कई बार हम चाह कर भी अपने जज़्बातों पर काबू नहीं रख पाते और ज़हन में भारी कशमकश और हाँ.. ना से निरंतर जूझते हुए दिल के हाथों मजबूर हो कर ठीक उसी रास्ते पर चल पड़ते हैं जो हमारे लिए हितकर नहीं हैं। ऐसी ही कशमकश..ऐसी ही दुविधा..ऐसी ही हिचक से दो चार होने की कहानी को लिखा है लेखिका भूमिका द्विवेदी ने अपने नए उपन्यास "नौशाद" में।
इस उपन्यास में मुख्य तौर पर कहानी है नफ़ीसा, शाहनवाज़, नौशाद और परवीन की। शायरी लिखने पढ़ने की शौकीन वो खूबसूरत नफ़ीसा, जो निज़ामाबाद के मरहूम रईस निज़ाम शाहनवाज़ अब्बासी की बेवा है। निकाह के एक साल के बाद ही उसका पति, शाहनवाज़ एक कार हादसे में मारा जा चुका है और उसकी हत्या का शक, नफ़ीसा को अपने मायके वालों पर ही है।
कहानी का एक अन्य मुख्य किरदार है नौशाद। वो नौशाद, जो एक मशहूर रंगकर्मी प्रोफ़ेसर है जिसके शिष्य नाटक के क्षेत्र में देश विदेश में काफ़ी नाम कमा चुके हैं एवं कमा रहे हैं। नौशाद की बीवी परवीन, एक छोटे कद काठी की मोटी सी महिला है और वह अपना घर और बच्चों संभालने के अलावा थिएटर से जुड़े कार्यक्रमों को भी सफलतापूर्वक चला रही है।
कहानी की शुरुआत होती है परवीन द्वारा नफ़ीसा को उसी के मरहूम शौहर की याद में निज़ामाबाद में किए जा रहे एक भव्य कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित करने से। जिसे लंदन में रह रही नफ़ीसा सहर्ष मान लेती है मगर नफ़ीसा को भला क्या पता था कि उसकी आगे की ज़िन्दगी अब किस नयी करवट बैठने लगी है?
मानसिक अंतर्द्वंद्व, उठापटक, झिझक और तमाम तरह की जद्दोजहद के बीच बार बार फ्लैशबैक में पहुँचती नफ़ीसा और हर बार शाहनवाज़ के साथ उसकी मुलाकातों और इश्क की दास्तान को कुछ आगे बढ़ाती नफ़ीसा। वो नफ़ीसा, जिसे परवीन के शौहर, नौशाद से इस कदर इश्क हो जाता है कि वो अपना सब कुछ छोड़, इस शर्त पर नौशाद की पूरी तरह से हो जाना चाहती है कि वह अपनी पत्नी परवीन को छोड़, हमेशा के लिए उसे अपना ले। मगर दो नावों पर सवार नौशाद क्या अपने बीवी बच्चों की अनदेखी कर ऐसा करने की हिम्मत दिखा पाता है?
इसमें कहानी है पारिवारिक द्वेष के चलते धोखे से जायदादें हड़पने और उन्हें पुनः वापिस पाने के प्रयासों की। इसमें कहानी है प्यार-मोहब्बत..जलन..ईर्ष्या और कर्तव्य की बीच सैंडविच बन असमंजस में डोलते..पिसते नौशाद के अंतर्मंथन की। इसमें बातें है राजनीतिक उठापटक के बीच लालच..लंपटता, व्यभिचार एवं भ्रष्टाचार की।
इस उपन्यास में एक तरफ जहाँ रोमानी पलों का लेखन मन मोहने वाला बढ़िया लगा तो वहीं कुछ जगहों पर, जहाँ व्यंग्य अथवा तंज कसे गए, का लेखन बेहद साधारण और खामख्वाह खिंचा हुआ लगा। भाषा की दृष्टि से अगर देखें तो मुख्य रूप से हिंदी और उर्दू के शब्द जिनमें कहीं कहीं अंग्रेज़ी के शब्द भी बीच बीच में अपनी हाज़िरी लगा जाते हैं, कहानी को रोचक और पढ़ने योग्य बना रहे हैं। लेकिन उपन्यास में ऐसे बहुत से किरदार दिखे जो कि पाठक को कहानी के साथ साथ कन्फ्यूज़ करते हुए चंद वाक्यों में, अपनी गैरज़रूरी मौजूदगी दिखाने के बाद अचानक से बिना किसी चेतावनी या अंदेशे के विलुप्त हो जाते हैं।
यूपी के मुख्यमंत्री के तौर पर जोगी जी से मुलाकात का पूरा चैप्टर तथा राजशेखर नाम का एक किरदार गैरज़रूरी लगा। या फिर इनके रोल को विस्तृत कर, इनके साथ पूरा न्याय किया जाना चाहिए था। प्रूफ़ रीडिंग की कमियों के चलते कुछ वाक्यों के बीच में छूटे हुए या फिर बहुत से ग़लत छपे शब्द दिखाई दिए जैसे...
*नफ़ीसा और राजशेखर शुक्ला उसी लड़की श्रद्धा की मध्यस्थता से मिले थे।(पेज नम्बर 67)
- मध्यस्थता तो विवाद के समय मसला सुलझाने के लिए की जाती है जबकि यहाँ दोस्ती करवाने की बात थी।)
• किताब के विमोचन का चैप्टर हालांकि थोड़ा व्यंग्यात्मक लगा लेकिन उसकी इस उपन्यास में मौजूदगी गैरज़रूरी लगी।
सफल लेखन के लिए हर लेखक में एक निर्दयी संपादक का होना बेहद ज़रूरी है जो उसके लेखन से खरपतवार वगैरह को काट छाँट कर अलग कर सके। दरअसल लिखते वक्त लेखक फ्लो याने के बहाव में जिधर कहानी ले चलती है, उधर ही बहा चला जाता है। मगर असली कौशल तो यही है कि अंत तक पहुँचते पहुँचते कहानी को वापिस अपने काबू में कर, पूरी तरह से समेट लिया जाए।
उम्मीद है कि इन कमियों को आने वाले संस्करणों एवं अन्य किताबों में दूर कर लिया जाएगा। बतौर पाठक मुझे लगता है कि इस उपन्यास पर अभी और काम किया जाना चाहिए।
133 पृष्ठीय इस उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है डायमंड बुक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 199/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।