होगी जय, होगी जय... हे पुरुषोत्तम नवीन! Suryabala द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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होगी जय, होगी जय... हे पुरुषोत्तम नवीन!

सूर्यबाला

बात फैल गई चारों ओर! जंगल की बात, जंगल की आग की तरह! अरुण वर्मा ने आज फिर एक ट्रक पकड़ा है, पकड़ा है तो खैर ऐसी कोई खास बात नहीं! सभी फॉरेस्‍टवाले पकड़ते रहते हैं। ऐसे कि जहाँ माल लादकर चुपचाप रफूचक्‍कर हो जाने की सरसराहट सुनी, टार्च की रोशनी फेंककर एक तीखी सीटी के साथ दहाड़ मार दी - 'स्‍टॉप, कहाँ जाता है बे? खबरदार जो भागने की कोशिश की! चलो, रोको ट्रक उधर!'

ट्रक रुक जाता है। बैठा हुआ ड्राइवर और साथी उतर आते हैं हाथ जोड़कर। फिर कुछ अदद हुजूर... माई-बाप किस्‍म के सिखाए-पढ़ाए मुहावरे, कुछ गरज-तरज लानत-मलामतें, घुड़कियाँ और फुसफुसाहटें और सबसे आखिर में एक हाथ से दूसरे हाथों में सरकती हुई नोटों की गड्डियाँ और इसके बाद ट्रक ऊपर से बीड़ी और पीछे से जले तेल का धुआँ छोड़ता जंगलों को रौंदता आराम से गुजर जाता है।

सो इन बातों से कोई उत्तेजना नहीं फैलती! उत्तेजना की लपटें तो फैलती हैं जब अरुण वर्मा कोई ट्रक पकड़ते है! क्‍योंकि पकड़ते हैं तो किसी हालत में छोड़ते नहीं। दूसरे, उनके ट्रक पकड़ने पर न मटन-पुलाव बन पाता हैं, न चिकन-बिरयानी; उलटे हफ्तों, पखवारों सनसनी, हलचल, इंक्‍वायरी, बैठकें! कुल मिलाकर मौसम में ठंडक पड़ते-पड़ते महीनों लग जाते हैं।

इस बार तो सीधे-सीधे दावानल ही भड़का दिया इस अकल के दुश्‍मन ने। जो ट्रक पकड़ा वह किसी ऐसे-वैसे ठेकेदार, जत्‍थेदार का नहीं, सीधे-सीधे एम.एल.ए. के भतीजे का। और वे नाते-रिश्‍ते तो दिखाने के लिए हैं, असल में तो सारा-का-सारा कारोबार ही उनका है।

अब ऐसे नादान तो नहीं थे कि पहचान न पाए हों। अरे, लाल सूरज के छापे और त्रिशूल की निशानीवाले ट्रक दूर से ही अपनी पहचान बताते हैं! निशानी लगाई किसलिए गई है! बेकार का अड़ंगा हटाने के लिए ही तो। जंगल का जर्रा-जर्रा जानता है। कुछ कहने-सुनने की जरूरत ही नहीं। जब सारे क्षेत्र पर उनका राज है तो जंगल क्‍या उसे अलग है? उनका जंगल, वह चाहे काटे, चाहे रखें; अरुण वर्मा के बाप का क्‍या जाता है? ऐं!

सबकुछ जानते हुए रोका, अपने पूरे होशो-हवास में थे अरुण वर्मा? इसमें भी लोगों को शक है। पर पीते-पिलाते भी तो नहीं। कुछ ज्‍यादा बोलते-बताते भी नहीं, फिर भी अब ऐसे कांडों के बाद उनके अगल-बगल से गुजरकर किसी को अपना सिर कलम करवाना है क्‍या? खैरियत चुपचाप कतराकर निकल जाने में ही है! जो भी हो, जाए यहाँ से तो चैन की साँस पड़े, अगल-बगल के खाते-पीते क्‍वार्टरों में।

