जहाँ ईश्वर नहीं था - 2 Gopal Mathur द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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जहाँ ईश्वर नहीं था - 2

2

अरे ! शीशे में यह कौन था ! इतने भद्देे से कान, खिचड़ी से बाल, किसी फटे हाल भिखारी सी आँखें......... शीशे में से मेरा चेहरा भी मुझे पहचान नहीं पा रहा था. इतनी वीरानी तो पहले कभी इस चेहरे पर नहीं थी. क्या मुझमें कोई और आकर रहने लगा था ?

मैं यह सब सोच ही रहा था कि रेज़र में ब्लेड डालते हुए मेरी अँगंुली कट गई और खून बहने लगा. मैं अपने बहते खून को वाॅश बेसिन में टपकते हुए देखता रहा. मुझेे आश्चर्य हुआ कि न तो मुझेे दर्द महसूस हो रहा था और न ही कोई परेशानी. मैं चुपचाप अपने बहते खून को देखता रहा. पूरा वाॅश बेसिन लाल हो गया था.

तभी पत्नी वहाँ आई और इतना खून देख कर उसकी जोर से चीख निकल गई. पत्नी की चीख मेरेे कानों में पड़ी, तब जाकर मुझेे होश आया.

“यह क्या हो गया ?“ पत्नी ने पूछा.

“क्या हो गया ?“ मैंने पत्नी का प्रश्न दोहराया.

“तुम्हारी अँगुली से खून बह रहा है.“

मैंने बहते खून को इस तरह देखा, मानों पहली बार देख  रहा हाऊँे, “ब्लेड से अँगुली कट गई है. तुम घबराओ मत, मैं डिटौल लगा लेता हूँ.“

पत्नी ने जल्दी से सामने के कैबिनेट से डिटौल और रूई निकाली और मेरी अँगुली में लगाने लगी, “ऐसे कैसे कट लग गया ? तुम अपना जरा भी ध्यान नहीं रखते.“

मैं वहीं एक कुर्सी पर बैठ गया और पत्नी को देखता रहा, जो अब वाॅश बेसिन साफ करने में लगी हुई थी और आदतन लगातार बोले जा रही थी. पहली बार मेरे मन में विचार आया कि मेरी पत्नी जिन्दा थी, पूरी तरह जिन्दा, मेरी तरह सपंदनविहीन नहीं.

हाँ, यही समय है उसे सब कुछ बताने का, मैंने सोचा.

“सुनो, मुझे तुमसे कुछ कहना है.“ मैं धीरे से बुदबुदाया.

पत्नी ने वाश बेसिन की सफाई करते करते अपना सिर मेरी ओर घुमाया, “क्या ?”

पत्नी की निगाहें मुझ पर लगी हुईं थीं. मैं अपनी पत्नी की उत्सुकता का महज़ हल्का सा अन्दाज ही लगा पा रहा था.

”क्या ?“ पत्नी ने अपना प्रश्न दोहराया. वह कुछ सुनना चाह रही थी, कुछ ऐसा, जो उसे पता नहीं था.

एकाएक मुझेे कुछ भी याद नहीं आया कि मैं कहना क्या चाह रहा था, पर अगले ही क्षण मुझेे अपनी विचित्र स्थिति का ख्याल हो आया, ”मुझे लगता है कि मैं मर गया हूँ.“

पत्नी सफाई करते करते सहसा रुक गई और औचक मुझे देखने लगी. फिर जोर से हँस पड़ी, ”तो मेरे सामने क्या तुम्हारा भूत बैठा हुआ है !“

”नहीं, मैं सच कह रहा हूँ.“ मैंने अपनी बात पर कायम रहते हुए स्थिर स्वर में कहा. मेरी आवाज में कोई उत्तेजना नहीं थी, ”मैं मर गया हूँ और जीवित हूँ.“

पत्नी ने इन व्यर्थ की बातों में कोई दिलचस्पी नहीं ली. उसे घर का काम निपटा कर आॅफिस भी जाना था, ”रात को कोई बुरा सपना देखा था क्या ?“

”नहीं, कोई सपना नहीं देखा था...... तुम्हें मेरी बात पर  विश्वास नहीं हो रहा है ?“

अचानक वह अपना काम छोड़ कर मेरे सामने आ बैठी, ”यह तुम्हें क्या हो गया है ? सारी रात बड़बड़ाते रहे थे..... रात को ज्यादा पी ली थी क्या ?“

मैं कल रात की बात याद करने की कोशिश करने लगा, पर यकायक कुछ भी याद नहीं आया, ”तुम जानती हो कि मैं ड्रिंक्स का शौकीन नहीं हूँ. दो पैग से ज्यादा कभी लेता नहीं....... मुझ पर विश्वास करो, मैं सचमुच मर गया हूँ.“

इस बार उसके चेहरे पर चिन्ता की लकीरें उभर आईं थीं. वह घ्यान से मुझे देखने लगी कि कहीं मैं झूठ तो नहीं बोल रहा था, लेकिन चूँकि मैं झूठ नहीं बोल रहा था, इसलिए मेरे चेहरे पर झूठ का कोई भाव नहीं था.

