प्रतिशोध--भाग(१)
दूर पहाड़ों के बीच बसा एक राज्य जिसका नाम पुलस्थ है, धन-धान्य से परिपूर्ण, जहां की प्रजा के मुंख पर सदैव प्रसन्नता वास करती है,उस राज्य के राजा है हर्षवर्धन,जो आज पड़ोसी राज्य के राजा से युद्ध जीतकर आने वाले हैं,उनके स्वागत की तैयारियों में आज राजमहल की सभी दास दासियां ब्यस्त हैं और राजा की तीनों रानियां अपने अपने झरोखो पर खड़ी राजा के आने की प्रतीक्षा कर रहीं हैं।।
ये ज्ञात हुआ है कि राजा ने युद्ध में एक नर्तकी भी जीती है जो नृत्य करती है तो ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे दामिनी कड़क रही हो,उसके अंग अंग में वो लचक है जैसे कि कोई पुष्पों से भरी डाली,उसकी कमनीय काया ने सबका मन मोह रखा है,उसके अंग अंग से तो जैसे मधु टपकता है,कमर तक के लहराते घने केश,कजरारी अंखियां,गुलाब के समान होंठ,सुडौल बाहें,सुराही दार गर्दन,पतली कमर,गोरा रंग, ऐसा रूप देखकर तो राजा भी बच ना सकें और ले आए उसे अपने संग,बना दिया,राजनर्तकी।।
राजनर्तकी योगमाया को अपने रूप लावण्य पर अत्यधिक अहंकार है और क्यो ना हो उसके जैसी नर्तकी आस पास के किसी भी राज्य में नहीं है,उसका नृत्य देखकर लोंग अपनी पलकें झपकाना भूल जाते हैं, जब वो राजदरबार में नृत्य के लिए आतीं हैं तो लोगों के हृदय की गति दोगुनी बढ़ जाती हैं, मनमोहक रूप सौन्दर्य की साम्राज्ञी है।।
राजा हर्षवर्धन भी योगमाया के बंधक से हो गए, जैसा वो कहतीं,राजा वैसा ही करते,योगमाया ने अपने लिए राज्य से बाहर एक हवामहल बनवा लिया,जहाँ कई सारी दासियाँ सदैव योगमाया की सेवा के लिए तत्पर रहतीं थीं, सुन्दर सी वाटिका जिसमेँ एक सरोवर भी हैं जो सदैव कमल के पुष्पों से सुशोभित रहता हैं।।
कई दिन बीते राजा हर्षवर्धन,योगमाया के महल नहीं पहुँचे,तब योगमाया ने सोचा राज्य की सैर कर आऊँ और वो अपने दास और सैनिकों के साथ अपनी पालकी में निकल पड़ी राज्य की सैर करने।।
सारे राज्य का भ्रमण करने के पश्चात उसे एक अद्भुत मंदिर दिखा और उसने अपने दास दासियों से कहा कि पालकी उस मंदिर की ओर मोड़ लो,आज मैं इस मंदिर के भीतर जाऊँगी, कुछ समय में ही पालकी मन्दिर के द्वार पर जा पहुँची, योगमाया पालकी से उतरी और द्वारपाल से बोली कि मन्दिर के किवाड़ खोलों_____
जी आप कौन?द्वारपाल ने पूछा।।
तुम मुझे नहीं जानते,मैं योगमाया! योगमाया ने उत्तर दिया।।
कौन योगमाया? द्वारपाल ने पुनः पूछा।।
मैं प्रसिद्ध नर्तकी योगमाया, तुम मुझे नहीं जानते,योगमाया ने कहा।।
जी नहीं देवी और वैसे भी यह मन्दिर एवं गुरूकुल दोनों ही हैं और यहाँ स्त्रियों का आना वर्जित है,द्वारपाल ने उत्तर दिया।।
परन्तु क्यों, योगमाया ने पूछा।।
