October Junction - Divya Prakash Dubey books and stories free download online pdf in Hindi

अक्टूबर जंक्शन- दिव्य प्रकाश दुबे

कई बार हमारे द्वारा कुछ काम बिना किसी खास मकसद या उद्देश्य के खामखाह भी कर लिए जाते हैं। आमतौर पर ऐसा हम बिना किसी के प्रभाव या दबाव में आए अपनी मनमर्ज़ी से करते हैं कि इससे हमारे अलावा किसी अन्य की सेहत पर कोई अच्छा या बुरा प्रभाव नहीं पड़ने वाला। मगर कई बार ऐसा भी हो जाता है कि...करे कोई और भरे कोई।

अब सोच के देखें कि किसी और की करनी का फल अगर आपको भुगतना पड़ जाए और वो भी अपनी मेहनत का कमाया पैसा और कीमती समय गंवा कर तो सोचिए कि आपके दिल पर क्या बीतेगी?

दोस्तों..आज मैं बात कर रहा हूँ एक ऐसी किताब की जिसका शीर्षक है "अक्टूबर जंक्शन" और इसके सेलिब्रिटी लेखक हैं दिव्य प्रकाश दुबे। वही दिव्य प्रकाश दुबे, जिनका नाम दैनिक जागरण नीलसन बेस्टसेलर की बेस्टसेलर लिस्ट में आ चुका है। अब इस पर भी सवाल उठना लाज़मी हो जाता है कि यह बेस्टसेलर लिस्ट कितनी और क्या सचमुच में विश्वसनीय है?

इस उपन्यास में कहानी(?) है सुदीप और चित्रा की। उस सुदीप की, जो अपने एक स्टार्टअप के ज़रिए कामयाबी की नित नई ऊंचाइयों को छूते हुए आगे बढ़ रहा है और निरंतर आगे बढ़ते रहना ही उसका सपना है। दूसरी तरफ चित्रा एक संघर्षशील लेखिका है जिसका अपनी किताब लाने का सपना है। संयोग से हुई एक अनचाही मुलाकात के बाद दोनों तय करते हैं कि वे ठीक एक साल बाद मिलेंगे।

इसके बाद हर अध्याय में कहानी ठीक एक साल बाद निराशा..अवसाद और खुशी की कशमकश के बीच झूलती हुई उन दोनों की देश के अलग अलग शहरों में मुलाकात कराती है। आखिरी कुछ पन्नों को अगर छोड़ दें तो कहानी सपाट ज़मीन पर बहुत ही धीमे से बहते हुए अपने अंत से पहले ही पाठक को बोरियत भरे असमंजस में डाल अचानक से ये कहते हुए अदृश्य या फिर कहें कि लुप्त हो जाती है कि..

"कुछ कहानियों को लेखक एवं पाठक की कल्पना के लिए अधूरा छोड़ दिया जाना चाहिए।"

बतौर लेखक एवं एक सजग पाठक होने के नाते मेरा मानना है कि किसी भी कहानी के पूर्ण रूप से मुकम्मल होने के लिए कहानी का आदि एवं अंत आवश्यक है अर्थात किसी भी कहानी में कहानी के उत्पन्न होने की वजह स्पष्ट होनी चाहिए और इसके साथ ही उस कहानी का अपनी अंतिम परिणति तक पहुँचना आवश्यक है। आप पाठकों अथवा श्रोताओं को उनकी कल्पना के सहारे बीच भंवर में अधूरा नहीं छोड़ सकते।

कई छोटी मोटी अविश्वसनीय बातों के अलावा एक ना हज़म होने वाली हवाहवाई बात भी दिखी इस किताब में कि चित्रा को कुछ किताबों की घोस्ट राइटिंग के बाद सीधे ही अपनी नई किताब के लिए 2 करोड़ की रॉयल्टी बतौर एडवांस मिल जाती है।

जल्दबाज़ी या अनमने मन से लिखी गयी इस किताब की दार्शनिकता से भरी भाषा लुभाने एवं सम्मोहित करने वाली है। हालांकि कई जगहों पर लेखक गूढ़ बातों को बहुत ही सरलता से कहने में सफल रहा है लेकिन ये देखने..सोचने.. समझने एवं विचार करनेवाली बात है कि केवल अच्छी भाषा शैली भी आखिर कब तक और कहाँ तक पाठकों को बाँध पाने में सक्षम हो पाएगी? उम्मीद की जानी चाहिए कि कभी ना कभी लेखक स्वयं भी, आत्म मंथन के ज़रिए इस कमी को महसूस कर, आने वाली रचनाओं में इस खामी को दूर करने का प्रयास करेंगे।

152 पृष्ठीय इस उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है हिन्द युग्म ने और इसका मूल्य रखा गया है 125/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

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