पर खाना-पीना बदस्‍तूर चलते रहने पर भी एक उधेड़बुन तो जब-तब हलकोरती ही है कि आखिर क्‍या मिलता है इस शख्‍स को हर महीने-दो महीने पर अपना सिर इस महकमे की चक्‍की में डालकर कुटवाने में? देखने-सुनने में ऐसा कुछ खब्‍ती, सनकी किस्‍म का या अकड़बाज, अड़ियल भी नहीं लगता। सीध-सादा, पढ़ा-लिखा, बाल-बच्‍चेदार आदमी। पूरे अदब-कायदेवाला। फिर इसकी आदतें आखिर बिगड़ीं कैसे? खोट कहाँ है कि अपने कैरियर में बदरंगी थिगलियाँ लगवाता यहाँ से वहाँ तबादलों का फरमान लिए भटकता फिरता है। यहाँ इस हलके में भी तो... शायद अभी सारा सामान खुला भी न हो।

अलग-बगल के क्‍वार्टरों की खिड़कियाँ आहटें लेतीं खुलनी-बंद होनी शुरू हो गई! सरे-शाम घर लौटे पतियों से हड़बड़ाई बीवियाँ पहले यही पूछती हैं, "क्‍या हुआ? माने कि नहीं अरुण वर्मा?"

"मरेंगे और क्‍या!" गृह-स्‍वामी लुंगी का फेंटा कसते-कसते चाय का प्‍याला थाम लेता है।

"मगर आदमी है दिलेर!"

"तुम्‍हारा सिर!"

जवाब कुछ इस तिलमिलाहट के साथ मिलता है कि पूछनेवाली सिटपिटाकर भजिए तलवाने पहुँच जाती हैं।

गरम भजिए आने तक गृह-स्‍वामी माकूल जवाब सोच चुका होता है "अभी नया खून है न! उबाल आते देर नहीं लगती। जब खून जलना शुरू होगा तब आटे-दाल का भाव पता चलेगा बच्‍चू को।"

कुछ इसी किस्‍म का वार्तालाप बाकी क्‍वार्टरों के पतियों और उनकी बीवियों के बीच चलता होता है।

"महादेव कह रहा था, बड़ी गहमा-गहमी है आजकल दफ्तर में! अच्‍छा, यह अरुण वर्मा है कैसा देखने में? मुझे याद नहीं पड़ता कभी देखा हो?"

"बताऊँ? दो सींग हैं सींग पर उसके, और पीछे लंबी सी दुम।" पति हड़ककर कहता है, "तुम लोगों की आदत है बात का बतंगड़ बनाने की। और इस आदमी को भी क्‍या कहा जाए। पूछो, जो चीज हर तरफ से एक्‍सेप्‍टेड है, खुलेआम चालू है, ऊपर से नीचे तक हर कोई जानता-समझता है, उसे लेकर इस तरह की बेवकूफी की हरकत कर कौन सा झंडा फहरा लेना चाहता है? सिर्फ हद दर्जे की नासमझी और कूढ़मगजी।"

लेकिन सुननेवाली ने चपरासियों, मातहतों की कानाफूसी के दौरान जो कुछ सुना था, उसे सहेजती अपनी जिज्ञासा रोक नहीं पाती।

"अच्‍छा! तुम्‍हें क्‍या लगता है, उसे पहले से मालूम होता कि ट्रक फलाँ-फलाँ का हैं, तो भी रोक लेता क्‍या?"

गृह-स्‍वामी इस सवाल से कतरा जाने के लिए न सुनता-सा जल्‍दी से आलूचाप का एक बड़ा सा टुकड़ा मुँह में भर लेता है।

दफ्तर में भी फाइलें एक मेज से दूसरी मेज पर सरकती हुई, फुसफुसाती हुई यही सवाल पूछती रहती हैं -

"क्‍यों भाई! मालूम नहीं था इन अरुण वर्मा को, या जान-बूझकर शेर की माँद में..."

"वह छोड़ भी दो, जाने में या अनजानें में; लेकिन अब होगा क्‍या? कहाँ डिस्‍पैच किए जाएँगे यहाँ से?"