क्या उसे नीला समुन्दर दिख गया होगा ? वह भँवर.... और वह कौवा, जो अपना हिस्सा मांगने आया था ?

”तुम्हें विश्वास नहीं हो रहा न ! पर अभी तुमने देखा न कि ब्लेड से मेरी अँगुली कट गई थी, खून बह रहा था, पर न तो मुझे दर्द महसूस हो रहा था और ही कोई परेशानी हो रही थी.“ मैंने कहा, जैसे छोटी सी यह घटना मुझे मृत सिद्ध करने के लिए पर्याप्त प्रमाण हो.

वह एकटक मुझे देखती रही, संभवतः तोल रही थीे कि मैं किस हद तक उसे परेशान कर सकता था. थोड़ी देर बाद वह उठी ओर मेरे पास आकर बैठ गई. उसने मेरा हाथ अपने हाथों मंे लिया और उस अँगुली को ध्यान से देखने लगी, जिस पर रूई का फाया अभी भी लगा हुआ था. अचानक उसने मेरी कटी हुई अँगुली को जोर से मरोड़ा. रुका हुआ खून फिर से बहने लगा था. इस बार भी पहले की तरह मुझे कोई दर्द महसूस नहीं हो रहा था.

“कुछ महसूस हुआ ?“ उसने पूछा.

”कुछ भी नहीं.....“

“मुझे लगता है, तुम्हें किसी डाॅक्टर को दिखाना चाहिए.“

”डाॅक्टर...... ?“

”किसी साइकिएट्रिस्ट को..... एक साइकिएट्रिस्ट ही तुम्हारा इलाज कर सकता है.“ पत्नी ने अपना निर्णय सुनाया, ”मैं हितेश से बात करती हूँ.“

हितेश, यानि कि डाॅक्टर हितेश, मेरी पत्नी का स्कूल फ्रेन्ड.

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हितेश के प्रति मेरी धारणा विशेष अच्छी नहीं थी. मुझे हमेशा लगता था कि मेरी पत्नी और हितेश के बीच कुछ चल रहा था, कुछ ऐसा, जो नहीं चलना चाहिए था. हालांकि इसका कोई ठोस सबूत मेरे पास नहीं था. बस, एक बार मैंने उन दोनों को एक रेस्टोरां में अकेले लंच लेते हुए देखा था, जिसका उसने मुझसे कभी कोई जिक्र नहीं किया था.

पर उस दिन पत्नी की हितेश के यहाँ जाने की घोषणा के बावजूद भी मेरे मन में हितेश के प्रति कोई दुर्भावना पैदा नहीं हुई थी और न ही मेरे मन में पत्नी पर किसी प्रकार का गुस्सा या द्वेष उत्पन्न हुआ था. मैं निर्विकार बैठा रहा, जैसे वह मेरी पत्नी नहीं, किसी दूसरे की पत्नी हो.

इसका एक मात्र कारण यह था कि मैं भी कमरे में रखे सोफे, टीवी, कम्प्यूटर, मेज़, कुर्सियों की तरह सामान में बदल चुका था. अन्तर केवल इतना था कि मैं चल फिर पा रहा था, बातें कर पा रहा था..... पर केवल इतने भर से आप किसी को जीवित तो नहीं मान सकते न ! मुझे कोई उम्मीद नहीं थी कि डाॅक्टर कुछ कर पाएगा.

जब हम डाॅक्टर के क्लीनिक पहुँचे, वहाँ पहले से ही कुछ मरीज बैठे हुए थे. उनके चेहरे वैसे ही थे, जैसे प्रायः अस्पतालों में पाए जाते हैं. चारांे ओर फिनायल की गंध फैली हुई थी. दीवारों पर मानसिक बीमारियों सम्बन्धित चार्ट लटके हुए थे, जो सान्त्वना देने के लिए कम, डराने के लिए ज्यादा थे.

काउन्टर पर बैठी तीन आँख वाली लड़की ने पत्नी को देख कर मुस्कराई. तीसरी आँख से वह, वह सब देख लेती थी, जो अन्यथा नहीं देखा जा सकता था. वह पत्नी को पहचानती थी. उसने पत्नी को संकेत कर अपने पास बुलाया और बोली, ”मै‘म, डाॅक्टर साहब ने आपको ऊपर बुलाया है.“

”ओके.“ पत्नी ने कहा.

