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मेरा इश्क़ जुदा जुदा सा




""""" इश्क़ मेरा जुदा -जुदा सा है'"''"""''
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सच कहूं तो आज कहानी लिखने के लिए न कोई मुकम्मल शीर्षक और न ही कोई विषय मिल रहा था। मगर ट्रैन में होने के नाते मुझे टाइम पास करने के लिए कोई न कोई कहानी तो लिखनी ही थी क्योंकि मैं अक्सर कहानियां अपने सफर के दौरान ही लिखता हूँ।इससे हमारे समय का सदुपयोग भी बेहतर ढंग से हो जाता है और मंज़िल तक पहुँचने में बोरियत भी नहीं होती है।

हिंदुस्तान के गॉंव की मिट्टी में दबी सहमी बहुत सी कहानियों ने सिर उठाने की कोशिश तो की ,मगर समय की मार और सामाजिक दुत्कार ने उन्हें फिर से दफ़न ही कर दिया ,मगर समय के साथ आये बदलाव ने अपने चारों तरफ कही -अनकही कहानियों ने अपना वजूद बचा ही लिया।

गर्मियों की छुट्टियों में नानी के घर जाने की बहुत ख्वाहिश रहती थी। बाग़ में आम के पेड़ पर कच्ची अमियां खाने का अपना एक अलग मज़ा था ।नानी का घर होने के नाते हम लोग पड़ोसियों के पेड़ों पर भी पत्थर चला ही देते थे।
कभी कभी तो लोग नांनी जी का लिहाज कर के नहीं बोलते थे मगर जब हम बच्चे अकेले होते थे तो डाँट भी सुननी पड़ती थी।

और एक दिन इसका बहुत बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ा था।हुआ यूँ की हमारे एक दोस्त ने मुझे सलाह दिया की बगल वाले मौर्या जी के बाग़ के आम बहुत मीठे हैं ! बस फिर क्या था हम तीन दोस्तों ने आपस में आँखों ही आँखों में कुछ बात की और बगैर एक पल गवांए मौर्या जी के बाग़ में घुस गए । उनमे से महेश को बाहर रखवाली के लिए खड़ा कर दिया और मै पेड़ पर चढ़ गया नीचे चिंटू को बोल दिया की जब मै आम तोड़ कर नीचे फेंकूँगा तो वह बिन -कर रखता रहेगा ।
पेड़ से तोड़ कर हमने कई अमियां गिराई और नीचे चिंटू उसे बिन-बिन कर रख रहा था।बाहर खड़ा महेश हम सब की रखवाली कर रहा था ।इतने में देखा की मौर्या जी की बड़ी बेटी गुन्नो जो मुझसे 3 साल बड़ी थी ,हाथ में डंडा लिए आ धमकी ,महेश और चिंटू तो देखते ही अमियां छोड़ कर भाग निकले ,अब मै चूंकि ऊपर पेड़ पर चढ़ा था ,मैं कैसे बचता ,लिहाज़ा डरते हुए पेड़ से नीचे उतरा तो गुन्नो की बड़ी बड़ी आँखे देख कर मेरी शित्ति-पिट्टी गुम हो गयी।
मगर फिर भी हिम्मत कर के नीचे गिरी अमियां को उठाया और गुन्नो के बगैर कुछ कहे ही मैंने सारी अमियां गुन्नो को थमा दिया। गुन्नो उस समय तो कुछ न बोली मगर दूसरे दिन मेरी शिकायत मेरी नांनी से कर दी ।अब नांनी क्या बोलती ,,अपने नाती को ।उन्होंने ने गुन्नो को ही समझा -बुझा दिया ।केवल 😊माँ ने ही मुझे घूर कर देखा और चार बातें सुना दी "जब अपने यहाँ अमियां हैं तो किसी और के बाग़ में जाने की क्या जरुरत ?" अब माँ को कैसे बताएं कि जो मज़ा बाग़ से चुरा के खाने में है वो घर से मिले अमियां में कहाँ😀।
बेचारी गुन्नो अपना सा मुह लेकर चली गयी।उस घटना के बाद गुन्नो जब भी राह चलते मुझें मिलती बस अपनी बड़ी -बड़ी आँखों से मुझे घूरती ही रहती ।मै जब भी गुन्नो को देखता उस से बच कर निकलने के ही फ़िराक़ में रहता ।
मै जब भी गर्मियों की छुट्टी में नांनी के घर जाता गुन्नो से गाहे बगाहे मेरी मुलाकात जरूर हो जाती ,मगर गुन्नो के व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आया था उसका मुझे वैसे ही घूरना जारी रहा ।और मेरा गुन्नो को तिरछी नज़रों से एक नज़र देख लेना ही काफी था। गर्मियों की छुट्टी हो और मैं नांनी के घर न जाऊँ ,ऐसा हो नही सकता था।

