रात्रि गहराने लगी थीं, चन्द्रमा का प्रकाश भी धूमिल सा था क्योंकि कल अमावस्या है, सत्यकाम ने मणिशंकर को पुकारा___
मित्र! सो गए क्या?
किन्तु मणिशंकर ने सत्यकाम के प्रश्न का कोई उत्तर ना दिया,कदाचित वो निंद्रा में लीन था,अब तो सत्यकाम के हृदय में जो कौतूहल था उसे शांत करना उसके लिए सम्भव ना था,यदि माया उससे प्रेम करती है तो उसे स्वीकार क्यों नहीं कर लेती,ऐसा करके वो मेरे मन की शांति क्यों भंग करना चाहती है, सत्यकाम ने मन में सोचा।।
अर्द्धरात्रि बीत चुकी थी परन्तु, सत्यकाम को अपने बिछावन पर निंद्रा नही आ रही थी,उसने मणिशंकर को पुनः पुकारा, परन्तु इस बार भी मणिशंकर ने कोई उत्तर ना दिया,अब सत्यकाम के मस्तिष्क ने कार्य करना बंद कर दिया था,वो सोच ही नहीं पा रहा था कि वो अब क्या करें और उसने माया के पास जाने का मन बना लिया और निकल पड़ा काली अँधेरी रात्रि में माया की झोपड़ी की ओर ,वो इस बार मुख्य द्वार से नहीं गया क्योंकि उसे भय था कि द्वारपाल उससे पुनः प्रश्न करेंगा कि इतनी भयानक काली रात्रि में कहाँ जा रहें हो?
इसलिए वो इस बार वाटिका की ओर से गया,जहाँ मन्दिर को घेरते हुए एक दीवार बनी है,दीवार के साथ में एक बरगद का वृक्ष लगा था,जिसमें लम्बी लम्बी जटाएँ लटक रही थीं, सत्यकाम उन्हीं की सहायता से चढ़कर दीवार के उस ओर पहुँच गया,उसने अपने वस्त्र ठीक किए और चल पड़ा अपने गंतव्य की ओर।।
इधर मणिशंकर गहरी निंद्रा मे सोएं रहने का अभिनय कर रहा था,वो चाहता था कि सत्यकाम कब गुरुकुल छोड़कर माया से मिलने जाएं और वो आचार्य शिरोमणि से इस विषय में बता दे कि आपने जितनी शिक्षा दीक्षा सत्यकाम को दी है वो निर्रथक हो चुकी है और मणिशंकर को लग रहा था कि कदाचित अब वो अपने षणयंत्र मे सफल हो गया है और श्रेष्ठ शिष्य की उपाधि उसे ही मिलेगी।।
कुछ समय पश्चात सत्यकाम माया की झोपड़ी के द्वार पर था,उसने किवाड़ खटखटाए और माया को पुकारा___
सत्यकाम का स्वर सुनकर माया जाग उठी और बोली__
सत्यकाम! तुम और इस समय यहाँ पर,इतनी रात्रि गए क्या कर रहे हो?
