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प्रतिशोध--भाग(७)


सत्यकाम को मणिशंकर ने जो मार्ग सुझाया था,वो सत्यकाम को भा गया और प्रातः होते ही वो गंगा स्नान के मार्ग पर निकल पड़ा और माया की झोपड़ी जा पहुँचा, उसने एक दो बार माया को पुकारा परन्तु माया ने कोई उत्तर ना दिया और ना ही किवाड़ खोले,अब सत्यकाम के क्रोध की सीमा ना रहीं, उसे लगा कि माया अब भी उससे बात नहीं करना चाहती,वो उदास गंगातट की ओर चल पड़ा और मार्ग में उसे माया भजन गाती हुई दिखीं,उसकी प्रसन्नता का अब कोई भी ठिकाना ना था।।
वो माया के निकट पहुँचा ही था कि उसके पद्चाप का स्वर सुन कर माया बोल उठी____
आ गए तुम!!
परन्तु तुमने कैसे जाना कि मैं हूँ, सत्यकाम ने पूछा।।
जिसकी प्रतीक्षा मैं उस रात्रि से कर रही हूँ, भला! उसको कैसे ना पहचानूँगी,माया बोली।।
क्या कहा तुमने? प्रतीक्षा और मेरी,सत्यकाम ने आश्चर्यचकित होकर पूछा।।
हाँ,उस रात्रि मैनें कड़वें शब्द कह तो दिए तुम्हें किन्तु रात्रि भर पछताती रही,मुझे लगा कि तुम तो मेरी भलाई करने आए थे और मैने क्या किया? ऐसा तुच्छ व्यवहार किया तुम्हारे संग,मैं तुमसे आज क्षमा माँगती हूँ एवं धन्यवाद भी कहना चाहती हूँ, जो उस दिन तुमने मेरे प्राण बचाएं,इतने दिनों तुम मुझसे क्रोधित थे,ये अधिकार तो था तुम्हारा क्योंकि जो कड़वें बोल कहें थे मैनें ,वो क्षमायोग्य नहीं थे, माया बोली।।
किन्तु, माया! मैं तुमसे क्रोधित अवश्य था,परन्तु उस दिन जब मैनें तुम्हारा स्पर्श किया तो तुम मुझे मेरे हृदय के अत्यधिक समीप लगीँ, इसके पहले मेरे मन मस्तिष्क में ऐसा कौतूहल कदापि नहीं हुआ था जो उस दिन तुम्हारे स्पर्श के पश्चात हुआ,इसे मैं क्या समझूँ, काम,वासना या के पवित्र प्रेम ,सत्यकाम ने माया से कहा।।
परन्तु, ये तो मित्रता थी और मित्रता का बृहद रुप ही प्रेम होता है, दो प्राणी परस्पर जब एकदूसरे के अच्छे मित्र बन जाएँ,एकदूसरे के मन के भावों को समझनें लगें, एकदूसरे का सुख दुख बाँटने लगे,उनकी रूचियाँ एक दूसरे से मेल खाने लगें तथा एक दूसरें को इतना समझने लगें कि बिन बोले ही केवल नैनों की भाषा समझ जाएं तो समझों कि ये प्रेम हैं किन्तु मन में केवल एकदूसरे का तन पाने की लालसा हो तो वो वासना है जिसमें कि रत्तीभर भी प्रेम नहीं होता, जो केवल विनाश का कारण बनता हैं,प्रेम तो निश्छल एव स्वार्थरहित होता है, जो केवल त्याग और बलिदान के बल पर खड़ा होता है, जिसमे लेशमात्र भी छल ना हो,कपट ना हो वो ही सच्चा प्रेम कहलाता है, यदि जो मैने कहा उससे तुम सहमत हो तो कह दो अपने हृदय की बात,माया बोली।।
प्रेम क्या होता है? ये समझने के लिए मुझे तो तुम्हारे संग रहना पड़ेगा, तभी मुझे प्रेम का अभिप्राय समझ आएगा, इसके लिए मुझे गुरूकुल का त्याग करना होगा,किन्तु ये तो आचार्य शिरोमणि के संग विश्वासघात होगा,वो मुझे सबसे अधिक प्रेम करते हैं, मुझ पर इतना विश्वास रखते हैं,प्रेम को समझने के लिए तो क्या मैं उनका विश्वास तोड़ दूँ, इतने वर्षों की तपस्या और परिश्रम को केवल प्रेम के लिए ब्यर्थ जाने दूँ,मैं अत्यधिक असमंजस हूँ,मुझे कुछ भी सूझ नहीं पड़ता कि मैं क्या करूँ? सत्यकाम बोला।।