इस तरह स्कूल से लेकर कॉलेज तक की सारी गर्मियों की छुट्टी नांनी के घर ही बीतती। पढाई के दौरान मै स्कूल से लेकर कॉलेज तक टॉपर रहा।और कभी किसी ने पढाई को लेकर टोका नहीं था । पिता जी साधारण से किसान थे और माँ गृहणी मगर शिष्टाचार और संस्कार हमारे रगों में बसा था । इसका असर यूनिवर्सिटी और जॉब के दौरान देखने को मिला जब मेरे सारे दोस्तों ने मुझे"ओल्ड माइंडेड "की पदवी दे दी थी।

जब कॉलेज खत्म हुआ तो यूनिवर्सिटी में दाखिला मिला ,मै गांव का सीधा साधा सा लड़का मुझे यूनिवर्सिटी के माहौल में घुटन सी होने लगी थी ।वहां न तो आम के बाग़ थे और न ही हरे-भरे खेत खलिहान ,मगर पढाई तो करनी ही थी । पैरेंट्स का दबाव भी रहता था कि यूनिवर्सिटी टॉप करना है। यूनिवर्सिटी का वो पहला दिन और पहली क्लास मुझें आज भी बखूबी याद है,जिसने मेरी जिंदगी के मायने ही बदल कर रख दिया । मैं सबसे पीछे की सीट पर बैठा था।
और कुछ ही देर में पूरी की पूरी सीट भर गयी थी।जो स्टूडेंट्स लेट आये वो पीछे खड़े होकर केवल लेक्चर सुन पा रहे थे बस । मैने मन ही मन संतोष की साँस ली की मुझे कम से कम सीट तो मिली है।
खैर किसी तरह क्लास खत्म हुई तो 5-6 सीनियर लड़के लड़कियां क्लास में आ धमके जिनका एल एल बी फाइनल इयर था ।तभी मैंने ध्यान से देखा की सीनियर लड़के -लड़कियों में गुन्नो भी थी। उसे देख कर पुरानी बातें जेहन में ताज़ा हो गयी ।पिछली गर्मी की छुट्टी में जब नांनी के घर गया था तो पड़ोस के कुछ लड़कों ने जो मेरे दोस्त हुवा करते थे बताया था की गुन्नो शहर में पढ़ती है ,मगर यह नही मालूम था कि वह मेरी सीनियर है।मगर गुन्नो अब गाँव वाली वह गुन्नो नही थी जो हाथ में डंडा लिए अपनी आम की बगिया में सारी दुपहरिया घूमा करती थी, अब वह गुन्नो से सम्भवी हो गयी थी जो बेहद खूबसूरत थी ,आँखे वैसे ही बडी बड़ी एवं नशीली थी ,जिसे कोई एक बार देख ले तो जीवन भर नशे में रहे। कमर तक लंबे बाल,होठों पर गहरी पिंक कलर की लिपस्टिक, और ब्लैक जीन्स एवं रेड कुर्ती में गजब की लग रही थी गुन्नो।
"चलो बारी -बारी से सभी स्टूडेंट्स अपना फुल इट्रो विद हॉबी के साथ बताओ""उनमे से किसी एक सीनियर ने अपना मोटा चश्मा ठीक करते हुए बोला।
मैंने कभी रैंगिग के बारे में सुना जरूर था मगर अनुभव नही किया था ।ऐसा लगा आज अनुभव भी मिलेगा।
और फिर सभी ने बारी -बारी से अपना इट्रो देना शुरू किया ,किसी को आई ऐ यस, तो किसी को पी सी यस तो किसी को टीचर बनना था। सच कहूं तो इंसान की इच्छाएं अनंत होती हैं,जैसे जैसे इंसान परिपक्व होता है वैसे वैसे उसकी इच्छाएं बलवती होती जाती हैं। सबकी सुनते सुनते आखिर मेरा भी न. आ ही गया ।
चूंकि मै अंतिम सीट पर था इस लिए सबसे आखिरी में मेरा नंबर आया ,दिल जोरो से धड़कने लगा ,सोचा क्या बताऊँ 🤔पर बताना तो था ही।बहुत हिम्मत कर के खड़ा हुवा मै
"जी ....आप सब को मेरा नमस्ते 🙏 मेरा नाम अरुण है ...."चल एक सांग सुना" .....अभी इट्रो देना शुरू ही किया था कि किसी सीनियर ने बीच में ही मुझे रुकवा दिया और गाने की फरमाइश कर दी।