डाॅक्टर का घर क्लीनिक के ऊपर ही था. ख़ास मिलने वाले मरीज़ों को वह ऊपर ही देखा करता होगा, मैंने सोचा. पत्नी उसके लिए ख़ास रही होगी. वह मेरे आगे आगे चल रही थी. वह क्लीनिक के सारे रास्ते जानती थी. क्लीनिक के सारे गलियारे, दरवाजे, खिड़कियाँ उससे बात कर रहे थे, जो इस बात का गवाह थे कि वह यहाँ प्रायः आया जाया करती है. देखा जाए तो मेरी इस इस खोज से मेरी पत्नी और हितेश के सम्बन्धों को लेकर मेरा संदेह गहरा जाना चाहिए था, किन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ. मैं तटस्थ भाव से पत्नी के पीछे चलता रहा.

सीढ़ियाँ सीधे हितेश के ड्राॅइंग रूम में खुलती थीं. पीछे की ओर खिड़कियाँ थीं, जहाँ से वह नीला समुन्दर दिखाई दे रहा था, जिसे सुबह मैंने अपने घर की छत पर देखा था. वह काला कौवा भी वहीं कहीं होगा, पर मुझे दिखाई नहीं दिया.

हितेश हमारी ही प्रतीक्षा कर रहा था. उसकी पत्नी भी वहीं थीं. हम सोफे पर बैठ गए. सोफा दर्द से बिलबिलाया. केवल एक मैं ही  उसकी बिलबिलाहट सुन सकता था. मुझे लगा, जैसे कुछ कबूतर भी सोफे की कैद से आजाद होकर खिड़कियों पर बैठ गए हो.

”हितेश, इन्हें एग्जामिन करो. ये सुबह से ही बहकी बहकी बातें कर रहे हैं.“ पत्नी ने बिना एक क्षण का भी समय गंवाए कहा.

”हुआ क्या है ?“ हितेश ने पूछा.

”इन्हीं से पूछो.....“ पत्नी ने मेरे स्थान पर उत्तर दिया.

हितेश मेरी ओर घूमा. उसने मेरी आँखों में आँखें डालीं और सीधा प्रश्न किया, ”बताइये, क्या हुआ.“

हितेश का प्रश्न मेरे कानों में बजता रहा. मैं उसकी आँखें देख रहा था, जहाँ पिछली रात का सपना अटका हुआ था. क्षण भर के लिए मुझे याद नहीं आया कि मुझे हुआ क्या था ! मैंने हितेश की आँखों में अपनी पत्नी को ढूँढ़ने का प्रयास भी किया, पर बिना किसी ईष्र्या के. पत्नी उसकी आँखों में अपने सम्पूर्ण बनाव श्रृंगार के साथ बैठी हुई थी.

”बताओ न !“ पत्नी का आग्रह से भरा स्वर उभरा.

”क्या बताऊँ डाॅक्टर ! मुझे तो खुद ही समझ में नहीं आ रहा है कि मुझे हुआ क्या है ?“ मैंने अपनी लाचारी प्रकट की. जब आदमी को कुछ समझ में नहीं आता, तब वह बगलें झांकने के अतिरिक्त और कर भी क्या सकता है ! हालांकि मुझे खीज आनी चाहिए थी पर नहीं आई.

शायद पत्नी इस उत्तर की अपेक्षा नहीं कर रही थी, ”नहीं, इन्हें कुछ हुआ जरूर है. ये देखो, सुबह इनकी अँगुली कट गई थी, बहुत सारा खून भी बहा, पर इन्हें कोई दर्द महसूस ही नहीं हो रहा था.“ पत्नी ने एक साँस में अपनी बात कह डाली थी.

”ऐसा कैसे हो सकता है !“ हितेश ने अपनी शंका प्रकट की.

”ऐसा ही हुआ है और वह भी मेरे सामने.“ पत्नी ने अपनी बात पर जोर देते हुए तुरंत कहा.

वह कुछ देर चुप बैठा रहा. फिर गम्भीर आवाज़ में बोला, ”मुझे इनसे अकेले में बात करनी होगी.“

यकायक सन्नाटा छा गया. उनका सीधा सा अर्थ था कि दोनों महिलाएँ वहाँ से उठ कर चली जाएँ. वे दोनों यदि स्वयं उठ कर चली जातीं, तब बात अलग थी, किन्तु जब कोई आपको फोर्सफुली जाने के लिए कहे, तब एक अजीब सी मनःस्थिति हो जाती है.