योगमाया सोचने लगी कि यही तो अवसर है जब मैं सत्यकाम को आचार्य शिरोमणि से पृथक कर सकती हूँ, जो हो रहा है ऐसा ही तो मैं चाहती थीं किन्तु मेरा हृदय ऐसा घृणित कार्य करने के लिए सहमत नहीं हो रहा किन्तु मस्तिष्क कह रहा है कि क्या सोच रही हो,अवसर को मत छोड़ो,मैं क्या करूँ? मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा ,क्या उत्तर दूँ सत्यकाम के प्रश्नों का,माया ने मन में सोचा।
क्या हुआ माया? तुम मेरे प्रश्नों का उत्तर क्यों नहीं दे रही,मै विक्षिप्त हूँ, अवसाद मे हूँ, सत्यकाम बोला।।
क्या उत्तर दूँ?मैं तुम्हारे प्रश्नों का,मुझे अपराधी मत बनाओ सत्यकाम, मैं तुम्हारे ज्ञान के मार्ग में अवरोध उत्पन्न नहीं करना चाहती,तुम ने मेरे कारण अपनी विद्या का त्याग कर दिया तो स्वयं को मैं कभी भी क्षमा नहीं कर पाऊँगी,इतना बड़ा कलंक लेकर मैं नहीं जी पाऊँगी, इतना बड़ा पाप जिसका कोई निदान नहीं हैं, तुम्हारे आचार्य इन सबका दोषी मुझे ठहराएँगे, सत्यकाम ये प्रेम ना होगा, ये तो मेरा स्वार्थ होगा, माया बोली।।
ये कैसीं बातें कर रही हो? माया,अभी तो तुम प्रेम के विषय में इतनी बड़ी बड़ी बातें कर रहीं थीं और दूसरे ही क्षण ऐसा कह रहीं हों,क्या तुम मुझसे प्रेम नहीं करती,सत्यकाम ने माया से पूछा।।
प्रेम तो ज्ञात नहीं किन्तु सच्ची मित्रता अवश्य की है एवं तुमने यदि गुरूकुल छोड़ दिया तो,उसका कारण तो मैं बनूँगी और इतना बड़ा लांक्षन लेकर मैं कदापि ना जी पाऊँगी, क्या तुम गुरूकुल त्यागने के उपरांत संसार से ये कह सकते हो कि मैं माया से प्रेम करता हूँ इसलिए मैने गुरुकुल और अपने गुरु का त्याग किया,माया बोली।।
हाँ,मैं कह सकूँगा, क्या तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं, सत्यकाम ने पूछा।।
हाँ,विश्वास तुम पर तो है, किन्तु संसार पर नहीं, ये संसार तुम्हें जीने नहीं देगा,सत्यकाम! माया बोली।।
मुझे किसी की चिंता नहीं माया! सत्यकाम बोला।।
क्या अपने आचार्य की भी नहीं, माया ने पूछा।।
हाँ...हाँ... किसी की नहीं..... किसी की नहीं.... सत्यकाम ने चिल्ला कर कहा।।
मैं भी तुमसे प्रेम करने लगीं हूँ सत्यकाम! किन्तु कह नहीं पाई,उस दिन तुम्हारा स्पर्श पाकर जो मेरी मनोदशा थी वो मैं कह नहीं पाऊँगी,मेरे हृदय ने जो स्थान तुम्हें दिया है, वो आज तक किसी को भी नहीं दिया,माया बोली।
क्या ये सत्य हैं? माया! क्या तुम्हारे मन में भी वही भाव उठ रहे हैं जोकि मेरे मन में,सत्यकाम ने माया से पूछा।।
प्रेम तो वो रंग है जिससें तो कदाचित आज तक कोई अछूता ना रह गया होगा,प्रेम की महक मानव के तन और मन दोनों को महका जाती है, प्रेम पर किसी का वश नहीं रहता सत्यकाम!प्रेम कभी सोचकर नहीं किया जाता,ये तो बस हो जाता है, प्रेम मस्तिष्क की नहीं हृदय की बात मानता है, जैसे कि मैं और तुम,हम ना चाहते हुए भी एकदूसरे के इतने निकट आ गए की अब पृथक होना असंभव सा लगता है, माया बोली।।
हाँ,माया! सत्य कहा तुमने, ये प्रेम ही तो है जो मैं तुम्हारे भावों की धारा में बहता चला जा रहा हूँ, प्रेम ऐसी भँवर है जिसमे डूबकर कोई भी आज तक उबर नहीं पाया,सत्यकाम बोला।।