अब तो और भी प्रोब्लेम्स खड़ी हो गयी मेरे लिए ।स्कूल कॉलेज में कभी गाना गाने को कहा गया तो मैंने शर्म के मारे कभी गाया ही नहीं था ,हाँ कभी कभी गुनगुना जरूर लेता था । मगर अकेले में ,यहाँ तो बहुत सारे लोग हैं ,,,सोच ही रहा रहा था कि किसी ने फिर से कहा "अरे सुना भी दो अब "।इस बार किसी लड़की की आवाज थी और जब सामने सिर उठा कर देखा तो गुन्नो अपनी बड़ी बड़ी आँखों से मुझे घूर रही थी शायद उसने मुझे पहचान लिया था।
""कुछ देर खामोश हो कर लंबी सांस लेने के बाद मैंने किशोर दा का गीत """मेरे नैना सावन भादों फिर भी मेरा मन प्यासा""" सुनाया। कुछ सेकेंड तक पूरी
क्लास शांत थी फिर अचानक से ज़ोर -ज़ोर तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा कक्ष गूंज उठा।
सारे सीनियर्स तारीफों के पुल बांधने लगे।गुन्नो केवल मुस्कुरा रही थी।।मेरे सभी क्लास मेंट्स भी खड़े हो कर बधाई देने लगे ।।जैसे मैं कोई मैराथन जीत कर आया हूँ।
इट्रो ख़त्म हो चुका था, सारे स्टूडेंट्स जा चुके थे और मै वहीँ लास्ट की सीट पर काफी देर बैठा रहा।काफी देर बाद जब मन की बहुत सारी उथल -पुथल शांत हो गयी तो मैं बाहर ग्राउंड में आ गया ।धीरे -धीरे बोझिल कदमो से यूनिवर्सिटी का गेट क्रॉस किया,और कटरा बंद रोड पर लगे टी स्टाल पर चाय के लिए आडर दे कर चाय का इंतिज़ार करने लगा।
इलाहाबाद यूनिवर्सिटी की देश -विदेश में अपनी एक अलग पहचान स्थापित है।यहाँ विदेशों से छात्र अध्यन करने आते हैं। शायद आप सब को मालूम हो कि इलाहाबाद यूनिवर्सिटी को ""पूर्व का ऑक्सफोर्ड "भी कहा जाता है।
चाय पी कर मैंने जैसे ही पैसे देने के लिए पर्स निकाली ""रहने दो ...मै दे दूँगी...." किसी ने मुझसे कहा
पीछे मुड़ कर देखा तो गुन्नो चाय का कुल्हड़ लिए खड़ी थी।
"जी ..मै दे दूंगा ""मैंने झेंपते हुए कहा।
""मै अहसान नहीं कर रही हूँ,यह एक सीनियर का फर्ज होता है कि जब कोई जूनियर साथ में है तो खाने -पीने का बिल सीनियर ही पे करेगा।और यह नियम सब के लिए है।इवन जब तुम भी सीनियर हो जाओगे तो तुम्हे भी जूनियर का ध्यान देना होगा""। उसने एक साँस में कह डाला।
"जी "मेरे मुह से बस इतना ही निकल पाया।
और मै बगैर कुछ कहे सुने वहां से तेज़ कदमो के साथ बैंक रोड टैक्सी स्टैंड की तरफ चल दिया जो वहां से महज 100 मीटर की दुरी पर था।
रूम पर पहुँच कर फ्रेश हुवा और कुछ खा कर हिस्ट्री की बुक्स पढ़ने लगा ।हिस्ट्री मेरा प्रिय विषय रहा है। ख़ास कर मेडुवल हिस्ट्री। आधुनिक भारत को जानने का अच्छा स्रोत है ।स्टडी करते करते शाम के 7 बज गए ।बगल वाले भैया जी जो सिविल की तैयारी कर रहे थे। जब मेरा रूम बंद देखा तो उन्होंने आवाज़ लगाई ...."अरुण ....अरुण ।
मैंने दरवाजा खोला तो "क्या यार आज मार्केट नही जाना है क्या ""? भैया जी ने मॉर्केट चलने के लिए कहा तो मैं झटपट तैयार हो के उनके साथ मार्केट के लिए निकल गया।
इलाहाबाद जैसे शहर में स्टूडेंट्स रोज़ थोड़ी -थोड़ी मगर ताज़ी सब्ज़ियां खरीदते हैं कारण यह है कि इलाहाबाद में एक तरफ गंगा का किनारा तो दूसरी तरफ यमुना का ,और इस लिहाज से सब्ज़ियां ताज़ी मिल जाती हैं। और आस् पास के गांव के किसान भी सब्ज़ियां शहर आ कर बेंच जाते हैं इस लिए ताज़ी सब्ज़ियां उपलब्ध रहती हैं।