"यार, डिस्‍पैच की बात तो तब होती है जब लाख-दो लाख के ठेकेदारों, ताबेदारों के काम में खलल आता है। यह रास्‍ता तो सीधे-सीधे जहन्‍नुम को जाता दीखता है।"

"अच्‍छा, यह इसने बिना किसी सोर्स, पुल के यों ही कर डाला! कहीं कोई खानदानी दुश्‍मनी तो नहीं?"

"ऐसा तो कोई खानदान या खानदानी जर-जमीन मिल्कियत वाला भी नहीं।"

"तभी क्‍यों करता है ऐसा?"

"सुना, बच्‍चों की दो बरस की पढ़ाई का नुकसान पहले ही हो चुका ऐसे ही झमेलों में।"

"बेबात इतना बड़ा बखेड़ा मोल लेना, कुछ समझ में नहीं आता। अखिर क्‍यों?"

"कुछ नही, विनाशकाले विपरीत बुद्धिः, भइए।"

"सुना, पिछले हलकों के सहकर्मियों में तो मशहूर हो गया था कि जो घर फूँके आपना, जाए अरुण वर्मा के साथ।"

"यानी?"

"यानी ब्‍लैक लिस्‍टेड।"

तभी दो-हत्‍थड़ मारकर एक मनचला ठहाका लगाता है - "वाह! जरा सोचो यारो, ईमानदारी और उसूलों पर भी बाकायदे ब्‍लैक लिस्‍टेड होने लगे ना! "

"अमाँ, कहाँ की फिलॉसफी छाँट रहे हो! अभी तुमसे कहें कि जरा आज की जिंदगी से सही और गलत, ईमानदारी और बेईमानी को छोर-छोर कर अलग-अलग खतियाओ, तो कर लोगे क्‍या? बोलो, कूवत है छाँटने की? मालूम तो होगा कि बेईमानी, झूठ और फरेब से निकलकर जिंदगी का तर्जुमा करोगे तो क्‍या होगा?"

इस पर खटर-खट चलते हुए टाइपराइटर अटककर लमहे भर को रुक गए। लेकिन फिर बदस्‍तूर सिर झुकाए यंत्रवत् चालू हो गए।

घरघराते कूलर की साउंडप्रूफ दीवारों के अंदर भी एक मातहत आवाज पेशी लगाती है।

"सर! वह अरुण वर्मा वाले केस का क्‍या किया जाए?"

"क्‍या करना चाहते हो तुम?"

"मैं? सर, मेरा क्‍या चाहना...।" आवाज हकलाती है - "जैसा आप चाहें।"

"क्‍यों? वर्मा तुम्‍हारे अंडर में है! इमीडिएट बॉस तो तुम हो, रिपोर्ट तुम्‍हें ही अपने कमेंट के साथ फॅारवर्ड करनी है, भई।"

आवाज कूटनीतिक हँसी के छर्रे-सी छोड़ती है।

"तुम उसे ईमानदार मानते हो? तो लिख दो, अफसर प्‍यादे को फर्जी में बदल देता है।"

"लेकिन सर, मेरे मानने, न मानने से ज्‍यादा तो महकमा प्रूफ पर जाएगा न! और प्रूफ में पहले ही तीन-तीन जगहों से ट्रांसफर...। ये सारी बातें रिपोर्ट के साथ ऊपर तक जाएँगी।"

"लुक! तुम एक जिम्‍मेदार अफसर हो। दूध पीते बच्‍चे नहीं कि सारी बातें तुम्‍हें नए सिरे से समझाई जाएँ।"

नहीं, अब समझ में आना कहाँ बाकी रहा? अफसर को इस आदमी में कोई इंटरेस्‍ट नहीं, उसने साफ इशारा कर दिया।

"तो" गले में फिर भी, कहते हुए कुछ रुँधता-सा है - "फिर सस्‍पेंड सर?"

