उजाले की ओर - 27 Pranava Bharti द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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उजाले की ओर - 27

उजाले की ओर

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आ. स्नेही व प्रिय मित्रो !

सस्नेह सुप्रभात

शीत का मौसम ! ठंडी पवन के झकोरे ,गर्मागर्म मूँगफलियों का स्वाद ,अचानक ही इस मौसम के साथ जुड़ जाता है |वैसे जिस प्रदेश में मैं रहती हूँ ‘गुजरात में’ वहाँ इतनी न तो सर्दी पड़ती है और न ही यहाँ ‘मूँगफली ले लो,करारी गर्मागर्म मूँगफली’ का सुमधुर स्वर सुनाई देता है चाहे बेचारे बेचने वाले के स्वर में कितनी ही सर्दी की कंपकंपी क्यों न हो ,उस बेचारे को तो पेट पालने के लिए गर्म बिस्तर में घुसे हुए लोगों के पेटों में अपनी सर्दी को सहते हुए गर्माहट फैलानी ही है |

क्या आनन्द आता था जब सर्दी के मौसम में रज़ाई में गर्मागर्म मूँगफली मिलती थीं|कॉलेज में पढ़ती थी जब एक दिन रात को बार रज़ाई में मुह लपेटे-लपेटे ही माँ से बार-बार पूछ रही थी कि आज मूँगफली वाला भैया क्यों नहीं आया ? मेरे कई बार पूछने पर माँ झुंझला उठीं,अब उन्हें कैसे पता चलता क्यों नहीं आया ? प्रत्येक वर्ष सर्दियों में उसकी करारी मूँगफली खाए बिना नींद नहीं आती थी ,बरसों से एक आदत सी हो गई थी |उस दिन तब तक बिस्तर में इधर से उधर गुलाटियाँ मारती ही तो रही जब तक उसकी आवाज़ सुनाई नहीं दे गई |वैसे कोई इतना अधिक समय भी नहीं हुआ था बजे होंगे कोई साढ़ेआठ ,अधिक से अधिक नौ |

“मुझसे मत कहना ,मैं काम कर रही हूँ |जाओ ,तुम लेकर आओ ---” माँ कॉलेज में अध्यापिका थीं और अर्धवार्षिक परीक्षा की कॉपियाँ जाँच रही थीं |

माँ की यह बात अच्छी तो नहीं लगी किन्तु मरता क्या न करता , मैं बड़ी कठिनाई से अपनी गर्म कपड़ों से लदी देह को रज़ाई से बाहर निकालकर मूँगफली लेने चल दी |घर में हम माँ-बेटी के अतिरिक्त कोई और तो था नहीं जिसे आदेश दे पाती और मूँगफलियों का करारापन मुझे ही तो लुभा रहा था|पास पड़ा हुआ एक शौल और सिर और कानों से लपेट लिया था |

“क्या बात है भैया,आज बड़ी देर लगा दी ?”और अचानक मेरी दृष्टि उसकी गोद में पकड़े हुए कोई तीनेक वर्ष के बालक पर पड़ी जिसने कुछ गर्म कपड़े तो पहने थे किन्तु जनवरी के ठिठुरते हुए मौसम के लिए पर्याप्त न थे ,वह कंपकंपा रहा था |

हम सभी मुहल्ले वाले इस बात से परिचित थे कि सर्दियों के मौसम में गरमागरम मूंगफलियों से सबको तृप्त करने वाले इस प्रौढ़ व्यक्ति के विवाह के बीसेक वर्ष बाद बिटिया हुई थी,तब सबने ही उसे कुछ न कुछ दिया था,इसका पिता भी इसी प्रकार गर्मियों में सब्ज़ी आदि या चने-मुरमुरे बेचता और सर्दियों में कुरकुरी मूँगफली बेचा करता था|बच्ची की थरथराहट देखकर मैं भूल गई कि अभी बिस्तर से निकलने में मुझे कितनी तकलीफ़ हो रही थी |

“अरे भैया! इस बच्चे को क्यों इतनी सर्दी में लेकर आए हो ?और कल तो शायद आए भी नहीं थे |”

अचानक मूँगफली वाला फफककर रो पड़ा |जो उसने बताया उससे मैं जम ही तो गई |एक दिन पूर्व ही उसकी पत्नी अचानक चल बसी थी और घर में कोई न होने के कारण उसे ही इस बच्ची को संभालना था |मेरे हाथ में मूंगफलियों की कागज़ की थैली कंपकंपाने लगी|तुरंत माँ को आवाज़ लगाई,माँ झुँझलाती हुई बाहर आईं किन्तु सारी बात समझकर जल्दी से घर के भीतर गईं और कुछ खाने के लिए और कुछ गर्म कपड़े लेकर जल्दी बाहर आ गईं | कुछ देर में तो मुहल्ले के काफ़ी लोग जमा हो गए थे |बच्चे को गर्म दूध दिया गया,गर्म कपड़ों में लपेटा गया और मूँगफली वाले भैया को हिदायत दी गई की वह पास ही चाय की दूकान के शेड में बैठकर मूँगफली बेचेगा,जिसको मूँगफली लेनी होंगी,वह यहीं आकर ले जाएगा |चाय की दुकान वाला भी नि:सन्तान था,उसने बड़े प्यार से बच्चे को अपने पास अंगीठी से कुछ दूरी पर बैठाना शुरू कर दिया| कई वर्ष बाद मुझे पता चला था कि वह बच्ची बड़ी हो गई थी और स्कूल में पढ़ने जाने लगी थी,उसने पूरे उत्तर प्रदेश को टॉप किया था और एक नहीं दो पिताओं का नाम रोशन किया था|

ये जिंदगी है इसका भला क्या है भरोसा |

कभी देती है खुशियाँ तो कभी देती है ये धोखा ||

हम सब हर हाल में आनन्द में रहें ,स्वयं को बहती नदिया के साथ बहने के लिए छोड़ दें और यह बखूबी समझ लें कि हम अपने ‘उस व्यवस्थित करने वाले से’ कोई युद्ध नहीं कर सकते |

सस्नेह व शुभकामनाओं सहित

आपकी मित्र

प्रणव भारती