Utsuk kavy kunj - 4 books and stories free download online pdf in Hindi

उत्‍सुक काव्‍य कुन्‍ज - 4

उत्‍सुक काव्‍य कुन्‍ज 4

कवि

नरेन्‍द्र उत्‍सुक

प्रधान सम्‍पादक – रामगोपाल भावुक

सम्‍पादक – वेदराम प्रजापति मनमस्‍त, धीरेन्‍द्र गहलोत धीर,

ओमप्रकाश सेन आजाद

सम्‍पादकीय

नरेन्‍द्र उत्‍सुक एक ऐसे व्‍यक्तित्‍व का नाम है जिसे जीवन भर अदृश्‍य सत्‍ता से साक्षात्‍कार होता रहा। परमहंस सन्‍तों की जिन पर अपार कृपा रही।

सोमवती 7 सितम्‍बर 1994 को मैं भावुक मस्‍तराम गौरीशंकर बाबा के दर्शन के लिये व्‍याकुलता के साथ चित्रकूट में कामदगिरि पर्वत की परिक्रमा करता रहा। जब वापस आया डॉ. राधेश्‍याम गुप्‍त का निधन हो गया। श्‍मशान जाना पड़ा। उत्‍सुक जी भी श्‍मशान आये थे। वहां मुझे देखते ही कहने लगे ‘’आप गौरी बाबा के दर्शन के लिये तड़पते रहते हो मुझे सोमवती के दिन शाम को पांच बजे जब मैं बाजार से साइकिल से लौट रहा था, बाबा बीच सड़क पर सामने से आते दिखे। उनके दर्शन पाकर मैं भाव विभोर हो गया। साइकिल से उतरने में निगाह नीचे चली गई, देखा बाबा अदृश्‍य हो गये हैं।

उस दिन के बाद इस जनवादी कवि के लेखन में धार्मिक रचनायें प्रस्‍फुटित हो गईं थीं। ‘’उत्‍सुक’’ की कवितायें सामाजिक राजनैतिक विद्रूपता का बोलता आईना है। वर्तमान परिवेश की नासूर बनती इस व्‍यवस्‍था की शल्‍य क्रिया करने में भी कविवर नरेन्‍द्र उत्‍सुक की रचनायें पूर्णतया सफल सिद्ध प्रतीत होती हैं। कवितायें लिखना ही उनकी दैनिक पूजा बन गई थी। इस क्रम में उनकी रचनाओं में पुनरावृत्ति दोष का प्रवेश स्‍वाभाविक था।

प्रिय भाई हरीशंकर स्‍वामी की प्रेरणा से एवं उत्‍सुक जी के सहयोग से गौरीशंकर सत्‍संग की स्‍थापना हो गई। धीरे-धीरे सत्‍संग पल्‍लवित होने लगा। आरती में चार आठ आने चढ़ने से क्षेत्र की धार्मिक पुस्‍तकों के प्रकाशन की भी स्‍थापना हो गई।

इन्‍ही दिनों उत्‍सुक जी के साथ बद्रीनाथ यात्रा का संयोग बन गया। सम्‍पूर्ण यात्रा में वे खोये-खोये से बने रहे। लगता रहा- कहीं कुछ खोज रहे हैं। इसी यात्रा में मैंने उनके समक्ष प्रस्‍ताव रखा – ‘सत्‍संग में इतनी निधि हो गई है कि आपकी किसी एक पुस्‍तक का प्रकाशन किया जा सकता है। यह सुनकर वे कहने लगे – मित्र आपके पास पिछोर के परमहंस कन्‍हरदास जी की पाण्‍डुलिपि कन्‍हर पदमाल रखी है पहले उसका प्रकाशन करायें। उनके इस परामर्श से ‘कन्‍हर पदमाल’ का प्रकाशन हो गया है।