परन्तु सत्यकाम! मैं तुम्हारा प्रेम स्वीकार नहीं कर सकतीं, संसार क्या कहेंगा कि सत्यकाम को एक नेत्रहीन ने अपने मोह मे फाँस कर उसके वर्षों के ज्ञान का नाश कर दिया,उसे ज्ञान से वंचित कर दिया,उसकी मति फेर दी,ना....ना....ये सुनने से पहले मुझे मर जाना प्रिय होगा,माया बोली।।
किन्तु हमारा प्रेम शुद्ध है, पवित्र है माया! सत्यकाम बोला।।
किन्तु अब मैं कुछ और नहीं सुनना चाहती,मैं जा रही हूँ और कभी भी मुझसे मिलने का प्रयास ना करना,इतना कहकर माया रोते हुए चली गई।।
माया का पुनः ऐसा शुष्क व्यवहार सत्यकाम को अच्छा ना लगा और वो भी गुरूकुल लौट चला।।
उधर माया उदास सी अपनी झोपड़ी जा पहुँची, सायंकाल तक ऐसे ही अपने बिछावन पर उदास लेटी रहीं, तभी उसके बिछावन के तले बनी सुरंग से उसे मधुमालती ने पुकारा___
देवी! आपके लिए सायंकाल का भोजन लेकर आई हूँ, मधुमालती बोली।।
माया ने अपना बिछावन हटाकर लकड़ी के पल्ले को उठाया और मधुमालती सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर आ गई और उसने योगमाया का उदास मुँख देखकर पूछा__
क्या हुआ देवी! आप अत्यधिक चिंतित दिखाई दे रही हैं।।
ना ! ऐसा कुछ नहीं है, योगमाया बोली।।
कुछ तो है जो आप इतनी दुखी लग रहीं हैं, मधुमालती बोली।।
अब क्या बताऊँ तुझे? मुझे ऐसा लगता है कि मुझे सत्यकाम से प्रेम हो गया है, उस दिन से उसका स्पर्श पाकर मेरा मन बावरा सा हो गया है, उसके समीप जाते ही ,मैं अपनी सुध भूल जाती हूँ, उसके तन से आती महक मुझे उससे प्रेम करने को विवश करती है, मैने कभी भी नहीं सोचा था कि किसी साधारण से मानव से मैं प्रेम करूँगी क्योंकि मेरी महत्वाकांक्षा तो किसी राजा महाराजा को पाने की थी,परन्तु अब प्रश्न ये उठता है कि यदि किसी राजा महाराजा को मैने पा भी लिया तो वो सम्मान मुझे कभी नहीं मिल पाएंगा जो मुझे सत्यकाम दे सकता है क्योंकि मैं एक नर्तकी हूँ और संसार केवल मुझे पाना चाहता है किन्तु अपनी ब्याहता बनाने के लिए कोई नहीं सोचेगा, योगमाया बोली।।
ये तो सत्य है देवी! किन्तु अब क्या उपाय है, इसका समाधान क्या है? मधुमालती ने पूछा।।
मुझे कुछ नहीं सूझ रहा,तू अभी यहाँ से जा,कल मिलकर बताऊँगी,माया बोली।।
ठीक है,अब मैं जाती हूँ और इतना कहकर मधु चली गई और इधर माया बिना भोजन किए पुनः बिछावन पर लेट गई।।
इधर सत्यकाम आज पुनः माया के व्यवहार से ब्यथित था,उसका मुँख देखकर मणिशंकर ने पूछा__
क्या हुआ मित्र!
कुछ नहीं, वो कहतीं है कि यदि मैने गुरूकुल छोड़ दिया तो संसार उस पर सारा दोष मँढ़ देगा,सत्यकाम बोला।।
इसका तात्पर्य है कि वो तुमसे प्रेम तो करती है परन्तु स्वीकार करने के लिए उसे संसार का भय है, मणिशंकर बोला।।
हाँ,यही बात है, सत्यकाम बोला।।
कुछ नहीं, मित्र! तुम कुछ दिन उससे ऐसे ही मिलते रहोगे तो वो स्वतः ही प्रेम स्वीकार कर लेगी,तुम्हें कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी, मणिशंकर बोला।।
तुम ठीक कहते हो मित्र! सत्यकाम बोला।।
मणिशंकर को लग रहा था कि वो अपने प्रयास मे सफल हो रहा है, अब श्रेष्ठ शिष्य का स्थान उसे ही मिलेगा।।

क्रमशः____
सरोज वर्मा___




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