सूर्यबाला
आज मैं कितने सुब्बे-सुब्बे उठ गई। खुशखुश बाल बनाया, पीला रिबन बाँधा। माँ के काम वाली बाई का दिया चमाचम फ्रॉक पेना। बाहर आई तो बाजू वाला करीम काका मेरे कू देखके भोंपू का माफिक हँसता था। हो-हो, सुनंदा छोकरी। ये मइ क्या देखता रे - इस्कूल का लाल रिबन नहीं, नीला स्कर्ट नईं। आठ बजे का बदले सात बजे इच तू चमचम फिराक पेन के तैयार... आज इस्कूल में फंक्शन होता क्या रे? मइ सब समजता... तेरे को बख्शीश मिलता न? तबीच तो तू खुशी के मारे, से पाव पन लेने को नईं आई...
मैं खी...खी...खी...खी हँसी - "छकाया न मैं तेरे कू काका? अब्भी में शाला किधर जाती? मैं तो हिरवा फाटक वाला बँगला पे काम करने को जाती, शक्को माउशी के साथ। हिरवा बँगले वाली बाई मेरे कूँ चा-पाव सब देगी। शक्को माउशी बोली। तबीच तो मैं तेरे पास पाव नई लिया। खाली चा पी के जाती।"
करीम काका का हँसीवाला भोंपू बंद। चाबी खल्लास।
"काका से मस्ती करती? - इस्कूल नईं जाएगी तू अब्ब?"
"नईं...खी...खी...खी...खी...मैं बोली न! अब्भी तो मैं बँगले पे काम करेगी। भांडी घसेगी, फटका मारेगी।" मैं शक्को माउशी को पूछी, अब्भी मैं जिधर काम करेगी, वो बाई पन मेरे कू जूना, पुराना फ्रॉक देगी? - शक्को माउशी बोली - देगी।"
हिरवा फाटक वाली बाई कितना मस्त रे! एकदम शिरी देवी सरीखी। मैं काम फटाफट करती तो बोली - 'गुड गल्ल!" खी...खी...खी...खी...मैं बोली - मइ शाला जाती थी न बाई, तो मेरा टीचर पन मेरे कूँ 'गुड गल्ल - शाणी छोकरी' बोलती। मालूम क्यों? मई पाठ मस्त याद करती। उधर मैं सुलेख खूप साफ लिखती, इधर मैं भांडीपन साफ घसती न? खी...खी...।
दुपर को सा'ब आया। वो लोग टेबल पे संग बैठ के खाया। दाल, भाजी, दई, काकड़ी, रंग-बिरंगी चावल, फ्रूट और मलाई बरफ, मेरे कूँ देख के खूप अच्छा लगा।
पीछे बाई मेरे कूँ दो चपाती और भाजी दिया... फिर पूछा और माँगती है...? मैं डर के मारे 'ना' किया। बाई बोली - "शरमाने का नईं।" तो मैं दो चपाती जास्ती माँग के लिया। बाई खूब प्यार से समझाया - "लेने को मना नईं पर जास्ती चपाती... नुकासन करती।"
मैं पूछी - "फिर तुम भात देगी क्या?"
बाई बोली - "चपाती, भात का बात नई। ज्यादा खाने से पेट में दरद होता। जास्ती दरद होता तो डाक्टर लोग सुआ सरीख इंजेक्शन घोंपता... मालूम?"
मैं 'हाँ' में सिर हिलाया और एक चपाती कम खाया। तो पन बाबा क्या बोलता मालूम - "ओ गॉड! ये गल्ल कितना चपाती खाती!"
बाबा को कुछ अक्कल नई... ओ लोग कटोरी भर-भर के दाल, भाजी, मीट-मच्छी, दई, काकड़ी खाता... टमाटर, फ्रूट खाता। बाद में मीठा पाव जइसा केक खाता। सुब्बे-शाम दोनों टाइम दूध पीता। अंडा, केला, संतरा खाता-लेकिन मइ भी कित्ती बुद्धू - जब्भी तो डाक्टर कल बाई को पीला बाटली से इंजेक्शन लगा के गया और बाबा को भी चाकलेट आइसक्रीम खाने को मना बोला। ...बिचारा बाबा... कित्ता रोया था! उसको आइसक्रीम बौत अच्छा लगता न!