समय की गति से वे दुनिया छोड़कर चले गये। उनकी स्‍म़ृतियां पीछा करती रहीं। आज सभी मित्रों के सहयोग से उनके ‘काव्‍य कुन्‍ज’ का बानगी के रूप में प्रकाशन किया जा रहा है। जिसमें उनके गीत, गजलें, दोहे, मुक्‍तक एवं क्षतिणकाऐं समाहित किये गये हैं।

नरेन्‍द्र उत्‍सुक जी की जीवन संगिनी श्रीमती दया कुमारी ‘उत्‍सुक’ ने उनके सृजन काल में उनके साथ रहकर एक सच्‍ची सह धर्मिणी और कर्तव्‍य परायणता का निर्वाह करते हुये स्‍तुत्‍य कार्य किया है।

नरेन्‍द्र उत्‍सुक जी की जीवन संगिनी श्रीमती दया कुमारी ‘उत्‍सुक’ ने उनके सृजन काल में उनके साथ रहकर एक सच्‍ची सह धर्मिणी और कर्तव्‍य परायणता का निर्वाह करते हुये स्‍तुत्‍य कार्य किया है।

गौरीशंकर बाबा की कृपा से डॉ. सतीश सक्‍सेना ‘शून्‍य’ एवं इ. अनिल शर्मा का सत्‍संग के इस पंचम पुष्‍प के प्रकाशन में विशेष सहयोग प्राप्‍त हुआ है। इसके लिये यह समिति उनकी आभारी रहेगी।

सुधी पाठकों के समक्ष स्‍व. नरेन्‍द्र उत्‍सुक का यह ‘काव्‍य कुन्‍ज‘ श्रद्धान्‍जलि के रूप में सार्थक सिद्ध होगा। पाठकीय प्रतिक्रिया की आशा में---

