था... फिर भूक के चलते उस मोहतरमा का भी ख्याल आया तों उसके लिए भी खाना पैक करा लिया था... और उन्ही उलझें सवालों के साथ मैं अपने फ्लेट की तरफ कदम बढ़ा दिए....
फ्लेट का दरवाजा खोलते ही मैं जल्दी से अंदर हो लिया था और अंदर आते ही जल्दी से दरवाज़े बंद कर लिए थे.. हालांकि आते वक़्त ऐसा कुछ खतरा महसूस तों नहीं हुआ था पर कही ना कही मन में थोड़ा डर तों था ही. मैंने कमरे की लाइट जलाई और सीधे बाबर्ची खाने की तरफ हो लिया... अंदर आते ही मैंने देखा के मोहतरमा एक कोने मैं ज़मीन पर दीवाल से सट कर बैठी थी... मुझे देखते ही उसकी आंखों में चमक सी दौड़ गई.. ज़िन्दगी में पहली बार इस तरह किसी गैर औरत के साथ का वाक्या पहली बार हो रहा था...मैंने उसे खाने का पैकेट देते हुए कहा..
लों खाना खा लों...
उसने बिना किसी एतराज़ के खाने की पॉलीथिन लेली..शक्ल सूरत और पहनावे से वो अज़ीम लग रही थी लेकिन किसी ना किसी परेशानी के चलते उसकी आज़र्दाह साफ दिखाई पड़ रही थी..मैंने खाने के लिए एक प्लेट उसकी तरफ बढ़ा दी
लों इसमें रख कर खा लों...!
और आप...? उसने एक धीमी सी आवाज़ में मुझसे पूछा था... उसके इस तरह से पूछने के चलते सोच के घेरे में सिमटने सा लगा था... आज तक किसी अपने ने भी मुझसे इस तरह खाने के लिए नहीं पूछा था... इस गैर अजनवी के मुंह से निकले ये अलफ़ाज़ मेरे जिस्म के अंदर सिरहन सी पैदा कर गए...
आप कहा खो गए... क्या आपने खाना खा लिया..?
न... नहीं..?
फिर..?
अ... हां... य... ये हैं मेरा खाना...!
और मैं भी एक प्लेट लेकर उसके ही सामने दूर को बैठ गया था...और प्लेट में खाना निकलते हुए ना जानें क्या क्या सोचने सा लगा था... जब पहला निवाला मैंने मुंह में लेते हुए उसे देखा तों मेरा हाथ मुंह के पास ही जा कर रुक गया... क्योंकि उसके खाने के तौर को देख कर लगा के वो शायद काफी भूखी हैं... क्योंकि अब तक वो दो चपातिया खा चुकी थी.. वो खाना खाने में मशगूल थी... तब तक मैंने अपने खाने मेसे अपनी प्लेट में सिर्फ तीन चपातियां निकल अलग रख दी और सालन तों वैसे ही मैंने कम ही लिया था जिसे मैंने उसकी तरफ को बढ़ा दिया... वो कहते हैं ना भूख ही हैं जो इंसान को ज़मी पर ला देती हैं.. भले इंसान कितना भी मारुफ़ीयत कमा लें लेकिन वो अपने जीने की शुरुआत पेट को भरने से ही करता हैं... लेकिन इंसान भी कितना बड़ा जानवर हैं के भूख को मिटाने के लिए कितना गिर जाता हैं फिर वो कोई भी भूख क्यों ना हो....
खाना खाते वक़्त मैंने उससे सवाल करना मुनासिब नहीं समझा था सोचा था खाने के बाद उसकी मज़बूरी और परेशानी की ये वजह पूछूंगा लेकिन इससे पहले उसने मेरे घरोंदे में अपने आपको मेहफूज़ कर के नींद ए आगोश को हो ली थी... यहां मैं सारी रात नींद के लिए छटपटाता रहा... उसने अपने ही हिसाब से झालन बिछा कर बाबर्ची खाने में नींद में बेहोश हो चुकी थी... रात में मैं कई बार गुसल खाने को गया तों उसके नींद में बेढंगे पन को देख कर थोड़ा परेशान सा हो उठता था..लेकिन मेरा दिल मुझे झंझकोर देता के मैं गुनाह कर रहा हूं.. किसी ज़नानी की मज़बूरी को ऐसे देखना बहुत बड़ा गुनाह होता हैं.. सो मैं अब बगैर गुसलखाने के लिए ना जाकर अपने कमरे में ही पड़ा रहा...और कब मुझे नींद ने अपने आगोश में लेलिया मुझे पता ही नहीं चला था... पर हां ज़िन्दगी में आज जो मैं ख्वाब से गुजरा था वैसा ख्वाब मैंने अपने कुछ निकाहगार यारों से ही सुन रखा था..सुबह जब नींद खुली तों दिन काफी चढ़ चुका था.. मैं झट से बिस्तर से उठा तों मेरे जिस्म के ज़रूरी कापड़े भी गायब थे.. मैंने फ़ौरन अपने जिस्म को चादर से ढका... मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था के आखिर ये हुआ क्या हैं मेरे साथ मैंने अपने जिस्म को ढकने के बाद जब मैंने देखा तों मैं दंग रह गया... सामने वही ज़नाब कुर्सी पर बैठे थे जो कल रात को मोहतरमा को तलाश रहें थे.. और उसके बाजू मे मोहतरमा ख़डी बेशर्मी की मुस्कुराहटों से अपने बोसों पर रसीली जुबान को घुमा रही थी...
और ज़नाब कैसा लगा... हमारी गुलनार ने कोई कमी तों नहीं रखी...
इतना सुनते ही मैं सारा माज़रा समझ चुका था के मेरे साथ धोखा हो चुका हैं मैं निढल सा हो कर पलंग पर बैठ गया था और वो दोनों मेरी इस हालत को देख कर हंसे जा रहें थे....
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