हम और भैया जी साथ जा ही रहे थे की सामने से गुन्नो और उसकी फ्रेंड्स भी आती दिखीं।मैंने उसे नमस्ते बोला तो वह मुस्कुरा कर "Hi "बोल कर आगे बढ़ गयी।

अगले दिन जब मैं क्लास लेने के लिए यूनिवर्सिटी गया तो मै लेट पहुँचा और क्लास पूरी फुल थी। और काफी स्टूडेंट्स खड़े -खड़े ही लेक्चर्स सुन कर नोट्स लिख रहे थे। पर मैंने वापस ग्राउंड में जा कर पढ़ना उचित समझा।
यूनिवर्सिटी का बहुत बड़ा लॉन है ।लॉन के ठीक सामने सीनेट हाल है ।जिसके नीचे लोहे की बनी रेलिंग पर यदा-कदा बेल उग आई हैं और जो खंभों से लिपट कर मीनार तक तक चढ़ गयी हैं।जो देखने में बहुत खूबसूरत दिखाई पड़ती है।छात्र नेताओं का मनपसंद स्थान जहाँ छात्रों की भीड़ हमेशा लगी रहती है।बरगद का वह विशाल काय पेड़ जिसकी भूमि से निकलती हुई उसकी विशेष जड़ें जो यूनिवर्सिटी के इतिहास का गहरा सच छुपाये हैं । जिसकी शीतल छाँव में जाने कितने नेता हिन्दुतान के इतिहास में अपना नाम दर्ज करवा गए ।
पहले सोचा कमलेश्वर जी का लिखा उपन्न्यास"कितने पाकिस्तान"" को पढ़ लूँ जिसे मैंने कुछ दिन पहले अधूरा छोड़ा था ।मगर इरादा बदल दिया और पॉलिटिक्स की बुक्स निकाली ,कुछ देर पन्ने पलटने के बाद अरस्तू को पढ़ने लगा ।
सच कहूँ तो पोलिटिकल साइंस में मुझे बहुत दिन तक सुकरात, अरस्तू और ,प्लेटो के मध्य अंतर को कोरिलैट करने में बहुत कठिनाई होती थी। मगर मार्क्स और रूसो,को बहुत अच्छी तरह से पढ़ा,हलाकि बाद में आगे चल कर मार्क्स की "कुछ पुस्तकें जैसे -दास कैपिटल को बहुत गहराई से पढ़ने का मौका भी मिला था ,।
किस तरह से सुकरात को मौत की सजा सुनाई गयी थी।और किस तरह से उनके शिष्यों ने उन्हें कहीं और भाग कर जान बचाने के लिए भी आग्रह किया था ,मगर सुकरात ने भागने और जान बचाने के बजाय उन परिस्थितिओं का सामना करना ही उचित समझा और ख़ुशी ख़ुशी जहर का प्याला अपने होठों से लगा लिया।

मैं इतिहास के अतीत के पन्नो में महान सुकरात को खोज
ही रहा था कि ""क्या पढ़ रहे हो "गुन्नो की कड़क आवाज ने मेरा ध्यान अपनी और आकर्षित कर लिया।

मै चौंक कर खड़ा हो गया "अरे बैठो ..बैठो....."गुन्नो कहते हुए मेरे सामने आ कर बैठ गयी।साथ में उसकी फ्रेंड भी थी जिसका उसने मुझसे सीनियर के तौर पर औपचारिक रूप से परिचय करवाया।बदले में मैंने हाथ जोड़ कर अभिवादन किया और उसने मुस्कुरा कर स्वागत किया।
"जी मै पालिटिक्स पढ़ रहा था "
"वैरी गुड "उसने हलकी सी मुस्कराहट के साथ बोला
"आज क्लास लेट हो गयी क्या ?"
"जी " मैंने हलके से मुस्कुरा के कहा
"अभी कहाँ रहते हो ?" उसने पूछा
"जी तेलियरगंज में "" मैंने जवाब दिया
"गाना तो अच्छा गाते हो, लगता है संगीत में रूचि है"😊उसने मुस्कुराते हुए कहा।
"जी शुक्रिया, हाँ मुझे संगीत में रूचि है "। मैंने भी मुस्कुरा कर जवाब दिया।
लगभग आधे घंटे हम दोनों में बातें हुई । उसकी फ्रेंड्स बीच -बीच में मुस्कुरा के कभी मेरी तरफ देखती तो कभी गुन्नो की तरफ।
जब हम दोनों में कोई बात नहीं रह गयी तो हम दोनों खामोश हो गए लेकिन दूसरे ही पल मुझें कुछ याद आया और फिर मैंने कहा ""जी मैं माफ़ी मांगना चाहता हूँ उस... दिन हम लोग आपकी बाग़ में अमियां चोरी करने के इरादे से घुस गए थे ""कहते हुए शर्मिंदगी के भाव मेरे चेहरे पर आ गए थे
""अरे नहीं यार ..वो सब बचपन की बातें थी "और कहते हुए गुन्नो शर्मा गयी
मैंने भी हौले से गुन्नो की तरफ देखा तो गुन्नो की आँखों में ही खो गया।
"अरे चलो भी अब लेट हो रहा है।""उसकी सहेली ने गुन्नो को बोला तो मैं चेतना में आया।
और गुन्नो मुश्कुरा कर वहां से चली गयी।