सा'ब का मोटरगाड़ी भूरा रंग का। एकदम करीम काका का डब्बल पाव जइसा।
मैं बेबी को पूछी - "तुम कू से कार गाड़ी कौन दिया?"
बेबी बोली - "कंपनी दिया। ...ये बँगला, फोन गारडेन, सब दिया।"
मैं पूछी-"ये कंपनी किदर रे?"
बेबी बोली - "वो दिखती न... ऊँची वाली लाल सफेद चिमनी। वहीं जाते मेरे डेडी।"
मैं बोली - "मेरा बाप पन कंपनी में काम करता था। पन वो कंपनी एकदम बंडल। सा'ब खाली दिन में काम करता न... मेरा बाप रात को भी। पन उसका तो कंपनी मस्त खोली, कार गाड़ी, कुछ नईं दिया। ऊपर से मेरा बाप का पाँव पटेला पन टूट गया।
बेबी पूछी - "तेरे बाप लँगड़ा है?"
मैं बोली, "पेले किदर था... ये कंपनी वाला मैशीन पाँव काट गिया न उसका।"
"फिर?"
"फिर क्या! अब्भी तो घर में बैठला है। घाव नरम न। ...तबीच तो मैं बोलती, मेरा बाप वाला कंपनी एकदम बंडल। ...मैं उसकूँ पूछूँगी, तेरा डैडी वाला कंपनी में काए कूँ नईं गिया वो?"
ये बाबा, बेबी लोग इत्ता पढ़ाई काए कूँ करता रे? ...उनका अटैची, पानी का बाटली, टिफन का डब्बा... सब कित्ता तो भारी। मैं हर दिन उनको इस्कूल बस तक पौंचाने जाती न तो एक हाथ में बाबा का अटैची दूसरे में दोनों का डिब्बा, माथे पे बेबी का अटैची... और दोनों कंधो पे एक-एक पानी का बाटली। एकदम कुली फिलिम इ जइसा खी-खी-खी-खी। बाई बोलती - बाबा, बेबी लोग बौत पढ़ाई करता, मालूम? मैं बोली, काए को नईं मालूम? तबीच तो मेरा हाथ इत्ता दुखता न! - बिचारा बाबा, बेबी!
अब्भी तो मैं अक्खा काम शीक गई। कुतरा पन को घुमा के लाती। उसका बाल बनाती, बाथ देती। उसकूँ अंडा उबाल के खिलाती। कुतरा पन खूब मस्त। कपास का गुल्ला सरीखा। मेरा ऊपर लोटता, पोटता, मेरा गोदी में सिर रखके सोता। एकदम शंबू सरीखा। मैं कुतरा का अंडा देती न तो मेरे कूँ शंबू का याद आता। उसको पन अंडा खूब पसंद। पन उसकू किदर मिलता? एक बारी करीम काका खिलाया था, तब से कितना बारी पूछता, नंदा! करीम काका को पूछ न - कब अंडा देगा? मैं हँसती - "करीम काका अंडा नई देता, मुर्गी अंडा देती - खी-खी-खी-खी...।"
एक बारी मैं बाई को बोली - "तुमारा कुतरा खूप मस्त न?"
बाई बोली - कुतरा नईं, टाइगर बोलने का।"
मैं बोली, "तुमारा टाइगर गुड गल्ल न!" खी-खी-खी-खी, बाई पन हँसने को आई।
मेरा बाप वाला अस्पताल एकदम बंडल रे! डाक्टर पर गड़बड़... अक्खा अस्पताल में कित्ता तो डाक्टर - पर मेरा बाप का हड्डी किदर जोड़ के दिया? ...पेले तो हर दिन बोलता था, कल जोड़ेगा, कल जोड़ेगा। फिर एक दिन उसका पाँव काट के पट्टी कर दिया। और दो डंडी देके दवाखाना से हँकाल दिया। मेरा बाप उसी डंडी से उचकता-उचकता खोली पे आ गिरा। अक्खा झोपड़पट्टी का लोग उसकूँ देखने को आया। बड़ा लोग बाप को बच्चे लोग डंडी को। ...सब लोग मेरे बाप को समझाया। पर वो किदर समझा। उसको तो बस रोने का, बस रोने का...।
बाप लोग रोता तो कितना बंडल दिखता न!