"ओ.के.! "

छोटा अफसर समझता है इस लहजे को। बड़ा अफसर खुश है। यह साफ-साफ कहने की जरूरत ही नहीं पड़ी कि हटाओ, सस्‍पेंड करो साले को। आखिर देर-सबेर उसे बरखास्‍त तो होना ही है। ऐसे-ऐसे मूजी इस महकमे में और कितने दिन चलेंगे। इतना तो उसे ट्रक पकड़ने के साथ ही मालूम होना चाहिए था कि किस ट्रक को पकड़ने का क्‍या हश्र होता है? हमें भी तो ऊपर तक जवाब देना पड़ता है।

पूरे दफ्तर में सनसनी फैली और बैठ-सी गई। अरुण वर्मा सस्‍पेंड हो गए। लेकिन अपना साहब बड़ा नेकदिल है! राजकिशोर बताता था, उन्‍हें सस्‍पेंशन लेटर देते समय उनकी आवाज भर्राई थी, उनके हाथ काँपे थे, वरना जंगल का महकमा जंगल से ज्‍यादा जंगली होता है।

लेकिन यह अरुण वर्मा अजीब ही भेजे का आदमी है भई! 'सस्‍पेंड' का लिफाफा लेकर ऐसे निकला जैसे साग-सब्‍जी लाने के लिए थैला लेकर निकला हो। निर्विकार, निस्‍संकोच; चेहरे पर न आक्रोश, न उद्वेग, न तिल-मिलाहट, न शर्मिदगी-यानी? बेहया किस्‍म का क्‍या?

न एकदम सपाट, थमा-थमा सा। किसी को देखकर मुस्कराहट वैसी ही बरकरार हो जाना। न किसी को मुँह चुराने का अवसर देना। न कतराकर निकल जाने का ही। खुद बढ़कर हाल-चाल पूछ लेना और अंत में सस्‍पेंशन ऑर्डर लिए चुपचाप घर आ जाना।

पड़ोस के क्‍वार्टरों की खिड़कियाँ फिर अकुलाहट से खुलनी-बंद होनी शुरू हो गई। कुछ आहट या सुराग ही लगे। पता नहीं बेचारे के घर चूल्‍हा भी जला या नहीं... इसी बहाने। ऑफिस से लौटे हुए लोग बीवियों से पूछ रहे हैं - क्‍या कहती हो, चलना चाहिए या नहीं? हाँ-हाँ, तुम तो उसी दिन से कह रही हो, पर यहाँ तो आगा-पीछा सब सोचना पड़ता है न! कब, किस क्‍वार्टर की खिड़की क्‍या सुराग ले रही है और लेकर आला टेबलों पर जड़ दिया तो? बीवी-बच्‍चोंवाले ठहरे। डरकर रहने, दुबकने में ही खैरियत है... (और बीवियाँ सोचती हैं कि अगर आज इन मरदों के हम बीवी-बच्‍चे ने होते तो अपनी सारी तोहमतें ये आखिर किस‍के पल्‍लू से बाँधते?)। लेकिन चलो भाई, अब तो जो होना था हो चुका। अब कुछ, खास खतरा नहीं। चलो, मिल-जुल आया जाए।

बच्‍चे दरवाजा खोलकर किलके - ‌‌"पापा! भाटिया अंकल, आंटी आए है।"

"तो अंदर ले आओ, बेटे!"

वे लोग अजीब सकते की-सी स्थिति में घुसते हैं। लेकिन यहाँ तो सब कुछ सामान्‍य, शांत-सा। फिर भी बात शुरू करना, समझाना तो अपना फर्ज है।

"भई वर्मा, मुझे तो बड़ा रंज हुआ सुनकर, बाई गॉड बहोत..."

"शाम जब से आए हैं तब से उदास बैठे है।" बीवी ने हुँकारी मारी।

अरुण वर्मा कृतज्ञता जताते हैं।

"फिर भी, एक बात कहूँ? यह कहाँ का बवाल अपने सिर ले बैठे, ठीक नहीं क्‍या...।"

अरुण वर्मा चुपचाप सुनते रहे।

"अच्‍छा, बडे भाई की हैसियत से एक बात पूछता हूँ, कोशिश नहीं की कहीं?"

"किस बात की?"

"मामला रफा-दफा करने की।"

अरुण वर्मा ने हैरानी से देखा।

"मैं ही मुद्दा उठाऊँ और मैं ही रफा-दफा करने को कहूँ!"

