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प्रतिशोध--भाग(६)


सत्यकाम गंगातट से माया से बिना बात किए चला तो आया परन्तु उसका मन अत्यधिक विचलित था,भावों की भँवर उसे प्रेमरूपी सरिता में डुबोएं दे रही थीं, माया के होठों के स्पर्श ने उसके तन और मन में कामरूपी अग्नि प्रज्वलित कर दी थीं, उसे कहीं भी शांति नहीं मिल रही थीं, उसें मन में भावों का बवंडर उमड़ पड़ा था,उसकी आँखें बस अब माया को ढ़ूढ़ रहीं थीं,उसका चंचल चित्त बस माया की ओर ही भाग रहा था,उसके मन में उठतीं उमंगों को वो स्वयं ही नहीं समझ पा रहा था कि ये क्या है? प्रेम या वासना या के कुछ और।।
सत्यकाम उदास जा अपनी कुटिया में जाकर लेट गया, वो पूजा अर्चना के लिए भी नहीं गया,उसे एक दूसरा शिष्य मणिशंकर बुलाने भी आया किन्तु वो ना गया और कहलवा दिया कि आज स्वास्थ्य कुछ ठीक नहीं है और लेटकर विचार करने लगा कि जो आज प्रातः उसने किया,क्या वो उचित था? किन्तु उसने तो केवल माया के प्राण बचाने के लिए ऐसा किया,किन्तु वो माया के होंठो का स्पर्श भूल क्यों नहीं पा रहा,क्या किसी के स्पर्श में इतनी अग्नि होती है कि तन को जला दें जैसे कि मैं जल रहा हूँ,
हे ईश्वर! क्या करूँ, कोई मार्ग सुझाओं नहीं तो इस अपराधबोध की अग्नि में मैं जल जाऊँगा, आचार्य को कुछ भी ज्ञात हुआ तो क्या होगा,मेरी इतनी सालों की विद्या अपयश की भेंट चढ़ जाएंगी, किन्तु अब मैं क्या करूँ, मस्तिष्क कह रहा है कि ये अच्छा नहीं किन्तु मन....मन पर मेरा कोई वश क्यों नहीं चल रहा है?वो विह्वल सा माया कि ही ओर क्यों भाग रहा हैं? कुछ सूझ नहीं पड़ता कि क्या करूँ मैं? माया या आचार्य, मन और मस्तिष्क दोनों ही एक दूसरे के विपरीत दिशा की ओर जा रहें हैं।।
उधर माया भी अपने मलमल के बिछावन पर लेटी सोच रहीं थीं कि मैं ने तो आचार्य शिरोमणि से प्रतिशोध के लिए सत्यकाम से प्रेम का अभिनय कर रही थी,परन्तु ऐसा तो नहीं जो आज प्रातः हुआ उसके उपरांत सत्यकाम से सच में प्रेम ना कर बैठूँ, मैनें अपने जीवन में इतने पुरूष देखें परन्तु सत्यकाम सा ना देखा,जब उसने मुझे अपने बाँहों में लिया तो एक क्षण को मैं स्वयं को भूल गई थी,उसके तन से आती महक में मादकता थीं, जो मुझे बेसुध कर रहीं थीं, उसके तन का स्पर्श मुझे पिघला रहा था, परन्तु मैं मौन सी उसके स्पर्श को ......