आज बाई मेरे कूँ पगार दिया। मैं अक्खा रास्ता खुश-खुश भाग के घर आई। शंबू, कउशी पन खूब खुश - दोनों ताली बजा-बजा के खोली के बाहर नाच करता - नंदा पगार लाई - नंदा पगार लाई...। मैं माँ को बोली - जा गुड़, पाव, जवारी, घासलेट ला न - 'चा' का पाकिट भी - पर माँ तो - मेरा पगार का नोट देखती और रोती, देखती और रोती, फिर मैं माँ को खुश करने को क्या किया मालूम? अपना पाकिट से पाँच का नोट निकाल के माँ को बोली - 'ये देख, इदर बाई पन मेरे कूँ बख्शीश दिया - शाला जइसा-खी-खी-खी-खी - पर माँ किदर हँसती?
पेले मेरे बाप किदर अइसा था? माँ अक्खा दिन काम पे जाती तो बेठ-बेठ के भाजी काटता, चा बनाता। शंबू कउशी को चा रोटी देता। माँ को बोलता-थोड़ा सुस्ता ले, अक्खा दिन अकेली खटती है। फिर पूछता - नंदा पाठ याद किया क्या? उसका ढिबरी में तेल डाला क्या? ...हमारा छोकरी शाणी। टीचर पन बोलती न! ...अच्छा नंदी तू बोल। तेरे को पढ़-लिख के क्या बनने का? ...तू डाक्टर पन बन सकती न। ...बन के क्या करेगी पेले बोल...। मैं बोलती - "तेरा पाँव जोड़ेगी" - खी-खी-खी-खी...।
मेरा बाप कबूतर का माफिक सिर हिलाता। हाँ रे फिल्लम में दिखता नईं? कितना-कितना छोकरा-छोकरी पेले एकदम गरीब होता पन बाद में खूप मेहनत करके, तदबीर लड़ाके मस्त पइसा कमाता। अपना माँ-बाप को सताने वाले को पोलिस में पकड़ता। अरे, ये अपना अमिताभ पेले कइसा था क्या? जंजीर में, कुली में, कितना त्रास मिला उसकूँ? पर बाद में क्या फस्ट क्लास लाइफ बनाया। ...नंदी। तू पन वैसइच करने का। करेगी न... मैं बोली - करेगी बाबा, करेगी, खी-खी-खी-खी...।
पर अब्भी तो एक दिवस, दो दिवस, अक्खा दिवस बेठ-बेठ के मेरा बाप को कंटाल गिया रे। अब्भी वो किदर अच्छा से रैता? माँ को, शंबू, कउशी को, मेरे को अक्खा टाइम गाली बकता। माँ को देखते ही बाघ का माफिक गुर्राता। शंबू, कउशी रोता व झगड़ता या रोटी माँगता तो डंडी खींच के मारता।
आज माँ काम से लौटी तो शंबू कउशी भूखा सो गिया। माँ, बाप को पूछी तो कित्ता जोर से दहाड़ा - हरामी - तू मेरे कू अपना गुलाम समझती क्या? मैं तेरा पिल्ला पालने कू बइठा इधर? मेरा टाँग तोड़ के घर में बिठा दिया और अपना अक्खा दिन मस्ती करती। मेरे को लँगड़ा, लूला, कुतरा का माफिक समझी! मैं फोकट में खाता न...!
माँ रोती थी - मैं तेरे को कब्भी अइसा बोली क्या?
बाप बोला - तू नईं बोली तो क्या - अक्खा झोपड़पट्टी का लोग तो बोलता...।
देवा रे! आज मैं कित्ता पाप किया न! चोरी किया। मालूम कइसे? टाइगर को अंडा उबाल के देती थी न तो क्या मालूम कइसे मेरे कू लालच आ गिया। मैं एक टुकड़ा अंडा कागज में बाँध लिया। शंबू का वास्ते। ...पन पीछे बाबा देखता था। चिल्ला के बाई को बुलाया -मम्मा! नंदा चोरी करती। मेरे टाइगर का अंडा चुराया, पूछो इसको। पीछे बाई बौत गुस्सा किया।
"तेरे कू शरम नई? - बिचारे जानवर का अंडा चुराती? चोरी करती? अब्भी तू कभी टाइगर का अंडा, दूध, मीट कुछ भी चुरा के खाएगी तो मैं तेरे को पोलिस में दूँगी।"
पोलिस, थाना, डंडा!!