अब तो गुन्नो को देखे बगैर मेरा पूरा दिन बीतता ही नहीं था और यही हाल गुन्नो का भी था।वह किसी न किसी बहाने मुझसे मिलने आ जाती थी।और मै उसका इंतिज़ार भी करता था।बस स्टैंड पर जब तक मैं न आऊँ गुन्नो मेरा इंतिज़ार करती थी।और जब तक गुंन्नो न आये मै गुन्नो का वेट करता था। एक बार तो ऐसा भी हुवा जब गुन्नो किसी कारण वश यूनिवर्सिटी नही आयी तो मैं बस स्टैंड पर 4 घंटे इंतिज़ार किया था। न कोई फोन नं कोई पता बस् मोहल्ले का नाम पता था जहाँ वह रहती थी।
अगले दिन जब मैंने गुन्नो को बताया कि मैंने कल उसका 4 घंटे वेट किया और अपनी क्लास नही की ।तब गुन्नो ने मुझसे बहुत माफ़ी मांगी थी।उस दिन चाय और समोसा गुन्नो ने ही खिलाया था ।
दिन ब दिन गुन्नो से मेरी नजदीकियां बढती ही जा रही थी और हो भी क्यों न ।हम दोनों अक्सर यूनिवर्सिटी साथ जाते और साथ साथ आते । हद तो तब हो गयी जब हम दोनों की फाइनल परीक्षा खत्म हो गयी। ।हम दोनों को अब अपने अपने घर वापस जाना था ।ऐसे में अब क्या होगा ,,यह सोच कर रात आँखों में ही काट ली। सुबह जब हम दोनों अपने अपने बैग के साथ प्रयाग स्टेशन पहुचे तो हम दोनों की आँखें भर आयी। काफी देर तक हम दोनों स्टेशन पर एक दूसरे का हाथ थामें बैठे रहे ,ऐसा लग रहा था जैसे हम दोनों सदियों के लिए एक दूसरे से अलग हो रहे हो।गुन्नो की ट्रेन हमसे पहले थी।
सच कहूं तो गुन्नो को ट्रेन पर बैठेते हुए जब मैंने उसकी तरफ देखा तो हम दोनों की आँखे बरस पड़ी। कोई किसी को भी छोड़ कर नहीं जाना चाहता था।मगर कहते हैं न की "समय बहुत बलवान होता है""यह सच है।

ट्रैन धीरे धीरे चल रही थी गुन्नो खिड़की की तरफ बैठी मेरे हाथों को कस कर थामे थी ऐसा लग रहा था मैं उसे रोक लूँ हमेशा हमेशा के लिए ..और फिर हाथ छूट गया ट्रेन रफ़्तार पकड़ चुकी थी , और कुछ ही मिनट में मेरी आँखों से ओझल हो गयी।

जब प्लेट फॉर्म नं 1 पर मेरी ट्रेन आयी तो।बहुत बुझे मन से मैं ट्रैन के अंदर बैठा।रास्ते भर गुन्नो के बारे में सोचता रहा।और इसी उधेड़ बुन में मैं अपने स्टेशन कब पहुच गया पता ही नही चला । मां खाना ले आयी तो मैंने भूख न होने का हवाला देते हुए थाली वापस कर दिया।