"लो, सभी करते हैं। कह देते कि मुझे मालूम नहीं था कि ट्रक मृत्‍युंजय सिंह के भतीजे का है। कितने तरीके हैं, मेरे भाई"

"लेकिन भाटिया साहब, मुझे तो मालूम था। ट्रकवाला बार-बार इसी बिना पर तो धमकाना चाह रहा था। और अब अपने सच को झूठ में बदल दूँ?"

"अमाँ यार! जिंदगी में ये सब रामायण-महाभारत क्‍यों घसीटते हो?" अरुण वर्मा रोकते-न-रोकते कह ही गया, "लेकिन रामायण-माहाभारत जिंदगी की ही जमीन से उपजे हैं, भाटिया भाई!"

"छोड़ यार, तू छोटा है अभी। इतना तो मानोगे कि मैं उम्र में, एक्सपीरिएंस में तुमसे बड़ा हूँ। उसी हिसाब से कहता हूँ यह मगजमारी छोड़ हँसी-खुशी रहना सीखो! कहते हैं, जिंदगी जिंदादिली का नाम है!"

अरुण वर्मा चुप हो गया। वह कहना चाहता था कि जिंदादिली के अर्थ हमने बदल दिए हैं भाटिया साहब। लेकिन न कह सका। शायद वह जानता था, भाटिया की समझ में वह सब न आ पाएगा। लेकिन अपने को रोकते-न-रोकते जैसे पूछे बिना न रह पाया, "एक बात बताइए, भाटिया साहब! क्‍या अप सचमुच समझते हैं कि यह मेरी भूल है? मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था?"

इतनी देर से समझदारी और चतुराई बखानते भाटिया की आँखें सकपकाकर सीधे जमीन की ओर झुक गईं। लेकिन तत्‍काल साध ले गए भाटिया।

"देखो, सोचने-समझने का तो कोई अंत नहीं। बिना वजह इस सब में सिर खपाने से क्‍या फायदा? न, कुछ नहीं, सिर्फ नुकसान-ही-नुकसान।"

"मैं नफे-नुकसान की नहीं, भाटिया भाई, सही-गलत की पूछ रहा था।" अरुण वर्मा ने नम्रता से टोका।

भाटिया झल्‍लाए, "ठीक है, फिर सोचो भाई सोचो। जमाओ सही-गलत के हिसाब का रोकड़ा। लेकिन उसके पहले अपनी बीवी-बच्‍चों को हाथ में भीख का कटोरा थमाना न भूलना, समझे!"

तत्‍क्षण भाटिया को खयाल आया, क्‍या कह गए! तो वसुधा वर्मा की ओर झुकी नजारों से देखकर बोले, "माफ करना मिसेज वर्मा, जज्‍बात में बह गया।" और वापस वर्मा की ओर मुखातिब होकर बोले, "इ‍तना समझ लो, आदमी सिर्फ शगल के लिए नहीं करता यह सब। चाहता कोई नहीं, लेकिन बस करना पड़ता है।" कहते-कहते भाटिया हाँफने लगे।

अरुण वर्मा जैसे भाटिया से नहीं खुद अपने आपसे बोले, "हाँ, यही तो... चाहते हम कुछ और हैं, करते कुछ और, जैसे गलत पाठ को गलत समझते हुए भी रटते चले जाने की आदत-सी पड़ गई हैं।"

भाटिया चले गए तो कौशिक आए। ठीक वैसे ही अंदरनी स्‍क्रूप की तलाश में। शुरुआत यों की,

"नहीं।" अरुण वर्मा ने उनका आशय समझकर टोका, "कम-से-कम मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ है।"

"ऐसा कुछ नहीं?" कौशिक की आँखें हैरानी से फैलती चली गई, "तो तुम्‍हारा मतलब है, इस दुस्साहस और तबाही को तुमने खुद बुलावा भेजा है? कहीं कोई और ताकत, तुम्‍हारी बैकिंग...?