माया!मुझे तुमसे बात करनी है इसलिए आया हूँ, सत्यकाम बोला।
परन्तु क्यों?ऐसी क्या आवश्यक बात थी जो तुम प्रातः तक प्रतीक्षा नहीं कर सकते थे,माया ने पूछा।।
माया! नहीं कर सकता था प्रतीक्षा! तुम मेरे मन की ब्यथा समझने का प्रयास क्यों नहीं करती,सत्यकाम बोला।।
क्यों समझूँ, मैं तुम्हारे मन की ब्यथा,मेरा भला तुमसे नाता ही क्या हैं, माया ने शुष्कतापूर्ण सत्यकाम से पूछा।
अपने हृदय पर हाथ रखकर कहो कि क्या सच मे,मेरा तुमसे कोई नाता नहीं है, सत्यकाम ने पुनः पूछा।।
हाँ,सत्यकाम! अपने हृदय पर हाथ रखकर कहती हूँ कि मेरा तुमसे कोई नाता नहीं हैं, माया रोते हुए बोली।।
ऐसा मत कहो माया! नहीं तो मैं अपने प्राण त्याग दूँगा,सत्यकाम बोला।।
तो त्याग दो प्राण,मैं कुछ नहीं कर सकतीं, माया बोली।।
इतनी कठोर,इतनी निष्ठुर ना बनो माया! क्यों मेरी परीक्षा ले रही हो? सत्यकाम बोला।।
तो क्या करूँ? कलंकित कर दूँ तुम्हारी विद्या को,इसके उपरांत तुम क्या कहोगे इस संसार से कि मैनें एक नेत्रहीन के लिए अपनी विद्या का त्याग कर दिया,अपने आचार्य का नाम धूमिल कर दिया,माया झोपड़ी के भीतर से चीखीं।।
कुछ भी हो माया! आज तो तुम्हें मेरा प्रेम स्वीकार करना होगा, नहीं तो मैं आज तुम्हारे द्वार पर अपना सिर पटक पटक कर प्राण दे दूँगा, सत्यकाम बोला।।
मैं किवाड़ नहीं खोलूँगी,तुम चाहें कुछ भी कर लो,माया बोली।।
तुम यदि यही चाहती हो तो मैं ये करके दिखाऊँगा, यही तो कहेगा संसार कि सत्यकाम ने माया के प्रेम में अपने प्राण त्याग दिए,सत्यकाम बोला।।
यदि तुम मे साहस तो ऐसा ही करो,परन्तु मैं तुम्हारे प्रेम को स्वीकार नहीं कर सकती,माया बोली।।
तो ठीक है माया! तुम देख लेना और इतना कहकर सत्यकाम ने अपने सिर को माया के किवाड़ पर मारना प्रारम्भ कर दिया,माया भीतर से सब सुनती रही किन्तु किवाड़ नहीं खोले और कुछ समय पश्चात किवाड़ पर सिर मारने का स्वर बंद हो गया,माया को आशंका हुई कि कहीं कोई अनर्थ तो नहीं हो गया,कुछ क्षण वो मौन होकर बाहर के स्वर को सुनने का प्रयास करती रही परन्तु जब कुछ भी सुनाई ना दिया तो उसने किवाड़ खोलकर बाहर देखा,जो उसने देखा उसे देखकर उसका हृदय भय से काँप उठा।।
सत्यकाम ने अपने कपाल को किवाड़ पर मार मार कर रक्तरंजित कर लिया था और अचेत होकर धरती पर पड़ा था,अब तो योगमाया का संयम और धैर्य टूट चुका था,वो सत्यकाम की दशा देखकर रो पड़ी एवं उसका सिर अपनी गोद में रखकर बोली___
क्षमा कर दो सत्यकाम! मुझे तुम्हारा प्रेम स्वीकार है।।
सच, में माया! तुम्हें मेरा प्रेम स्वीकार हैं, सत्यकाम ने अचेत अवस्था में पूछा।।
हाँ,स्वीकार हैं, माया बोली।।
माया ने शीघ्र ही सत्यकाम के कपाल से रक्त पोछकर चन्दन का लेप लगाया,जिसकी ठंडक से रक्त का बहाव रूक गया एवं सत्यकाम जब तक अचेत अवस्था में था,तब तक माया उस का सिर अपनी गोद मे लेकर ऐसी काली रात्रि में झोपड़ी के बाहर ही बैठी रही क्योंकि सत्यकाम के शरीर के भार को वो सरलतापूर्वक उठाकर झोपड़ी के भीतर नहीं ले जा सकती थी,उसका सिर गोद मे लेकर कभी कभी वो भी ऊँघने लगती।।
भोर हुई,खगों के स्वर से वातावरण गूँज रहा था,तब सूर्य की पहली किरण की लालिमा के संग सत्यकाम ने अपनी आँखें खोलीं और पुकारा____
माया...माया... कहाँ हो तुम?
