उत्‍सुक काव्‍य कुन्‍ज - 5 Ramgopal Bhavuk Gwaaliyar द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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उत्‍सुक काव्‍य कुन्‍ज - 5

उत्‍सुक काव्‍य कुन्‍ज 5

कवि

नरेन्‍द्र उत्‍सुक

प्रधान सम्‍पादक – रामगोपाल भावुक

सम्‍पादक – वेदराम प्रजापति मनमस्‍त, धीरेन्‍द्र गहलोत धीर,

ओमप्रकाश सेन आजाद

सम्‍पादकीय

नरेन्‍द्र उत्‍सुक एक ऐसे व्‍यक्तित्‍व का नाम है जिसे जीवन भर अदृश्‍य सत्‍ता से साक्षात्‍कार होता रहा। परमहंस सन्‍तों की जिन पर अपार कृपा रही।

सोमवती 7 सितम्‍बर 1994 को मैं भावुक मस्‍तराम गौरीशंकर बाबा के दर्शन के लिये व्‍याकुलता के साथ चित्रकूट में कामदगिरि पर्वत की परिक्रमा करता रहा। जब वापस आया डॉ. राधेश्‍याम गुप्‍त का निधन हो गया। श्‍मशान जाना पड़ा। उत्‍सुक जी भी श्‍मशान आये थे। वहां मुझे देखते ही कहने लगे ‘’आप गौरी बाबा के दर्शन के लिये तड़पते रहते हो मुझे सोमवती के दिन शाम को पांच बजे जब मैं बाजार से साइकिल से लौट रहा था, बाबा बीच सड़क पर सामने से आते दिखे। उनके दर्शन पाकर मैं भाव विभोर हो गया। साइकिल से उतरने में निगाह नीचे चली गई, देखा बाबा अदृश्‍य हो गये हैं।

उस दिन के बाद इस जनवादी कवि के लेखन में धार्मिक रचनायें प्रस्‍फुटित हो गईं थीं। ‘’उत्‍सुक’’ की कवितायें सामाजिक राजनैतिक विद्रूपता का बोलता आईना है। वर्तमान परिवेश की नासूर बनती इस व्‍यवस्‍था की शल्‍य क्रिया करने में भी कविवर नरेन्‍द्र उत्‍सुक की रचनायें पूर्णतया सफल सिद्ध प्रतीत होती हैं। कवितायें लिखना ही उनकी दैनिक पूजा बन गई थी। इस क्रम में उनकी रचनाओं में पुनरावृत्ति दोष का प्रवेश स्‍वाभाविक था।

प्रिय भाई हरीशंकर स्‍वामी की प्रेरणा से एवं उत्‍सुक जी के सहयोग से गौरीशंकर सत्‍संग की स्‍थापना हो गई। धीरे-धीरे सत्‍संग पल्‍लवित होने लगा। आरती में चार आठ आने चढ़ने से क्षेत्र की धार्मिक पुस्‍तकों के प्रकाशन की भी स्‍थापना हो गई।

इन्‍ही दिनों उत्‍सुक जी के साथ बद्रीनाथ यात्रा का संयोग बन गया। सम्‍पूर्ण यात्रा में वे खोये-खोये से बने रहे। लगता रहा- कहीं कुछ खोज रहे हैं। इसी यात्रा में मैंने उनके समक्ष प्रस्‍ताव रखा – ‘सत्‍संग में इतनी निधि हो गई है कि आपकी किसी एक पुस्‍तक का प्रकाशन किया जा सकता है। यह सुनकर वे कहने लगे – मित्र आपके पास पिछोर के परमहंस कन्‍हरदास जी की पाण्‍डुलिपि कन्‍हर पदमाल रखी है पहले उसका प्रकाशन करायें। उनके इस परामर्श से ‘कन्‍हर पदमाल’ का प्रकाशन हो गया है।