किसी तरह दो तीन बीत गए मगर चौथा दिन आते आते मेरी बुरी हालत हो गयी।अंत में माँ से बोला की "माँ मुझे नांनी के घर घूमने जाना है ?"
"क्या बात है आज कल तू बहुत उदास उदास लग रहा है?"
माँ ने कहा
"न ....नही ...माँ मैंने झेंपते हुए जवाब दिया।
आखिर माँ तो माँ होती है ।उसे अपने बच्चों के बारे ज्यादा चिंता होती है।मैंने बहुत समझाने की कोशिश की कि मुझे कुछ नही हुवा है ,मगर वह एक न मानी
और अंत में माँ ने नांनी के यहाँ जाने की इजाज़त दे ही दी।मगर इस शर्त पर क़ि मै 2-4दिन में वापस लौट आऊंगा। इतना सुनते ही मैं माँ से लिपट गया।
"रहने दे ...अब ज्यादा प्यार करने की जरुरत नही है "" माँ ने हँसते हुए कहा।
मै जल्दी से तैयार हुवा और कुछ ही देर में स्टेशन पहुँच गया।
उस दिन मऊ जाने के लिए काशी एक्स. बहुत लेट थी शायद मेरी बेबसी को वह और भी बढ़ा रही थी।मगर जाना तो था ही।कभी कभी यह भी होता है कि जब किसी से मिलना हो और ट्रेन या बस लेट हो तब एक एक पल बहुत मुश्किल से कटता है।
जब मैं मऊ स्टेशन पहुँचा तो वहां टैक्सी स्टैंड जो कुछ ही दूरी पर था कोई टैक्सी ही नही थी।घंटो इंतिज़ार करने के बाद एक तांगे वाले ने मुझसे कहा"भैया जी टैक्सी अब नहीं मिलेगी शाम हो गयी है यहाँ गाँव में शाम को टैक्सी नही मिलती है""
"वैसे आप कहाँ जाएंगे ?" तांगे वाले ने पूछा
"जी मुझे कैलाशपुरी जाना है। "मैंने कहा
"भैया जी आइये बैठ जाइए हम भी अपने घर लौट रहे हैं आपको भी छोड़ देंगे
"मैंने तांगे वाले को धंन्यवाद कहा और तांगे पर बैठ गया।
रास्ता बहुत टेढ़ा -मेढा था ।कच्ची सड़के और अगल-बगल बड़ी बड़ी झाड़ियां थी।
इस से पहले मैं जब भी नांनी के घर गया तो टैक्सी या बस जरूर मिल जाती थी।लेकिन आज लेट होने के कारण तांगे से ही आना पड़ा। खैर तांगे पर बैठना भी किसी हिल स्टेशन की ट्रेन से कम नही है।
जब शाम 7,30 बजे नांनी के घर पंहुचा तो नांनी प्यार से गले लगा ली। काफी देर माँ के बारे में नांनी पूछती रही और बीच बीच में मेरी पढ़ाई और यूनिवर्सिटी के बारे में में भी पूछती रही ।लेकिन एक बार भी यह नही बताया कि उनकी पड़ोसन की बिटिया गुन्नो भी यूनिवर्सिटी में पढ़ती है।
मेरा मन किया कि मै नांनी से बता दूं कि गुन्नो भी मेरे साथ पढ़ती है।मगर हिम्मत न हुई।
रात कभी करवटें बदलते हुए तो कभी कमरे में टहलते हुए बीती ।सुबह जल्दी से उठ कर बाग़ की तरफ चल दिया।अब बाग़ भी पहले जैसे न थी।काफी पेड़ कट चुके थे।दशहरी आम और चौशे के पेड़ जो काफी दूर से दिख जाया करते थे अब वहां नहीं थे। वहां एक दो परिवारों ने अपना आशियाना बना लिया था।
पुरानी यादों के बीच काफी देर तक मै बाग़ में ही टहलता रहा । दिन काफी चढ़ आया था ,मगर गुन्नो का कहीं अता पता नहीं था।अब मेरी आँखे भर आयी थी सोचा क्या करूँ गुन्नो के घर जाऊँ ? या फिर उसका इंतिज़ार करूँ ?
यह सोचते -सोचते मेरे पाँव खुद ब खुद गुन्नो के घर की तरफ चल दिए। गुन्नो के घर के नज़दीक पहुँचने वाला ही था कि किसी ने मुझसे पूछा की "किससे मिलना है ?" मैंने देखा तो गुन्नो की माँ सामने थी।
"नमस्ते आंटी "मैंने दोनों हाथ जोड़कर उन्हें अभिवादन किया
"किस से मिलना है ?" मेरे अभिवादन का बगैर कुछ जवाब दिए ही उन्होंने फिरसे वही सवाल पूछ लिया।
"जी ...मैं गुन्नो के साथ ......खबरदार अगर गुन्नो का नाम लिया तो .अभी मैं अपनी पूरी बात कह भी न पाया था कि गुन्नो की माँ ने मुझे फटकार लगा दी।
"आंटी ऐसी बात नहीं वो दरसअल...... भाग रहे हो यहाँ से कि मै गुन्नो के भाइयों को बुलाऊँ ? आंटी ने मुझें भला बुरा कहना शुरू कर दिया।
मै बे इज़्ज़त हो कर लौटने ही वाला था कि देखा तो नांनी तेज कदमो से मेरी तरफ चली आ रही थी।मुझे लगा अब बवाल होगा यहां ।मै अपने प्यार और गुन्नो को बदनाम नही करना चाहता था। मैं कुछ समझे बगैर नांनी की तरफ मुड़ा और उनसे गलती मान कर उन्हें अपने साथ ले आया ।इस बीच नांनी ने गुन्नो की मां को कुछ भी नहीं बोला।
बस वो मुझे बहुत गुस्से से देख रही थी।

अगले दिन सुबह ही नांनी के घर से मै वापस अपने घर आ गया।
मुझें घर पर देख माँ तो आश्चर्य चकित हो गयी।उन्हें लगा की यह तो नांनी के यहाँ हफ़्तों रहता था परंतु आज दूसरे ही दिन क्यों लौट आया।....मगर मैं कुछ न बोला पाया।बस सीधे अपने कमरे में गया।और बिस्तर पर लेट गया। उस दिन के बाद मेरे घर वालो को और नांनी को भी मेरे और गुन्नो क बारे में पता चल् चुका था।माँ और नांनी से मैंने बहुत मिन्नत की कि वह गुन्नो के पैरेंट्स से बात करें ,मगर हर बार गुन्नो की फैमिली ने बवाल ही किया।गुन्नो कहाँ थी ,?इस बारे में किसी को कोई जानकारी नही थी। नांनी ने कई बार गुन्नो के पड़ोसियों से जानकारी लेने की कोशिश की मगर कुछ हासिल नही हुवा।गुन्नो सब के लिए एक पहेली ही साबित हुई।