ये क्या सोच रहीं हूँ मैं? प्रेम वो भी सत्यकाम से,नहीं मैं सत्यकाम से प्रेम नहीं कर सकतीं,मैं तो केवल सत्यकाम का उपयोग कर रहीं हूँ, आचार्य से प्रतिशोध लेने के लिए,मुझे क्या पुरुषों की कमीं है जो मैं प्रेम के लिए सत्यकाम को चुनूँ,नहीं सत्यकाम के पास है ही क्या,ना धन, ना राज्य और ना ही कोई अधिकार, ऐसे पुरूष के विषय में सोचना मेरे हित के लिए अच्छा नहीं।।
उधर प्रातः से सायं हो चली थीं, परन्तु सत्यकाम अपनी कुटिया से बाहर ही ना निकला था,ना आज उसने भोजन ही गृहण किया था वो बहुत ही असमंजस में था,विह्वल चित्त और मस्तिष्क में कौतूहल कुछ ऐसी दशा थी उसकी,ऐसा अनुभव उसे पहली बार हुआ था,वो सोचने लगा कदाचित ये प्रेम ही है और जब तक माया उसके प्रेम को स्वीकार नहीं कर लेती,उसका तन मन और मस्तिष्क ऐसे ही उचाट रहेंगे,परन्तु मैं क्या करूँ, माया ने उस रात्रि मेरा अपमान करके यही तो कहा कि मैं तो उसके लिए पराया हूँ,तो मैं कैसे माया के निकट जाकर उससे कहूँ कि मैं उससें प्रेम करता हूँ और ये बात तो आचार्य शिरोमणि के सम्मान को भी लांक्षित कर देंगीं, मैं क्या उत्तर दूँगा उन्हें कि मैने उनकी वर्षों की तपस्या भंग कर दी।।
एक स्त्री के स्पर्श ने मुझे इतना व्याकुल कर दिया कि मैं वासना और ज्ञान में अन्तर करना भूल गया,नहीं..... नहीं... मैं ऐसा कदापि नहीं करूँगा, माया से प्रेम ...छीः..छीः...इसका तात्पर्य हैं कि मेरा,मेरी इन्द्रियों पर वश नहीं, मुझे कोई मार्ग नहीं सूझ रहा,मेरा मानसिक संतुलन बिगड़ रहा हैं,मैं बावला सा विक्षिप्त सा क्यों हो चला हूँ, हे आकाश, हे धरती,हे खग ,हे नदी ,हे जगत के कर्ता धर्ता ,कोई तो मुझे मेरे प्रश्न का उत्तर दो और तभी रात्रि भोजन का समय हो गया ,मणिशंकर पुनः सत्यकाम को बुलाने आया किन्तु सत्यकाम ना गया।।
जब सत्यकाम ना पहुँचा तो आचार्य शिरोमणि स्वयं सत्यकाम को भोजन के लिए बुलाने आए_____
सत्यकाम....सत्यकाम! क्या हुआ?शिरोमणि जी ने पूछा।।
कुछ नहीं आचार्य! कुछ स्वास्थ्य अच्छा नहीं है? सत्यकाम बोला।।।
तो मैं महाराज से कहकर राजवैद्य जी को बुलवा लेता हूँ, आचार्य शिरोमणि बोले।।
इसकी कोई आवश्यकता नहीं है, आचार्य! कुछ समय विश्राम करूँगा तो स्वस्थ हो जाऊँगा, सत्यकाम ने उत्तर दिया।।
जैसा तुम उचित समझों और यदि रात्रि में वैद्य जी को बुलाने की आवश्यकता हो तो मुझसे कह देना,मैं दरबान को भेजकर राजवैद्य को बुलवा लूँगा और आज रात्रि को मणिशंकर तुम्हारी ही कुटिया में सोएगा क्योंकि तुम्हारा स्वास्थ्य ठीक नहीं है, तुम्हें किसी वस्तु की आवश्यकता हुई तो वो देख लेगा, आचार्य शिरोमणि बोले।।
जी ,आचार्य ! जैसा आप उचित समझें, सत्यकाम बोला।।
और उस रात्रि मणिशंकर भी सत्यकाम की कुटिया मे सोने के लिए आ पहुँचा___
रात्रि गहरी हो चली थीं,कुटिया का दीपक भी बुझा दिया गया था,कुटिया के वातायन से चन्द्रमा का श्वेत प्रकाश आकर कुटिया को प्रकाशित कर रहा था,आकाश में तारें भी टिमटिमा रहें थें,यदा कदा झींगुरों का स्वर सुनाई दे जाता तभी मणिशंकर ने अपने पुवाल के बिछावन पर लेटे लेटे सत्यकाम से पूछा।।