समय की गति से वे दुनिया छोड़कर चले गये। उनकी स्‍म़ृतियां पीछा करती रहीं। आज सभी मित्रों के सहयोग से उनके ‘काव्‍य कुन्‍ज’ का बानगी के रूप में प्रकाशन किया जा रहा है। जिसमें उनके गीत, गजलें, दोहे, मुक्‍तक एवं क्षतिणकाऐं समाहित किये गये हैं।

नरेन्‍द्र उत्‍सुक जी की जीवन संगिनी श्रीमती दया कुमारी ‘उत्‍सुक’ ने उनके सृजन काल में उनके साथ रहकर एक सच्‍ची सह धर्मिणी और कर्तव्‍य परायणता का निर्वाह करते हुये स्‍तुत्‍य कार्य किया है।

नरेन्‍द्र उत्‍सुक जी की जीवन संगिनी श्रीमती दया कुमारी ‘उत्‍सुक’ ने उनके सृजन काल में उनके साथ रहकर एक सच्‍ची सह धर्मिणी और कर्तव्‍य परायणता का निर्वाह करते हुये स्‍तुत्‍य कार्य किया है।

गौरीशंकर बाबा की कृपा से डॉ. सतीश सक्‍सेना ‘शून्‍य’ एवं इ. अनिल शर्मा का सत्‍संग के इस पंचम पुष्‍प के प्रकाशन में विशेष सहयोग प्राप्‍त हुआ है। इसके लिये यह समिति उनकी आभारी रहेगी।

सुधी पाठकों के समक्ष स्‍व. नरेन्‍द्र उत्‍सुक का यह ‘काव्‍य कुन्‍ज‘ श्रद्धान्‍जलि के रूप में सार्थक सिद्ध होगा। पाठकीय प्रतिक्रिया की आशा में---