मेरा हाथ-पाँव काँपने को आया।
बाई बोली - अब्भी हाथ काँपने का नईं। फटाफट झाडू-पोंछा, भांडी सलटा।
मैं भाग के गई। भांडी घसा। झाड़ू मारा। पोंछा किया, पर अक्खा दिन कोई बेल मारता तो मेरे कू लगता पोलिस आया।
मैं अक्खा दिवस काम करती, रोती। काम करती, रोती।
शाम को बाई बोली - "रो मत - ले, चा पीले।"
मैं डर के पूछी - "तुम पोलिस नई बुलाएगी न!"
बाई बोली - "नई।"
बाई अच्छी न! पोलिस नईं बुलाया।
अबी तो मेरा बाप हर दिन लफड़ा करता। माँ का, मेरा पगार का पइसा निकाल के दारू पी जाता। रात को सब को सोने के बाद घिसट-घिसट के जाता - और दारू पी के किदर भी पटरी पे, सड़क पे पड़ा रहता। आज भी एक छोकरा उठा के डाल गया। माँ को बोला - "कुंडा चढ़ा के रखा कर लँगड़े को - नईं तो किसी दिन टिरक-फिरक के नीचे आ जाएगा।"
"लँगड़ा...?" माँ शेरनी का माफिक चिल्लाई - "तुम उसकू लँगड़ा बोलने वाला कौन होता - वो चुंगी का सड़क पे पड़ा था, तुम्हारा बाप का सड़क पे नईं न... तुम कू कौन बोला था उस पे रहम करने को, उठा के लाने को...।"
छोकरा हक्का-बक्का बाहेर जा के बोला - "क्या अउरत है - एक तो उसका मरद को उठा के पौंचाया - उपर से आँख दिखाती है, लँगड़ा क्यों बोला... लँगड़ा को लँगड़ा नईं बोलेगा तो क्या बोलेगा - बोलो तो?"
बोलूँ, सुनंदा छोकरी का बाप खी-खी-खी-खी...।
अभी तो मैं तीन-तीन अटैची, बाटली और डब्बा लेके पौंचाने जाती - मालूम कैसे? गया महीना न, बाजू के बँगले वाली बाई ने पूछा - आपकी छोकरी नंदा, मेरी बेबी का भी अटैची पोंचा देगी? ...मैं बीस रुपया देगी उसको...। बाई बोली, उसको नईं, आप मेरे को ई देना... मैं उसकी पगार के साथ दे देगी... पर महीना बीतने पर मैं बीस रुपया जास्ती माँगी न तो बाई को बौत दुख हुआ। ...बोली, मैं तेरे को अपना बेबी सरीखा रखती न? (हाँ, रखती तो - बेबी का जूना स्कट, फ्रॉक देती) और तू मेरे से पइसा का हिसाब माँगी? तुम लोग को हर बात में बस पइसा...
मैं बोली - सॉरी बाई...।
बाई बोली - गुड गल्ल...।
रात अक्खा झोपड़पट्टी सोता था न तो बाहेर से बौत लफड़ा जइसा आवाज आया। जाग के देखा, माँ-बाप कोनपन नईं। कउशी भी जाग गई। मैं कउशी, शंबू को लेके बाहेर आई। कितना लोग गोला बना के खड़ा-खड़ा हँसता, मस्ती करता था। मैं अंदर घुस के देखा- भीड़ का बीच में मेरा बाप था - दारूखाना के बाहेर वो एक पैर से बंदर का माफिक उचक-उचक के नाचता, गिरता... नाचता। अक्खा लोग मज्जा करता - छोकरा लोग बाजू वाला की पीठ धप्पा मारके वन्स मोर बोलता... बाप फिर नाचता... माँ उसको चुपचाप घर चलने को खींचती पर वो सबको सुना-सुनाके चिल्लाता - "अबी देखना जैंटलमैन, सा'ब लोग - इस अउरत को - इसकूँ हिक्क् - कोई लँगड़ा का बीबी नईं बोलने का - ये बड़ा इज्जत वाला है - हिक्क्-नई तो ये न... हिक्क्, जान दे देगा अपना। आप लोग जानता नईं, क्या-क्या डायलाक बोलती ये अउरत। हिक्क्, एकदम फिल्लम जइसा "जबी मेरा टाँग था, मैं अक्खा जिंदगी इसकूँ, इसका अंडा-बच्चा को खिलाया। अबी मेरा टाँग कट गिया, लँगड़ा, लूला हो गया तो हिक्क् - फिल्म की हीरोइन सरीखा डायलाक बोलती - कि हिक्क्, बाहेर जाने का नई हिक्क्, अबी अपन क्या बोलेगा - लँगड़ा-लूला न... जा भाई जा, तू अक्खा दिन किदर-किदर मस्ती मार-पर मेरे को घर में जानवर का माफिक घिसटने को नईं, क्या? अबी मेरे कू पन कमाई करने का - मैं एक टाँग पे कमाई करके इसकू दिखाएगा - हिक्क्..."