कभी मै अपनी बुक्स पढ़ता तो कभी गुन्नो की दी हुई डायरी में कुछ लिखता।बहुत दिनों तक ऐसा ही चलता रहा। दिन से महीने,महीनो से साल ऐसे ही बीतते चले गए गुन्नो की खट्टी -मीठी यादो के बीच ,इस बीच गुन्नो की दी हुई डायरी अब भरने लगी थी।वक्क्त ने करवट ली और मै
हिंदी साहित्य से पीएचडी करने लखनऊ चला गया।
लखनऊ की शाम बहुत खूब सूरत होती है ,सच में नवाबो की जैसी ही लगती है। गोमती नगर में लोहिया पार्क मेरा पसंदीदा स्थान था ।मैं जब भी फुर्शत में होता डायरी में लिखने लगता ।
एक सुबह जब मै शोध के कार्य हेतु अपनी बाइक से जा रहा था तभी रास्ते में एक महिला ने मुझसे लिफ्ट मांगी बहुत तेज़ स्पीड में होने के नाते गाड़ी रोकते रोकते मैं गिरने से बचा। पहले तो बहुत गुस्सा आया उस पर मगर जब उसने कहा कि उसका एग्जाम है उसे मुंशी पुलिया सेंटर तक छोड़ दूँ तो मैं इस लिए उसे मना नही कर पाया क्यों की कभी एग्जाम के दौरान मैंने भी किसी से लिफ्ट ली थी।

वो मेरे पीछे बैठ तो गयी पर मै असहज महसूस कर रहा था जल्दी ही उसे उसके स्थान पर छोड़ देना चाह रहा था। बाइक की स्पीड तेज़ हो गयी और हम ब मुश्किल एक किलो मीटर तक ही गए होंगे कि अचानक से कई लोग मेरे सामने आ गए बाइक गिरी और हम कुछ दूर तक फिसलते चले गए।चार से पांच लोग थे ,उन लोगो ने बगैर मुझसे कोई सवाल किए ही मुझे मारना शुरू कर दिया । कुछ देर तक तो मैंने उनसे छूटने का प्रयास किया मगर फिर मुझे कुछ याद नहीं रहा।

जब मुझे होश आया तो मै पुलिस कस्टडी में था ।मैने पुलिस से पूछा की आखिर मेरा दोष क्या है ? मुझे किस लिए अरेस्ट किया गया है?और वो लोग कौन थे जिसने मेरी यह हालत की ? कहा कि जो भी कहना है कोर्ट में कहना ।
, कुछ देर बाद मुझे कोर्ट में पेश किया गया । पूरा कक्ष लोगो से भरा था।मैं कटघरे में खड़ा अपनी आँखे बंद किये खुद से सवाल और जवाब कर रहा था। आखिर मेरा गुनाह क्या था ?जो मुझे यहाँ तक आना पड़ा , कोर्ट में सन्नाटा छाया रहा और जब वकील ने जज से कहा कि ""माय लार्ड कटघरे में खड़े इस मासूम से दिखने वाले इंसान ने एक गैर धर्म की नाबालिक लड़की को जबरन भगा कर ले जा रहा था जिसे लड़की के घर वालो ने रंगे हाथों पकड़ा है।,लिहाज़ा आप से मेरी यही दरख्वास्त है कि इसे कड़ी से कड़ी सजा दी जाये।ताकि यह भाविस्य में किसी और के साथ यह कृत्य न कर सके""। वकील की सख्त आवाज़ बहुत जानी पहचानी लगी सहसा आँखे खोली तो गुन्नो को वकील के रूप में देख कर मेरी ख़ुशी और हैरानी की सीमा न थी
जी कर रहा था कि गुन्नो से पूछू की तुम कहाँ थी इतने दिन ?क्या मेरी ज़रा सी भी परवाह नही थी ? कैसे गुजरे हैं दिन मेरे बगैर तुम्हारे क्या इसका तुम्हें ज़रा भी अंदाज़ा है?कितनी बार तुमसे मिलने तुम्हारे घर गया और पता है तुम्हारी माँ ने मेरे साथ कैसा वर्ताव किया ?गुन्नो कम से कम कुछ बता कर जाती 😢😢, सोचते सोचते आँखें भर आयी । ।मगर दूसरे ही पल जब यह याद आया की वो मेरे विरोध में है तो मैं शून्य में खो गया ।कितनी प्यारी थी मेरी गुन्नो कितना मेरा ख्याल रखती थी ।यूनिवर्सिटी के दिनों में वह अपनी टिफिन बगैर मुझसे शेयर किए एक भी बाईट नही खाती थी।मेरे ज़रा सी खरोंच पर उसे बहुत दर्द होता था ।फिर प्यार भरी शिकायत से कितना मुझे डांटती थी । आज वो जाने अनजाने में मुझे खुद ही दर्द दे रही थी।
"आपको कुछ कहना है अपने बचाव के लिए ?" जज साहब की आवाज़ ने मेरी तन्द्रा भंग कर दी।
""आपके ऊपर किसी नाबालिक लड़की जो गैर धर्म की थी को जबरन भगा कर ले जाने का आरोप है,आपके इस कृत्य से सामुदायिक सौहाद्र असंतुलित हो सकता है" ।जज साहब ने कहा।
यह सुन कर मै सन्न रह गया ऐसा लगा जैसे मेरे पैरों तले जमीन खिसक गयी ।जिसे मैंने अपनी बाइक पर इंसानियत के नाते लिफ्ट दी थी यह सोच कर की उसका एग्जाम छूट जायेगा ,,वह अपने घर से भागी थी ।यह मुझे नही पता था ।और उसने मुझे कहीं का नही छोड़ा ।
वकील द्वारा मुझ पर इस तरह का घिनौना अपराध लगाना मुझे बहुत अखर रहा था।
""नही जज साहब ,मुझे कुछ नही कहना है "मायूस होते हुए मैंने कहा
""जब गुनाह कोई और करे और सजा किसी निर्दोष को मिले ..तो ऐसे में क्या इन्साफ और क्या न्याय।"" यह कह कर मैंने अपने मन को तसल्ली दे दी।
मुझें सजा हुई और जेल जाना पड़ा। सजा के दौरान मैंने अपनी डायरी कम्पलीट कर ली थी और उसे एक स्टोरी की शक्ल दी । सजा पूरी करने के बाद जब मैं जेल से बाहर आया तो मेरी कहानी जिसका नाम था""मेरा इश्क़ जुदा जुदा सा है "" की एक हज़ार प्रतियां प्रकाशित हुई।और मार्केट में हाथों हाथ बिक गयी।मैंने लखनऊ में ही अपनी एक छोटी सी लाइब्रेरी स्थापित की और दुनिया भर के लेखकों की किताबो को ला कर उसमें सजा दिया ।

