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हिंदी साहित्य की पुरस्कार परंपरा

सूर्यबाला

हिंदी साहित्य के लेखकों को दो प्रमुख श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है - एक, पुरस्कृत लेखक और दुसरा, अपुरस्कृत लेखक। मोटे तौर पर पुरस्कृत लेखक वे होते हैं गालियाँ लिखते हैं और अपुरस्कृत लेखक वे होते हैं गलियाँ देते हैं। इसके पीछे भी बड़ी समर्थ और सुदीर्घ परंपराओं का हाथ होता है। पुरस्कृत लेखक गालियाँ कैसी और कितनी लिखते हैं, यह उनके गहन चिंतन, जीवन दर्शन, रुचि और दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। साथ ही उन्हें मिलानेवाले पुरस्कारों की शर्तों पर भी। कुछ पुरस्कार तो गालियोंवाले साहित्य के लिए आरक्षित ही रखे जाते हैं, जिस तरह कुछ फिल्में मात्र वयस्कों के लिए।

ठहरिए, थोड़ी भूल हो गई। अपुरस्कृत लेखकों की भी दो श्रेणियाँ होती हैं। एक, वे लेखक जो पुरस्कारों पर टूटते लेखकों को देखकर यह सोचकर दुखी होते हैं कि हे ईश्वर! यह बेचारा नहीं जनता कि यह अपनी कलम के लिए कितना बड़ा खतरा उठाने जा रहा है। दूसरे, वे लेखक जो यह सोचकर दुखी होते है कि काश! खतरा उठाने का यह मौका मुझे मिला होता।

यूँ जहाँ तक दुखी होने का सवाल है, पुरस्कृत लेखक भी होते हैं, बल्कि अपुरस्कृतों से ज्यादा ही। क्योंकि जहाँ अपुरस्कृत लेखक सिर्फ यह सोचकर दुखी हो लेता है कि मुझे पुरस्कार क्यों नहीं मिला, वहीं पुरस्कृत लेखक यह सोच-सोचकर अनवरत दुखी होता रहता है कि अमुक पुरस्कार मुझे इतनी देर से क्यों मिला? चार-छह या आठ साल पहले क्यों नहीं मिला? और मुझे मिला तो मिला, औरों को भी क्यों मिला? उन लोगों वाले पुरस्कार भी मुझे मिल जाते तो क्या हर्ज था? उसका पुरस्कार मेरे पुरस्कार से ऊँचा कैसे हैं? आदि। निष्कर्ष, अपुरस्कृत लेखकों के दुख एक, पुरस्कृतों के अनेक।

हाँ, दोनों ही श्रेणी के लेखकों में समानता सिर्फ एक होती है कि हर पुरस्कृत या अपुरस्कृत लेखक के हिसाब से, उसके सिवा बाकी सारे लेखकों का लेखन अप्रतिबद्ध, अपरिपक्व, अस्तरीय तथा खारिज कर देने लायक होता है।

खैर, ये तो हुए कुछ उच्च स्तरीय सैद्धांतिक और वैचारिक मुद्दे। अब इनकी चर्चा छोड़, चलें हम झाँसी के मैदानों में... जहाँ पुरस्कार तथा अपुरस्कार, दोनों सेनाओं के तंबू आमने-सामने तने हुए हैं। सरगर्मी दोनों तरफ है। क्या कहा? फलाँ के लिए फलाँ पुरस्कार की घोषणा हो गई। और हमारे ट्रस्ट-ट्रस्टी, न्यास-न्यासी और अकादमियाँ अगले-के-अगले साल पर टालते सोते रह गए! साहित्यकार की तो खैर कोई बात नहीं, पर पुरस्कार तो हमारे पुरस्कार से पहले और ज्यादा सुर्खियाँ समेत ले गया न।

खैर चलो, अपन भी दिए डालते हैं। कर दो घोषणा। और हाँ, पुरस्कार की राशि भी उस वाले पुरस्कार से पच्चीस रुपये ज्यादा कर दो। सुर्खियाँ बटोर लो। जितना कवरेज उस वाले पुरस्कार को मिला उससे कम हमें न मिलने पाए। पुरस्कार हम साहित्यकार की श्रेष्ठता या महानता दिखने से ज्यादा अपने पुरस्कार की श्रेष्ठता दिखने के लिए देते हैं। श्रेष्ठ साहित्यकार नहीं होता, श्रेष्ठ पुरस्कार होता है। और ऐसे किसी श्रेष्ठ पुरस्कार को पाकर ही साहित्यकार श्रेष्ठता को प्राप्त होता है। वह अगर महान बन गया या माना गया तो अच्छा लिखने के कारण नहीं वरन पुरस्कार मिलाने के कारण। जैसे ही किसी नामी पुरस्कार का वरदहस्त लेखक पर पड़ा, चारों तरफ, हर खेमे में खलबली मच जाती है। चैन की नींद सोती पत्र-पत्रिकाएँ, लेखक-समीक्षक, रेडियो-दूरदर्शन और साक्षात्कारी खाटी-पाटी छोड़ उठ दौड़ते हैं। पीछे-पीछे प्रकाशक और फुटकरिए भी अपने शाल-दुशाले और श्रीफल लिए क्यू में आ खड़े होते हैं। बेचारा लेखक भी उनको, कभी उनके दुशाले और श्रीफल को देखता हुआ सोचता है - आप लोग अब तक कहाँ थे बंधु?