माँ, बाप को खींचते-खींचते थक कर जाने कब चली गई। बाप वइसा ही टिक्-टिक् नाचता रहा। फिर रुक के कादरखान सरीखा डॉइलाक बोला - नईं - अइसा नईं - अबी आप जैंटलमैन लोग... हिक्क्... पीने का पइसा देगा तबीच नाच करेगा... दो-चार लोग मस्ती मारने को वास्ते सचमुच दस-बीस पइसा फेंका। बाप लड़खड़ाता हुआ एक टाँग से फिर नाचना शुरू किया - लाओ बाबू - हिक्क्... हम भी अपना अउरत को कमाई करके दिखाएगा! अबी अपन पइसा से पिएगा... हिक्क्... ईमान-धरम से पीएगा... हिक्क्... रात को खाओ-पिओ... हिक्क्... दिन को आ...।
आऽऽ..ग। आजू-बाजू का घर से दो-तीन लोग चिल्लया... भीड़ का लोग बाप को ठेलता-पेलता इधर-उधर भागा।
वो आग मेरी माँ ने लगाया था, मिनट भर में मेरा झोपड़ा करीम काका की भट्टी सरीखा दीखता था।
धड़-धड़ पुलिस का जाली वाला गाड़ी आके रुका। पुलिस, थानेदार सब खटाच्-खटाच् बूट मारता उतरा। मेरी माँ को निकाल के गाड़ी में डाला उसका हाथ उठाया। कान का पास लगाके बोला - खल्लास...। थानेदार दारूखाना का पास पड़ा मेरा बाप को भी अपना बूट से जोर का ठोकर मारके गाड़ी में डलवा दिया। अबी किदर भी कोई नहीं था... सब खल्लास।
सिरफ चुंगी इस्कूल का छोकरा-छोकरी लोग लाइन बनाके प्रार्थना करता था -मझधार से तू कर दे बेड़ा पार - दुनिया के पालनहार...।
मैं ताबड़तोड़ हिरवा फाटक बाले बँगले पे गई - बाहर के दरवाजे से बाबा, बेबी देखा। ...जा के बाई के कान में फुसफुसाया - "नंदा आई - बाहेर खड़ी"। बाई बाहेर आके बोली - नंदा! तुम्हारा माँ-बाप दोनों खलास गिया... चच्च बेचारी - पन अब्भी हमको काम नईं माँगता। हम लोग छुट्टी जाता। मैं तेरा पगार देती, अच्छा! बाई पगार दिया। मैं खड़ी रही। बाई बोली - और कुछ चाहिए? मैं पूछी - तुम मेरे कू दो बोरी पन देगी क्या?
वो बोली - हाँ-हाँ देगी...।
बाई मेरे कूँ दो बोरी दिया।
बाई अच्छी न!
मैं वो दोनों बोरी कउशी, शंबू को लाके दिया। अब्भी वो दोनों खुशखुश उसमें दिन-भर कचरा चुनता।
मैं चुंगीवाला इस्कूल में जाती। मेरी पैली वाली भानू टीचर मेरे कूँ आज देखी - वो मेरे को पेचानी तो प्यार से पूँछी - अरे, नंदा तू? फिर पढ़ने को आई क्या, शाला में?...
मैं बोली - नईं, झाडू देने को - खी...।
अरे, मेरे हँसने को क्या हुआ रे? मैं कितना कोशिश किया पर हँसने को आयाच नहीं।
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