दिनांक -10-02-2021

रामगोपाल भावुक

गुमनाम करे दान

सुमनों सी गुंध दे जो, कहते हैं उसे दान।

बिन योचना के दे जो, कहते हैं उसे दान।।

शोहरत के लिये दान दिया, दान क्‍या दिया।

गुमनाम करे दान जो कहते हैं उसे दान।।

भूखे का पेट भर दें, नंगे को वस्‍त्र दे दे।

दीनों को दे सहारा, कहते हैं उसे दान।।

साधु को दे संतों को दे, सन्‍यासियों को दे।

परमार्थ में लुटा दे, कहते हैं उसे दान।।

’उत्‍सुक’ दिया विवश हो, वह दान नहीं है।

खुश होके दिया जाये, कहते हैं उसे दान।।

ऐसी हुकूमत चाहिये

जो रोक दे जुल्‍मों सितम, ऐसी हुकूमत चाहिये।

कायम करे चैनो-अमन, ऐसी हुकूमत चाहिये।।

भाई भतीजावाद का जो, चल रहा है अब चलन।

ये चलन जो रोक दे, ऐसी हुकूमत चाहिये।।

रिश्‍वत समाई है जहन में, आज हर इन्‍सान के।

जो इसे कर दे दफन, ऐसी हुकूमत चाहिये।।

जमाखोरों के इरादों पर जो पानी फेर दे।

कालाबाजारी फूंक दे, ऐसी हुकूमत चाहिये।।

दौर हिंसाओं का ‘उत्‍सुक’, खत्‍म करदे जो अभी।

बापू दिल को चैन दे, ऐसी हुकूमत चाहिये।।

पावन हिन्‍दुस्‍तान को

शिवम सुन्‍दरम शांति चाहिये, पावन हिन्‍दुस्‍तान को।

अनुपम उर में प्रेम चाहिये, पावन हिन्‍दुस्‍तान को।।

बट वृक्ष सा व्‍यक्तित्‍व हो, गंभीरता पीपल सदृश।

सत्‍य नीम सा कटुक चाहिये, पावन हिन्‍दुस्‍तान को।।

जामुन, आम, जामफल, जैसे पुरूषार्थी जीवन हों।

सुमनों सी सच महक चाहिये, पावन हिन्‍दुस्‍तान को।।

एक-एक कर एक बने हम, नेक एक इन्‍सान बनें।

ऐसा अनुपम मिलन चाहिये, पावन हिन्‍दुस्‍तान को।।

’उत्‍सुक’ देश की रक्षा में निज, प्राणों का बलिदान करें।

इतना अभयदान चाहिये, पावन हिन्‍दुस्‍तान को।।

पत्‍थर के दिल हैं इनके

किससे करें निवेदन, अजगर से दिल हैं इनके।

क्‍या जानें रहम करना, पत्‍थर के दिल हैं इनके।।

निर्धन का खून पीते, मच्‍छर स्‍वभाव के हैं।

आस्‍तीनों के सांप हैं ये, विषधर से दिल हैं इनके।।

अहसास नहीं इनको, कहते हैं किसे पीड़ा।

देते हैं वेदना ये, नश्‍तर से दिल हैं इनके।।

गरीबी पनप रही है, इन लोगों के ही कारण।

ये जमाखोर जालिम, बदतर से दिल हैं इनके।।

’उत्‍सुक’ ये भृष्‍ट इतने, मुरदे के कफन छीने।

इनको रहम नहीं है, कट्टर से दिल हैं इनके।।

पन्‍द्रह अगस्‍त है

स्‍वतंत्रता की वर्षगांठ, पन्‍द्रह अगस्‍त है।

शहीदों की यादगार, पंद्रह अगस्‍त है।

बापू की तपस्‍या है, जवाहर का त्‍याग है।।

जोश सुभाष चंद्र का, पन्‍द्रह अगस्‍त है।

कौमी-एकता है, रवानी है रक्‍त की।

जोशे जम्‍हूरियत ही, पन्‍द्रह अगस्‍त है।

विस्मिल की तमन्‍ना है, साहस है भगत का।

तलवार लक्ष्‍मीबाई, पन्‍द्रह अगस्‍त है।

‘उत्‍सुक’ वतन पर गर्व है, हर देशभक्‍त को।

हम लहरायेंगे तिरंगा, पन्‍द्रह अगस्‍त है।।

समय का आनन्‍द लेना चाहिये

समय का पाबन्‍द रहना चाहिये।

समय से अनुबंध करना चाहिये।।

समय खोकर के सभी पछताय हैं।

समय से सम्‍बन्‍ध रखना चाहिये।।

पग मिलाकर समय से चलिये जरा।

समय का आनंद लेना चाहिये।।

हाथ आये समय को मत व्‍यर्थकर।

समय का मकरंद चखना चाहिये।।

’उत्‍सुक’ समय से मित्रता रख सहज।

समय का पाबन्‍द रहना चाहिये।।

बेगैरती की जिुंदगी

गंदगी फैला रहे हो, खाली करो सराय।

है‍वानियत फैला रहे, खाली करो सराय।।