यहाँ के आचार्य ने ऐसा आदेश दिया हैं कि छात्रों की विद्या में कोई विघ्न ना पड़े,स्त्रियाँ छात्रों के मार्ग में अवरोध उत्पन्न कर सकतीं हैं, उनके रूप सौन्दर्य से छात्रों का मन विचलित हो सकता हैं और द्वारपाल ने इतना कहकर योगमाया के मुँख पर मन्दिर के किवाड़ बंद किए और भीतर चला गया।।
योगमाया, क्रोध से तिलमिला उठी एवं अपने सैनिकों से बोली___
खड़े खड़े मेरा मुँख क्या देख रहे हो,किवाड़ खुलवाओ,योगमाया के सैनिकों ने अत्यधिक प्रयास किया किन्तु द्वारपाल ने किवाड़ ना खोलें, वो भीतर से ही बोला इस मन्दिर के द्वार कदापि भी किसी स्त्री के लिए नहीं खुलेगें।।
अब योगमाया बोली___
मैं भी योगमाया हूँ और मैं अत्यधिक हठीली हूँ और एक दिन इस मन्दिर में मैं अवश्य जाऊँगी, मैं राजा की अनुमति लेकर आऊँगी इस मन्दिर के भीतर जाने के लिए।।
योगमाया अपने हवामहल लौट आई,परन्तु इस अपमान को भूल नहीं पा रहीं थीं, उसने राजा हर्षवर्धन को संदेश भेजा किन्तु राजा हर्षवर्धन उस समय अपने राज्य के कार्यों में ब्यस्त थे इसलिए आ ना सकें और इधर योगमाया के क्रोध का कोई पार ना था।।
वो क्रोध से अपना मानसिक संतुलन खोती जा रही थीं और सारे गहने और रेशमी वस्त्र उसने त्याग दिए,साधारण से वस्त्रों और खुले केशों मे जाकर कोपभवन में जा बैठी,अन्न जल भी त्याग दिया, उसके मन में तो बस एक ही हठ थी कि उसे मन्दिर में जाना था और उसे वहाँ जाने से क्यों रोका गया।।
एक रोज राजा हर्षवर्धन का हवामहल में आगमन हुआ,अपनी प्रेयसी को इतना विचलित देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ कि केवल इतनी सी बात को लेकर माया इतनी क्रोधित है कि उसने अन्न जल त्याग दिया, परन्तु योगमाया ने हर्षवर्धन की एक ना सुनी और बोली___
आप जैसे राजा महाराजा मुझ पर इतना प्रेम लुटाते हैं, अपना सारा धन मुझ पर न्यौछावर करने के लिए तैयार हैं और उस तुच्छ द्वारपाल ने मुझे मन्दिर के भीतर जाने से रोका,आप उसे मृत्युदण्ड दें अन्यथा मैं अपने प्राण त्याग दूँगी।।
हर्षवर्धन बोले__
प्रिऐ! उस मन्दिर में अभी से नहीं वर्षों से स्त्रियों का जाना वर्जित हैं और ये वहाँ के आचार्य का आदेश हैं, माना कि वो मन्दिर मेरे राज्य में है परन्तु उस मन्दिर के कर्ता धर्ता आचार्य शिरोमणि हैं और उनके आदेश के बिना उस गुरूकुल का पत्ता भी नहीं हिल सकता, मै निसहाय हूँ देवी! कृपया मेरी मनोदशा समझने का प्रयत्न करें, आप क्या हमारी राजमहल की रानियाँ और राजकुमारियाँ भी वहाँ प्रवेश नहीं कर सकतीं,मुझे क्षमा करें आपको कष्ट हुआ,ये बात मुझे आपसे पहले ही कह देनी चाहिए थी,जिससे कि बात इतनी ना बढ़ पाती,
आप अभी विश्राम करें और भोजन गृहण करें, नहीं तो इससे आपके रूप सौन्दर्य पर असर पड़ेगा, जब आपका क्रोध शांत हो जाएगा, तब मैं हवामहल आऊँगा और इतना कहकर हर्षवर्धन चले गए।।