सत्य..सत्य बताओ मित्र! क्या बात हैं? मणिशंकर ने सत्यकाम से पूछा।।
कुछ नहीं मित्र! मन तनिक विचलित सा हैं, सत्यकाम ने उत्तर दिया।।
कहीं कोई प्रेम-व्रेम तो नहीं हो गया या किसी कन्या के दर्शनों से मन का वेग वश में ना रह गया हो,मणिशंकर ने पूछा।।
नहीं मित्र!ऐसी कोई बात नहीं, सत्यकाम बोला।।
कोई बात तो अवश्य है मित्र! तभी तुम उस रात बरसात में वो भी अर्द्धरात्रि के समय किसी के लिए भोजन लेकर गए थें,मैने देखा था तुम्हें दरबान से वार्तालाप करते हुए और यदि कोई कन्या हैं तो उसे कह क्यों नहीं देते कि तुम उससे प्रेम करते हो,ऐसे क्षण क्षण मरने से भला क्या लाभ,मणिशंकर बोला।।
तुमने कैसे मेरे हृदय की बात ज्ञात कर ली मित्र!सत्यकाम ने पूछा।।
क्योंकि मैं उम्र में तुमसे बड़ा हूँ और अपने यौवनावस्था में मुझे भी एक कन्या भा गई थी,तब मेरी दशा वैसी ही थी,जैसी अभी तुम्हारी है, मैं उससें कुछ ना कह और उसका विवाह किसी और से हो गया और इसके उपरांत संसार से मेरा मन उचट गया और मैं यहाँ ज्ञान प्राप्त करने के लिए चला आया,मणिशंकर बोला।।
तो मैं क्या करूँ मित्र! दुविधा में हूँ,यद्यपि मैने कुछ ऐसा किया तो आचार्य का नाम धूमिल हो जाएगा, उनकी तपस्या भंग हो जाएंगी, सत्यकाम बोला।।
ऐसा कुछ नहीं होगा मित्र! बड़े बड़े ज्ञानी महात्मा क्या? गृहस्थ जीवन से अनभिज्ञ रहते हैं, वो भी तो विवाह करते हैं, सन्तानोत्पत्ति करते हैं, अभी तो तुम गुरूकुल में हो,इसलिए ऐसा नहीं कर सकते किन्तु यदि तुम गुरूकुल का त्याग कर दो तो इस लांक्षन से बच सकते हो,इससे आचार्य का नाम भी धूमिल नहीं होगा और तुम्हारी छवि भी बनी रहेंगी और जिससे तुम प्रेम करते हो,उसे जाकर कह सकते हो कि मैं तुमसे प्रेम करता हूँ,मणिशंकर बोला।।
धन्यवाद मित्र! तुमने एक साथ मेरी कई सारी समस्याओं का समाधान कर दिया,आज रात्रि मैं चैन से विश्राम कर सकता हूँ, शुभरात्रि मित्र! पुनः बहुत बहुत धन्यवाद,सत्यकाम इतना कहकर आँखें मूँदकर लेट गया।।
परन्तु सत्यकाम को ये ज्ञात नहीं था कि मणिशंकर मित्र नहीं था शत्रु था,वो तो वैसे भी सत्यकाम को अपने मार्ग का काँटा समझता था क्योंकि वो सत्यकाम से उम्र में बड़ा था और सत्यकाम के गुरूकुल में आने से पहले ही आचार्य से ज्ञान प्राप्त कर रहा था लेकिन अभी तक इतने वर्षों में वो स्थान नहीं बना पाया था जो सत्यकाम ने उससे कम समय में बना लिया था,इसलिए उसे इर्ष्या खाएं जा रही थी,उसे अब एक अवसर मिल गया था और वो इसका भरपूर लाभ उठाना चाहता था क्योंकि यदि सत्यकाम गुरूकुल से चला गया था तो गुरुकुल का सारा कार्यभार मणिशंकर को मिल जाएंगा क्योंकि सत्यकाम के बाद वहीं श्रेष्ठ शिष्य था गुरुकुल का।।

क्रमशः___
सरोज वर्मा____




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