शाम को जब मैं फ्री हुवा तो कार्यालय के चपरासी ने बहुत सारे लेटर ला कर मेरे सामने रख दिया।यह सभी लेटर मेरे पाठकों के थे ,जो मेरी कहानी से सम्बंधित थे। मै एक -एक कर के पत्रों को पढ़ता और उसका यथोचित उत्तर लिख कर लिफाफे में पैक भी कर देता। एक लिफाफे को जब मैंने खोला तो कुछ देर के लिए बर्फ सा जम गया। आँखें भर आयी और फिर ज्यादा देर तक मै अपने आपको सँभाल नही पाया और अश्को के बरसात में बह गया।
पत्र गुन्नो का था जिसमे लिखा था-
मेरे अरुण,
तुम मिले भी तो ऐसे मोड़ पर मिले की एक तरफ मेरा करियर और एक तरफ तुम थे।मुझें दोनों में किसी एक को चुनना था।जब तुम्हें मैंने कटघरे में देखा तो मन किया कि तुमसे लिपट कर अपनी सारी भावनाओ को आशुओं में व्यक्त कर दूँ ,लेकिन मैं ऐसा न कर सकी क्यों की मेरा पहला धर्म था अपने मुअक्किल का केस लड़ना।और मै अपने मुअक्किल को निराश नहीं करना चाहती थी।आखिर इसी लिए तो मैंने लॉ की पढाई की ।इसी लिए तो मैं तुमसे,तुम्हारे प्यार से बहुत दूर चली गयी।
मै चाहती तो तुम्हें बता सकती थी लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया ।उस दिन जब तुमने मुझे ट्रेन में बिठाया था मै बहुत रोई थी।तुम्हारे जाने के बाद भी बहुत रोइ।
मगर तभी मैंने यह निश्चय किया कि मुझे अपनी मंज़िल पर पहुचना है ।और फिर घर जाने के 2 दिन बाद ही मैं दिल्ली चली गयी।और कोर्ट में प्रैक्टिस शुरू की। और यह मेरा पहला केस था जहाँ तुम मिले।
मुझें पता है तुम मुझे माफ़ नही करोगे ,लेकिन यह भी सत्य है कि तुम मुझें बहुत प्यार करते हो और मेरी हार कभी नहीं चाहोगे। नीचे मेरा पता लिखा है ।अगर मुझे माफ़ कर सको तो .......।मुझे आज भी तुम्हारा उतना ही इंतिज़ार है जितना मैं तुम्हारा टैक्सी स्टैंड पर किया करती थी।
तुम्हारी
गुन्नो।
पत्र पढ़ कर मैं बहुत देर तलक रोता रहा और घंटो अपने ही ऑफिस में शांत बैठा रहा ।अंत में मैं बगैर कुछ सोचे समझे मै अपनी गुन्नो से मिलने निकल पड़ा।








Pandey_ Ruchi💞

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