मैं यहीं हूँ सत्यकाम, कहीं नहीं गई, माया बोली।।
अच्छा तो तुम सारी रात्रि ऐसे ही मेरा सिर गोद मे रखकर बैठी रही,सत्यकाम ने पूछा।।
हाँ,सत्यकाम! माया बोली।।
इससें सिद्ध होता है कि तुम भी मुझसे प्रेम करती हो,सत्यकाम ने पूछा।।
मैं नहीं जानती,माया बोली।।
क्या तात्पर्य है तुम्हारा कि तुम नहीं जानती,सत्यकाम ने पूछा।।
यही कि मुझे तुमसे प्रेम हैं या नहीं,तुम पहले यहाँ से उठो और भीतर चलों, पहले विश्राम कर लो इसके उपरांत इस विषय में वार्तालाप करते हैं,माया बोली।।
सत्यकाम बोला तो चलो भीतर और इसी क्षण मुझे अपना निर्णय बताओ।।
ऐसी भी क्या शीघ्रता है सत्यकाम,माया ने कहा।।
परन्तु मुझे शीघ्रता है, सत्यकाम बोला।।
यदि मैं कहूँ कि मैं तुमसे प्रेम नहीं करती,मैने केवल तुम्हारा उपयोग किया था तो,माया बोली।।
तात्पर्य क्या है तुम्हारा, उपयोग वो भी किसलिए, सत्यकाम ने माया से पूछा।।
अपने प्रतिशोध के लिए,माया बोली।।
कैसा प्रतिशोध माया! कहना क्या चाहती हो तुम? सत्यकाम ने हतप्रभ होकर पूछा।।
हाँ,प्रतिशोध, तुम्हारे आचार्य शिरोमणि से,माया बोली।।
परन्तु क्यों? माया! सत्यकाम ने पूछा।।
वो इसलिए कि उन्होंने मेरा गुरूकुल के प्राँगण में सबके समक्ष अपमान किया था,उसी का प्रतिशोध, माया बोली।।
मैं कुछ समझा नहीं माया! तनिक विस्तार से समझाओगी,सत्यकाम ने पुनः पूछा।।
तो सुनो,तुम्हें सब बताती हूँ और माया ने कहना प्रारम्भ किया__
मैं नेत्रहीन नहीं हूँ और ना ही मैं कोई साधारण सी लड़की हूँ,मैं राजनर्तकी योगमाया हूँ, एकदा मैं नगर का भ्रमण कर रही थी,मैने तुम्हारा गुरूकुल देखा तो मेरे मन में गुरूकुल और मंदिर के भीतर जाने की तीव्र इच्छा जागी,परन्तु जैसे ही मैं मन्दिर के द्वार पर पहुँची, द्वारपाल ने मुझे ये कहकर रोक लिया कि आचार्य शिरोमणि ने मन्दिर और गुरूकुल मे महिलाओं का आना निषेध कर रखा है इसलिए आप मन्दिर और गुरुकुल परिसर मे प्रवेश नहीं कर सकतीं, मैं उस दिन अपना मन मारकर वहाँ से चली आई।।
किन्तु मैं भी बहुत हठी हूँ और गुरूकुल परिसर में जाने की ठान ली इसलिए एक दिन पुरूष वेष में मैने गुरुकुल परिसर में प्रवेश तो पा लिया किन्तु मेरी पगड़ी गिर गई और मेरे लम्बे केश देखकर आचार्य शिरोमणि ने ये जान लिया कि मैं महिला हूँ और मेरा अत्यधिक अपमान किया,मैने यहाँ के राजा से भी याचिका की किन्तु मेरी बात सुनकर उन्होंने कहा कि ये नियम वर्षों से चला आया है और ये कदापि नहीं टूट सकता तब मैने आचार्य शिरोमणि से प्रतिशोध लेने के विषय में सोचा और तुम्हारा उपयोग किया,
परन्तु उस दिन गंगाघाट पर तुम्हारे स्पर्श ने मेरे पाषाण हृदय को पिघला दिया और मेरे मन मे तुम्हारे प्रति प्रेम का अंकुर फूट पड़ा।।
अब सत्य तुम्हारे समक्ष है चाहो तो स्वीकार करो या अस्वीकार करके यहाँ से चले जाओ.....
क्रमशः___
सरोज वर्मा____