काबिल भरोसे के नहीं, ईमान रहा है।

झूठों के सरदार हो, खाली करो सराय।।

बना दिया दुकान क्‍यों, तुमने सराय को।

लिप्‍त भृष्‍टाचार में, खली करो सराय।।

बे-गैरती की जिंदगी है, किस काम की।

जमीन ही नहीं तो, खाली करो सराय।।

’उत्‍सुक’ तमाम जिंदगी ही, फिजूल काट दी।

आये न किसी काम तुम, खाली करो सराय।।

करना हैं साकार तुम्‍हें

मर्यादा से गठबन्‍धन हो, मेरे हिन्‍दुस्‍तान में।

अमन-प्रेम भाईचारा हो, मेरे हिन्‍दुस्‍तान में।।

गीता का चिन्‍तन मन में, रामायण का दर्शन हो।

प्रेम की गंगा बहे हृदय में, मेरे हिन्‍दुस्‍तान में।।

कौम कोई भी क्‍यों न हों, सब संग मिलें परस्‍पर।

धर्म विवाद न कोई से हो, मेरे हिन्‍दुस्‍तान में।।

अहंकार लंकेश भस्‍म कर, राम आत्‍मा बन कर।

आतंक तभी मिट सकता है, मेरे हिन्‍दुस्‍तान में।।

‘उत्‍सुक’ राम राज्‍य लाना गांधी का सपना।

करना है स्‍वीकार तुम्‍हें मेरे हिन्‍दुस्‍तान में।।

हर जवान प्रहरी जिसका

लहर-लहर लहराया तिरंगा, वन्‍दे मातरम।

शत्-शत् वन्‍दन भारत मां का, वन्‍दे मातरम।।

लक्ष्‍मीबाई, सावरकर तिलक, तात्‍याटोपे।

विस्मिल, भगत, चंद्रशेखर का, वन्‍दे मातरम।।

वीर सुभाष, गांधी, नेहरू जी, लालबहादुर।

अबुल कलाम आजाद श्री का, वन्‍दे मातरम।।

स्‍वतंत्रता का गौरव है, पन्‍द्रह अगस्‍त।।

जन-गण-मन अधिनायक जय-जय, वन्‍दे मातरम।।

‘उत्‍सुक’ बालक, सेनानी, हर जवान प्रहरी जिसका।

उसे हिमालय नमन कर रहा, वन्‍दे मातरम।।

तमाम घर फिर शमशान

दीवार के भी कान होते हैं।

हर तरफ शैतान होते हैं।।

मन सागर सा रखो गंभीर तुम।

दिल बहुत नादान होते हैं।

काना फूसी बंद कर दो मूर्खों।

तमाम घर फिर शमशान होते हैं।।

अब भरोसा छोड़ दो अपनों का तुम।

स्‍वार्थ का ये दुकान होते हैं।।

’उत्‍सुक’ अंधेरा दीप के नीचे सदा।

जान करके हम अनजान होते हैं।।

बरसात में

इस कदर बारिस पड़ी बरसात में।

आंख की निंदिया उड़ी बरसात में।।

करवटें हमतो बदलते ही रहे।

रात भर बिजली झड़ी बरसात में।।

बेरहम घनश्‍याम गरजा ही करे।

याद आती रही बड़ी बरसात में।।

आंख रोई विरह में उनके लिये।

झड़ी आंसुओं की लड़ी बरसात में।।

छेड़ता सावन रहा ‘उत्‍सुक’ बहुत।

औ लजाती मैं खड़ी बरसात में।।

चन्‍दन है हमारी हिंद की गौरव

गौरव स्‍वतंत्रता का, पंद्रह अगस्‍त है।

प्रतीक एकता का, पंद्रह अगस्‍त है।।

गंगा-जमुना सा पावन, साहस है हिम शिखिर।

पानी है पानीदार, पंद्रह अगस्‍त है।।

प्रहरी है हर जवान तो, पालक किसान है।

बुलंदियां ही बुलंदियां, पन्‍द्रह अगस्‍त है।।

माटी चन्‍दन है हिन्‍द की, पंद्रह अगस्‍त है।।

’उत्‍सुक’ हो कौम कोई, हिन्‍दोस्‍तां है सबका।

सबके दिलों में प्रेम हो, पंद्रह अगस्‍त है।।

नीवें हिली है पाक की

बद्तर से बद्तर है, हालात मुहाजिर के।

काबिले रहम जनाब है, हालात मुजाहिर के।।

अपील अल्‍ताफ हुसेन की, गौरतलब है।

सिर से कफन बांधे हुये, हालात मुजाहिर के।।

मुस्लिम तमाम देश जो, कुछ सोचिये जरा।

किस ओर जा रहे हैं, हालात मुजाहिर के।।

नजीर ही नहीं है जो, बे-नजीर साहिब।

दें क्‍या मिसाल ऐसे, हालात मुहाजिर के।।

’उत्‍सुक’ रंग लायेंगी, अल्‍ताफ की सदायें।

नींव हिलीं हैं पाक की, हालात मुहाजिर की।।

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