"हाँ, कौशिक साहब! झूठ नहीं बोलूँगा - एक ताकत है, जो हमेशा मेरी बैकिंग करती रहती है; लेकिन पता नहीं, शायद यह ताकत से ज्‍यादा एक आदत, एक लत ही।" अरुण वर्मा बच्‍चों-सी हँसी हँसता है।

कौशिक का चेहरा उतरता चला जाता है। एक विचित्र एंटी क्‍लाइमैक्‍स से गुजरने की तरह - यह कैसा स्‍क्रूप, यह कैसा रहस्‍योद्घाटन कि मुँह चुराकर निकल जाने को जी चाहने लगे; लेकिन फिर भी मंच के बीचोंबीच फँसे थे, एकदम से भागा भी नहीं जा सकता था न।

"फिर भी, मान लो, तब तैश में थे... लेकिन अब? अब तो आगे-पीछे सोचो।"

"लागातार सोचता हूँ कौशिक भाई। लेकिन यह 'लत' मेरा पीछा नहीं छोड़ रही। मुझसे चिपककर बैठ गई है। मेरी जिंदगी का एक हिस्‍सा ही...।"

"ठीक है भाई, अपना फर्ज था, बता दिया। निगलो हँसिया, उगलते वक्‍त मालूम पड़ेगा।" और कतराते हुए कौशिक भी उठ खड़े हुए।

कौशिक बाद जोशी, जोशी के बाद प्रभाकर, प्रभाकर के बाद अस्थाना। वसुधा थक गई थी। अंतिम मेहमान के जाते ही बोली, "खाना लगाती हूँ।"

"हाँ भूख लग आई है। बच्‍चे सो गए क्‍या?"

घिरे सन्‍नाटे के बीच भी वसुधा ने मुस्कराकर आँख मारी। इशारा था, बच्‍चे सोए नहीं, आँखें मूँदे सोने का बहाना किए बिस्‍तर पर पड़े पिता का इंतजार कर रहे हैं - पापा को बुद्धू बनाने के लिए।

अरुण वर्मा बच्‍चों के पास गए। उन्‍हें ध्‍यान से देखने का ढोंग करते हुए वसुधा को आवाज दी, "अरे, बच्‍चे तो सो गए! चलो, हम दोनों खा लें।"

और बच्‍चे चादर फेंक किलकारी मारते हुए पिता से लिपट गए। मन खुशी से लबालब कि खूब बुद्धू बनाया।

खाना देखते ही अरुण वर्मा किलक उठे, "वाह! मूली के पराँठे, कुरकुरे और लाल... एकदम माँ की तरह! यह तुमने अच्‍छा किया, जो माँ से पराँठे बनाना सीख लिया।"

वसुधा ने जान-बूझकर बनाया था, "डोंगा तो खोलो-पालक और बैंगन भी तुम्‍हारे परिवार का फेवरिट...।"

"हाँ पिताजी को खासकर बहुत पसंद था। हफ्ते में दो दिन तो बनते ही-बनते। उस दिन भी माँ ने बैंगन, पालक ही बनाए थे... मुझे अच्‍छी तरह याद है।" और फिर जैसे मनपसंद खाने के साथ मनपसंद कहानी-सी दोहरा रहे हों, "मैंने तुम्‍हें बताई थी न पिताजी के साथ घटी वह घटना! तब पिताजी डिप्‍टी इंस्‍पेक्‍टर ऑफ स्‍कूल थे, शिक्षा-विभाग में। एक बार गरमियों में दौरे पर आए डायरेक्‍टर के लिए बर्फ का इंतजाम नहीं हो पाया था। बस, गुस्‍सैल अफसर बिलबिला उठा था। फौरन पिताजी की मुअत्तली का ऑर्डर लिखा और चलता बना।

"सारा स्‍टाफ सन्‍न। हर तरफ तहलका और सन्‍नाटा साथ-साथ। एक दो सहकर्मियों ने सुना, आकर समझाया भी पिताजी को - माफी माँग लीजिए। शायद अफसर का दिमाग बदल जाए। नहीं तो फलाँ-फलाँ के पास चलिए, हम लोग भी कोशिश करते हैं।

"पिताजी ने माफी माँगने से साफ मना कर दिया, उलटे उन लोगों का शांत किया और चुपचाप घर लौट आए थे। माफी न माँगने का कारण भी स्‍पष्‍ट था। शहर में कहीं बर्फ नहीं थी उस दिन और सिर्फ बर्फ लाने के लिए चालीस मील दूर दूसरे शहर विभाग की गाड़ी भेजना पिताजी के उसूलों के खिलाफ था।"

