उत्सुक काव्य कुन्ज 7
कवि
नरेन्द्र उत्सुक
प्रधान सम्पादक – रामगोपाल भावुक
सम्पादक – वेदराम प्रजापति मनमस्त, धीरेन्द्र गहलोत धीर,
ओमप्रकाश सेन आजाद
सम्पादकीय
नरेन्द्र उत्सुक एक ऐसे व्यक्तित्व का नाम है जिसे जीवन भर अदृश्य सत्ता से साक्षात्कार होता रहा। परमहंस सन्तों की जिन पर अपार कृपा रही।
सोमवती 7 सितम्बर 1994 को मैं भावुक मस्तराम गौरीशंकर बाबा के दर्शन के लिये व्याकुलता के साथ चित्रकूट में कामदगिरि पर्वत की परिक्रमा करता रहा। जब वापस आया डॉ. राधेश्याम गुप्त का निधन हो गया। श्मशान जाना पड़ा। उत्सुक जी भी श्मशान आये थे। वहां मुझे देखते ही कहने लगे ‘’आप गौरी बाबा के दर्शन के लिये तड़पते रहते हो मुझे सोमवती के दिन शाम को पांच बजे जब मैं बाजार से साइकिल से लौट रहा था, बाबा बीच सड़क पर सामने से आते दिखे। उनके दर्शन पाकर मैं भाव विभोर हो गया। साइकिल से उतरने में निगाह नीचे चली गई, देखा बाबा अदृश्य हो गये हैं।
उस दिन के बाद इस जनवादी कवि के लेखन में धार्मिक रचनायें प्रस्फुटित हो गईं थीं। ‘’उत्सुक’’ की कवितायें सामाजिक राजनैतिक विद्रूपता का बोलता आईना है। वर्तमान परिवेश की नासूर बनती इस व्यवस्था की शल्य क्रिया करने में भी कविवर नरेन्द्र उत्सुक की रचनायें पूर्णतया सफल सिद्ध प्रतीत होती हैं। कवितायें लिखना ही उनकी दैनिक पूजा बन गई थी। इस क्रम में उनकी रचनाओं में पुनरावृत्ति दोष का प्रवेश स्वाभाविक था।
प्रिय भाई हरीशंकर स्वामी की प्रेरणा से एवं उत्सुक जी के सहयोग से गौरीशंकर सत्संग की स्थापना हो गई। धीरे-धीरे सत्संग पल्लवित होने लगा। आरती में चार आठ आने चढ़ने से क्षेत्र की धार्मिक पुस्तकों के प्रकाशन की भी स्थापना हो गई।
इन्ही दिनों उत्सुक जी के साथ बद्रीनाथ यात्रा का संयोग बन गया। सम्पूर्ण यात्रा में वे खोये-खोये से बने रहे। लगता रहा- कहीं कुछ खोज रहे हैं। इसी यात्रा में मैंने उनके समक्ष प्रस्ताव रखा – ‘सत्संग में इतनी निधि हो गई है कि आपकी किसी एक पुस्तक का प्रकाशन किया जा सकता है। यह सुनकर वे कहने लगे – मित्र आपके पास पिछोर के परमहंस कन्हरदास जी की पाण्डुलिपि कन्हर पदमाल रखी है पहले उसका प्रकाशन करायें। उनके इस परामर्श से ‘कन्हर पदमाल’ का प्रकाशन हो गया है।
समय की गति से वे दुनिया छोड़कर चले गये। उनकी स्म़ृतियां पीछा करती रहीं। आज सभी मित्रों के सहयोग से उनके ‘काव्य कुन्ज’ का बानगी के रूप में प्रकाशन किया जा रहा है। जिसमें उनके गीत, गजलें, दोहे, मुक्तक एवं क्षतिणकाऐं समाहित किये गये हैं।
नरेन्द्र उत्सुक जी की जीवन संगिनी श्रीमती दया कुमारी ‘उत्सुक’ ने उनके सृजन काल में उनके साथ रहकर एक सच्ची सह धर्मिणी और कर्तव्य परायणता का निर्वाह करते हुये स्तुत्य कार्य किया है।
नरेन्द्र उत्सुक जी की जीवन संगिनी श्रीमती दया कुमारी ‘उत्सुक’ ने उनके सृजन काल में उनके साथ रहकर एक सच्ची सह धर्मिणी और कर्तव्य परायणता का निर्वाह करते हुये स्तुत्य कार्य किया है।
गौरीशंकर बाबा की कृपा से डॉ. सतीश सक्सेना ‘शून्य’ एवं इ. अनिल शर्मा का सत्संग के इस पंचम पुष्प के प्रकाशन में विशेष सहयोग प्राप्त हुआ है। इसके लिये यह समिति उनकी आभारी रहेगी।
सुधी पाठकों के समक्ष स्व. नरेन्द्र उत्सुक का यह ‘काव्य कुन्ज‘ श्रद्धान्जलि के रूप में सार्थक सिद्ध होगा। पाठकीय प्रतिक्रिया की आशा में---
दिनांक -10-02-2021
रामगोपाल भावुक
द्वेष ने भी बेहद सताया है हमें
स्वार्थ ने अंधा बनाया है हमें।
क्रोध ने भी नीचा दिखाया है हमें।।