दिनांक -10-02-2021

रामगोपाल भावुक

श्रम पूजा है

श्रम पूजा है, करें यहां श्रम।

जो भी जहां है, करें वहां श्रम।।

श्रम का सच्‍चा, मित्र समय है।

आलस तज कर, करें यहां श्रम।।

श्रम जवान है, श्रम किसान है।

ले संकल्‍प करें, यहां श्रम।।

फल की इच्‍छा-त्‍याग, कर्म कर।

धर्म समझ कर, करें यहां श्रम।।

’उत्‍सुक’ श्रम ने हार न मानी।

हिम्‍मत मन में, करें वहां श्रम।।

ये सपूत हिन्‍द के

पेड़ पौधों सा उपकार होना चाहिये।

हर एक के हृदय में, प्रेम होना चाहिये।।

चोट खाकर भी देखा, फल देता है वृक्ष।

बदी का बदला भलाई होना चाहिये।।

निष्‍ठुरता बुरी है, दिल रखो दरिया सा तुम।

भावना में प्रेम की ऊंचाई होना चाहिये।।

कुरबानियां देकर हृदय हार, बने जो।

ये सपूत हिन्‍द के अवतार होना चाहिये।।

’उत्‍सुक’ करो संसार में, प्रेम का सोदा।

बांह में जो बांह डालें, वह मीत होना चाहिये।।

भ्रष्‍टाचारी दहेज डस रहा

अबला नहीं मरदानी, नारी काली का अवतार है।

आभूषण घर की लज्‍जा है, जग जननी अवतार है।।

मां, भगिनी, पुत्री, पत्‍नी है, सब दायित्‍व निभाती है।

यह सरस्‍वती, लक्ष्‍मी, दुर्गा है रण में वह तलवार है।।

संस्‍कार उपजाती है वह, दिशाबोध नारी देती।

नर से नारायण बन जाता, नारी का व्‍यवहार है।।

पतिव्रता अनुसुईया है शिव, ब्रह्मा, विष्‍णु, गोद खेले।

मर्यादा ही मर्यादा इनमें, जीवन ही उपकार है।।

’उत्‍सुक’ स्‍वतंत्रता छीन, उसे कमजोर बनाया नर ने।

भृष्‍टाचारी दहेज डस रहा, उजड़ रहा घर द्वार है।।

इन जलती निर्दोष चिताओं का

भृष्‍टाचार दहेज है, इसका लेना-देना बन्‍द करो।

दानव दहेज के जलती चिताओं का जलना बन्‍द करो।।

प्रेम परस्‍पर बढ़े, स्‍वर्ग सा, अपना घर संसार बने।

रिश्‍ते कभी न रिसने पायें, इनका रिसना बन्‍द करो।।

नींव प्रेम की गहरी डालो, जन्‍म–जन्‍म के नाते हैं।

स्‍वर्ग और लालच में पड़कर, उसे जलाना बन्‍द करो।।

नारी का अपमान पतन की, ओर मोड़ता है पथ को।

राह शूल की है यह साथी, इस पर बढ़ना बन्‍द करो।।

’उत्‍सुक’ कभी हृदय में सोचा, नारी को नर क्‍या देता।

उपकारों के बदले उसको, हृदय दुखाना बन्‍द करो।।

गायें सलोना गीत

शब्‍द मोह लें, अक्षर स्‍वर दें, गायें सलोना गीत।

झूम उठे सहसा ही हर मन, सुनकर मधु संगीत।।

शब्‍दावली घटा बन उमड़े, नयन सकोरे भर आयें।

उत्‍सुकता रिम-झिम, रिम-झिम हो, इतनी देना प्रीत।।

उल्‍कापात न होने पावे, घन गरजें घनघोर।

दादुर झूमें झींगुर स्‍वर हो, मन ले सबका जीत।।

आत्‍मसात दो दिल हो जावें, ऐसी बहे समीर।

रोम रोम खिल उठें, मिले ज्‍यों मन से मन का मीत।।

’उत्‍सुक’ अलंकार कविता का गहना, छंद चित्र का चोर।

नारी का सौंदर्य शिल्‍प है, नवरस के संग प्रीत।।

हो गया है किस कदर शैतान आदमी

सड़कों पे लड़ रहा है, शैतान आदमी।

चलती-फिरती लग रहा, दुकान आदमी।।

खाने को डालडा भी नहीं, शुद्ध कहें क्‍या।

सूख करके हो गया, कमान आदमी।

दाढ़ी बढ़ी हुई है, बहशी सा फिर रहा।

यूं खो रहा है अपनी, पहचान आदमी।।

मौत दे रहा है भाई ही भाई को।

अब हो गया किस कदर, हैवान आमदी।।

’उत्‍सुक’ गिरा है आदमी, कितना चरित्र से।

अब खा रहा है आदमी के, प्रान आदमी।।

खुदगर्ज कितने आप हैं

आस्‍तीनों में छिपे, वो सांप हैं।

स्‍वार्थी खुदगर्ज, कितने आप हैं।।

इंसानियत लेश भी, तुम में नहीं।

मंडरा रहे माथे पे, कितने पाप हैं।।

स्‍वार्थ सिद्धी में, चतुर प्रवीण हैं।

अनगिनत लादे हुये बस शाप हैं।।

कर्तव्‍य से मुंह, छिपाये फिर रहे।

मौन मानो, सिर पे कितने ताप हैं।।

कुर्सियों की होड़, ‘उत्‍सुक’ है लगी।

कर रहे पाने को, कितने जाप हैं।।

दिल टटोलो आप

आयने सी जिन्‍दगी हो जिन्‍दगी।

करता जमाना ही उसे बन्‍दगी।।

दिल टटोलो आप अपने आप ही।

किस कदर इसमें भरी है गन्‍दगी।।

ऐब औरों के जमाना ढूंढता।

इसलिये मैली हुई है जिन्‍दगी।।

मौज मस्‍ती में ही काटे दे रहे।

मान बैठे दिल्‍लगी है, जिन्‍दगी।।

’उत्‍सुक’ वही इंसानियत-इंसान है।