"यह सब किसी से कहने की जरूरत थी भी नहीं। विभाग का हर बड़ा छोटा सहयोगी और कर्मचारी जानता था और यह भी कि अठराह सालों की उनकी नौकरी में कहीं लापरवाही या बेअदबी का एक छोटा सा धब्बा भी नहीं था। उनके उसूलों, आदर्श और स्‍वाभिमान की मिसाल पेश की जाती थी। उनकी बेदाग कलम की इज्‍जत और शोहरत थी।"

"कौन? आपके पिताजी की, पापा?"

बच्‍चों की दो जोड़ी कौतुक भरी आँखें थोड़ा-थोड़ा समझते हुए पूछ रही थीं।

"हाँ-हाँ, मेरे पिताजी की। और नहीं तो क्‍या तेरे पिताजी की!"

और अरुण वर्मा बच्‍चों के साथ खिलखिलाकर हँस पड़े।

"फिर? फिर क्‍या हुआ?" बच्‍चे अभिभूत थे।

"फिर? फिर कुछ नहीं। मेरे पिताजी घर आए। बिना किसी से कुछ कहें माँ से भी नहीं... यही बैंगन, पालक और पराँठे खाकर सो गए। लेकिन जब सुबह उठे और अखबार उठाया तो आँखों पर विश्‍वास न आया। शहर के प्रमुख अखबार के पहले पृष्‍ठ पर ही पिताजी की मुअत्तली की खुलेआम भर्त्‍सना की गई थी। उनकी कार्य-कुशलता और निष्‍ठा के प्रतिदान-स्वरूप मिले इस नौकरशाही कोष को शहर के सारे बुद्धिजीवियों, प्रमुख नागरिकों और सहयोगियों ने घोर अत्‍याचारपूर्ण और अन्‍यापूर्ण ठहराया था।"

"दूसरे दिन ऑफिस जाने पर पता चला, विभाग के आधे से ज्‍यादा कर्मचारियों ने अपने इस्‍तीफे तैयार कर रखे हैं भेजने के लिए...।"

"फिर?" छोटी बिटिया उनींदी हो रही थी, लेकिन बेटे की आँखों में नींद की जगह एक चमक थी।

"फिर डायरेक्‍टर को क्षमा-याचना के साथ अपना आर्डर वापस लेना पड़ा था। बस, कहानी खतम। अब आप भी सो जाइए।" अरुण वर्मा ने बेटे के गाल पर हलकी सी चपत लगाते हुए कहा।

वसुधा चुप रही थी लगातार। लेकिन बच्‍चे सो गए तो बिस्‍तर पर आकर अनायास पूछ बैठी, "सुनो, तुम भी किसी ऐसे चमत्‍कार की उम्‍मीद तो नहीं कर रहें?"

"पागल हुई हो! ऐसा कुछ नहीं, तुम्‍हें ऐसा क्‍यों लगा?"

"इसलिए कि इतनी बार की सुनाई कहानी तुमने आज फिर दोहराई।"

"वह तो..." अरुण वर्मा हँसे, "अपनी बैकिग के लिए, क्‍योंकि यह सब मेरे बहुत छुटपन में मिली संजीवनी है न टॉनिक-टॉनिक उसूल के पक्‍के परिवार का चालीस साल पुराना नुस्‍खा... डिंगडांग...।" अरुण हँसे, लेकिन फिर कबूलते हुए से बोले, "लेकिन सच-सच कहूँ तो मन तो उद्विग्‍न है, वसुधा!"

"मेरे और बच्‍चों के लिए?"

"न, नहीं वह तो आज की मुक्‍त नारी तुम सँभाल ले जाओगी - तुम लोगों की मुक्ति की इससे बड़ी सार्थकता और दूसरी हो भी क्‍या सकती है! सिर्फ अपनी मुक्ति के लिए भी लड़ना कोई लड़ना है!" अरुण ने चुहल के स्‍वर में कहा।

"ठीक। मान लिया, फिर तुम्‍हारी उद्विग्‍नता का कारण?"

