मेरा पति तेरा पति - 10 - अंतिम भाग Jitendra Shivhare द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मेरा पति तेरा पति - 10 - अंतिम भाग

10

एक साल के बाद ज्योति पहले से अधिक ठीक दिखाई दे रही थी। उसका हीमोग्लोबिन भी सामान्य हो चुका था। सबकुछ ठीक था। अविनाश उसे लिवाने आ पहूंचा। ज्योति को अपनी दोनों बच्चीयों के भविष्य के लिए एक बार पुनः ससुराल जाना पड़ा।

रमाबाई तो जैसे तैयार ही बैठी थी। ज्योति के आते ही उन्होंने बेटे का रोना रो दिया। अविनाश और ज्योति न चाहते हुये भी तैयार थे। 'अब की बार बेटा होना चाहिये' रमाबाई का ये कढ़ा संदेश दीवारों से टकरा-टकराकर ज्योति के कानों को भेदते हुये उसके सीने को छलनी कर जाता। ज्योति पांचवी बार मां बनने को तैयार थी। आंगनवाड़ी कार्यकर्ता को रमाबाई ने उचित धन-धान्य देकर ज्योति की समुचित देखभाल और सभी आवश्यक जांचें स्वय करवाने के लिए मना लिया ताकी उन्हें या अविनाश को भागा-दौड़ी न करनी पड़े। जननी एम्बुलेन्स को नगर में आता देख कोई भी बता सकता था की यह ज्योति के ही लिए आयी है। कुछ महानुभाव तो यहां तक कह गये की उन्होंने ज्योति को जब भी देखा, गर्भवती अवस्था में ही देखा। रमाबाई को इन सब से कोई फर्क नहीं पड़ता। ऑपरेशन थियेटर के बाहर रमाबाई व्याकुल खड़ी थी।

"मां जी! मैंने आपको पहले ही समझाया था कि अब ज्योति का सीजर करने का अर्थ है उसकी जान लेना। हम पहले ही जगह-जगह से उसका पेट काटकर सील चुके है। अब बच्चा कहां से निकाले?" डाॅक्टर खड़ी बोली बोला। वह पसीने में नहा चुका था।

"डाॅक्टर साहब! आप चिंता न करे। वो मरती है तो मर जाने दो, लेकिन उसके पेट का बच्चा बचना चाहिये। बाबा ने कहा है कि इस बार लड़का ही होगा।" रमाबाई ने दबी आवाज़ में कहा।

इससे पहले की डाॅक्टर कुछ कह पाते उनके हाथों में नोटों की गड्डी आ चुकी थी जिससे की उनका मुंह बंद हो गया। भारी रिस्क के साथ ऑपरेशन शुरू हुआ। गंभीर प्रसूति विशेषज्ञ बुलाये गये। विषम परिस्थितियों के बाद कहीं जाकर ज्योति के पेट में से जीवित बच्चा निकाला गया। यह भी बेटी ही थी। रमाबाई तो मारे क्रोध के ढोंगी बाबा को गालियाँ बकने लगी। उसने वही घोषणा कर दी की ज्योति और उसकी बच्चियों के लिए अब उसके घर में कोई जगह नहीं है। ज्योति की आंखें झर्र-झर्र बह रही थी। अविनाश चूपचाप हाथ बांधे खड़ा था। दीपा और रोशनी, दोनों बहनें अपनी मां का हौंसला बढ़ा रही थी।

"मां! मैं हूं न! मैं तुम्हारा ख्याल रखूंगी।" दीपा बोली। वह ज्योति के आसूं पोंछ रही थी।

"मैं भी!" रोशनी बीच में बोल पड़ी।

"पापा! दादी तो हमें घर में आने नहीं देंगी, क्या आप कभी-कभी हमसे मिलने आया करेंगे?" दीपा ने अविनाश से लिपटकर कहा।

अविनाश की आंखें भीग चूकी थी। वह दीपा को दुलारने लगा।

"तुम सभी मेरे प्राण हो! जहां तुम रहोगे वहीं मैं रहूंगा।" अविनाश सुबक रहा था।

अविनाश के ये शब्द ज्योति के शरीर में ऊर्जा का संचार करने के लिए पर्याप्त थे। नवरात्रि नजदीक थी। उसने निर्णय लिया की इस बार भी दुर्गा पुजा वह अपने ससुराल में ही करेगी।

ज्योति की ज्योत इतनी तेज थी जिसके आगे रमाबाई का विरोध रूपी क्रोध टीक न सका। ज्योति ने आत्मनिर्भर बनने का संकल्प लिया और अब से बच्चें पैदा करने की मशीन बनने से साफ इंकार कर दिया। तीनों बेटीयों की परवरिश में उसने अपना ध्यान लगाने का निश्चय किया। ज्योति का विरोध समुचे नगर में चर्चा का विषय बना। अब उसकी पहचान मात्र एक गर्भवती के रूप में नहीं थी वरन अपने हितो की सुरक्षा और आत्मसम्मान के लिए लड़ने वाली जागरूक और आत्मनिर्भर ज्योति के रूप में थी।

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