बहरहाल, पुरस्कारों का कारवाँ गुजरता है। गुबार उड़ती है अपुरस्कृतों के खेमों की तरफ। आखिर कब तक सब्र किया जाए? तो बाकी बचे बंधु भी धूल झाड़कर खड़े हो जाते हैं। आनन-फानन में पुरस्कार लेने के बदले पुरस्कार देने की योजना बना डालते हैं। हर लेखक अपने पिता, पुत्र, पत्नी (दिवंगत होने की ही स्थिति में) के नाम से एक पुरस्कार घोषित कर उसे तत्काल अपने एक मित्र के नाम आवंटित कर देता है। पुरस्कृत मित्र भी ठीक यही प्रक्रिया दोहराता है और इस प्रकार कालांतर में दूसरा मित्र भी अपुरस्कृत रह जाने के कलंक से मुक्ति पा लेता है। निरंतर प्रगति हुई यह प्रक्रिया तेजी से लेखकों की एक विशाल जनसंख्या को पुरस्कृत करने की दिशा में सेवारत है। इसका दावा है कि अगले कुछ वर्षों में हिंदुस्तान में गरीबी, भुखमरी आदि चीजें मिटें-न-मिटें, अपुरस्कृत लेखकों का नाम जड़ से मिटा दिया जाएगा। सारी दुनिया हिंदुस्तान के किसी अपुरस्कृत लेखक का मुँह देखने को तरस जाएगी।

पर फिलहाल तो हैं ही। अकसर मेरे पास आते भी हैं, प्रकारांतर से यह पूछने कि पुरस्कार न मिलने के दुख से किस प्रकार मुक्ति पाई जाए? उपाय के तौर पर मैं उन्हें सुझाती हूँ कि अपनी पुस्तकें पुरस्कार-ट्रस्टों और योजनाओं को न भेजकर। ऐसे में आप स्वयं और दूसरों से यह कहने के लिए पूर्ण स्वतंत्र हैं कि मैंने अपनी पुस्तक ही नहीं भेजी थी तो पुरस्कार कहाँ से मिलाता!

तब नवोदित बताते हैं कि क्या करें, न भेजने पर कुछ संस्थाएँ और योजनाएँ पहले हठ फिर धमकी भरे पत्र भेजने लगती हैं, जिसका आशय कुछ इस प्रकार का होता है कि देखिए, आपकी सेवा में भेजा जानेवाला यह तीसरा पत्र है। हम पहले ही सूचित कर चुके हैं कि हम अपनी पुरस्कार योजना के अंतर्गत आपको पुरस्कृत करने का दृढ़ संकल्प और पक्का इरादा कर चुके हैं। अतः पत्र पाते ही कृपया अपनी पुस्तकों की चार-चार प्रतियों का पूरा सेट अथवा एकाध पुस्तक ही सही, अविलंब भेजें। यदि आपकी कोई कृति प्रकाशित न हुई हो तो हमारी सहयोगी पत्रिका की कहानी प्रतियोगिता के लिए एक (कोई भी, कैसी भी) कहानी ही भेजें। हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि पाँच रुपये से लेकर पचास रुपये तक के अन्यान्य पुरस्कारों में से एक-न-एक आपके हक में जाएगा ही। कृपया शीघ्रता करें। नोट - पुस्तकें न भेजने, प्रतियोगिता में भाग न लेनेवाले अप्रतियोगियों को घातक परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं।

इस धमकी से डरा-सहमा लेखक उक्त प्रतियोगिता के लिए सही अर्थों में एक करुण कहानी लिखने बैठता ही है कि पोस्टमैन कुछ और 'व्यक्तिगत' 'गोपनीय' पत्र दाल जाता है, जिनके अनुसार उसे उक्त प्रतियोगिता में भाग लेने के घातक परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। दोनों ध्रुवों पर भुगतने की नियति के बीच फँसा बेचारा लेखक सलमान रश्दी का तहखाना या सद्दाम हुसैन का बंकर तलाशने लगता है। इस प्रकार आज के साहित्य में व्याप्त आतंक, वेदना और विसंगतियों का मूल स्रोत हिंदी साहित्य की पुरस्कार परंपरा के किसी छोर से ही फूटता है।

बहरहाल, निष्कर्षतः हिंदी साहित्य की श्रीवृद्धि में इसकी पुरस्कार परंपरा का अपना अलग महत्व है। इसने लेखक और लेखक तथा लेखक, संपादक और पत्रकारों के बीच परस्पर भाईचारे की भावना को बढ़ाया है। तू मेरे नामवाला पुरस्कार ले और अपने नाम वाला मुझे दे। इस प्रकार पुरस्कार लेते और देते हुए हम दोनों एक-दूसरे को समृद्ध करते रहें, साहित्य समृद्ध हो, न हो।

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