"हाँ, कारण नहीं छिपाऊँगा। तुमने महसूसा न, इतने-इतने लोग आए मुझे इतना समझाने, लेकिन उनमें से एक ने भी यह नहीं कहा कि मैं कहीं-न-कहीं सही हूँ। मेरा मतलब किसी इन्कलाब, किसी विद्रोह से नहीं है, वसुधा। लेकिन लोग आज सही को सही मान लेने में भी इतना घबराते क्‍येां हैं? यहाँ मेरे घर के अंदर एक छोटा सा सच स्‍वीकारने में तो कहीं कोई नुकसान नहीं था उनका।"

"सीधी सी बात है, उनका नजरिया दूसरा है। और तुम्‍हें किसी की दया या सहानुभूति की जररूत भी क्‍या!"

"नहीं वसुधा, अपने लिए नहीं, मैं तो खुद उनके लिए कह रहा हूँ। लेकिन एक बात और भी तो है। अगर इतनी जरा सी भी परिवर्तन या बदलाव की झलक न दिखे तब तो यही लगता है न कि शायद अब जीर्णोद्धार नहीं हो सकता। तब कुछ भी सोचना या करना व्‍यर्थ है।"

"फिर वही बदलाव या चमत्‍कार जैसा कुछ कर दिखाने की मनशा या महत्‍वाकांक्षा? तुमने खुद स्‍वीकारा है न कि यह तुम्‍हारी लत है, बस इसी तरह करते चलो।"

"लेकिन आदमी हूँ मैं भी, वसुधा! किसी भी औसत कमजोर आदमी की तरह-कमजोरियाँ मुझमें भी पनपती हैं, द्विविधा मुझे भी घेरती हे। बीवी-बच्‍चों के दुखते कंधों के बूते पर‍ किया गया यह व्रत-संकल्‍प क्‍या ऐश और मुफ्तखोरी..."

"जानती हूँ, जिस व्‍यक्ति का परिवार उस पर आश्रित हो, उसकी बाध्‍यता, सीमाएँ होती हैं। एक हद से आगे नहीं जाया जा सकता। लेकिन यहाँ हमारे केस में तो मैं तुम्‍हें स्‍वतंत्र करती हूँ। मेरी महत्‍वाकांक्षा समझ लो, टॉनिक नहीं पिया तो क्‍या!" वसुधा हँसी।

"लेकिन बच्‍चे?"

"सो गए!" वसुधा ने हँसकर बातों का रुख मोड़ दिया, "तुम भी सो जाओ अब!"

लेकिन सो नहीं पाए अरुण वर्मा। सारी रात आँखें छत, दीवार टकटोरती रहीं। एक के बाद एक, सधे-बँधे हाथ वापस लौट जाने का रास्‍ता दिखाते रहे, जैसे कह रहे हों - लौटो अरुण वर्मा। यह आम रास्‍ता नहीं है। औसत, सामान्‍य आदमी का इस राह से गुजरना बहुत मुश्किल है। ...अरुण वर्मा सोचता है, वह जानता तो है यह सब-लेकिन तब भी कहाँ रोक पाता है अपने आपको, वही लत!

सुबह-सुबह आँखें खुली तो झुटपुटा-सा... बच्‍चे, वसुधा सोए हुए ही थे। अब आज ऑफिस भी कहाँ जाना - बहुत बड़े सपाट सन्‍नाटे भरे मैदान के बीचोबीच जैसे अकेला खड़ा हो। कुछ नहीं सूझा तो चुपचाप छोटी सी खुरपी लेकर बगीचे में आ गए। यों ही क्‍यारियों के बीच अनमने-से सूखी पीली पत्तियों को धीमे-धीमे निकालकर अलग करते रहे।

कि तभी आँखें मलता छुटका सा बेटा आकर लिपट गया।

"पापा! वह तो कल आप बता रहे थे अपने पापावाली बात, आज फिर से ठीक-ठीक बताइए। मैं अपने दोस्‍तों को बताऊँगा।"

अरुण वर्मा ने सहसा बेटे को बाँहों में भरा और अपने कद की ऊँचाई भर उठा लिया।

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