हर्षवर्धन की बात सुनकर, योगमाया को अत्यधिक कष्ट हुआ,उसे लगा सब स्वार्थ का संसार हैं, जब मैं श्रृंगार करके राजा के सामने उपस्थित होती थीं तो राजा मेरी एक एक मुस्कुराहट पर सौ सौ स्वर्ण मुद्राएं लुटाते थे,परन्तु आज जब मैं इस अवस्था में हूँ, मेरा मन विचलित हैं और मैं चाहती थीं कि कोई मेरे निकट आकर प्रेम के दो मीठे बोल बोले तो राजा ऐसी बातें कर रहें हैं, कैसा है ये संसार, यहाँ केवल लोग स्वार्थ के लिए ही किसी का संग निभाते हैं, घृणा हो गई हैं मुझे ऐसे संसार से परन्तु अब तो मैं उस मन्दिर के भीतर अवश्य जाऊँगी, ऐसे नहीं तो छल द्वारा जाऊँगी, किन्तु जाऊँगी अवश्य, ये योगमाया ने स्वयं से प्रण किया।।
और इस कार्य के लिए उसने एक युक्ति निकाली, वो वहाँ पुरूष का वेष धरकर पहुँची,मन्दिर के प्रांगण तक भी पहुँच गई, उसने देखा कि कोई आचार्य समाधि मे लीन हैं, तभी छात्रों के वार्तालाप से उसे ज्ञात हुआ कि वो तो आचार्य शिरोमणि हैं।।
और वो मन्दिर के प्रांगण में सब ओर घूम घूम कर देखने लगी और उसी समय आचार्य शिरोमणि जी अपनी समाधि से जागें,एक नए व्यक्ति को देखकर उन्होंने उसका परिचय पूछना चाहा,परन्तु योगमाया कुछ भयभीत सी हो गई और कुछ उत्तर ना दे पाई।।
आचार्य शिरोमणि बोले___
इतने भयभीत क्यों हो,मुझे अब तुम पर संदेह हो रहा हैं क्योंकि पहले तो तुम्हें मैनै कभी यहाँ नहीं देखा,योगमाया ने भयभीत होकर अपने पग पीछे की ओर रखें ही थे कि उसके तलवें में वहाँ वृक्ष से गिरी हुई छोटी सी एक नुकीली टहनी गड़ गई और वो अपनी संतुलन खो बैठी जिससें वो धरती पर गिर पड़ी और पगड़ी में छुपे उसके लम्बे केश बाहर आ गए।।
अब आचार्य शिरोमणि के क्रोध का पार ना था,उन्होंने कहा कि___
तुम! स्त्री हो और इस मन्दिर के पवित्र प्रांगण मे क्या रहीं हो,अभी इसी समय निकल जाओ यहाँ से,आज के बाद कभी भी तुम्हारे पग इस मन्दिर में ना पड़े,अपवित्र कर दिया तुमने मन्दिर को,अब सारा मन्दिर गंगाजल से धुलना पड़ेगा,जाओ अब,मेरा मुँख क्या देख रही हो?
इतना सुनते ही योगमाया की आँखों से अश्रुओं की धारा बह चली और भागते हुए वो मन्दिर से बाहर निकली,दोबारा इतना अपमान, उसकी आंँखों से वो अश्रु नहीं प्रतिशोध की ज्वाला बह रहीं थी , उसके अन्तर्मन मे लगी अपमान की अग्नि उसे क्षण क्षण जला रही थीं और वो अग्नि तभी शांत हो सकती थी जब वो अपने अपमान का प्रतिशोध आचार्य शिरोमणि से ले लेगी।।
कुछ दिनों के प्रयास के उपरांत योगमाया को ज्ञात हुआ कि आचार्य शिरोमणि का अतिप्रिय शिष्य हैं जिस पर वे स्वयं से अधिक विश्वास रखतें हैं और उसे ही गुरूकुल का कार्यभार सौंपना चाहते हैं,अब योगमाया को प्रतिशोध का मार्ग मिल गया था वो उनके शिष्य को अपने प्रेमजाल में फाँसकर उनसे अपने अपमान का प्रतिशोध लेंगी, ऐसा उसने प्रण किया।।
क्रमशः__
सरोज वर्मा__