काम में मदहोश इतने हो गये हैं।
रूप ने ही बहशी बनाया है हमें।।
ईर्ष्या का घुन लगा है देह में ही।
द्वेष ने भी बेहद सताया है हमें।।
शकुनियों की बढ़ गई तादाद है अब।
धृतराष्ट्र सा मोहरा बनाया है हमें।।
’उत्सुक’ महाभारत न हो फिर कोई।
उसका पैगाम ये आया है हमें।।
प्रदूषण चारों ओर है
रोटी, कपड़ा और मकान, कितना अहम सवाल है।
हल फिर भी नहीं सोचते हम, दिल को यही मलाल है।।
प्रति पल बढ़ती जा रही, जनसंख्या संसार की।
सोचा मन में कभी आपने, यह कैसा बवाल है।।
धुआं उगलते मील, चिमनियां, सड़कों पर फिरते वाहन।
प्रदूषण चारों ओर है, मंडराता यह काल है।।
कूकर सा सोच हमारा, भृष्टाचार में उलझे मन।
सात्विक चिंतन की मन में, कहां गल रही दाल है।।
’उत्सुक’ दिवा स्वप्न में खोया, चल चित्र जैसा मन।
फिल्मी धुन पर पैर बहकते, यौवन का यह हाल है।।
रावण जलाने से क्या फायदा
आत्मा ही आत्मा को छल रही।
इसलिये परमात्मा केा खल रही।।
रावण जलाने से क्या फायदा।
रावणी प्रवृत्ती भी अब खल रही।।
मंथरा कैकई मन डोंलती।
चित दशरथ के वही तो ढल रही।।
पता कल का नहीं कारू बन रहे।
भावना भी घृणित मन में पल रही।।
’उत्सुक’ छिपायें सर्प आस्तीन में।
द्वेष की ज्वाला मन में जल रही।।
मत क्रंदन करो
स्वतंत्र भारतवर्ष का वन्दन करो।
स्वागतम् गणतंत्र अभिनन्दन करो।।
सबको लगालो हृदय से मन एक हों।
हिल-मिल परस्पर शीष पर चन्दन करो।।
अहिन्सा में आस्थायें हों हमारी।
सच्चाई का संकल्प लो चिन्तन करो।।
बुद्ध, गांधी से हृदय हों देश में अब।
धैर्य से लो काम मत क्रन्दन करो।
’उत्सुक’ विवेकानन्दम युग आयेगा।
प्रभू राम को मन तो अब अर्पन करो।।
दिनमान हो गया
हे राम कहा मुख से, बलिदान हो गया।
गांधी तमाम विश्व में, महान हो गया।।
सानी न कोई जिसका, जो लाजबाव था।
इंसान बन के जन्मा, भगवान हो गया।।
पहचान जिससे हिन्द की, है जहांन में।
उस संत पर देश को, अभिमान हो गया।।
दिलों से दिल मिलाये, ऐसा था मसीहा।
इंसानियत की खातिर, कुरबान हो गया।।
’उत्सुक’ अमर हैं आज विश्व में बापू।
ज्योति बन के आया, दिनमान हो गया।।
रहना सजग-संसार में
कर्म ऐसे कीजिये संसार में।
मान यश तुमको मिले संसार में।।
बनके तुम रहो हार कंठ का।
यूं निकटता लाइये संसार में।।
भूमिका निर्वाह ऐसी कीजिये।
इतिहास बन जाईये संसार में।।
स्वार्थ की आंधी यहां चल रही।
कदम फूंककर रखिये संसार में।।
’उत्सुक’ मिलेंगे फूल तो शूल भी।
इसलिये रहना सजग संसार में।।
इंसानियत ही कौम है इंसान की
इंसानियत ही कौम है इंसान की।
सच जाति न होती कोई इंसान की।
धर्म हो सकते हैं जुदा इंसान के।
मगर आत्मा तो एक है इंसान की।।
मित्रता-मजहब हमारा आपका है।
है मित्रता ही बन्दगी इंसान की।।
एकता कायम रखें दिलों में हम सदा।
बस ये सच्ची जीत ही इंसान की।।
’उत्सुक’ न टूटें परस्पर हम फिर कभी।
मिलके काटें जिन्दगी इंसान की।।
उपजे कहो मधुरता कैसे !
मन कैकटस जैसे रूखे, चिन्तन हो गुलाब सा कैसे,
बोय बबूल आम हम चाहें, हो सकता है ऐसा कैसे।
द्वेष-ईर्ष्या पलें हृदय में, अमन नहीं रह सकता हरगिज,
आंधी में उड़ जाये न कुछ भी, यह सम्भव हो सकता कैसे।
रिसना शुरू किया रिश्तों ने, हुये स्वार्थी हृदय हमारे,
जहर घुला हो पूरे मन में, उपजे कहो मधुरता कैसे।
दीवारें ही दीवारें हैं बढ़ी दूरियां मन में इतनी,
आपस में फिर इंसानों में, कहिये आय निकटता कैसे,
’उत्सुक’ जंगल ही जंगल है, छाई उदासी इस कारण से,
बुझे-बुझे से हम रहते हैं, आ सकता उजियारा कैसे।।
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